समकालीन जनमत
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कहानी

‘ बलिदान ’ : किसान-जीवन त्रासदी और प्रेमचंद की कहानी कला

कैलाश बनवासी

वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है। उसमें कल्पना की मात्रा कम,अनुभूतियों की मात्रा अधिक होती है; इतना ही नहीं,बल्कि अनुभूतियाँ ही अनुरंजित होकर कहानी बन जाती है। ’

‘कला दीखती तो यथार्थ है,पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खूबी यही है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो।’

-प्रेमचंद, निबंध ‘ कहानी-कला ’ (2)

प्रेमचंद की कहानियाँ भारतीय ग्रामीण जीवन का महाआख्यान है।उनके जीवन का कोई कोना उनकी नजर से नहीं छूटता। ‘गोदान’ का होरी तो मानो भारतीय किसान का प्रतिनिधि चरित्र है। उपन्यास में वह जीवन बहुत विस्तार से आया है। उनकी कहानियाँ भी इस लिहाज से किसी तरह कम नहीं है। भारत के किसान के जीवन की त्रासदी,विडम्बना,पीड़ा और शोषण को उन्होंने जैसी गहराई, मार्मिकता से समझा है, कोई दूसरा नहीं।

असल बात है किसानों को लेकर उनकी बहुत गहरी संवेदना। इसकी थाह पाना वैसा ही है जैसे नक्षत्रों की दूरी मापना। ‘पूस की रात’, ‘सवा सेर गेंहूँ,’‘दो बैलों की कथा’ जैसी उनकी कितनी ही प्रसिद्ध कहानियाँ किसान जीवन पर हैं। यह मेरी अज्ञानता रही कि उनकी चर्चित कहानियों को छोड़कर उनकी बहुत-सी कहानियों से अनजान रहा। मैंने उनकी कहानी ‘ बलिदान ’ कहानी इधर पढ़ी और मैं चमत्कृत रह गयाा। जो लोग प्रेमचंद को बहुत आसानी से किसानों के दुख-दर्द का चितेरा कथाकार कहकर छुट्टी पा लेते है उन्हें देखना होगा कि दरअसल किसान जीवन कितने संकटों या परेशानियों से गुजरता है।

बीसवीं सदी के दूसरेे-तीसरे दशक में,देश की औपनिवेशिक व्यवस्था में किसानों की जो दशा थी, आजादी के उनहत्तर साल के बाद क्या हालत है,यह हमें रोज अखबार और टीवी से पता चल रहा है। मीडिया पर आज के दौर में पूँजीपति या औद्योगिक घरानों के भारी नियंत्रण के बाद भी। पिछले पंद्रह सालों में देश के तीन लाख से भी अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। और आज भी उन्हें कोई राहत नहीं हैं भले ही कई हजार करोड़ के मुआवजे बांटे गए हैं।

किसानों की आत्महत्या या देश का कृषि संकट जिस तरह से हमारी इसी भ्रष्ट व्यवस्था के खाने-पीने,फलने-फूलने का मनमाफिक अवसर बन गया है, उसे परसाई ने बहुत पहले ही ‘अकाल उत्सव’ नाम दे दिया था। किसानों के मुआवजे वितरण में जैसी लालफीताशाही और लूट है वह कम शर्मनाक नहीं है ! बर्बाद हुई फसल के मुआवजे स्वरूप एक किसान को जो चेक जारी हुआ था, वह केवल दो रूपये का था ! इससे अंदाजा लगाया जा सकता है, इस मामले में किस दर्जे की लापरवाही और असंवेदनशीलता बरती जाती है।

किसान जीवन की जितनी गहरी,प्रामाणिक और वास्तविक समझ प्रेमचंद के यहाँ जैसी थी, वैसी समझ हमें किसी और कथाकार के पास दिखायी नहीं पड़ती। किसानों के जीवन की त्रासदी को उन्होंने जैसे खुद तिल-तिल कर महसूस किया था, और हरदम उनकी बेहतरी की गहरी चिंता उन्हें रहती थी।

मुझे इस बात पर बहुत आश्चर्य है कि प्रेमचंद की बहुचर्चित चंद कालजयी कहानियों में किसान जीवन पर उनकी 1918 में लिखी महत्वपूर्ण कहानी ‘बलिदान ’ का नाम क्यों नहीं है ? उन पर इतना लिखा गया है,इसके बावजूद इस कहानी की चर्चा मैंने किसी के मुँह से न तो सुनी, ना ही पढ़ी। न किसी सुधी आलोचक/समीक्षक/पाठक से इसकी चर्चा सुनी,न किसी कथाकार ने इस पर लिखा।

कहानी क्यों और कैसे अचर्चित रह गयी,यह बड़े आश्चर्य और दुख की बात है। प्रेमचंद पर तो अब तक न जाने कितने शोध हो चुके हैं,इसके बावजूद इस कहानी का उल्लेख मैं नहीं पढ़ पाया। हाँ,ये ,मेरी अपनी पाठकीय सीमा का दोष भी हो सकता है ।

बहरहाल,यह कहानी तत्कालीन ग्रामीण जीवन के सच्चे यथार्थ को सामने लाती है, कि गाँव का जीवन कैसे बदल रहा है, वहाँ क्या-क्या कुटिलताएं जन्म ले रही हैं,या यह कि कैसे जमीन पर साहूकारों और जमींदारों की गिद्ध नजर लगी हुई है ! और सबसे बढकर, यह कहानी कला की उस कोटि का उदाहरण है,जो तब चलन में नहीं ही था, जिसकी एक पद्धति आगे चलकर ‘जादुई यथार्थवाद’ के रूप में विकसित होती है।

