समकालीन जनमत
कविता

ललन चतुर्वेदी की कविताएँ अमानवीकरण के ख़िलाफ़ प्रतिरोध हैं

वसु गंधर्व


कविता जीवन के भुलाए जा रहे ज़रूरी सत्यों का स्मरण भी है। यह एक प्रतिसंसार का आह्वान भी है जहाँ उस करुणा की जगह है जो दुनिया को देखने की हमारी सामान्य दृष्टि से विलुप्त होती जा रही है। इस नैतिकबोध से भरी दृष्टि को ललन चतुर्वेदी के कवि के भीतर बैठा एक सजग, सहृदय, मनुष्य कभी भूलता नहीं, एक ज़रूरी काम की तरह दुहराता है, अपने पाठकों को याद दिलाता है। इस तरह ललन चतुर्वेदी की कविता एक ज़रूरी स्मरण की तरह, लगभग एक प्रार्थना के शिल्प में हमारे मन में फूटती है।

मसलन जीवन के क्षय से भरे हमारे इस युग में कवि लगभग खीज कर यह पूछता है कि “संसार में फूल की मौत पर आँसू कौन बहाता है”; जैसे उसे यह स्वीकार ही नहीं कि हिंसा के अतिरेक में डूबी हमारी सभ्यता एक फूल की भी मृत्यु नज़रअंदाज़ कर पाती है। यह वेदना कितनी बड़ी है, अमानवीकरण के खिलाफ ऐसा प्रतिरोध कितना सौम्य, उसके बाद भी कितना सशक्त हो सकता है, यह हमें ललन चतुर्वेदी को पढ़ कर ही पता चल सकता है। जीवन की तमाम सामन्य सी दिखती व्यथाओं को इसी तरह कवि, बिना किसी नाटकीयता के वर्णित करता जाता है, यह व्यथाएं हमें बेचैन करती हैं क्योंकि यह हमारे अपने जीवन के बहुत निकट होती हैं, इतनी अधिक कि अंत में कवि की उपस्थिति पूरी तरह से पार्श्व में चली जाती है, और हमारे सम्मुख हमारा जीवन और हमारी स्मृतियाँ बचती हैं।

मसलन यह पंक्तियाँ कि

“कभी भय,कभी आशंका,कभी लालच
कभी नाराज़गी,कभी कमजोरी
कभी स्वयं को,कभी अपनों को बचाने की मुहिम में
जो बोलना चाहिए था,वही बोल नहीं पाए”

या

“जब अपने पुत्र के सम्मुख
देना पड़े किसी पिता को परिचय
पिता उसी दिन मर जाता है।“

या फिर

“तुम्हारे दुख पर कोई नहीं रोयेगा
तुम्हें अकेले ही रोना पड़ेगा”

 
यहाँ जीवन के अवसाद के, संघर्ष के, वे तमाम चित्र हैं जिनसे होते हुए हम अपनी ही स्मृतियों को एक नए आलोक में देख पाते हैं, अपने हृदय में सुषुप्त एक गहरी करुणा को, बहुत सौम्य स्पर्श से टटोल कर जागृत कर पाते हैं। यह करुणा कोई बनावटी करुणा नहीं होती, अगर यहाँ आशा की जगह है तो वो गहरे विषाद को महसूसने के बाद ही तैयार हुई है; ये कविताएं इसी तरह हमारे मन को समृद्ध करती हैं जिस तरह;

“गहन अन्धकार में जब डूबी होगी धरती
किसी कोने में ज़रूर बचा रहेगा प्रकाश का एक कतरा
वृक्ष के तने पर अंतिम सांस गिनता पीतवर्णी पत्ता
गिरते – गिरते आवाज दे रहा होगा वसन्त को
जब शोकाकुल स्त्रियां रो रही होंगी किसी प्रिय की मौत पर
दूधमुंहे बच्चे पर पड़ते ही नजर बंद हो चुकी होंगी उनकी रुलाई”

 

 

