आशा कार्यकर्ताओं को तो हर किसी ने देखा होगा. हर इलाके में स्वास्थ्य संबंधी छोटे-बड़े तमाम काम ये करती हैं. आशा दरअसल संक्षिप्त नाम है. यह नाम हिन्दी में नहीं अंग्रेजी में है. ASHA यानि Accredited Social Health Activist (एक्रिडिटेड सोशल हैल्थ एक्टिविस्ट). नेशनल रुरल हैल्थ मिशन के तहत नियुक्त ये आशाएँ टीकाकरण से लेकर गर्भवती महिलाओं की जानकारी रखने और उन्हें स्वास्थ्य केन्द्रों तक ले जाने के लिए उत्तरदाई हैं.
कोरोना काल में तो लोगों के स्वास्थ्य पर नजर बनाए रखना, बाहर से आने वालों की जानकारी रखना और क्वारंटीन सेंटरों की निगरानी भी इनके काम का हिस्सा हो गई. इसके लिए इनको कोई वेतन नहीं मिलता बल्कि नाममात्र की रकम मिलती है,जिसे मानदेय कहा जाता है. काम इनके पास वेतन भोगी कर्मचारियों से ज्यादा है. लेकिन वेतन नहीं मिलता क्यूंकि ये सरकार का काम करते हुए भी सरकारी कर्मचारी नहीं हैं.
यह फरेब इनके नाम में ही कर दिया गया. इनका नाम है एक्रिडिटेड सोशल हैल्थ एक्टिविस्ट,जिसका अर्थ होता मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता. इनको सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता घोषित करके, कर्मचारी की परिधि से बाहर करने की व्यवस्था पहले ही कर दी गयी. इनके पास नाम में एक्रिडेटेड यानि मान्यता है और पाने को नाम मात्र का मानदेय ! इनके नाम का संक्षिप्तीकरण भले ही आशा किया गया,लेकिन सरकार चाहती है कि वेतन और कर्मचारी का दर्जा पाने की आशा ये सरकार से न रखें ! अलबत्ता हर सरकारी आदेश का ये कुशलता पूर्वक पालन करें,ऐसे आशा सरकार और स्वास्थ्य महकमा इनसे करता है !
ऐसी विपरीत हालातों में काम करती इन आशाओं के प्रति प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग का रवैया सहयोगात्मक या सहानुभूतिपूर्ण नहीं होता. उत्तराखंड में और यहाँ भी खास तौर पर चंपावत जिले में आशाओं के साथ निरंतर उत्पीड़नात्मक कार्यवाही की खबरें इस कोरोना काल में भी लगातार सामने आ रही हैं. जुलाई महीने की शुरुआत में चंपावत जिले में 256 आशाओं की बर्खास्तगी की खबर आई. उधमसिंह नगर जिले में भी आशाओं को निकालने के लिए सूची बनाने की बात सामने आई. इसके खिलाफ आशा हैल्थ वर्कर्स यूनियन, तीन वामपंथी पार्टियों- भाकपा,माकपा और भाकपा(माले) और अन्य जनवादी ताकतों ने प्रदेश भर में प्रदर्शन किया.
मामले को तूल पकड़ता देख चंपावत के मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने अखबारों में बयान दिया कि आशाओं को बर्खास्त करने का कोई आदेश नहीं दिया गया है,बल्कि उन्हें चेतावनी दी गयी थी.
इस मामले को अभी एक पखवाड़ा भी नहीं बीता कि चंपावत में फिर आशा कार्यकर्ताओं के साथ प्रशासनिक दुर्व्यवहार की खबर आई है. प्राप्त जानकारी के अनुसार 23 जुलाई, 2020 को पाटी (जिला-चम्पावत) की एसडीएम श्रीमती सुप्रिया द्वारा ऐक्टू से संबद्ध उत्तराखंड आशा हेल्थ वर्कर्स यूनियन की पाटी ब्लॉक अध्यक्ष श्रीमती ज्योति उपाध्याय के साथ सर्वे करने के लिए दबाव बनाने के लिए दुर्व्यवहार किया गया. बाकी आशाओं को मीटिंग रूम से बाहर कर दिया गया. फिर कमरा बंद कर को ज्योति उपाध्याय अकेले में प्रताड़ित करने व धमकाने की शिकायत सामने आई है.
आरोप यह भी है कि इस कार्य में मीटिंग रूम में उपस्थित पीएसी पाटी के इंचार्ज डॉक्टर आभास सिंह व उपस्थित एएनएम ने भी बढ़ चढ़कर भाग लिया. ऐक्टू से संबद्ध उत्तराखंड आशा हेल्थ वर्कर्स यूनियन ने ज्योति उपाध्याय को धमकाने और प्रताड़ित किए जाने के खिलाफ यूनियन द्वारा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को ज्ञापन भेजा गया है.
मुख्यमंत्री को भेजे गए ज्ञापन में सवाल उठाया गया है कि “क्या प्रशासन को सरकार से अपने हक की मांग करने वाली आशाओं से दुर्व्यवहार की छूट दे दी गई है? यदि ऐसा नहीं है तो पाटी की उपजिलाधिकारी और अस्पताल प्रशासन के रवैये को क्या कहा जाये? हम यह भी जानना चाहते हैं कि स्वास्थ्य विभाग की रीढ़ बन चुकी आशाओं का क्या कोई सम्मान नहीं है? क्या उत्तराखंड सरकार के प्रशासनिक अधिकारियों को इसी तरह की ट्रेनिंग दी जाती है कि वे दिन रात मातृ-शिशु सुरक्षा के कार्य में लगी आशाओं को इस तरह प्रताड़ित करें ? ”
उत्तराखंड आशा हेल्थ वर्कर्स यूनियन की प्रदेश अध्यक्ष कमला कुंजवाल और प्रदेश महामंत्री डॉ. कैलाश पांडेय ने मांग की कि “ पाटी की एसडीएम श्रीमती सुप्रिया और पाटी पीएसी के प्रभारी डॉक्टर आभास सिंह को तत्काल हटाया जाए. साथ ही इस कृत्य के लिए वे दोनों श्रीमती ज्योति उपाध्याय से बिना शर्त लिखित माफी मांगें. सभी अस्पतालों के डॉक्टरों और अन्य स्टाफ द्वारा आशाओं के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार पर रोक लगायी जाय.”
एक तरफ कोरोना वॉरियर्स के नाम पर घंटे-घड़ियाल बजाए जा रहे हैं,फूल बरसाए जा रहे हैं. दूसरी तरफ बिना संसाधनों के कोरोना के खिलाफ लड़ाई में फ्रंटलाइन वर्कर्स के तौर पर काम करने वाली आशाऐं प्रशासन द्वारा निरंतर ही प्रताड़ना का शिकार बनाई जा रही हैं. सरकारी वेतन नहीं,सरकारी कर्मचारी घोषित जाने के मामले में सुनवाई नहीं, पर कम से कम गरिमापूर्ण,सम्मानजनक व्यवहार की आशा तो सरकार और प्रशासन से रख ही सकती हैं आशाऐं ? या आशा सिर्फ नाम में रहेगा और काम में प्रताड़ना,अपमान और निराशा ही झेलनी होगी ?