समकालीन जनमत
पुस्तक

न्यूटन भौंचक्का था: अपने समय को ध्वनित करती कविताएँ

सुरेन्द्र रघुवंशी


ड्यूरेल ने कहा है-” विज्ञान बौद्धिक काव्य है और काव्य भावनात्मक विज्ञान ।” वरिष्ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय विज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं और हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि। उनके नए कविता संग्रह ‘ न्यूटन भौंचक्का था ‘ की कविताएं भी ड्यूरेल के इस कथन को चरितार्थ करती हैं।

हमारे समय में असहमति के लिए स्पेस निरन्तर कम होता जा रहा है। सरकार जनता पर अघोषित रूप से हमलावर है। ऐसे समय में नागरिक अधिकारों के प्रति चेतना और प्रतिरोध अपेक्षित है प्रतिरोध की धार में बहुत कमी है। कवि इसे महसूस करता है –

” जो मैंने कहा/वह कहा तुमने भी/उन्होंने भी/ जो मैंने नहीं कहा/ वह नहीं कहा तुमने भी/उन्होंने भी/ जो इस समय कहा जाना था अनिवार्यतः/उसे न कहने के अपराधी हैं/मैं तुम और वे/ सबसे अधिक मैं।” निरंजन श्रोत्रिय की यह ‘अपराधी ‘ कविता अपने समय के सबसे बड़े सच को रेखांकित करती है। यहां कवि ने प्रतिरोध की ज़रूरत को अपना काव्याधार बनाया है। यह एक कवि का प्रतिरोध है जो मूर्खता और अंधभक्ति की गहरी कुम्भकर्णी नींद  सोए हुए नागरिकों के कान में नगाड़े का काम करता है।

इस दुर्दान्त समय में एक समर्थ कवि ही कोयले की कालिख़ को सत्ता के चेहरे पर पोत सकता है। यह काम अकारण और ग़ैर ज़रूरी नहीं है-
” क्या बढ़ गई है अचानक/ जेल में लकीरें खींचने वाले कैदियों की संख्या/ या कि कम्प्यूटर से ऊबे बच्चों ने/शुरू कर दिया है फिर से नकली मूँछें बनाना/ या कि मूत्रालय की सूक्तियों में/हो रही है लगातार बढ़ोत्तरी/ या कि कोई दलाल ही हज़म कर रहा है सारा कोयला”

यहाँ कविता की भाषा का तंज भी बेहद प्रभावी और रोचक है। कविता पढ़ने की प्रक्रिया में यह भाषा पाठक के लिए उत्प्रेरक का काम करती है।

अपने विस्तारवाद की अमानवीय भूख को शान्त करने के लिए विज्ञान के दुरुपयोग के चलते पूरी दुनिया को विनाश के मुहाने पर ले आए क्रूर राष्ट्रों के वायो वैपन्स के दुष्परिणाम से आहत कवि की आँखों कोरोना जैसी भयानक , विनाशकारी और हृदयविदारक त्रासदी का मंज़र है जिसने भारत सहित दुनिया के असंख्य घर उजाड़ दिए -” मैंने क्यों पढ़ी थी कैमिस्ट्री और बायोलॉजी/ जिसका हश्र कैमिकल और बायोलॉजिकल वारफेयर होना था।”

मैं /एक मनुष्य से नागरिक/ नागरिक से मतदाता/ मतदाता से एक खाली कनस्तर में/तब्दील हो रहा हूँ/”

यह कवि निरंजन श्रोत्रिय की कविता ‘मैं’ का कवितांश है जिसमें मतदाता में बदल दिए गए मनुष्य को मनुष्य के तौर पर बिल्कुल खाली कर दिया गया। खाली कनस्तर की तरह खाली। जो कुछ बज रहा है वह उस मनुष्य की /नागरिक की आत्मा की आवाज़ नहीं है। जो सुनाई दे रहा है वह व्यवस्था का कर्कश भोंपू है।आम आदमी अपने प्राकृतिक और स्वाभाविक आलाप के लिए तरस गया है और जनविरोधी क्रूरतम राजनीती के कानफोड़ू नगाड़े अब राजधानियों में ही नहीं बल्कि देशभर में बलात सर्वत्र सुनाए जा रहे हैं और इसे संगीत कहा जा रहा है। कविता में इस दृश्य को प्रस्तुत कर कवि अपनी राजनैतिक चेतना का विस्तार नागरिकों तक करना चाहता है; जो कि हमारे समय की सबसे बड़ी ज़रूरत भी है।