ललन चतुर्वेदी की कविताएँ

1. फूल की मौत पर

हालांकि नष्ट होना सब की नियति थी
पर इस तरह नष्ट होना किसे स्वीकार होगा ?
यहां कुरूपता सौन्दर्य का गला रेतती है
बेईमानी ईमानदारी को ललकारती है
जो लोग सच के लिए आगे लड़ने आए
वे सब के सब हिंसा के शिकार हुए
और हर वीभत्स घटना के उपरांत
अनेक लोगों ने सहर्ष ध्वनि में जयघोष किया –
इस सिरफिरे से बहुत खतरा था हमारी कौम को
यह खलनायकी हँसी कलेजे को चीरती है

फूल जो देवताओं को अर्पित हुए
फूल जो प्रेमिकाओं के जूड़ों में खोंसे ग‌ए
फूल जो नेताओं के गले में लटकाए ग‌ए
वे सब के सब पैरों तले रौंद दिए ग‌ए

संसार में फूल की मौत पर कौन आँसू बहाता है?

 

2. दो शब्द

अनेक भाषाओं के अनगिनत शब्द
हमें पहुंचा नहीं सकते किसी ठोस निष्कर्ष तक
सारे झमेले अस्पष्टताओं की देन हैं

कभी भय,कभी आशंका,कभी लालच
कभी नाराज़गी,कभी कमजोरी
कभी स्वयं को,कभी अपनों को बचाने की मुहिम में
जो बोलना चाहिए था,वही बोल नहीं पाए
हमें अनगिनत मौके मिले दो शब्द बोलने के लिए
पर दो शब्दों को छोड़कर बोले तमाम शब्द

कितना कठिन है बोलना दो शब्द – हाँ या ना?

 

3. कुछ शब्द बोलते हुए

इससे तो अच्छा होता कि आकाश टूट जाता
या धरती ही फट जाती
जहाँ मौन की मुखरता अपेक्षित हो
वहां शब्दों को हस्तक्षेप करना पड़े !

भोक्ता के सिवा
और कोई और कैसे समझ सकता है
अस्तित्व के संकट का दारुण दुख

ईमानदारी घोषित करने की चीज नहीं
यह चेतना में चिपकी होती है
कवच- कुंडल की तरह

जब अपने पुत्र के सम्मुख
देना पड़े किसी पिता को परिचय
पिता उसी दिन मर जाता है।

 

4. यदि तुम सोचते हो

यदि तुम सोचते हो कि गूंगे नहीं बोलते तो तुम ग़लत हो
यदि तुम सोचते हो कि बहरे सुन नहीं सकते तो भी ग़लत हो
यदि तुम सोचते हो कि नेत्र विहीन देख नहीं सकते तो बिल्कुल ग़लत हो

गूंगे की देह भाषा सुनी है तुमने?
देखा है कभी वीडियो काॅल पर उन्हें झुमते हुए ?
सप्ताहांत की छुट्टी पर जाने की खुशी में
पत्नी से बात करते हुए और स्क्रीन को बार-बार चूमते हुए

जब भी दो आदमी करते हैं धीमे स्वर में कोई बात
बहरे भी आंखों से उसे सुनते रहते हैं चुपचाप

और नेत्रहीनों ने तो खींच रखी है दुनिया की सबसे खूबसूरत तस्वीर

पत्थरों के बीच दूब हंसती है
और पहाड़ों पर पेड़ झूमते हैं
यदि चाहो तो तुम ऐसा भी सोच सकते हो।

 

5. दुख का अनुवाद

तुम्हारे दुख पर कोई नहीं रोयेगा
तुम्हें अकेले ही रोना पड़ेगा

तुम्हारे दुख पर कोई कलाकार एक पेंटिंग बनायेगा
पांच सितारा होटल की कला दीर्घा में
कला- संस्कृति मंत्री करेंगे उसका उद्घाटन
तुम्हारे दुख की बोलियां लगाई जायेंगी
तुम्हारा दुख लाख रुपये में बिक जाएगा

तुम्हारे दुख पर कोई संवेदनशील कवि
लिखेगा एक हृदयद्रावक कविता
कवि गोष्ठी में सुरीली आवाज में पढ़ेगा
श्रोताओं की तालियों के शोर में
तुम्हारा दुख सिसकता रह जाएगा।

 

7. प्रोटोकॉल

सामने पड़ते ही उसकी निगाहें झुक जाती हैं
और दोनों हथेलियां स्वत: जुड़ जाती हैं
जो सोचकर आया था बोलना भूल जाता है
जो हो सका आंखों से ही बयां हुआ