यह कहानी इस अर्थ में हमें गहरे चौंका जाती है कि कहानी की वह शैली जो बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में अपने यहाँ जाना गया,प्रेमचंद के पास दूसरे दशक में ही अपने भ्रूण रूप में मौजूद था। यह एक कलाकार की महानता ही कही जाएगी। दूसरी बात, किसान जीवन पर ऐसी मार्मिक और त्रासद कहानी प्रेमचंद के यहाँ भी कम ही है। यह कह सकते हैं कि यह कहानी जैसे उनके उपन्यास ‘ गोदान ’ की ही कोई कड़ी है। उनके जीवन के दुख-दर्द इस गहराई से,इस पीड़ा से और इस छटपटाहट से हमको कतरा-कतरा महसूस करा सकने वाला और कोई कथाकार मुझे नहीं नजर आता।

इस कहानी में उनकी कहानी कला अपने पूरे उरूज पर है। कहानी की शुरूआत बहुत हल्के-फुल्के ढंग से होती है कि कैसे गाँवों में आर्थिक स्थिति के आधार पर लोगों के नाम बदल जाते हैं। गाँव का मंगरू ठाकुर काँस्टेबल बनते ही मंगल सिंह हो गया, कल्लू अहीर की थानेदार से मित्रता के कारण और मुखिया हो जाने के कारण कालिकादीन हो गया है। इसी कड़ी में वह बताते हैं कभी शक्कर कारखाने का मालिक हरखचंद्र कुरमी अब हरखू हो गया है। यहाँ दो-तीन पंक्तियों में प्रेमचंद ने सरसरी तौर उस समय का जो इतिहास बताया है,वह हमारी गुलामी की दुर्दशा और ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा किए जा रहे शोषण की कलई खोलता है। ‘

‘आज से बीस साल पहले उसके यहाँ शक्कर बनती थी,कई हल की खेती होती थी, और कारोबार खूब फैला हुआ था।लेकिन विदेशी शक्कर की आमद ने उसे मटियामेट कर दिया।धीरे-धीरे कारखाना टूट गया,जमीन टूट गयी,गाहक टूट गए और वह भी टूट गया।’’ यह उदाहरण बताता है तब की हमारी भारतीय अर्थव्यवस्था पर-खासकर स्वावलंबी ग्रामीण-अर्थव्यवस्था पर-ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कैसा भयानक और घातक असर पड़ा था। हरखू कुरमी जैसे न जाने कितने लाख रहे होंगे जिनकी सदियों से चली आती उनकी सुभीते की जिंदगी को साम्राज्यवादी नीतियों ने तहस-नहस कर दिया। शोषण और लूट की ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ देश में घटित हुई होंगी। व्यवस्था ऐसी जालिम हो चली थी कि लूट के कितने ही ऐसे अड्डे तत्कालीन समाज-व्यवस्था में खुल गए थे और सरल हृदय किसानों,दस्तकारों का शोषण होता रहा। इस कहानी में मुंशीजी वही दारूण कथा कहते हैं।

प्रेमचंद ग्रामीण यथार्थ के सच्चे चितेरे हैं, उनसे गाँवों के जीवन का कोई कोना-अंतरा नहीं छूटता। बावजूद अपनी किसानों के प्रति पक्षधरता के,वे इनके जीवन की निगेटिव बातें भी दर्ज करना नहीं भूलते। उन्हें बीसवीं सदी के उŸारार्ध में ही यह समझ आ गया था, कोरे आदर्शवाद से साहित्य के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। वस्तुतः उनके लिए साहित्य या समाज कोई ठहरी हुई ईकाई न होकर,एक गतिशील प्रक्रिया है,जिसमें समय और समाज के अनुसार साहित्य के मूल्य भी बदलते चले जाते हैं।अपने प्रसिद्ध निबंध ‘साहित्य का उद्देश्य’ में वह कहते हैं-‘साहित्य उसी रचना को कहेंगे,जिसमें कोई सचाई प्रकट की गई हो,जिसकी भाषा प्रौढ़,परिमार्जित और सुंदर हो,और जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो और साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है,जब उसमें जीवन की सचाइयाँ और अनुभूतियाँ व्यक्त की गई हों।’

तब के गाँवों में भी जो मूल्यगत बदलाव आ रहे थे,उसे यह कहानी हरखू के माध्यम बखूबी दिखाती है। हरखू गाँव का पुराना प्रतिष्ठित व्यवसायी रहा है। लेकिन व्ययसाय बंद होने पर उसकी प्रतिष्ठा गिर गई है,वह हरखचंद्र से हरखू हो गया है,तो गाँव के मंगल सिंह या कालिकादीन उस बीमार हरखू को देखने जरूर जाते हैं,किंतु उसके लिए दवाई नहीं लाते।

यह उन गाँवों में घटित हो रहा है,बीसवीं सदी के उत्तरार्ध  में,जब माना जाता था कि ‘अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या जीवन है!’लेकिन प्रेमचंद इस रोमान को अपनी कहानियों से तोड़ रहे थे और वहाँ फैलते लाभ-लोभ के गणित और हृदयहीनता की हकीकत सामने ला रहे थे।दवाइयों के अभाव में हरखू की मृत्यु हो जाती है।ऐन होली के दिन। वहीं प्रेमचंद तब यह भी बताना नहीं भूलते-बेला में होली नहीं मनाई गयी, न अबीर और गुलाल उड़ी,न डफली बजी,न भंग की नदियाँ बही।कुछ लोग मन में हरखू को कोसते जरूर थे कि इस बुड्ढे को आज ही मरना था, दो-चार दिन बाद मरता।लेकिन इतना निर्लज्ज कोई न था कि शोक में आनंद मनाता।’