एक बात तो है कि प्रतिरोध की जिस धार की आज ज़रूरत है समकालीन सर्जकों तक में उस अपेक्षित धार की बेहद कमी है।ब्रेख़्त ने कहा है –“वे नहीं कहेंगे /किवह समय अंधेरे का था/वे पूछेंगे /कि उस समय के कवि चुप क्यों थे?” ब्रेख़्त का यह कथन हमारे लिए कसौटी है। अब यह हमें तय करना है कि हमें इस पर खरा उतरना है या नहीं। अपनी जनपक्षधरता के लिए अन्ततः हम ही उत्तरदायी होंगे। पर यदि हम तटस्थ बने रहने की सुविधा का चयन करते हैं तो हम इतिहास, समय और समाज के प्रश्नों से नहीं बच सकते ,जो हमसे पूछे जाएंगे। इसीलिए सजग कवि निरंजन श्रोत्रिय ने अपने समय , राजनीति घटनाओं और परिस्थितियों पर हमारी चुप्पी को कटघरे में खड़ा किया है-
” जो इस समय /कहा जाना था अनिवार्यतः/ उसे न कहने के अपराधी हैं/ मैं, तुम और वे/ सबसे अधिक मैं।”

‘शामिल’ कविता सोशल मीडिया के वर्चुअल हवाई व्यवहार को बखूबी रेखांकित करती हुई कविता है। ‘समस्या’ कविता समस्याओं के रूपांतरण की कविता है। जनरेशन गैप के निरन्तर बढ़ते रहने की तरह ही समस्याओं और प्राथमिकताओं का बदलना भी एक समान सत्य है।

वरिष्ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय का अपने काव्य में बिम्ब और प्रतीक विधान भी उल्लेखनीय है। यहां प्रकृति का स्वाभाविक मानवीकरण द्रष्टव्य है-
“हवा और बादलों ने/चुपके से भरे अपनी मुट्ठियों में/ इंद्रधनुष के रंग/ और दबे पाँव जाकर/रंग दिए धरती के कपोल” (‘होली’कविता) यह काव्य के सौन्दर्य का चरम है जो कवि के गहनतम जीवनानुभवों और प्रखर प्रतिभा के मिश्रण का प्रतिफल है।
इस संकलन की कविता ‘पहला प्यार’ पहले प्यार  का सुन्दर आख्यान है।

निरंजन श्रोत्रिय के कविता संकलन ‘न्यूटन भौंचक्का था’ की शीर्षक कविता का शीर्षक ‘न्यूटन भौंचक्का था’ न होकर ‘गुरुत्व’ है। यह भी कवि का एक नया प्रयोग है। आमतौर पर कविता संकलनों का शीर्षक  सम्बन्धित संकलन में शामिल किसी ‘एक प्रतिनिधि कविता का शीर्षक होता है –
” इस बार सेब/पेड़ से गिरा तो/हवा में ही लटका रहा/न्यूटन भौंचक्का था/ तब उसने लिखा नया नियम/ पृथ्वी पर मौजूद/आतताइयों की लालच दृष्टि/पृथ्वी के गुरुत्व को / कम कर देती है।”

आतताइयों की इस लालच दृष्टि की पड़ताल एक चेतना सम्पन्न समर्थ कवि ही कर सकता है। हमारे समकाल में विभाजनकारी आतताइयों ने समग्र मनुष्यता पर हमलावर होकर संविधान और लोकतंत्र पर बड़ा प्रहार किया है। ध्रुवीकरण के ऐसे क्रूर समय में कवियों की ज़िम्मेदारी अपेक्षाकृत अधिक बढ़ जाती हैजिसका अहसास कवि को है-
“कैलाश पंडित के खेत में उगे दाने/करीम मियां अपने खेत में बोते हैं/लहलहा उठती है फसल जनाब ! इस अनाज को खाते ही/हो जाता है कुछ लोगों का/हाज़मा ख़राब “

यह कविता साम्प्रदायिकता पर ज़बरदस्त तमाचा है। ध्रुवीकरण का चश्मा लगाए राजनैतिक अंधभक्तों के लिए यह कविता इस वैचारिक मोतियाबिंद के उपचार हेतु बेहतरीन दवा है। इसका सेवन/पाठ ज़रूर करना चाहिए।

” मैं मरा इसलिए/क्योंकि/सामने दंगाइयों की वहशी भीड़ थी/और मैं निहत्था था विचारों के साथ “ मैं मरा यूँ’ कविता में कवि ने अपने समय का सबसे भयानक और विडम्बनापूर्ण सच प्रस्तुत किया है। अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश को दंगों में झोंक देना नया काम नहीं है।
” वह समय/जीवन के स्वाद और रंगों की विदाई का/ख़तरनाक समय होता है “

