समकालीन जनमत
जनमतस्मृति

‘ फ़िराक़ ’ गोरखपुरी : एक बुजुर्ग बालक

बचा के रखी थी मैंने अमानते-तिफ़ली

…… ‘फ़िराक़’ साहब के भीतर एक बच्चा रहता रहा है। वे इस हयात, कायनात, उसके रहस्य-रोमांच और सौंदर्य को, उसकी नजर से देखते हैं- ‘बच्चा सोते में मुस्कुराए जैसे।’ वे दूसरे की कविताओं को भी बच्चे की मासूमियत और जिज्ञासा से देखते-समझते थे।

एक बार उनके यहाँ बैठे बात कर रहा था कि एक लड़का आहिस्ते आ सर झुकाये चुप खड़ा हो गया। उधर नजर फेरते हुए ‘फ़िराक़’ साहब ने उस लड़के से पूछा- ‘कहिए!’ लड़के ने सर झुकाये ही कहा – ‘हुजूर मैं उर्दू डिपार्टमेन्ट का छात्र हूँ, ग़ालिब पर रिसर्च कर रहा हूँ। मेरे गाइड ने कहा कि मैं आप से मिल लूँ।’

‘फ़िराक़’ साहब ने कहा, ‘यह तो ठीक है लेकिन पहले आप अपने गाइड से ग़ालिब के इस शेर का अर्थ पूछ कर आइये- ‘बैठे रहे महफिल में इशारे हुआ किए’- तो ग़ालिब क्या कोई बेहया थे, ….कोई गुंडे थे …या बेगैरत, क्या थे- पहले पूछ कर आइये फिर आप से बात होगी, जरूर होगी।’

वह लड़का कहता भी क्या, वैसे ही चुपचाप चला गया। ‘फ़िराक़’ साहब ने उर्दू विभागों और आज के उर्दू वालों को भला-बुरा कहते हुए बात जारी रक्खा- ‘ग़ालिब के इस शेर को समझना बच्चे को समझना है, (मैं थोड़ा चौंका और उत्सुक भी) अब फ़र्ज कीजिये की मेरे पड़ोस में एक बच्चा है। उसे रसगुल्ले बहुत प्यारे हैं। पड़ोस के उस घर से हमारे घर का रिश्ता बहुत ख़राब है, ऐसा कि उस घर के बच्चों तक को लोग पसंद नहीं करते। मैं रसगुल्ले का एक कुल्हड़ लिये उधर से चला आ रहा हूँ। उस बच्चे ने मुझे कुल्हड़ लिये आते देख लिया है और मेरे पीछे-पीछे हो लिया। मैं घर में दाखिल हो रहा हूँ। अब लड़का इधर उधर से झांके जा रहा है। हमारे घर के लोग नाक सिकोड़े उस पर इशारे कर रहे हैं, फ़ब्तियाँ कस रहे हैं लेकिन लड़के को क्या, उसका ध्यान तो मेरे हाथ के रसगुल्ले के कुल्हड़ पर है- ‘बैठे रहे महफिल में इशारे हुआ किये।’ मेरे विस्मय का ठिकाना नहीं था, मैं ये सोच भी नहीं सकता था कि इस तरह भी इस शेर को समझा जा सकता है।

‘फ़िराक़’ साहब ने अपनी बेटी का जिक्र करते हुए बताया कि बचपन से ही उसके पेट में दर्द रहा करता था। एक रोज वह लॉन में बच्चों के साथ खेल रही थी। मैं सामने कुर्सी डाले बैठा हुआ था। अचानक उसके पेट में दर्द उठा, वह पेट पकड़ कर बैठ गई। दर्द के मारे उसकी आँखें भर आई थीं, अचानक मेरी नजर उस पर पड़ी और वह मुस्कुरा दी, उस दिन मैंने ये शेर कहा-

वो ग़म क्या जो हंसा न दे

वो ख़ुशी क्या जो रुला न दे।

उस दिन ‘फ़िराक़’ साहब ने बच्चों की बाबत ढेर सारी बातें सुनाईं। बताया कि एक बार जब अकाल पड़ा था, एक औरत कहीं जा रही थी। पीछे-पीछे उसका बच्चा माँ के आँचल का छोर खींचते ठुनक रहा था- ‘माई भात खाब, माई भात खाब!’ गोरखपुर वालों के खाने में भात न हो तो बात नहीं बनती। माँ क्या बोले ! यह देख कर ऐसा गुजरा दिल पर कि क्या महाभारत गुजरा होगा किसी पर !’

‘फ़िराक़’ साहब ने आगे सुनाया- ‘मेरे घर में एक बिल्ली थी। उसने बच्चे दिये थे। वह बच्चे को ढूंढती इस कमरे, उस कमरे म्यावं, म्यावं करती फिर रही थी। किसी कुत्ते ने उसका एक बच्चा तोड़ दिया होगा। क्या कौशल्या रोई होंगी राम के लिये, जैसा वह अपने बच्चे के लिये रो रही थी।

… ‘फ़िराक़’ साहब के अंतिम समयों में मैं अकेले अक्सर अपनी बेटी समता, तब वह बहुत छोटी थी, को लिये उनके यहाँ जाया करता था। एक दिन हम बैठे बातें कर रहे थे कि समता ने चौंकते हुए कहा- ‘पापा बिल्ली!’ मैं इधर-उधर देखने लगा पर बिल्ली दिख नहीं रही थी। ‘फ़िराक़’ साहब बोले- ‘छोडि़ए साहब आप बातें करिए वो आपको नहीं दिखेगी, जिसकी चीज होती है उसी को दिखाई पड़ती है।’

उसी तरह एक दिन हम बैठे बातें कर रहे थे। ‘फ़िराक़’ साहब की स्टूल पर सिगरेटों की पैकटें बदस्तूर रखी हुई थीं। समता ने उन्हें उठा कर तोड़ना और इधर-उधर बिखेरना शुरू कर दिया। मैं रोकने के लिये उठने को हुआ ही कि ‘फ़िराक़’ साहब ने अपने होठों पर अंगुली रख इशारे से मुझे कुछ कहने-करने से सख़्ती से रोक दिया। और बोले- ‘रमेश बिस्कुट है क्या, ले आओ !’ रमेश प्लेट में बिस्कुट रख कर ले आए और स्टूल पर रख दिये। समता अब बिस्कुट में लगीं और ‘फ़िराक़’ साहब ने अपनी सिगरेटें समेट दूसरी तरफ छिपा कर रख लिया और फिर बोले- ‘ तुम उसे नफ़ा-नुकसान के हिसाब से टोकते लेकिन वह तो इसे जानती नहीं, वह तो खेल रही थी और देख-समझ रही थी उसे। तुम्हारे ऐसा करने से उसके दिमाग में टेढी लकीरें बन जातीं, यह अच्छा न होता। देखो एक बात याद रखना, कमरे में तुम पति-पत्नी चाहे जितनी और जैसी व्यक्तिगत बातें कर रहे हो, अगर उस समय कोई बच्चा कमरे में आ जाये तो एक दम से चुप नहीं हो जाना चाहिए। इससे धप्प करती हवा वहाँ से जैसे खाली हो जाती है और वह बच्चे के दिमाग से जा टकराती है, उसके सिर को जैसे दबा देती है दोनों तरफ से। इससे उसके दिमाग में गड़बड़ लकीरें बन जाती हैं, जो उसे नुकसान पहुंचाती हैं।’

मैं अक्सर सोचता रहा हूँ कि जिस आदमी का अपने परिवार से कोई बहुत नाता नहीं रहा, वह बच्चों को लेकर इस कदर संवेदनशील कैसे !

  हिंदी के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ‘साहित्य और जिज्ञासा’ नाम के अपने निबंध में लिखते हैं, ‘जिज्ञासा जो बाल्यकाल, नवयौवन और तारुण्य के विभिन्न उषःकालों में हृदय का छोर खींचती हुई, आकर्षण के सुदूर ध्रुव-बिंदुओं से हमें जोड़ देती है।… ‘देखने’ की इच्छा, ‘जानने’ की इच्छा, ‘रहस्य’ की उलझी हुई बातों को सुलझाने की इच्छा, कितनी मनोहर, कितनी दुर्निवार और अदम्य हो सकती है, यह उसी से जाना जा सकता है जो जिज्ञासा का शिकार है।’

‘‘उम्र में बढ़कर, जब हमें ‘ओपीनियन’ बनाने की आदत पड़ जाती है, जब हम बुद्धिमान और बुद्धिवादी बन जाते हैं तब हमारे दिमाग की बाल-कमानी यानी जिज्ञासा पुरानी और घटिया हो जाती है। तब इसे किसी बालक की जरूरत पड़ती है, जो यह टाइमपीस तोड़कर देखे कि उसकी भीतरी बनावट क्या है।

लेकिन पुराने बालकों में ऐसे लोग भी निकलते हैं, जिनमें जिज्ञासा की तीव्र दृष्टि और आग्रहशीलता के साथ उस ओर यौवनसुलभ श्रम करने की प्रवृत्ति और खोज के आधर पर वृद्धसुलभ अनुभवपूर्ण मत बनाने की शक्ति रहती है। साहित्य इस जिज्ञासा का ऋणी है।“

‘फ़िराक़’ से मिलते-मिलाते, बातें करते मुझे बारहा लगता रहा है कि ‘फ़िराक़’ के भीतर एक बच्चा, एक बुजुर्ग बालक है, जिसे ‘फ़िराक़’ ने अपने भीतर पूरी जिंदगी बड़े जतन से महफ़ूज़ रखा। जिसने अपने समय की टाइमपीस तोड़ कर यह देखने की कोशिश की कि उसकी भीतरी बनावट क्या है।

