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युवा भारत, बेरोजगार भारत

आबादी के हिसाब से देखें तो आज का भारत युवा भारत है क्योंकि जनसंख्या का 35 फीसदी युवा आबादी है। किसी भी देश की जनसंख्या प्रकृति में ऐेसे अवसर आते हैं जब युवाओं की आबादी सर्वाधिक होती है। भारत ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। भारत दुनिया का सबसे युवा देश है लेकिन इसके साथ यह एक बड़ा सच है कि भारत में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है और इस देश में किसानों के साथ-साथ युवा सबसे अधिक आत्महत्या करते हैं। हमारे देश के हुक्मरानों ने युवा भारत को बेरोजगार भारत और युवा आत्महत्या के देश में बदल दिया है।

जिस देश में सबसे ज्यादा आबादी युवाओं की हो वहां युवाओं के शिक्षा, रोजगार के लिए सबसे अधिक बजट और योजनाएं होनी चाहिए लेकिन हालत ठीक इसके उलट है। केन्द्र और प्रदेश की सरकारें युवाओं की पढ़ाई और रोजगार पर बजट खर्च करने के बजाय कम कर रही हैं और हजारों-हजार करोड़ रूपए मूर्तियां बनवाने और धार्मिक आयोजनों की ब्राडिंग में खर्च कर रही है। प्रति वर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा कर सत्ता में आयी मोदी सरकार के कार्यकाल में बेरोजगारी दर सबसे उच्चतम विंदु पर पहुंच गई है।

 

युवा भारत

वर्ष 2011 की जनसंख्या गणना के अनुसार भारत में युवाओं की आबादी 42 करोड़ है जो 2021 में 47 करोड़ और 2031 में 49 करोड़ हो जाएगी। वर्ष 1971 में देश में 16.8 करोड़ युवा थे जिनकी आबादी 2011 में 42 करोड़ तक पहुंच गई। पूरे विश्व में 31 फीसदी आबादी युवा है जबकि भारत में 35 फीसदी आबादी युवा है। अफ्रीका में 34 फीसदी, एशिया में 31 फीसदी, यूरोप में 23 फीसदी, उत्तरी अमरीका में 27.4,लैटिन अमरीका और कैरेबियन देशों में 34.40 फीसदी आबादी युवा है।

भारत में 1971 से युवा जनसंख्या में 2.79 फीसदी की ग्रोथ है। आने वाले दिनों में युवा जनसंख्या में वृद्धि की दर कम होती जाएगी। वर्ष 2001-2011 के बीच युवा जनसंख्या में वृद्धि दर 1.96 फीसदी थी। वर्ष 2011-2021 में यह वृद्धि 1.28 फीसद अनुमानित है। इसके बाद के दस वर्षों यानि 2021 से 20131 के बीच युवा आबादी में वृद्धि दर काफी कम होगी और यह 0.23 फीसदी अनुमानित है। फिर भी 2031 में देश में युवाओं की आबादी कुल आबादी की 31 फीसदी होगी।

राष्ट्रीय युवा नीति 2014 के अनुसार युवा वह है जिसकी आयु 15-29 वर्ष के बीच है। वर्ष 2003 की राष्ट्रीय युवा नीति में युवाओं की आयु 13-35 वर्ष मानी गई थी। युनाइटेश नेशंस युवाओं की आयु 15-24 वर्ष निर्धारित करता है हालांकि तमाम विश्लेषणों में युवाओं की आयु 15-34 वर्ष मानी जाती है।

एक देश की योग्यता-क्षमता की परख युवा जनसंख्या के आकार से होती है। युवाओं को देश का सबसे कीमती मानव संसाधन माना जाता है। एक ऐसे देश में जहा इतनी बड़ी आबादी युवा है, यदि उसकी क्षमता का पूरा उपयोग किया जाए तो वह देश पूरी तरह बदल सकता है लेकिन हमारे देश के हुक्मरानों ने युवा शक्ति की क्षमता को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। हमारे देश के युवा गरीबी, बेरोजगारी, भूख, शिक्षा की बाधाओं, बहुस्तरीय भेदभाव, हिंसा से जूझ रहे हैं। महंगी होती जाती उच्च शिक्षा, सरकारी व निजी क्षेत्र में नौकरियों की कमी, कार्पोरेटपरस्त आर्थिक नीति के चलते स्वरोजगार की अवसरों का खत्म होते जाना युवाओं के सामने बड़ी चुनौती है।

बेरोजगार भारत

रेलवे की ग्रुप सी और ग्रुप डी के 90 हजार पदों पर नियुक्ति के लिए 2.80 करोड़ बेरोजगारों ने आवेदन किया। मुम्बई में पुलिस कांस्टेबल की 1,137 पदों के लिए दस लाख से ज्यादा बेरोजगारों ने आवेदन किए। इसमें 423 इंजीनियरिंग की डिग्री वाले थे तो 167 एमबीए और 543 पोस्ट ग्रेजुएट जबकि पुलिस कांस्टेबल के लिए 12वीं पास होना जरूरी है।

उत्तर प्रदेश में दिसम्बर महीने में समाज कल्याण विभाग की ग्राम पंचायत अधिकारी, ग्राम विकास अधिकारी और समाज कल्याण पर्यवेक्षक के 1953 पदों की भर्ती के लिए 14.33 लाख आवेदकों ने आवेदन किया। उत्तर प्रदेश पुलिस में चपरासी के 62 पदों के लिए किए गए आवेदनों में 81,700 आवेदन स्नातक तक शिक्षा प्राप्त बेरोजगारों के थे।

यह स्थिति बताती है कि हमारे देश में बेरोजगारी की स्थिति कितनी भयावह होती जा रही है।
लेबर ब्यूरो सांख्यिकी की रिपोर्ट के अनुसाद देश में रोजगार और स्वरोजगार के अवसर घटे हैं और भारत दुनिया का सबसे बड़ा बेरोजगार देश बन गया है।

इंटरनेशल लेबर आर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार रोजगार दर को स्थिर रखने के लिए हर वर्ष 82 लाख लोगों को रोजगार चाहिए क्योंकि हर महीने बेरोजगारों की संख्या में 13.19 लाख का इजाफा हो रहा है। इसी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में 18.3 मिलियन भारतीय बेरोजगार थी जिनकी संख्या 2019 तक 18.9 मिलियन पहुंच जाएगी।

देश में रोजगार दर लगातार गिरता जा रहा है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011-12 में बेरोजगारी दर शहरी पुरूषों में तीन फीसदी तो ग्रामीण पुरूषों में 2 फीसदी थी जबकि शहरी महिलाओं में बेरोजगारी 7 फीसदी थी।  बेरोजगारी दर हर 100 व्यक्तियों में कितने बेरोजगार हैं, इसके आधार पर आंका जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि बेरोजगारी दर युवाओं और विशेषकर शिक्षित युवाओं में सबसे अधिक है। वर्ष 2011-12 में 15-29 आयु वर्ग के युवाओं में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी थी। महिलाओं में यह और भी अधिक यानि 7.7 फीसदी था।

सरकारी रिपोर्ट वर्ष 2016 में बेरोजगारी दर 3.51 और 2017 में 3.52 फीसद बता रहे हैं जबकि गैरसरकारी संस्थाएं बेरोजगारी दर इससे दूना बता रही हैं। सेंटर फार मानीटरिंग इकनामी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 21 महीने मार्च 2017 से दिसम्बर 2018 में बेरोजगारी दर 4.71 से बढकर 7.3 फीसदी तक पहुंच गई है।

अजीज प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार युवा बेरोजगारी 16 फीसदी तक पहुंच गई है। यह रिपोर्ट यह भी कहती है कि ग्रोथ रेट से रोजगार का कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। देश में जाॅबलेस ग्रोथ हो रही है। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि यदि ग्रोथ रेट दस फीसदी भी हो जाए तो बेरोजगारी दर में एक फीसदी से भी कम वृद्धि होगी।

बेरोजगारी की भयावह होती जा रही स्थिति से मौजूद सरकार कत्तई चिंतित नहीं दिख रही है। युवाओं को रोजगार देने में असफल केन्द्र की मोदी और राज्यों की भाजपा सरकारें बेरोजगारों का मजाक उड़ाने लगी हैं और झूठे आंकड़े पेश कर सचाई को छिपाने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पकौड़ा बेचने वालों की संख्या को बढ़ते रोजगार के तौर पर चिन्हित किया तो देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि यूपी में रोजगार की कमी नहीं है, योग्य लोगों की कमी है। भाजपा के अध्यक्ष ने कहा कि हम देश में सभी लोगों को रोजगार नहीं दे सकते।

रोजगार गुणवत्ता

देश में भयावह बेरोजगारी तो है ही, रोजगार गुणवत्ता की स्थिति भी बहुत खराब है। सातवें सेंट्रल पे कमीशन ने न्यूनतम 18 हजार रूपए हर महीने सेलरी देने की संस्तुति की है लेकिन असंगठित क्षेत्र की छोड़ दीजिए संगठित क्षेत्र में भी लोगों को यह न्यूनतम वेतन नहीं मिल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार संगठित मैन्यूफैक्चरिंग सेंक्टर में सातवें सेंट्रल पे कमीशन द्वारा संस्तुत न्यूनतम वेतन नहीं दिया जा रहा है।

अन्तर्राष्टीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल श्रम बल का 50.72 फीसदी स्वरोजगार से जुड़ा है और 29.65 फीसदी कैजुअल लेबर है। सिर्फ 19.63 फीसदी ऐसे हैं जिन्हें नियमित सेलरी मिलती है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में 2011-12 में कुल श्रम बल का 62.2 फीसदी स्वरोजगार से जुड़ा था जबकि 26 फीसदी कैजुअल लेबर हैं। सिर्फ 11.71 फीसदी ऐसे लोग रोजगार से जुड़े हैं जिन्हें नियमित सेलरी मिलती है।

उत्तर प्रदेश के 550 छोटे और मध्यम उद्यमों के एक सर्वे में यह बात प्रकाश में आई कि एक चौथाई कर्मचारी कैजुअल थे जबकि 30 फीसदी संविदा पर थे। सिर्फ 43 फीसदी कर्मचारी ही नियमित सेलरी पर काम कर रहे थे। इस सर्वे में यह भी बात सामने आई कि कैजुअल और संविदा पर कार्य कर रहे आधे से अधिक कर्मचारियों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा योजना नहीं थी और न ही उन्हें लिखित रूप से संविदा पर रखा गया था।

खुद केन्द्र व प्रदेश सरकारें सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य सहित विभिन्न क्षेत्र की योजनाओं के अन्तर्गत नियुक्त किए गए कर्मचारियों को बहुत कम वेतन दे रही है। आंगनबाड़ी, आशा, एएनएम, शिक्षा मित्र आदि 10 हजार या उससे कम वेतन मानदेय पा रहे हैं। बिहार में 90 हजार आशा वर्कस ने हर महीने 18 हजार रूपए हर महीने वेतन और सरकारी कर्मचारी का दर्ज देने की मांग को लेकर एक महीने से अधिक दिन तक हड़ताल पर रहे।

उत्तर प्रदेश के 1.70 लाख शिक्षा मित्रों को योगी सरकार सिर्फ दस हजार रूपए मानदेय दे रही है। इनमें से 1.37 लाख शिक्षा मित्रों को अखिलेश सरकार द्वारा समायोजित करने के बाद 38 हजार रूपए मासिक वेतन मिल रहा था जबकि शेष शिक्षा मित्रों को सिर्फ 3500 रूपए मानदेय मिल रहा था। वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समायोजन रद किए जाने के बाद योगी सरकार ने मनमाने तौर पर सभी शिक्षा मित्रों का मानदेय दस हजार फिक्स कर दिया। यही नहीं इन्हें यह मानदेय एक वर्ष में 12 महीने के बजाय 11 महीने ही दिया जाता है। झारखंड के पैरा टीचरों का भी यही हाल हैै।

उत्तर प्रदेश में नेशनल हेल्थ मिशन के अन्तर्गत संविदा पर कार्य कर रही आठ हजार से अधिक एएनएम को योगी सरकार सिर्फ दस हजार रूपए मानदेय दे रही है जबकि पूर्व में स्थायी रूप से नियुक्त एएनएम को 25-80 हजार रूपए वेतन मिलता है। एनएचएम के तहत सरकारी अस्पतालों में कार्यरत नर्सों को भी काफी कम मानदेय मिलता है। सभी स्कीम वर्कर सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से भी वंचित हैं। अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का भी यही हल है. यूपी के एनएचएम संविदा कर्मी भी एक सितः से हड़ताल पर हैं.

यही नहीं जब यह स्कीम वर्कर अपना मानदेय बढ़ाने और सामाजिक सुरक्षा योजना से कवर किए जाने की मांग करते हुए आंदोलन करते हैं तो उन पर मोदी-योगी-नीतिश-रघुबर सरकार बर्बर तरीके से पेश आती है और उन पर लाठचार्ज किया जाता, पानी की बौछार की जाती है। उत्तर प्रदेश की आशा वर्कर जब अपनी इन्हीं मांगों को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलने गईं तो वह उन पर बरस पड़े और कहा कि आशा वर्कस को आंदोलन करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने डीएम को आंदोलन कर रही आशाओं को नौकरी से निकालने का आदेश दे दिया।

रोजगार प्रोत्साहन और शिक्षा पर खर्च में वृद्धि नहीं

सेंटर फार बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रति वर्ष 150 लाख युवा  देश की श्रम बल में शामिल हो जाते हैं जिन्हें रोजगार मुहैया कराना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना एवं ग्रामीण आजीविका मिशन के खर्च में मामूली वृद्धि के अलावे वर्ष 2018-19 के बजट में रोजगार सृजन के अन्य मदों पर खर्च या तो स्थिर रखा गया है अथवा कम कर दिया गया है। स्वरोजगार को कर्ज आधारित उद्यम के माॅडल के रूप में प्रोत्साहित किया गया है। प्रत्यक्ष रूप को स्वरोजगार कार्यक्रमों जैसे राष्टीय ग्रामीण व शहरी आजीविका मिशनों के बजट आवंटन में बड़ी वृद्धि नहीं हुई है। बजट में मनरेगा के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं है।

इस रिपोर्ट के अनुसार रोजगार उत्पन्न प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रमों के लिए पिछले चार वर्षों के बजट में कोई खास वृद्धि नहीं है। इन कार्यक्रमों पर वर्ष 2015-16 में कुल जीडीपी का सिर्फ 0.31 प्रतिशत आवंटन था जो वर्ष 2016-17 में 0.37 2017-18 में 0.40 और 2018-19 में 0.37 है। इस तरह से देखें तो रोजगार उत्पन्न करने वाले कार्यक्रमों के बजट लगभग स्थिर है जबकि अर्थव्यस्था में दीर्घकालीन रोजगार सृजन के अवसर उत्पन्न करने के लिए श्रम सघन घरेलू व निर्यात उद्योगों को सार्वजनिक निवेश के माध्यम से प्रोत्साहित करने की जरूरत है लेकिन यह जरूरत बजट के प्रावधानों से पूरी नहीं हो रही है।

इसी प्रकार शिक्षा के बजट पर भी मोदी सरकार खर्च बढ़ाने के बजाय घटा रही है। वर्ष 2014-15 में शिक्षा पर जीडीपी का खर्च 0.55 प्रतिशत और केन्द्रीय बजट का खर्च 4.1 फीसदी था। वर्ष 2015-16 में यह 0.49 और 3.8 फीसदी हो गया। वर्ष 2016-17 में केन्द्र सरकार ने शिक्षा पर खर्च और कम कर दिया है और यह जीडीपी का 0.47 तथा केन्द्रीय बजट का 3.6 फीसदी हो गया। वर्ष 2017-18 में यह 0.47 व 3.7 फीसदी, 2017-18 में 0.49 व 3.8 फीसदी तथा 2018-19 में 0.45 व 3.6 फीसदी है।

युवाओं में बढ़ती आत्महत्या

बेरोजगारी से जूझ रहा युवा घोर हताशा में है। युवाओं की हताशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है देश में युवाओं की आत्महत्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में हर वर्ष करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं। इनमें से 18 फीसदी युवा हैं। किसानों के बाद सबसे अधिक युवा ही आत्महत्या कर रहे हैं। युवाओं में आत्महत्या के कारणों में बेरोजगारी, पारिवारिक तनाव और आर्थिक दिक्कते हैं। जाहिर है ये सभी कारण बेरोजगारी से जुड़े हुए हैं। नवम्बर महीने में राजस्थान में चार युवा बेरोजगारी से हताश होकर ट्रेन के आगे कूद गए। इनमें से तीन की मौत हो गई।

 

भारत न सिर्फ बेरोजगारी में पूरी दुनिया में अव्वल है, बल्कि आत्महत्याओं में भी पूरी दुनिया में नम्बर एक है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेश के अनुसार पूरी दुनिया में युवाओं में मृत्यु के तीन प्रमुख कारणों में से एक आत्महत्या है। हर वर्ष पूरी दुनिया में दस लाख लोग आत्महत्या करते हैं और इसके 20 गुना अधिक लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की वर्ष 2015 की रिपोर्ट के अनुसार हर भारत में हरेक घंटे में एक छात्र आत्महत्या कर रहा है।

झूठे आंकड़े और जुमलेबाजी

रोजगार और शिक्षा के मुद्दे पर बुरी तरह विफल मोदी सरकार अब झूठे आंकड़ों, जुमलों के सहारे यह साबित करने की कोशिश कर उसके कार्यकाल में बड़ी संख्या में रोजगार दिए गए हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दो करोड़ हर वर्ष रोजगार देने के सवाल पर कहा कि उनकी सरकार ने 7.5 करोड़ लोगों को लघु उद्यम के लिए 3.17 लाख करोड़ रूपए का ऋण मुद्रा योजना के तहत दिया है और इस तरह उसने अपने वादे से अधिक लोगों को रोजगार देने का काम किया है।

 

प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह द्वारा यह भी दावा किया मुद्रा योजना के तहत ऋण देने से बड़ी संख्या में लोगों को स्वरोजगार मिला है। ऋण पाए लोग स्वंय तो स्वरोजगार कर ही रहे हैं और दो से तीन लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं।

मुद्रा योजना के तहत आठ करोड़ स्वरोजगार पैदा किए जाने के दावों का जब विश्लेषण किया गया तो पता चला कि यह बेरोजगारों व स्वरोजगारों के साथ मोदी सरकार द्वारा किया गया क्रूर मजाक है। सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार मुद्रा योजना के तहत दिए गया औसत ऋण वर्ष 2015-16 में 39405 रूपए, वर्ष 2016-17 में 45472 और 2017-18 46,527 रूपए है। इस योजना के तहत ‘ शिशु ऋण ‘ का औसत 19 से 23 हजार रूपए है। भला इतनी कम धनराशि से कौन सा स्वरोजगार होगा और ये स्वउद्यम कितने लोगों को रोजगार दे पाएंगे, इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है।

इसी तरह संसद में एक मंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के तहत 17.6 लाख नौकरियां पैदा हुई हैं। इसे इस आधार पर प्रोजेक्ट किया गया था कि प्रत्येक परियोजना के लिए जिसके लिए बैंक सब्सिडी मंजूर की गई थी, वह 12 नई नौकरियों का सृजन करती है। जबकि इस तरह की धारणा का कोई आधार नहीं है – वास्तव में ऐसे उद्यमों के सर्वेक्षण से पता चला है कि ऐसी इकाइयों में औसत रोजगार सिर्फ सात का है।

 

सरकार की कार्पोरेटपरस्त नीतियां दिन-प्रतिदिन छोटे और मध्यम उद्यामों की संभावनाएं क्षीण करती जा रही हैं। लघु और कुटीर उद्योगों का सफाया होता जा रहा है। अंबानी, आडनी जैसे सरकारी संरक्षण प्राप्त पूँजीपति देश के सभी संसाधनों पर कब्जा करते जा रहे है जिससे न सिर्फ रोजगार के अवसर सिकुड़ रहे हैं बल्कि देश में असमानता की खाई गहरी होती जा रही है।

आक्सफाम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक फीसदी लोगों के पास देश की 58 फीसदी सम्पत्ति जमा हो गई है। देश के सिर्फ 57 अरबपतियों के पास देश की 70 फीसदी आबादी के बराबर सम्पत्ति है।

