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भारतीय राजनीति के लिए अम्बेडकर का सही आकलन है जरूरी

भारत रत्न बी.आर. अम्बेडकर ने आजादी के बाद भारत निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने विभिन्न मुद्दों के समाधान खोजने के लिए जिस तरह विश्लेषणात्मक तरीकों का इस्तेमाल किया, वह भारतीय नेता के रूप में अद्भुत और विशिष्ट है। उन्होंने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण, पाकिस्तान के साथ संबंध, राज्यों के पुनर्गठन और महिलाओं के लिए समान अधिकार के लिए ठोस प्रयास किया , जिसका आकलन नहीं हो पाया है और अभी भी भारत के इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला है।
बाबा साहेब पर लोग फैशन की तरह विचार करते हैं। लोग उन्हें अपने अपने फोल्ड में डालने के अभियान में लगे हुए हैं। कुछ महान बौद्धिक प्राणी बाबा साहेब को उनकी किताबों के पन्नों में ढूंढ कर प्रसन्न हो रहे हैं तो कुछ लोग आंदोलनजीविता में, जबकि बाबा साहेब को थोड़ा ठीक से वही जान सकता है, जो पढ़ता-लिखता और लड़ता भी हो, जैसे कुछ हद तक मान्यवर कांशीराम।
बाबासाहेब पर सही तरीके से विचार करने का दायित्व जिस समुदाय और समाज पर था, वह संकीर्ण राजनीति का शिकार होकर स्वयं को बाबासाहेब को समझने के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया है। अगर यह समाज सचेत होता तो, पाकिस्तान विभाजन, राज्यों के पुनर्गठन, संघीय व्यवस्था, केंद्र-राज्य संबंध, कृषि अर्थव्यवस्था में संकट और समाज के समाजवादी पैटर्न पर बाबासाहेब का जो योगदान था, उस पर समग्रता से विचार हुआ होता और इस दिशा में महत्वपूर्ण पुस्तकें आई होतीं।
बाबासाहेब आंबेडकर का सिर्फ गांधीजी से मतभेद नहीं था, कई मायनों में वे पटेल और नेहरू से भी मुख्तसर राय रखते थे। जानने वाले जानते हैं कि डॉ. अम्बेडकर ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया। वह समग्र विकास और प्रभावी प्रशासन के लिए छोटे राज्यों के हिमायती थे। तेलंगाना, उत्तराखंड और झारखंड सहित नए राज्यों के निर्माण के साथ उनकी मान्यता को बल मिल रहा है। कई दूसरे बड़े राज्यों के लोग छोटे छोटे राज्य के लिए लड़ रहे हैं।
बाबा साहेब ने राज्य और भारतीय जनता को मजबूत राष्ट्र से जोड़कर एक संघीय ढांचे को साकार किया। यही कारण है कि वह संसदीय लोकतंत्र को सुरक्षित रखना चाहते थे। साथ ही साथ वह कृषि संकट की समस्या को दूर करने के लिए भी तत्पर थे। इसीलिए उन्होंने भूमि के राष्ट्रीयकरण और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की अवधारणा को स्वीकार किया। केंद्रीय श्रम मंत्री रूप में उन्होंने श्रमिकों के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए कानून बनाए। चूंकि उनके पास ऊर्जा विभाग का भी प्रभार था, इसलिए ऊर्जा के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने, जो किया, वह स्वयं में मिसाल है। देश की बिजली और जल नीति शुरू करने और और उनके बंटवारे को तय करने का विचार उन्हीं का था। बिजली के उत्पादन को सरकार के नियंत्रण में लाने का कार्य पूरा किया। उन्होंने बाढ़ को रोकने और सिंचाई के नेटवर्क को चौड़ा करने पर अमल करके दामोदर घाटी परियोजना को साकार किया। वे सिंचाई और ऊर्जा निर्माण को एक ही परियोजना का अंग बनना चाहते थे।
भारत की राजनीति और बौद्धिक जगत दोनों घोर जातिवाद का शिकार है। हिन्दू कोड बिल के समय तत्कालीन भारतीय राजनीतिज्ञों का दोहरापन उजागर हुआ और उससे खिन्न होकर बाबा साहेब ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। जब केंद्र सरकार ने महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के लिए उनके द्वारा पेश किए गए हिंदू कोड बिल पर ढिलाई बरती, तो उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि जो लोग संसद में बैठै हैं, उनके द्वारा कोई सुधार नहीं हो सकता। इस्तीफा देने के बाद वह वैकल्पिक राजनीति पर विचार करने लगे, इसके लिए उन्होंने कोशिश भी कि मगर, उन्हें अपनों का साथ नहीं मिला। अपने समय में वे बाहरी बैर के साथ भीतरघात के शिकार थे।

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