कुमार मुकुल
ताइवान के वरिष्ठ कवि, आलोचक ली मिन-युंग की कविताएँ आजादी, प्रेम और स्वप्न की भावनाओं को सहज और सचेत ढंग से स्वर देती दिखती हैं। आज जिस तरह दुनिया भर के स्वकेंद्रित सत्ता संस्थान मानवीय चेतना को कुचलते हुए अपने-अपने हितों तक सीमित होते दिख रहे हैं स्वतंत्रता की भावना कुंठित होती जा रही है। ऐसे में कवि अपने अंतर में टिमटिमाते आशादीप को जीवित रखने की कोशिश करता है –
तुम अपने सपने में भागे क्यों जा रहे हो?
क्योंकि भागकर ही
मुक्त हुआ जा सकता है
ली मिन-युंग की कविताओं में एक पत्ती बार-बार आती है। पहले मुझे लगा कि यह एक हरी पत्ती है, फिर मैंने उनकी कविता ‘निर्वासित चित्रकार’ में पाया कि नहीं, यह एक सूखी पत्ती है –
अपनी चोंच में पत्ती अटकाए
फ़ाख्ता लाल बैनर पर चोट मारती है
और उड़ जाती है स्वर्ग की ओर …
यह कविता प्रतीक रूप में आधुनिक व्यवस्था के बरक्स अकेले पड़ते एक सीधे-सादे सरल जीवन की संघर्ष गाथा है। यह व्यवस्था द्वारा निर्वासित एक जीवन है जो सर झुकाने की जगह अपने लिए एक कठिन पर स्वतंत्र जीवन का चुनाव करता है। यह जीवन की वह इकाई है जिसका मूल्य आजादी है और जिसके लिए प्रकृति की गोद में असीमित जगह है, जैसा कि हम कवि, चित्रकार सोचते हैं।
पर क्या सचमुच ऐसा है, क्या आज बाजारू विकास की मार से प्रकृति का कोई कोना बचा पा रहा है खुद को? ऐसा भी नहीं है कि कवि को इसका भान नहीं है। ‘प्रदूषण’ कविता में वह साफ लिखता है –
सबसे बड़ा कारण है विकास
विकास कतर देता है
नित नयी रोपी गयी उम्मीद
क़त्ल की गयी ज़मीन
से आती है
दुर्गन्ध
पक्षियों और जानवरों के शवों की
अब चाहे ऐसा ना भी हो, पर यह एक कवि, कलाकार की एक सच्ची जिद और सदाकांक्षा ही है अगर, तो एक आदर्श के रूप में ही, इसका मूल्य तो है। यथार्थ में ना भी हो पर हमारी स्मृति में तो वह जीवित रहता ही है –
प्रत्येक व्यक्ति की
स्मृति के क्षितिज पर
रहता है
एक प्रदूषण मुक्त जंगल
जहां पंछी
चक्कर खाते हैं, गोल-गोल
तो ली की कविताओं में जहाँ-तहाँ आती यह सूखी पत्ती एक जटिल प्रतीक है जिसका आधार स्मृति है। यह बीज और उसमें निहित जीवट का प्रतीक है जो कठिन परिस्थितियों में भी अपने कठजीव को भीतर जगाए रखता है, बचाए रखता है। पर जब परिस्थित अनुकूल होती है और माहौल नम होता है तो बीज के भीतर का कठजीव अंकुराता हुआ अपना सर उपर उठाता है, क्योंकि कवि के लिए वह सूखी पत्ती-
पृथ्वी के लिए
वृक्ष द्वारा लिखा गया
एक संस्मरण है।
‘यदि तुम पूछो’ ली की एक सुंदर कविता है जिसमें कवि अपने देश ताइवान को याद करता है। अपने-अपने देश को लेकर हमारी भावनाएँ उदात्त ही होती हैं और अक्सर यह उदात्तता अपने में वसुधैव कुटुंबकम की भावना लिए रहती है। इस कविता को पढ़ते मुझे हिंदी फिल्म का एक पुराना गीत याद आने लगा –
धरती मेरी माता
पिता आसमान
मुझको तो अपना सा लागे
सारा जहान
इस कविता में भी ली अपने देश का पिता आकाश को और माता समुद्र को बताते हुए उसके अतीत पर आते रूंआसे होते लिखते हैं –
यदि तुम पूछो
क्या था ताइवान द्वीप का बीता हुआ कल
मैं तुम्हें बताऊंगा
ताइवान के इतिहास की परतों में दबे