फिजूल की योजनाओं में शाहखर्ची

मोदी सरकार युवाओं के रोजगार और शिक्षा पर खर्च करने में कंजूसी कर रही है लेकिन फिजूल की योजनाओं पर शाहखर्ची देखने लायक है। गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति पर 3 हजार करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। इसकी देखादेखी कई राज्यों में उंची प्रतिमाए बनाने की होड़ लग गई है। यूपी मे योगी सरकार ने अयोध्या में 3 हजार करोड़ के खर्च से राम की प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की है। कुंभ मेले की इंटरनेशल ब्राडिंग के लिए इसका खर्च रोज बढ़ाया जा रहा है और अब इसका बजट बढ़कर 4236 करोड़ तक पहुंच गया है। अयोध्या में दीपावली पर 3 लाख दिए जलाने का वर्ल्ड रिकार्ड बनाने के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर दिए गए।

यूपी की योगी सरकार तो शहरों, रेलवे स्टेशनों का नाम बदलने में भी अनाप-शनाप खर्च कर रही है। मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया गया तो फैजाबाद और इलाहाबाद जिला व मंडल का नाम बदल दिया गया। केन्द्र की मोदी सरकार तो योजनाओं का नाम बदलने में ही करोड़ों खर्च कर चुकी है।

विज्ञापनों के खर्च पर तो मोदी सरकार ने रिकार्ड ही बना दिया है। साढ़े चार वर्ष के कार्यकाल में मोदी सरकार ने करीब 5000 करोड़ रुपये इलेक्ट्रानिक और प्रिंट के विज्ञापनों पर खर्च कर दिया। मनमोहन सिंह की सरकार एक वर्ष में विज्ञापनों पर 500 करोड़ खर्च करती थी जबकि मोदी सरकार साल में करीब 1000 करोड़ लुटा रही है।

जिस देश में अब भी गरीबों के लिए स्कूल, अस्पताल की भारी कमी हो वहां यह फिजूलखर्ची युवाओं में आक्रोश भर रही है। पांच सौ करोड़ में पांच जिला अस्पतालों को अपग्रेड कर मेडिकल कालेज बनाया जा सकता है। तीन सौ करोड़ खर्च कर पांच सौ बेड का बच्चों का अस्पताल बनाया जा सकता है और एक हजार करोड़ रूपया खर्च कर एम्स जैसा संस्थान स्थापित किया जा सकता है। सत्तर करोड़ में पूर्वांचल एक्सप्रेस वे की छह लेन वाली एक किलोमीटर सड़क बन सकती है लेकिन केन्द्र व प्रदेश सरकार को मूर्तियों पर तीन-तीन हजार करोड़ रूपए खर्च करने से ही फुर्सत नहीं मिल रही है।

उत्तर प्रदेश में देश के सबसे अधिक युवा रहते हैं। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में इस प्रदेश में युवाओं पर सबसे ज्यादा बजट खर्च किया जाना चाहिए लेकिन योगी सरकार के वर्ष 2018-19 के बजट में राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के लिए सिर्फ 167 करोड़ रूपए और माध्यमिक शिक्षा अभियान के लिए 480 करोड़ रूपए दिए गए हैं। मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना के लिए सिर्फ 100 करोड़ की व्यवस्था की गई है जबकि गाजियाबाद में कैलाश मानसरोवर भवन के लिए 94 करोड़ की व्यवस्था की गई है।

दो करोड़ रोजगार देने को कौन कहे, खाली पदों को भी नहीं भर पाई सरकार

हर वर्ष दो करोड़ रोजगार देने का वादा करने वाली मोदी सरकार कितनी ढपोरशंखी है, इसका अंदाजा सेन्ट्रल और स्टेट गर्वनमेंट के खाली पदों की स्थिति से पता चलता है। वर्ष 2018 में राज्य सभा और लोकसभा में पूछे गए सवालों के जवाब में सरकार द्वारा बताया गया कि केन्द्र और प्रदेश सरकारों में 24 लाख पद खाली पड़े हुए हैं। सरकार ने जानकारी दी कि 5.4 लाख पद आर्म्ड पुलिस में खाली पद हैं। रेलवे में 2.5 लाख नान गजटेड स्टाफ के पोस्ट खाली पड़े हैं। देश के विभिन्न अदालतों में 5800 पद खाली हैं। डाक विभाग में 54 हजार से अधिक पद रिक्त हैं। प्राईमरी और सेंकेडरी स्कूलों में शिक्षकों के दस लाख से अधिक पद खाली है। डिफेंस में 1.2 लाख और हेल्थ सेक्टर में 1.5 लाख पद रिक्त हैं। उत्तप्रदेश के स्कूलों में 1.6 लाख से अधिक पद रिक्त हैं।