उन्हें कहां फुरसत थी कि पलटकर भी देखें
वे बहुत हड़बड़ी में दिख रहे थे

छोटे आदमी को महसूस हुआ उनकी व्यस्तता
अपनी उम्मीदों के साथ वह लौट आया अपने गांव
बड़े आदमी से वह फिर मिलने जाएगा
धानरोपनी से निबटने के बाद

बड़े लोगों के पास
छोटे लोगों से मिलने का कोई निर्धारित प्रोटोकॉल नहीं होता

बड़ा आदमी अगली मुलाकात के कबल
छोटे आदमी के साथ पेश आना सीख जाएगा ?

 

8. लौटना है

लौटना है
लेकिन हारे हुए जुआरी की तरह नहीं
लौटना है ब्रज भूमि से कृष्ण की तरह
ताकि जब भी कोई गोपिका याद करे
आ जाए उसकी आंखों में आंसू
जब कोई उद्धव राधा से मिले
वह भी हो जाए राधा की तरह नि: शब्द

लौटना है
लेकिन छोड़ देना है लौटने के निशान
जैसे रस्सी पत्थर पर अंकित कर देती है
अपनी परछाईं

लौटना है
लेकिन बचे रह जाना जरूरी है
किसी की आंखों में उम्मीद की तरह

लौटना है
तो फिर पीछे मुड़कर मत देखना

लौटना है तो इस तरह कि लोग
तुम्हें वहीं का स्थायी बाशिंदा समझे
लौटते हुए भी वहीं बचे रह जाना
लौटना है तो कुछ इसी तरह लौटना।

 

9. अर्धसत्य का अभिशप्त समय

मुझे खुली हुई आंखें भी बंद सी लगती हैं
हमने आंखों पर यकीन करना छोड़ दिया है
आंख के कामों को कानों पर छोड़ दिया है
हम कमरे में कैद लोग ताजमहल चाय की चुस्कियों के बीच कहकहे लगाते हुए
सोफे में धंसकर कैमरे की नजर से दृश्यों को देख रहे हैं
और मानकर चल रहे हैं कैमरा झूठ नहीं बोलता
हम अर्द्धसत्य के अभिशप्त समय में जीने वाले लोग हैं
हमें जीने और मरने का फर्क मालूम नहीं है।

 

10. कुछ न कुछ बचा रहेगा

गहन अन्धकार में जब डुबी होगी धरती
किसी कोने में ज़रूर बचा रहेगा प्रकाश का एक कतरा
वृक्ष के तने पर अंतिम सांस गिनता पीतवर्णी पत्ता
गिरते – गिरते आवाज दे रहा होगा वसन्त को
जब शोकाकुल स्त्रियां रो रही होंगी किसी प्रिय की मौत पर
दूधमुंहे बच्चे पर पड़ते ही नजर बंद हो चुकी होंगी उनकी रुलाई
और जैसा कि कुछ लोग सोचते हैं कि सब कुछ नष्ट हो जाएगा धीरे – धीरे
वैसा तो शायद आज तक कभी नहीं हुआ और नहीं होगा आगे भी
सब कुछ कभी नष्ट नहीं होता, कुछ न कुछ बचा रह जाता है
जैसे वृद्ध-कंठ में बचा रह जाता है बचपन का थोड़ा सा संगीत।

 

11. लौटना आसान नहीं होता

बड़भागी है वह चिड़िया जो चोंच में दाने लिये
लौट आती है अपने प्रतीक्षारत शावक के पास

बड़भागी है वह लड़की जो साबुत लौट आती है
कुटिल,कातिल प्रेमियों या ससुराल की बहुविध प्रताड़नाओं से बचकर

उफान के बाद नदियां लौट आती हैं बीच पाट में
पर कुशल तैराक भी कहां लौट पाते हैं ,फंस ही जाते हैं भंवर में

जो एक बार निकल पड़ते हैं प्रेम -पथ पर
लौटना उनका कभी आसान नहीं होता।

 

12. पुरानी स्मृतियों का सौन्दर्य

इतना भी क्या सार्वजनिक होना
बाजार की तरह
हर दस मिनट के अंतराल में
स्क्रीन पर उभरना विज्ञापन की तरह

अनुपस्थिति से भी
दर्ज की जा सकती है उपस्थिति
भोजन और भजन एकान्त का ही अच्छा
क्यों भग्न करना इनकी पावनता

इस नग्न और निर्लज्ज समय में
तुम्हें घूंघट में देखे जाने की स्मृति
बहुधा पुलकित करती रहती है।

 

13. दो पेड़

एक पेड़ यहां,एक पेड़ वहां
दोनों के बीच लगभग दस गज की दूरी
एक-दूसरे को निहारते
बीत रहे बरस – दर- बरस
लगता है निरन्तर रहते हैं संवादरत
एक दूसरे से मिलने की इच्छा
शाखाओं के रूप में फलती- फूलती रही
बरसों बाद टहनियों ने एक दूसरे को गले लगा लिया
जड़ें जमीन से जुड़ी रहीं
दोनों ने आकाश में एक दूसरे को पा लिया।

 

14. उम्मीद एक चिड़िया है

अपने पंखों के दायरे से अनजान
सारे आकाश को अपना समझती है
सबकी भांति थकना उसकी भी नियति है
मगर वह कहां मानती है
शाम होने तक उछलती रहती है
एक डाल से दूसरे डाल पर

कितनी बार किया नीड़ का निर्माण
पर सब आंधियों की भेंट चढ़ ग‌ए
क्षण भर में सब कुछ भूल
करती है अगली उड़ान की तैयारी
सचमुच उम्मीद एक चिड़िया है।

 

15. सिक्के

जेब में रहते हैं,इसीलिए उछाले जाते हैं
उछाले जाते हैं, इसीलिए उछलते हैं
उछलते हैं, इसीलिए गुल्लक में डाले जाते हैं

सिक्के खेल शुरू करा सकते हैं
पर खेल देख नहीं सकते
खेल शुरू होने के पहले ही
खत्म हो जाता है इनका खेल

बड़े नादान होते हैं सिक्के
वे कभी नहीं समझेंगे कि
असली खिलाड़ी हरदम जेब में रखते हैं उन्हें
मौका पड़ते ही उन्हें उछाल देते हैं
जरूरी नहीं हो तो उन्हें गुल्लक में डाल देते हैं।

 

16. मैं जो चाह रहा हूं

मुझे जो चीजें पसन्द हैं
उन्हें खाने की मनाही है

मैं जिससे प्रेम करता हूं
उसे भर नजर देखने की मनाही है

कभी- कभी नदी में तैरने का मन करता है
वहां भी डूबने के खतरे की तख्ती लगी हुई है

मैं जो बोलना चाह रहा हूं
वह गले के नीचे अटक गया है
मैं बार – बार खंखार रहा हूं

मैं कैसे लिखूं जो लिखना चाह रहा
सोचता हूं सारी चीजें लिख कर रख दूं
किसी गोपनीय डायरी में स्वेच्छा से
आज जो दो कौड़ी की नहीं है
शायद कल वही दस्तावेज हो जाएं!


 

कवि ललन चतुर्वेदी (मूल नाम ललन कुमार चौबे), जन्म तिथि : 10 मई, 1966। मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में। नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में। शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी), बी एड.,यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण 

प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य) एवं ईश्वर की डायरी (कविता) पुस्तकें  

तथा साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं एवं प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएँ एवं व्यंग्य निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं। संप्रति : भारत सरकार के एक कार्यालय में सहायक निदेशक (राजभाषा) पद पर कार्यरत। लंबे समय तक राँची में रहने के बाद पिछले पाँच  वर्षों से बेंगलूर में निवास ।

संपर्क: lalancsb@gmail.com

मोबाइल: 9431582801

 

 

 

टिप्पणीकार वसु गंधर्व
उम्र- 21 वर्ष, अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में स्नातक। कई पत्रिकाओं और वेब ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित। शास्त्रीय संगीत के गंभीर छात्र, वर्तमान में पण्डित अजय चक्रवर्ती के शिष्य। कविता के अलावा विश्व साहित्य, दर्शन, और अर्थशास्त्र में रुचि।

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