“दिए आसान सवालों के जवाब इतने विस्तार से/ कि कठिन सवालों के लिए समय ही न बचा “
जैसी दार्शनिक स्थापनाएं अपनी कविताओं में स्थापित करने वाले कवि के इस संकलन को पढ़ना रोचक और खुद को समृद्ध करने के लिए महत्वपूर्ण होगा।

“जीवन नश्वर है/मृत्यु शाश्वत है/ तो मृत्यु के साथ जीना सीखें
…………………………
यह जो जीवन दिखता है/उसके ठीक पीछे खड़ी है मृत्यु अदृश्य/ हम भगाते हैं पूरी उम्र मृत्यु को/ खेत में पक्षियों की तरह “

जन्म और मृत्यु के दो छोरों के बीच की अवधि जीवन है। जीवन की नश्वरता शाश्वत सत्य है। वहीं मृत्यु एक सर्वविदित सत्य है। हम इस सत्य को स्वीकार करते हुए जिएं तो मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है। जीवन को सार्थक करने के लिए हमारी जनपक्षधरता हमारे पास बड़ा अवसर होती है। जीवन के इसी सत्य को कवि की यह कविता रेखाँकित करती है।

पिता के अवसान पर लिखी यह मार्मिक और भावप्रवण कविता पाठक के नेत्रों को सजल कर देती है । हृदय स्मृतियों की वेदना से भर जाता है। परिजन की चिर विदाई की यह बेला हृदय विदारक होती है-
” दसों दिशाओं में से किस दिशा में लिटाऊं पापा आपको/जहां आपको मिल सके इस चिर नींद के बावजूद/ चुल्लू भर सुकून, मुट्ठी भर आराम “

रोजमर्रा के जीवन से किचिन के एक आम दृश्य को लेकर कवि ने बिम्ब का साधारणीकरण कर सार्थक जीवन को परिभाषित कर दिया  प्रकारान्तर से यहां वर्जनाओं के निषेध का प्रबल पक्ष भी है –
“मटर छीलते हुए
आँख बचाकर जो दाने मुंह में डाले जाते हैं/वो है जीवन।”
‘ जन्तर-मन्तर’ कवितांत में वे लिखते हैं –
“लोकतंत्र के शव में
यहां फिर से लौटती हैं साँसे “

इस संकलन में प्रतिरोध की एक महत्वपूर्ण कविता ‘ज़मानत’ भी है । सरकार को डकैतीं, दुर्दान्त अपराधियों तथा बलात्कारियों के लिए जमानत मन्ज़ूर है पर जनवादी-प्रगतिशील  कवियों के लिए ज़मानत मंज़ूर नहीं , जो सत्ता पर सवाल उठाते हैं और उसके जनविरोधी होने की पड़ताल करते हुए उसे कटघरे में खड़ा करते हैं।  सरकार ऐसे कवियों को कैसे बर्दाश्त कर सकती है –
“शर्तिया मिलेगी ज़मानत/ हर बलात्कारी, डकैत और हत्यारे को/ जमानत होती ही मिलने के लिए है/ बस निकम्मे कवियों की बात न करें /वे बोझ हैं राज्य पर अब/ उन्हें जमानत मंजूर नहीं “

पर कवि वही हैं जो इस धमकी और कविता पर राजद्रोह का सरकारी हमला होने के बाद भी सत्य और जन की कविता लिखे। चाहे बाहर या जेलों के भीतर ही सही पर लिखे निर्णायक ज़िद के साथ।

वरिष्ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय का यह कविता संग्रह ‘ न्यूटन भौंचक्का था ‘ अपने समय का महत्वपूर्ण काव्यात्मक दस्तावेज़ है; जिसमें समकाल की धड़कनें हैं। हमारे समय के हूबहू दृश्य और जीवन्त उपादान तथा नवीन कांतियुक्त बिम्ब हैं। जीवन के विविध विषयों और अनुभवों की यह कविताएं हमें बेहतर मनुष्य बनाने की कवि की मुहिम का अभिन्न हिस्सा हैं ।कविता अपने इसी मूल प्रयोजन में सबसे सुन्दर दिखाई देती है।  काव्य के सौन्दर्य से लैस अपनी अर्जित भाषा , बिम्ब , प्रतीकों , भाव प्रवणता , सन्देश और , जनपक्षधरता , व्यंजना और सुगठित शिल्प में ‘न्यूटन भौंचक्का था’  कविता संग्रह की समग्र कविताएँ उल्लेखनीय और पठनीय हैं।

 

आधार प्रकाशन, पंचकूला

मूल्य:पेपरबैक ₹120/-


 

समीक्षक सुरेन्द्र रघुवंशी
सम्पर्क- टीचर्स कॉलोनी, नियर वायपास रॉड अशोकनगर
(मध्यप्रदेश)473-331

मोबाइल – 9926625886
ईमेल -srijanpaksh@gmail.com

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion