जाहिद खान
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण सुनवाई करते हुए राजद्रोह के मामलों में सभी कार्यवाहियों पर रोक लगा दी है। अदालत ने केंद्र एवं राज्यों को निर्देश दिया है कि जब तक सरकार औपनिवेशिक युग के इस क़ानून पर फिर से ग़ौर नहीं कर लेती, तब तक राजद्रोह के इल्ज़ाम में कोई नई एफआईआर दर्ज न की जाए। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस हिमा कोहली की एक विशेष पीठ ने कहा कि धारा 124 ए (राजद्रोह) के तहत लगाए गए आरोपों के संबंध में सभी लंबित मामले, अपील और कार्यवाही को स्थगित रखा जाना चाहिए। इन मामलों में लागू अन्य धाराओं पर निर्णय सामान्य रूप से जारी रह सकता है। पीठ ने कहा, हम उम्मीद करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारें किसी भी एफआईआर को दर्ज करने, जांच जारी रखने या आईपीसी की धारा 124 ए के तहत ज़बरदस्ती क़दम उठाने से तब तक परहेज़ करेंगी, जब तक कि यह पुनर्विचार के अधीन है। यह उचित होगा कि इसकी समीक्षा होने तक क़ानून के इस प्रावधान का उपयोग न किया जाए। अदालत ने अपने आदेश में उन लोगों पर भी ख़ास तौर पर तवज्जोह दी, जिन पर राजद्रोह के इल्ज़ाम हैं और वर्तमान में वे ज़ेल में हैं। अदालत का कहना था, ऐसे लोग जमानत के लिए उपयुक्त अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। अदालत यहीं नहीं रुक गई, बल्कि उसने आगे कहा अगर ऐसे मामले दर्ज किए जाते हैं, तो संबंधित पक्ष अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं और अदालत को मामले का तेजी से निपटारा करना होगा। बहरहाल, प्रावधान की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जुलाई के तीसरे सप्ताह में सुनवाई होगी और तब तक केंद्र के पास प्रावधान पर फिर से ग़ौर करने का समय होगा।
शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले का न सिर्फ़ देश की विपक्षी पार्टियों ने स्वागत किया है, बल्कि उन लोगों ने भी सराहना की है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों, संवैधानिक मूल्यों और क़ानून के राज में यक़ीन रखते हैं। पिछले कुछ सालों से यह लगातार देखने में आ रहा है कि नागरिकों द्वारा शासन व्यवस्था पर किसी भी आलोचना, असहमति, मतभेद, सवाल या असंतोष को शांत करने के लिए कमोबेश सभी सरकारें, इस औपनिवेशिक क़ानून का दुरुपयोग कर रही हैं। नागरिकों को चुप कराने, डराने-धमकाने और लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए राजद्रोह के मामले दर्ज किए जाते हैं। जो कोई भी सरकार की जनविरोधी नीतियों से असहमति दर्शाता है, उस पर राजद्रोह क़ानून का शिकंजा कस दिया जाता है। उन्हें जे़ल में डाल दिया जाता है। लेखक, कलाकारों, सोशल एक्टिविस्टों, राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं और यहां तक कि विद्यार्थियों को भी नहीं बख़्शा जा रहा। जबकि लोकतंत्र में असहमति एक अनिवार्य तत्व है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 से 2019 के बीच यानी पिछले दस साल में 11 हज़ार लोगों के खिलाफ 816 राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। जिसमें से 65 फ़ीसदी मामले मोदी सरकार के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद दर्ज हुए हैं। बीते तीन साल यानी साल 2016 से 2019 के बीच दर्ज हुए राजद्रोह के मामलों का ही यदि आंकलन करें, तो इनमें 160 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। जहां तक इन मामलों में दोषसिद्धि का सवाल है, तो साल 2019 में राजद्रोह के 30 मामलों में फै़सला हुआ, जिनमें 29 में आरोपी बरी हो गए। सिर्फ एक मामले में दोषसिद्धि साबित हुई। बाकी सब या तो बाइज़्ज़त बरी हो गए, या फिर उन पर अदालतों में मुक़दमे जारी हैं। ऐसे ज़्यादातर मामलों में इल्ज़ाम साबित हो ही नहीं पाते, पर अदालती सुनवाई की लंबी प्रक्रिया से गुज़रना अपने-आप में किसी सज़ा से कम नहीं होता। मामला दर्ज होते ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो चरित्र हनन होता है, वह अलग। ज़्यादातर मामलों में विरोधियों को परेशान करने की नीयत से सत्ताधारी पार्टी, अपने लोगों द्वारा ही इस तरह के मामले दर्ज करवाती है। पुलिस, जिसका पहला काम, मामले की अच्छी तरह से जांच करना और फिर उसके बाद मामला दर्ज करने का होना चाहिए, वह बिना सोचे-समझे या सरकार के दवाब में देशद्रोह जैसे गंभीर इल्ज़ाम में मामला दर्ज कर लेती है।
गौरतलब है कि शीर्ष अदालत राजद्रोह संबंधी कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, पूर्व मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा आईपीसी की धारा 124 ए (राजद्रोह) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा, उसकी मुख्य चिंता इस दंडात्मक कानून का दुरुपयोग है, जिससे मामलों की संख्या में वृद्धि हो रही है। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली पीठ ने पिछले साल जुलाई में भी केंद्र सरकार से जवाब तलब करते हुए कहा था कि वह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ख़ामोश करने के लिए अंग्रेज़ों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही है ? जबकि सरकार ने कई पुराने क़ानूनों को निरस्त कर दिया है। आज़ादी के 75 साल बाद राजद्रोह क़ानून की क्या ज़रूरत है ? बहरहाल अदालत के सख़्त रुख के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने पहले तो राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून (आईपीसी की धारा 124 ए) और इसकी वैधता बरकरार रखने के संविधान पीठ के 1962 के एक निर्णय का यह कहते हुए बचाव किया कि लगभग छह दशकों से यह क़ानून बना हुआ है और इसके दुरुपयोग के उदाहरण कभी भी इसके पुनर्विचार का कारण नहीं हो सकते हैं।
केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को सलाह दी थी कि पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक के अधिकारी को राजद्रोह के आरोप में दर्ज एफआईआर की निगरानी करने की ज़िम्मेदारी दी जा सकती है। मेहता ने पीठ से कहा कि राजद्रोह के आरोप में एफआईआर दर्ज करना बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह प्रावधान एक संज्ञेय अपराध से संबंधित है और 1962 में एक संविधान पीठ ने इसे बरकरार रखा था। केंद्र ने राजद्रोह के लंबित मामलों के संबंध में न्यायालय को सुझाव दिया कि इस प्रकार के मामलों में जमानत याचिकाओं पर शीघ्रता से सुनवाई की जा सकती है, क्योंकि सरकार हर मामले की गंभीरता से अवगत नहीं हैं और ये आतंकवाद, धन शोधन जैसे पहलुओं से जुड़े हो सकते हैं। लेकिन इसके दो दिन बाद, सरकार ने अपने ही हलफ़नामे पर यू-टर्न ले लिया। केंद्र सरकार ने दोबारा से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। बदले हुए हलफ़नामे में केंद्र सरकार ने कहा कि राजद्रोह क़ानून की समीक्षा की जाएगी। प्रधानमंत्री ऐसा चाहते हैं। इस वजह से केंद्र ने कोर्ट से गुज़ारिश की कि वह राजद्रोह क़ानून के ख़िलाफ़ दायर याचिकाओं पर सुनवाई ना करे और केंद्र की ओर से पुनर्विचार की कवायद शुरू होने तक इंतज़ार करे। बहरहाल, केंद्र सरकार द्वारा इस क़ानून की समीक्षा के लिए तैयार होने के बाद ही शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिए।
केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि किसी भी नागरिक को सरकार के तौर तरीकों के बारे में कुछ भी बोलने और लिखने का पूरा अधिकार है, जब तक कि वो लोगों को विधि द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा करने के लिए नहीं उकसाता और सामान्य जन जीवन को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करता है। देशद्रोह की धाराएं तभी लगाई जा सकती हैं, जब किसी अभियुक्त ने हिंसा करने के लिए लोगों को उकसाया हो या फिर जनजीवन प्रभावित करने की कोशिश की हो। यही नहीं साल 1995 में एक दीगर मामले में जिसमें दो लोगों पर देश विरोधी और अलगाववादी नारे लगाये जाने के आरोप लगे