हरखू का बेटा गिरधारी साहूकारों से 50 रूपये कर्ज लेकर पिता का क्रिया कर्म और तेरहवीं निपटाता है। लोग तब की सामंती व्यवस्था में ऐसे कितने ही कर्मकांडों, अंधविश्वासों में जकड़े हुए थे।उनकी चेतना की अभी वैसी प्रगति नहीं हुई थी,जो प्रेमचंद अपने अंतिम दौर की कहानियों ‘पूस की रात’ के हल्कू और ‘कफन’ के घीसू माधव में दिखाते हैं। जर जोरू जमीन, झगड़े या समस्या के ये तीन जड़ हमारी लोकोक्तियों में कहे गए हैं। हरखू की मृत्यु के बाद, ‘हरखू के खेत गाँव वालों की नजर में चढ़े हुए थे। पाँचों बीघा जमीन कुएँ के निकट,खद-पाँस से लदी हुई,मेड़ बाँध से ठीक थी।उसमें तीन-तीन फसलें होती थीं। हरखू के मरते ही उस पर धावे होने लगे।’ ये खेत वास्तव में जमींदार के हैं जिसे हरखू पिछले बीस सालों से जोत रहा था। लाला ओंकारनाथ इतनी सदाशयता जरूर दिखता है कि ये खेत दूसरे को देने के बजाय उसके बेटे गिरधारी को ही दिये जायं। इस हेतु वह लगान की रकम तो उसकी खातिर वही रखना चाहता है, आठ रूपये प्रति बीघा,लेकिन अपना नजराना वह बढ़ाकर सौ रूपये लेना चाहता है। गिरधारी उसके आगे गिड़गिड़ाता है,घर में रोटियों के लाले पड़ने की फरियाद करता है,अपने पिता के क्रिया कर्म में हुए खर्च का हवाला देता है, लेकिन लाला ओंकारनाथ नहीं पसीजता,अपना नजराना छोड़ना उसे मंजूर नहीं।

यहाँ प्रेमचंद केवल लाला की हृदयहीनता ही नहीं बताते, अपितु तत्कालीन जमींदारी प्रथा में अँगे्रजों द्वारा की जाती लूट और नौकरशाही का कच्चा चिट्ठा लाला के मुँह से कहलवाते हैं-तुम ये समझते होगे कि हम ये रूपये लेकर अपने घर में रख लेते हैं और चैन की बंशी बजाते हैं। लेकिन कमारे ऊपर जो गुजरती है,हम ही जानते हैं। कहीं यह चंदा कहीं वह इनाम। इनके मारे कचूमर निकल जाता है। बड़े दिन में सैकड़ों रूपये डालियों में उड़ जाते हैं।जिसे डाली न दो,वही मुँह फुलाता है। जिन चीजों के लिये लड़के तरस कर रह जाते हैं,उन्हें बाहर से मंगाकर डालियों में सजाता हूँ।उस पर कभी कानूनगो आ गये,कभी तहसीलदार,कभी डिप्टी साहब का लश्कर आ गया।सब मेरे मेहमान होते हैं।अगर न करूँ तो नक्कू बनूँ और सबकी आँखों में काँटा बन जाऊँ। साल में हजार-बारह सौ मोदी को इस रसद खुराक की मद में देने पड़ते हैं।’

गाँवों के शोषण की जड़ें कहाँ-कहाँ फैली थीं,और कैसे किसान इनमें पिस रहा था, प्रेमचंद इस दुश्चक्र को सामने लाते हैं। यहाँ अगर ठहरकर आज के परिदृश्य में किसान का जीवन को देखें तो मानो दुश्चक्र जैसे का तैसा है,किसानों की आत्महत्याओं के बाद जारी सरकारी रियायतों के बावजूद उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। यह जरूर है कि उपनिवेशकाल में जैसा अंधा और निर्मम शोषण हुआ करता था,वह प्रत्यक्ष तौर पर नहीं है,लेकिन किसानों की दुर्दशा में सुधार नहीं आया है। यही कारण है कि आज हर साल लगभग पचास लाख किसान खेती करना छोड़ रहे हैं,खेती की जमीनें निरंतर सिकुड़ती जा रही हैं।

पहले जहाँ किसानों की जमीन पर महाजनों की गिद्ध नजर होती थी वहीं आज करपोरेट्स या बड़े औद्योगिक घरानों की नजर है,जिन्हें शासन की नीतियों का खुला समर्थन है।

गिरधारी जो पहले ही कर्ज में फँसा हुआ है, लाला ओंकारनाथ को सौ रूपये नजराना दे सकने में हर हाल में असमर्थ है,इसलिए उससे उसकी खेती छिनने वाली है,इस दशा का जैसा मर्मस्पर्शी वर्णन प्रेमचंद करते हैं,वह इस बात का साक्ष्य है कि उनके मन में किसानों के लिए कैसे प्रेम का महासागर हरहराता था। किसान की दशा का ऐसा वर्णन हमारे आज के कथाकारों में भी दुर्लभ है। वह लिखते हैं-

‘खेतों के निकलने का ध्यान आते ही उसके हृदय में हूक-सी उठने लगती। हाय ! वह भूमि जिसे हमने वर्षों जोता,जिसे खाद से पाटा,जिसमें मेड़ें रक्खीं,जिसकी मेड़ें बनायी उसका मजा अब दूसरा उठावेगा। ये खेत गिरधारी के जीवन के अंश हो गये थे।उनकी एक-एक अंगुल भूमि उसके रक्त से रँगी हुई थी!उनका एक-एक परमाणु उसके पसीने से तर हो गया था।उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसों था,कोई बाइसों था,कोई नालेवाला,कोई तलैयावाला।इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था। वह इन खेतों की चर्चा इस तरह करता मानो वे सजीव हैं। मानो उसके भले-बुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ,सारी इच्छाएँ,सारे मनसूबे,सारी मन की मिठाइयाँ,सारे हवाई किले इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे। इनके बिना वह जीवन की कल्पना नहीं कर सकता था।और वे ही अब हाथ से निकले जाते हैं। वह घबराकर घर से निकल जाता और घंटों उन्हीं खेतों की मेड़ों पर बैठा हुआ रोता,मानो उनसे विदा हो रहा हो।’

जो लोग प्रेमचंद की लेखनी में सपाटबयानी और रसविहीनता की बात करते हैं,उन्हें यह देखना चाहिये,वह कैसे अपनी कलम से एक विकल-हृदय किसान जीवन को अनुभूत करते हुए उसके साथ वे एकमेक हो गए हैं। अनुभूति की इस ऊँचाई पर प्रेमचंद यदि खड़े हैं तो अपनी गहन संवेदनशीलता और व्यापक वैचारिक दृष्टि के कारण । प्रेमचंद ने औपनिवेशिक ग्रामीण समाज की वास्तविकता को जितनी तीव्रता और , मार्मिकता से इस कहानी में उकेरा है,वह भी इसे उनकी ही नहीं,समूचे हिंदी साहित्य की एक धरोहर बनाती है।और यह कहानी महज एक घटना पर केन्द्रित एक-रैखिक कहानी नहीं है, बल्कि यह अपने समय में मौजूद जटिल यथार्थ की कितनी ही परतों को उधेड़ती चलती है। अपने खेतों से किसान के बिछड़ने का जैसा हाहाकारी चित्रण उनकी इस कहानी में मिलता है,मैंने अन्यत्र नहीं देखा है।हिंदी कहानी के अस्तित्व में आने के महज बीस-तीस साल में इस कोटि की कहानी की रचना हमें हतप्रभ कर देती है।उन दिनों किसान के लिए उसके खेत क्या मायने रखते थे,इसे यह कहानी श्रेष्ठ तरीके से बताती है।

यही नहीं,ग्रामीण जीवन में मौजूद अंतर्विरोधों,विडम्बनाओं को भी यह कहानी सामने लाती है।गिरधारी की जमीन छिन जाने के बाद उसकी पत्नी सुभागी उस कालिकादीन-जिसने उनकी जमीन को सौ रूपये नजराना देकर खरीद लिया है- के घर जाकर उसकी पत्नी को खूब लथेड़ती है-‘कल का बानी आज का सेठ मेरे खेत जोतने चले हैं।देखें,कौन मेरे खेत में हल ले जाता है ? अपना और उसका लहू एक कर दूँ।’

ऐसी परिस्थिति में गाँव की स्त्री का चंडी में रूपांतरण बहुत स्वाभाविक है। कष्ट जब असहनीय हो जाय तब स्त्रियाँ न्याय की लड़ाई लड़ने बाहर निकल पड़ती हैं,सामंती और पितृसŸाात्मक समाज द्वारा जबरन उन पर थोप दिए गए लोक-लाज की बाड़ लाँघकर।।सुभागी यही करती है।अपने जमीन,अपने अधिकार के लिए लड़ती है।भले ही इस लड़ाई का नतीजा उसके पक्ष में न हो। इसे हमने अपने समय में भी घटित होते खूब देखा है। वह चाहे आजदी के तुरंत बाद तेभागा तेलंगाना का क्रांतिकारी आंदोलन रहा हो,या चंद साल पहले नन्दीग्राम और सिंगूर में अपने खेतों की रक्षा में उतरीं स्त्रियाँ, जो पुलिसबल और राजनैतिक कैडरों से अपने प्राण-प्रण से जूझी थीं।और आज भी बस्तर,नियामगिरी,कुडुमकोडम जैसी जगहों में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते ऐसे कितने ही दृश्य हमारे सामने है।

कहानी में सुभागी के इस कदम को गाँव का सहज समर्थन मिलता है। वे कहते हैं -सच तो है,आपस में यह चढ़ा उतरी नहीं करनी चाहिये।नारायण ने धन दिया तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे।’

अपनी जमीन खोने के बाद गिरधारी अब इस हाल में है जब उसे अपनी खेती छोड़कर मजदूर बनना है। किसानों के खेती छोड़कर मजदूर बननेे की प्रक्रिया इस दौर में भयावह रूप से तेज हुई है,जिसके चलते गाँवों से हर बरस लाखों की तादाद में रोजी-रोटी की खातिर पलायन कर रहे हैं,जिन्हे किसी भी शहर के बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों या फुटपाथों पर देखा जा सकता है जो ‘स्लम’ की नरक-सी ज्रिदगी जीने को मजबूर हैं। लेकिन तब के भारत में खेती को सबसे ऊँचा दरजा प्राप्त था,‘ उत्तम खेती मद्धम बान ’ की मान्यता लोक में थी । गाँव का एक सम्मानित किसान सहसा अपनी खेती गँवाकर जब मजदूरी की तरफ बढ़ता है,तो उसकी दशा क्या होती है, उसका चित्र प्रेमचंद ने यों खींचा है-इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता,अब मेरा क्या होगा? अब यह जीवन कैसे कटेगा ? ये लड़के किसके द्वार पर जायेंगे ? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान का सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद और जमींदारी प्रथा के जुए में में पिसते हुए किसान की दुर्दशा यह कहानी बताती है।अपनी असहायता, असफलता,,कर्जे का बोझ, कल की अनिश्चितता और असुरक्षा, और भीषण आत्मग्लानि की परिणति गिरधारी की आत्महत्या में होती है।यहाँ प्रेमचंद उस पूरी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था और प्रक्रिया को हमारे आगे रख रहे हैं जिसमें एक किसान को ऐसे आत्मघाती कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। तो क्या इस कहानी को किसान आत्महत्या पर केन्द्रित हिंदी की पहली कहानी नहीं कहा जा सकता ?

और आज हमारा देश तो किसान आत्महत्याओं को देश बन चुका है। बीते पंद्रह सालों में तीन लाख से भी अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं,और आज भी उनकी स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है।ये आत्महत्याएँ आज देश की कृषि-व्यवस्था पर गहरे सवाल खड़े कर रही हैं। इस कहानी में प्रेमचंद गिरधारी की मनोदशा को उस मुकाम तक पहुँचा बताते हैं जब किसान ऐसा आत्मधाती कदम उठाने को बाध्य हो जाता है। क्योंकि उसकी दुनिया उजड़ रही है। इसे एक स्वाभिमानी किसान जिस तरह से महसूस करता है,प्रेमचंद ने वही इस कहानी में रखा है-

वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी,उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था,उसके घर में धन था,मान था। नाई,बढ़ई,कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार सब उसका मुँह ताकते थे।अब वह मर्यादा कहाँ ! अब कौन उसकी बात पूछेगा ! कौन उसके द्वार पर आवेगा ?अब उसे किसी के बराबर बैठने का,किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे कौन बैलों को नाँद में लगावेगा। वह दिन कहाँ,जब गीत गा-गा कर हल चलाता था।चोटी का पसीना एड़ी तक आता था,पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेतों को देखकर फूला न समाता था।खलिहान में अनाज का ढेर सामने रक्खे अपने को राजा समझता था।अब अनाज के टोकरे भर-भर कर कौन लावेगा ? ’

यह लम्बा उद्धरण देना आज जरूरी इसलिए हो गया है क्योंकि लगाातर होती किसानों की आत्महत्याएँ हमारे लिए महज आँकड़े या रोजाना की एक खबर मात्र बनकर रह गए हैं। किसान की जिंदगी से जुड़े इन तमाम पहलुओं को हमने जानना ही छोड़ दिया है।कोढ़ में खाज यह कि उनकी इन तकलीफों,मानसिक यातनाओं और त्रासदियों को पूरी तरह जाने-समझे बगैर, हमारे राजनेता या अधिकारी इन आत्महत्याओं का कारण कभी पारिवारिक कलह बताते हैं,तो कभी नशे की लत। कोई इसे मुआवजे के लालच में की गई हरकत कहता है, तो कोई बेहूदगी की सारी सीमाएं लांघकर इसे उनकी नपुंसकता की कुंठा से जोड़ देता है।

महाराष्ट्र, जिसके विदर्भ क्षेत्र में किसान आत्महत्याओं की संख्या इस साल सबसे अधिक है, के एक मंत्री ने तो यहाँ तक कह दिया कि किसानों ने तो आत्महत्या को अपना फैशन बना लिया है! इन सुविधापरस्त,ऐशो-आराम में जीनेवाले घोर असंवेदनशील हो चुके लोगों को क्या जरा भी अंदाजा है कि देश का गरीब,कर्ज के बोझ से दबा किसान आत्महत्या जैसा भयानक कठोर कदम उठाने के पहले किन हालात में,किन मनोभावों में जीता है? उनकी हताशा इतनी सरल या एकरैखिक नहीं होती। यह उनकी कोई सनक या पागलपन नहीं है,ना ही अचानक किसी भावावेश में लिया गया फैसला; बल्कि चारों तरफ से मिल रही गहन हताशा,असुरक्षाबोध और उसकी टूटन उसे इस कगार में लाकर छोड़ती है जहाँ उसे इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता।यह बेहद तकलीफ और बेहद निराशा के बाद लिया गया उनका फैसला है जिसे समझने के लिए गहरी संवेदनशीलता चाहिए। और यही हमारी व्यवस्था के पास नहीं है। ना ही मनोरंजन की दुनिया से जुड़े लोगों के पास, जो किसानों की आत्महत्या जैसे विकट संगीन,गंभीर मसले को भी अपने व्यवसायीकरण में एक फूहड़ हास्य में तब्दील कर देते हैं ।

फिल्म ‘ पिपली लाइव ’ अपने पूरे ट्रीटमेंट में यही करती है। लेकिन कलम का यह सिपाही उन किसानों की पीड़ा की भयानकता का अहसास बिल्कुल उन्हीं की तरह कर रहा था । उनके लिए तो यह कहा ही जाता है कि आजादी के पहले के हिंदुस्तान को जानना- समझना हो तो प्रेमचंद को पढ़िए। कई बार जो काम समाजशास्त्र और इतिहास की बड़ी-बड़ी किताबें नहीं कर सकतीं,वह साहित्य कर दिखाता है।
अपनी जमीन से बेदखल हो जाने के बाद किसान की क्या मनोदशा होती है,इसे दिखाते हैं प्रेमचंद-

‘ इस प्रकार तीन मास बीत गये और असाढ़ आ पहुँचा। आकाश में घटायें आयीं,पानी गिरा,किसान हल-जुए ठीक करने लगे।बढ़ई हलों की मरम्मत करने लगा। गिरधारी पागल की तरह कभी घर के भीतर जाता,कभी बाहर आता,अपने हलों को निकाल-निकाल देखता;उसकी मुठिया टूट गयी है,इसकी फाल ढीली हो गयी है,जुए का सैला नहीं है। यह देखते देखते वह एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा-दौड़ा हुआ बढ़ई के यहाँ गया और बोला-रज्जू मेरे हल भी बिगड़े हुए हैं,चलो बना दो।रज्जू ने उसकी ओर करूणाभाव से देखा और अपना काम करने लगा।गिरधारी को होश आ गया,नींद से चैंक पड़ा,ग्लानि से उसका सिर झुक गया आँखें भर आयीं।’

‘गाँव के चारों ओर हलचल मची हुई थी।कोई सन के बीज खोजता फिरता था,कोई जमींदार के चैपाल से धान के बीज लिये आता था,कहीं सलाह होती थी,किस खेत में क्या बोना चाहिए,कहीं चर्चा होती थी कि पानी बहुत बरस गया,दो-चार दिन ठहरकर बोना चाहिए। गिरधारी ये बातें सुनता और जलहीन मछली की तरह तड़पता था।’

इन लम्बे-लम्बे उद्धरणों के लिए, यदि पाठकों को चिढ़ हो रही हो तो उनसे खेद प्रकट करते हुए इतना अर्ज करना चाहता हूँ, कि किसान जीवन से जुड़ी इन छोटी-छोटी बातों से ही हम उसके जीवन शैली, मूल्यों,इच्छाओं और सपनों को बेहतर जान सकते हैं। प्रेमचंद अपने पात्र को जिस गहराई में डूबकर गढ़ रहे हैं,वह कोई भावातिरेक नहीं है। किसान का सरल हृदय इन्हीं छोटी-छोटी बातों से बना होता है,जिसे वह पूरी प्रामाणिकता के साथ बता रहे हैं।

वास्तव में,यह कहानी भी तब के किसान-जीवन को समझने की वैसी ही कुँजी हो सकती है जैसे उनकी प्रसिद्ध कृति ‘गोदान’। बल्कि शायद ‘गोदान’ में भी ऐसी तीव्रता कम ही मिले। अपनी खेती के बगैर किसान का जलहीन मछली-सा तड़पना-यह एक ऐसा सटीक और अद्वितीय बिम्ब है कि इससे बेहतर कोई दूसरा रूपक नहीं हो सकता। सचमुच किसान की आत्मा,उसकी हर साँस अपनी जमीन,अपनी खेती से ऐसे जुड़ी रहती है कि इसके बगैर वह अपने जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता। यही वजह है कि जब किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण ‘सेज’ (स्पेशल इकाॅनामिक ज़ोन) या  तथाकथित विकास के नाम पर किया जाता है तो वे खुद को ऐसा ही पाते है-जलहीन मछली सा तड़पता हुआ। और यह बिम्ब वही लेखक ला सकता है जिसने अपनी आत्मा में उनके सारे दुख-सुख पूरी तरह समो लिए हों।

एक किसान के लिए उसके गाय बैल क्या मानी रखते थे,इसे प्रेमचंद से बेहतर भला और कौन जान सकता है ? ये उनके लिए महज पशु भर नहीं होते थे। किसान के उनके बैलों सेे सम्बंध बहुत गहरी आत्मीयता के होते हैं,बिलकुल घर के अपने बच्चों की तरह।गिरधारी की जब खेती नहीं रही,तब बैल उसके लिए बेकार हो गए। और उसकी इस स्थिति का फायदा मंगल सिंह उठाता है। वह उसके सरल मन में कर्ज की वसूली और होनेवाले अपमान का नकली भय जगाकर कम कीमत में खरीद लेता है।अपने बैलों से एक किसान की बिछुड़न की जैसी तड़प,वेदना प्रेमचंद ने दिखाई है,वैसा हृदयविदारक वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है।

‘मंगल सिंह गिरधारी की खाट पर बैठे रूपये गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास विषादमय नेत्रों से उनके मुँह की ओर ताक रहा था। आह! यह मेरे खेतों को कमानेवाले, मेरे जीवन के आधार,मेरे अन्नदाता,मेरी मान-मर्यादा की रक्षा करनेवाले,जिनके लिए पहर रात से उठ कर छाँटी काटता था,जिसकी खली-दाने की चिंता अपने खाने से ज्यादा रहती थी,जिनके लिए सारा घर दिन भर हरियाली उखाड़ा करता था। ये मेरी आशा की दो आँखें,मेरे इरादे के दो तारे,मेरे अच्छे दिनों के दो चिन्ह,मेरे दो हाथ,अब मुझसे विदा हो रहे हैं।जब मंगलसिंह ने रूपये गिन कर रख दिये और बैलों को ले चले तब गिरधारी उनके कंधों पर खूब फूट-फूट कर रोया।जैसे कन्या मायके से विदा होते समय माँ-बाप के पैरों को नहीं छोड़ती,उसी तरह गिरधारी इन बैलों को न छोड़ता था।’

कहना न होगा,प्रेमचंद इस जीवन को अत्यंत विव्हलता, वेदना से और गहराई से महसूस कर रहे थे। संभव है आज बहुतों को भले ही यह कोरी भावुकता या भावातिरेक लगे,लेकिन गाँव के लोगों में अपने पशुधन के लिए यही आज भी यही संवेदना,यही आत्मीयता है।