ख़ून और आँसुओं के बारे में
क्या अधिकांश राष्ट्रों का अतीत ताइवान की तरह खून और आंसुओं में डूबा नहीं है? फिर कवि वर्तमान में देश की दुर्दशा पर आता बताता है कि इसे –
गला रहा है
शक्तिसम्पन्नों का भ्रष्टाचार
कविता के अंत में कवि अपने देश के भविष्य पर आता कहता है कि इसका भविष्य तुम पर निर्भर है कि तुम कब आत्मविश्वास से भरकर अपने पांवों पर खड़े होओगे और भविष्य की राह खोलोगे। क्या यही बात स्वामी विवेकानंद अपनी उत्तिष्ठत जागृत … वाली शैली में नहीं कहते।
यहाँ यह देखना आश्चर्यजनक है कि ताइवान जैसा द्वीप हो या भारत जैसा देश, भावना के स्तर पर लोग उसे एक ही तरह से प्यार करते हैं। वैश्विकता और स्थानीयता को जोड़ने वाली आत्मालोचना युक्त भावना ही देश की हितैषी सच्ची भावना है –
एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ – मुक्तिबोध
निर्वासित कवि
कविता के माध्यम से
अपनी एक अलग दुनिया बनाता है
ह्रदय की मातृभूमि की
कोई सरहद नहीं – ली मिन-युंग
सरहदों को कोई कवि कहाँ तक स्वीकार कर सकता है। वह तो अनहद में जीता है। मुक्तिबोध हों या ली मिन-युंग हों कि ‘अमन का राग’ जैसी प्रसिद्ध कविता लिखने वाले कवियों के कवि शमशेर हों, सब उसी असीमता में जीना चाहते हैं।
हिंदुस्तान के अधिकांश कवियों की तरह अपने समय की चिंताओं को लेकर सजग हैं ली मिन-युंग। सत्ता की जी-हजूरी पसंद नहीं उन्हें। लालच के आवरण में अपनी जगह बनाता प्रदूषण और शोर का दानव उन्हें भी परेशान करता है। इस भयानक समय की चिरायंध के बीच लोगों को पशुओं की तरह निश्चिंत सोते देख कवि का हृदय दुखता है –
हम राब्ता रखते हैं ‘कट-पेस्ट’ की प्रवृत्ति से
हम अधिशासी पार्टी के आदेश में सिर हिलाते हैं
सोच-विचार की सामर्थ्य त्याग
हम सोते हैं बुरे सपनों के बीच, निश्चिन्त।
दुनिया के विशाल देशों की पड़ोसी छोटे देशों पर पड़ रही गिद्ध दृष्टि जगजाहिर है। सत्ता की हुमक कई बार साम्राज्यवादी और समाजवादी देशों के बीच का अंतर मिटा देती है। पड़ोसी देशों का अस्तित्व उनकी आंख में बारहा खटकता रहता है। उन्हें जमींदोज करने को वह तमाम तिकड़में भिड़ाते रहता है। वैश्विक महाप्रभुओं की इन हरकतों की छाया ली की कई कविताओं में देखी जा सकती है –
सुन्दर पर्वत के उस पार
ताक़त और हिंसा द्वारा छोड़े धब्बों वाले
झंडों की भारी तादाद है
जो द्वीप की सुंदरता को तबाह कर रहे हैं
यह मुझे मायूस करता है
मैं थाम लेता हूँ अपनी सांसें।
ली सहज, प्राकृतिक जीवन के पक्षधर हैं। जीवन–जगत को देखने–परखने की उम्र में किसी पर अप्राकृतिक जीवन शैली का थोपा जाना उन्हें जंचता नहीं। अब यह थोपना चाहे आस्था के नाम पर हो या धर्म के नाम पर या कि विचार के नाम पर। नयी पीढ़ी के स्वविवेक के जाग्रत होने के पहले उस पर आपने आचरण लाद देना कहाँ की समझदारी है? पर जो यह दुनियावी व्यापार है, वह कहाँ रहने देता है जीवन की सहजता को। अपनी अदृश्य सत्ता की विषबेल फैलाने के लिए लोग क्या क्या टोने – टोटके नहीं करते आज भी। कैसे–कैसे दुराग्रह पलते हैं, इस गहन अंधेरी घाटी में। यह सब कवि को बारहा परेशान करता है –
जिनकी छाती पर
सलीब लटकी है
जो बताती है