मुक्तिबोध की कविता के इस पहलू पर अपने लिखे हुए को मैं यहाँ इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ कि यह ‘फ़िराक़’ साहब के बारे में भी सही लगता है-   ‘इस वृद्ध बालक की सुदूर नेब्युला से लेकर आभ्यांतर निराले लोक तक, अति निकट वर्तमान से लेकर सुदूर अतीत तक, अपने देश से लेकर देश-देशांतर तक की इस साहस और जोखिम भरी जिज्ञासा-यात्रा में ‘सहसा’, ‘अचानक’, ‘यकायक’, ‘अकस्मात’ बहुत कुछ दिखता, लुप्त होता, मिलता, खोता, आता, जाता रहता है। भय और पुलक की, चिहुंकन और सिहरन, खतरनाक अघट घटनाओं की थरथरी आदि बहुत कुछ अनुभव के हिस्से बनते रहते हैं।’

सनद के बतौर ‘‘हिंडोला’’ की चंद पंक्तियाँ, जो ‘फ़िराक़’ साहब ने अपने बारे में लिखी हैं-

ये कम नहीं है कि तिफ़ली-ए-रफ़्ता छोड़ गयी

दिले-हज़ीं में कई छोटे-छोटे नक़्शे-कदम

मेरी अना के रगों में पड़े हुए हैं अभी

न जाने कितने बहुत नर्म उँगलियों के निशाँ

….

ज़माना छीन सकेगा न मेरी फि़तरत से

मेरी सफ़ा मेरे तहतश्शउर की इस्मत

तख़य्युलात की दोशीज़गी-ये-रद्दे-अमल

जवान होके भी बेलौस तिफ़्लवश जज़बात

….

बग़ैर बैर के अनबन, गरज़ से पाक तपाक

गरज़ से पाक ये आँसू गरज़ से पाक हँसी

…..

ये साज़े दिल में मेरे नग़म-ए-अनलकौनैन

हर इजि़्तराब में रूहे – सुकुने – बे – पायाँ

ज़मान – ए – गुज़रां में दवाम का सरगम

…..

ये रम्जि़यत के अनासिर, शऊरे-पुख्ता में

फलक प वज्द में लाती है जो फ़रिश्तों को

वो शायरी भी बुलूगे-मिज़ाजे-तिफ़ली है

के नशतरिय्यते-हस्ती ये उसकी शेरीयत

….

इसी वदीअते – तिफ़ली का अब सहारा है

….

इन्हीं को रखना है महफ़ूज़ ता-दमे आखि़र

बच्चों पर बहुत सी कवितायें लिखी गयी हैं लेकिन यतीम, गरीब, यहाँ तक कि खाते-पीते घरों, गरज़ के बच्चों के बारे में जिस सरोकार, तकलीफ़ और पाक गुस्से के साथ ‘फ़िराक़’ ने कवितायें लिखी हैं वैसी कम देखने को मिलती हैं। ‘‘हिंडोला’’ का आखिरी हिस्सा इस नज़र से काबिले गौर है-

अगर हिसाब करें दस करोड़ बच्चों का

ये बच्चे हिन्द की सबसे बड़ी अमानत हैं

हर एक बच्चे में हैं सद जहाने-इमकानात

मगर वतन का हालो-अक़्द जिनके हाथ में है

निज़ामे-जि़ंदगी-ए-हिन्द जिनके बस में है

रवैया देख के उनका ये कहना पड़ता है

किसे पड़ी है कि समझे वो इस अमानत को

किसे पड़ी है कि बच्चों की जि़ंदगी को बचाए

ख़राब होने से, मिटने से, सूख जाने से

बचाए कौन इन आज़ुर्दा होनहारों को

वो जि़ंदगी जिसे ये दे रहे हैं भारत को

करोड़ों बच्चों के मिटने का एक अलमिया है

…..

जो खाते-पीते घरों के बच्चे हैं उनको भी क्या

समाज फलने-फूलने के दे सकी साधन

वे सांस लेते हैं तहज़ीब-कुश फ़ज़ाओं में

हम उनको देते हैं बेजान और ग़लत तालीम

…..

वो जिसको बच्चों को तालिम कह के देते हैं

वो दर्स उलटी छुरी है, गले प बचपन के

ज़मीने-हिन्द हिंडोला नहीं है बच्चों का

करोड़ों बच्चों का ये देश अब जनाज़ा है

हम इन्कि़लाब के ख़तरों से खूब वाकि़फ़ हैं

कुछ और रोज़ यही रह गए जो लैलो-निहार

तो मोल लेना पड़ेगा हमें ये ख़तरा भी

कि बच्चे कौम की सबसे बड़ी अमानत हैं।

(यादगारे ‘फ़िराक़’, रामजी राय, से एक अंश)

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