अपने बैलों के हाथ से निकल जाने के बाद गिरधारी का साहस टूट जाता है। वह दूसरे दिन बिना खाए पिये सुबह से कहीं चला गया है। उसकी हालत विक्षिप्त की सी हो गई है। यहीं इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि यह 1918 में लिखी गई कहानी है,और तब यानी बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक हिंदी कहानी ने अपनी वैसी परिपक्वता हासिल नहीं की थी कि तरह-तरह के प्रयोग कथा में किये जाएं।

इस कहानी के अंत को प्रेमचंद ने जैसा दर्ज किया है,वह आश्चर्यजनक ढंग से कथा की वही शैली है जिसे जादुई यथार्थवाद कहा जाता है। इस जादुई यथार्थवादी शिल्प की शक्ति से वे कितना परिचित थे,इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता,शायद विद्वान जन बता पायें,लेकिन यह कहानी बताती है कि उन्हें कहानी की इस शैली का,इसकी शक्ति का भी अंदाज था। और बहुत प्रभावी ढंग से उन्होंने इसका उपयोग किया है! अब तक यह कहानी, जो अपने परंपरागत यथार्थवादी शैली में चल रही थी, लेकिन यहीं लेखक अपनी उस परम्परागत लीक को छोड़ देता है और आगे की कथा एक नयी शैली से लिखने लगता है।यहीं से अब तक सब कुछ बहुत साफ-साफ और दो टूक कह देने वाले प्रेमचंद, अचानक, अपने इस मुख्य पात्र गिरधारी को लेकर रहस्य खड़े करने लगते हैं,और कितना अद्भुत!

बैलों के बिक जाने की रात से ही गिरधारी बिना किसी को कुछ बताए घर से गायब है,घर में सुबह से उसकी खोजबीन की जा रही है,रोना-धोना मचा है।लेकिन पता नही चला।

‘संध्या हो गयी।अँधेरा छा रहा था।सुभागी ने दीया जलाकर गिरधारी के बिस्तर के सिरहाने रख दिया था और बैठी द्वार की ओर ताक रही थी कि सहसा उसे पैरों की आहट मालूम हुई।सुभागी का हृदय धड़क उठा। वह दौड़कर बाहर आयी,और इधर-उधर ताकने लगी। उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाद के पास सिर झुकाये खड़ा है।

सुभागी बोल उठी-घर आओ,वहाँ खड़े क्या कर रहे हो,आज सारे दिन कहाँ रहे?यह कहते हुए वह गिरधारी की ओर चली। गिरधारी ने कुछ उŸार न दिया। वह पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर गायब हो गया।सुभागी चिल्लायी और मूर्छित होकर गिर पड़ी।

दूसरे दिन कालिकादीन हल लेकर अपने खेत पहुँचे,अभी कुछ अँधेरा था।बैलों को हल में लगा रहे थे कि यकायक उन्होंने देखा कि गिरधारी खेत की मेड़ पर खड़ा है,वही मिर्जई,वही पगड़ी,वही सोंटा।

कालिकादीन ने कहा-अरे गिरधारी! मरदे आदमी,तुम यहाँ खड़े हो,और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है। कहाँ से आ रहे हो?यह कहते हुए बैलों को छोड़ कर गिरधारी की ओर चले,गिरधारी पीछे हटने लगा और पीछे वाले कुएँ में कूद पड़ा।कालिकादीन ने चीख मारी और हल-बैल वहीं छोड़कर भागा।सारे गाँव में शोर मच गया,और लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करने लगे। कालिकादीन को गिरधारी वाले खेतों में जाने की हिम्मत न पड़ी।’

उपरोक्त उद्धरण में पाठक भली-भाँति देख सकते हैं कि यथार्थवाद के इस शीर्ष कहानीकार ने यहाँ रहस्यों को जानबूझकर नहीं खोला है।उन्हें रहस्य ही बनाये रक्खा है, अन्यथा,यथार्थवादी रचनाकार तो अपने पात्र के हर कदम को स्पष्ट बताता चलता है। गौर कीजिये कि उपरोक्त दोनों दृश्यों में अँधेरा है,जिसका इस्तेमाल प्रेमचंद रहस्य गढ़ने में कर रहे हैं।यहाँ गिरधारी को लेकर कोई पक्की सूचना नहीं है कि वह वास्तव में साँझ को घर आया था,या यह सुभागी का केवल भ्रम है? इसी तरह, कालिकादीन को जो खेत में मिला, वह सचमुच गिरधारी ही था, इसका भी बिलकुल पक्का आश्वासन नहीं है। वह हो भी सकता है और नहीं भी।

यहाँ कोई चीज बहुत साफ नहीं है।यहाँ तक कि कुएँ में कूद गए गिरधारी के जिंदा होने या मृत्यु हो जाने को लेकर भी कोई चिंता या कथन कहानी में नहीं है,न ही कोई छानबीन।यहाँ तक कि गिरधारी के घर में इसके बाद क्या हुआ,या उसको लेकर घर में मचे रोने-धोने,या गिरधारी की लाश का या उसके अंतिम संस्कार का कोई जिक्र लेखक के द्वारा नहीं किया गया है, ना ही यहाँ अन्य कोई भावनात्मक बात की गई है,जबकि कहानी में आरंभ से ही देख सकते हैं,प्रेमचंद अपने पात्रों के मनोभावों का चित्रण हर जगह करते आ रहे हैं। तो यहाँ क्या हुआ कि ऐसी कोई चर्चा न करके, वे सीधे आगे के छह महीनों की छलाँग लगा जाते हैं।