कि वे रहना चाहेंगी
पवित्र अक्षतयोनि
यही बात है
जो डाले हुए है मुझे
गहरे विषाद में।
ली की कुछ कविताओं में असंबद्ध चित्रों और तथ्यों का सूचनात्मक कोलाज सा है। जो अपनी असंबद्धता के बावजूद एक रंजक असर डालता है। रघुवीर सहाय के यहां भी ऐसे प्रभावी प्रयोग हैं। रघुवीर सहाय के ऐसे कवितांशों को आलोचक नामवर सिंह ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में उद्धृत भी किया है। खुद मैंने भी इस शैली में कुछ कविताएं लिखी हैं। यह सब सोचते हुए एक उल्लास सा जगता है कि दो दूर देशों के लगभग अपरिचय में जीते दो कवि एक सा काव्य बरताव करते हैं –
बिल्ली रास्ता काट जाया करती है
प्यारी-प्यारी औरतें हरदम बकबक करती रहती हैं
चाँदनी रात को मैदान में खुले मवेशी
आ कर चरते रहते हैं
और प्रभु यह तुम्हारी दया नहीं तो और क्या है
कि इन में आपस में कोई सम्बन्ध नहीं
– रघुवीर सहाय
दूर कहीं एक युद्ध की ख़बर है
आज़ादी और एकीकरण के आंदोलन
घटित हो रहे हैं अलग-अलग
दुनिया हिल रही है
एक पोर्सलीन के कप में
खिड़की के उस पार
लोग जल्दी में हैं
एक खोया हुआ कुत्ता
पूँछ हिला रहा है – ली मिन-युंग
समुद्र किसे नहीं खींचता, कौन आक्रांत नहीं होता उसकी अछोर सत्ता से। तमाम कवि अपनी अपनी तरह से उसे देखते हैं और परिभाषित करते रहते हैं। कुछ उसके चकित करने वाले विस्तार पर मुग्ध रहते हैं तो कुछ उसे अपनी सहज मानवीय प्रतिभा से सीमित करते हैं –
हे समुद्र
तुम्हारे पास गहराई है रंगों की
और क्षितिजों की ढेर सारी पूंजी
किंतु फिर भी तुम
मेरी शक्ति का सामना नहीं कर सकते
मैं तुम्हें देखता हूं
मैं तुम्हें जानता हूं
तुम्हें चाहता हूं – फेडेरिको मायोर, स्पैनिश कवि
ली का समुद्र भी उनका अपना समुद्र है। सुनामी के बाद समुद्र का आकर्षण पहले जैसा नहीं रह गया है। सौंदर्य के साथ अब वह आतंक का भी पर्याय है। ली की ‘सागर’ कविता भी समुद्रतल से आती सिसकियों की बात करती है –
कितनी आत्माओं के चीत्कार
पैबस्त हैं
तुम्हारे गहरे नीले तल में
ली को पढ़ते हुए हिन्दी के कवियों में शमशेर, अज्ञेय आदि जहाँ-तहाँ याद आते हैं। प्रकृति और प्रेम की जुगलबंदी ली के यहां भी अपने अनोखे गुल खिलाती है। गहन जीवन स्थितियों को प्रकट करने वाली बारीक निगाह है ली के पास। टहनियों और पत्तों के सांस लेने की आवाज वे सुन पाते हैं यह कितना आश्चर्यजनक है आज के इस जद्दोजहद भरे जीवन में –
हर रोज़
रात क़ैद हो जाती है
दुनिया के कमरे में
पक्षियों के विचार सुपुर्द कर
वृक्षों को……।
अनुवाद एक कठिन काम है और कविताओं का अनुवाद कुछ ज्यादा ही कौशल की मांग करता है। देवेश पथ सारिया मेहनती और विद्यानुरागी हैं। हाल के वर्षों में उनसे परिचय हुआ और उसके बाद संवादों की निरंतरता बनी हुई है। वे खुद सधे हुए कवि हैं और उनका गद्य भी सधा होता है। ज्ञान की तमाम विधाओं में उनकी बढती रूचि देख खुशी होती है। अनुवाद दो भाषाओं व मुल्कों को जोड़ने वाला एक जरूरी काम है। देवेश आगे भी इसी तरह काम करते रहें.
कविता संग्रह- हक़ीक़त के बीच दरार
मूल कवि- ली मिन-युंग
अनुवाद- देवेश पथ सारिया
प्रकाशक- कलमकार मंच
वर्ष: 2021
पृष्ठ: 96