नौकरियों में कमी

एक ओर सरकारी विभागों में लाखों की संख्या में पद रिक्त हैं तो दूसरी तरफ सरकारी कम्पनियां और निजी कम्पनियां नौकरियों में कटौती कर बेरोजगारी की स्थिति को और विकट बना रही हैं।
पिछले तीन वर्षों में यूपीएससी, एसएससी, आरआरबी सिर्फ सवा तीन लाख लोगों को ही नौकरी दे पाए हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड में रोजगार पर महेश व्यास के लेख के अनुसार 2014-15 में 8 सरकारी और प्राइवेट कंपनियों ने औसतन 10,000 लोगों को काम से निकाला है। वेदांता ने 49,741 लोगों को छंटनी की है। फ्यूचर एंटरप्राइज ने 10,539 लोगों को कम किया। फोर्टिस हेल्थकेयर ने 18000 लोगों को कम किया है। टेक महिंदा ने 10,470 कर्मचारी कम किए हैं। सिर्फ तीन सरकारी कंपनियों ने करीब 55,000 नौकरियां कम की हैं।

मोदी सरकार के नोटबंदी और जीएसटी के फैसले ने नौकरियों और रोजगार में कटौती को बढ़ा दिया। शिक्षा और रोजगार के मुद्दे को अपने टीवी शो में लगातार गंभीरता से उठा रहे मशहूर टीवी पत्रकार रवीश कुमार लिखते हैं कि ऑल इंडिया मैन्युफैक्चरर एसोसिएशन ने ट्रेडर, माइक्रो, स्मॉल और मिडियम सेक्टर में एक सर्वे कराया है। इस सर्वे में इस सेक्टर के 34,000 उपक्रमों को शामिल किया गया है। इसी सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस सेक्टर में 35 लाख नौकरियां चली गईं हैं। ट्रेडर सेगमेंट में नौकरियों में 43 फीसदी, माइक्रो सेक्टर में 32 फीसदी, स्माल सेगमेंट में 35 फीसदी और मिडियम सेक्टर में 24 फीसदी नौकरियां चली गई हैं। 2015-16 तक इस सेक्टरों में तेजी से वृद्धि हो रही थी लेकिन नोटबंदी के बाद गिरावट आ गई जो जीएसटी के कारण और तेज हो गई। वर्ष 2015 पहले ट्रेडर्स सेक्टर में 100 कंपनियां मुनाफा कमा रही थीं तो अब उनकी संख्या 30 रह गई है।

जाहिर है कि इस हालात में देश के युवा चुप नहीं बैठ सकते। यही कारण है कि देश के विभिन्न स्थानों पर युवाओं का आक्रोश फूट रहा है। उत्तर प्रदेश में भर्ती आयोगों में भ्रष्टाचार, धांधली और मनमानी के खिलाफ बेरोजगार युवाओं ने इलाहाबाद से लेकर लखनऊ की सड़कों को अपने आंदोलन से गर्म कर दिया है। लाठीचार्ज और दमन भी उनका हौसला नहीं तोड़ पा रही हैं। स्कालरशिप में कटौती, सीटों में कमी और छात्र-छात्राओं की आवाज कुचलने के खिलाफ तक कैंपसों में लगातार आंदोलन हो रहे हैं। अब ये आंदोलन आपसी एकता बनाते हुए राष्टीय स्तर पर आंदोलन की तरफ बढ़ रहे हैं। यह एक शुभ संकेत है। गत 27 दिसंबर को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में एफटीटीआई, आईआईटी मद्रास, पंजाब विश्वविद्यालय, जेएनयू, बीएचयू, एएमयू, मानू, इलाहाबाद विश्वविद्यालय समेत देश के सौ से ज्यादा आंदोलनों के नेताओं, छात्र-युवा संगठनों और छात्रसंघों की बैठक और उसमें मोदी सरकार के छात्र-युवा विरोधी नीतियों के खिलाफ समन्वय समिति का गठन कर दिल्ली में 7 फरवरी को मार्च करने का निर्णय एक महत्वपूर्ण पहल है।

 

(यह लेख समकालीन जनमत पत्रिका के जनवरी अंक में प्रकाशित हुआ है )

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