‘गिरधारी को गायब हुए 6 महीने बीत चुके हैं।उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भट्ठे में काम करता है और 20 रू. महीना घर लाता है। अब वह कमीज और अँग्रेजी जूता पहनता है,घर में दोनों जून तरकारी बनती है और जौ के बदले गेहूँ खाया जाता है,लेकिन गाँव में उसका कोई आदर नहीं।यह अब मजूरा है।सुभागी अब पराये गाँव में आए हुए कुए की भाँति दुबकती फिरती है।अब वह पंचायत में भी नहीं बैठती।वह अब मजूर की माँ है। कालिका दीन ने गिरधारी के खेतों से इस्तीफा दे दिया है,क्योंकि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ मँडराया करता है। अँधेरा होते ही वह मेड़ पर आकर बैठ जाता है।और कभी-कभी रात को उधर से उसके रोने की आवाज सुनायी देती है।वह किसी से बोलता नहीं,किसी को छेड़ता नहीं। उसे केवल अपने खेतों को देख कर संतोष मिलता है। दीया जलने के बाद उधर का रास्ता बंद हो जाता है।’ (जोर मेरा)

यह कहना तो अतिवादी कथन होगा कि प्रेमचंद हिंदी कहानी में जादुई यथार्थवाद को लानेवाले पहले कथाकार थे। लेकिन उन्होंने जिस खूबी से उन्हीं कथा-कौशल के तत्वों को इस्तेमाल किया है जिसे हम जादुई यथार्थवाद कहते हैं, हमें हैरत में डाल देता है।कथा के इस कौशल या शिल्प का बखूबी प्रयोग हमें यह तो बताता ही है कि कहानी की प्रभावकारिता और उत्तमता के लिए वह प्रचलित मिथकों,धारणाओं का वैसा ही प्रयोग कर रहे हैं,जो आगे चलकर लेखन की माक्र्वेज और बोर्खेस ब्राण्ड ‘जादुई यथार्थवाद’ शैली के रूप में ख्यात हुआ। इस कहानी में कहानी कला की उस शैली के उपयोग हैं,जिसके बारे में तब किसी ने सोचा भी नहीं था। न ही यह अवधारणा परिभाषित हुई थी। हिंदी कहानी में इसका जोर लैटिन अमरीकी साहित्य के प्रभाव से आठवें-नौवें दशक में उदयप्रकाश की ‘टेपचू ’ ,‘छप्पन तोले का करधन’,‘तिरिछ’,‘हीरालाल का भूत’ और पंकज बिष्ट की ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते’ जैसी कहानियाँ आने के बाद आया और इसका हल्ला मचा। लेकिन पाठक देख सकते हैं प्रेमचंद ने किस कुशलता के साथ कहानी को और प्रभावी बनाने इस टेकनीक का प्रयोग किया है।

प्रेमचंद ने इस कहानी के अंत में,संक्षिप्त ही सही,गाँव-देश में प्रचलित भूत के मिथक का बहुत सार्थक प्रयोग किया है! और खूबी यह कि वे अंत तक स्पष्ट नहीं करते कि यह वास्तविक है या भ्रम ? इस भ्रम को वे कहानी के प्रभाव में गुणात्मक वृद्धि करने के लिये अंत तक बनाये रखते हैं-

कि गिरधारी अभी तक अपने खेतों के चारों ओर मंडराया करता है,कि अँधेरा होते ही वह मेड़ पर आकर बैठ जाता है,और कभी कभी रात को उधर से उसके रोने की आवाज सुनायी देती है।

क्या यह शैली जादुई यथार्थवादी नहीं है?

मेरी अपनी समझ से हिंदी कहानी में ‘जादुई यथार्थवाद’ कला का भ्रूण इस कहानी में देखा जा सकता है ,साथ ही कहानी कला की ऊँचाई और उत्कृष्टता भी।और इसका उपयोग करके प्रेमचंद यह सच्चाई बता जाते हैं कि किसान की आत्मा उसके खेतों में होती है, और उसे किसी छल-बल से उसके हक से वंचित नहीं किया जाना चाहिये। वे प्रकारांतर से इनकी जमीनों पर जमींदारों या कालिकादीनों के कब्जे का प्रतिरोध करते हैं और भूमि-सुधार आंदोलन के उस नारे की पैरवी करते नजर आते हैं-‘जमीन किसकी? जो उसको जोते उसकी!’

साथ ही,इस अंतिम पैराग्राफ में गाँव में किसान परिवार के मजदूर परिवार में बदल जाने के यथार्थ और उसकी पीड़ा को ,उसके सामाजिक सम्मान में गिरावट को यहाँ साफ-साफ बताया गया है।

अपने पहले पाठ में प्रेमचंद की बहुतेरी कहानियों की तरह बहुत सरल-सपाट सी लगने वाली यह कहानी दरअसल किसान जीवन पर न केवल अपने समय के बहुस्तरीय यथार्थ की संश्लिष्ट कहानी है, बल्कि अपने समय को लाँघकर हमारे आज के दौर में भी प्रासंगिक और प्रकाश देनेवाली बनी रहती है। जहाँ यह अपनी मार्मिकता के कारण उनकी अन्य कालजयी कहानियों की तरह अविस्मरणीय है,वहीं उनकी कहानी कला की उत्कृष्टता की मिसाल भी।

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]कैलाश बनवासी वरिष्ठ कथाकार हैं. वह छत्तीसगढ़ के दुर्ग में रहते हैं. संपर्क – 9827993920 [/author_info] [/author]

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