थे, सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। क्योंकि उससे सरकार को कोई ख़तरा पैदा नहीं होता। ज़्यादा पीछे नहीं जाएं, सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ राजद्रोह के मामले को ख़ारिज करते हुए कहा था कि हर पत्रकार केदारनाथ सिंह फ़ैसले के तहत सुरक्षा का हक़दार है। किसान आंदोलन के समय टूलकिट केस से संबंधित दिशा ए रवि मामले में भी अदालत ने अपने ज़मानत आदेश में सरकार के क़दम की आलोचना की थी। अदालत ने यहां तक कहा था कि सरकारों के ग़ुरूर पर लगी ठेस के लिए किसी पर राजद्रोह का इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता।
देश में अंग्रेजी हुक़ूमत ने साल 1860 में स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के लिए राजद्रोह क़ानून बनाया था। जिसे साल 1870 में बाक़ायदा आईपीसी में शामिल कर लिया गया। आईपीसी के सेक्शन 124 (ए) के तहत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफ़रत फैलाने या असंतोष ज़ाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है। इसके तहत मामला दर्ज होने पर दोषी को तीन साल से लेकर उम्र कै़द तक की सज़ा हो सकती है। आज़ादी के बाद इस औपनिवेशिक क़ानून को हमारी सरकार ने भी ज्यों के त्यों अपना लिया। तब से इस क़ानून के औचित्य पर संसद से लेकर सड़क तक चर्चा हो चुकी है। इस क़ानून को निरस्त करने या इसमें संशोधन की मांग कई बार उठी, लेकिन जब भी यह मांग उठती है सरकार यह कहकर इस क़ानून का औचित्य साबित करने की कोशिश करती है कि ‘‘धारा 124 (ए) आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी समस्याओं से निबटने के लिए ज़रूरी है।’’ सरकार बार-बार यह दुहाई भी देती है, ‘‘समुचित दायरे में रह कर सरकार की आलोचना करने पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाएगा, तभी यह धारा प्रभावी होगी।’’ देशवासियों को इस आश्वासन के बाद भी ऐसे कई मौक़े आए हैं, जब राजद्रोह क़ानून का दुरुपयोग हुआ और सरकार महज़ तमाशाई बनी रही। अब जबकि एक बार फिर शीर्ष अदालत ने इस औपनिवेशिक क़ानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं और सरकार को राजद्रोह क़ानून पर पुनर्विचार करने की सलाह दी है, तो सरकार की भी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इस जनविरोधी और असंवैधानिक क़ानून को निरस्त करने की दिशा में आगे बढ़े। धारा 124 (ए) को भारतीय दंड संहिता से हटा दिया जाए। क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के मूल अधिकार ही सर्वोपरि हैं। असहमति, आलोचना और मतभेद लोकतंत्र को मजबूत बनाते हैं।
गौरतलब है कि शीर्ष अदालत राजद्रोह संबंधी कानून की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, पूर्व मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा आईपीसी की धारा 124 ए (राजद्रोह) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा, उसकी मुख्य चिंता इस दंडात्मक कानून का दुरुपयोग है, जिससे मामलों की संख्या में वृद्धि हो रही है। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली पीठ ने पिछले साल जुलाई में भी केंद्र सरकार से जवाब तलब करते हुए कहा था कि वह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए महात्मा गांधी जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ख़ामोश करने के लिए अंग्रेज़ों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रही है ? जबकि सरकार ने कई पुराने क़ानूनों को निरस्त कर दिया है। आज़ादी के 75 साल बाद राजद्रोह क़ानून की क्या ज़रूरत है ? बहरहाल अदालत के सख़्त रुख के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने पहले तो राजद्रोह से संबंधित दंडात्मक कानून (आईपीसी की धारा 124 ए) और इसकी वैधता बरकरार रखने के संविधान पीठ के 1962 के एक निर्णय का यह कहते हुए बचाव किया कि लगभग छह दशकों से यह क़ानून बना हुआ है और इसके दुरुपयोग के उदाहरण कभी भी इसके पुनर्विचार का कारण नहीं हो सकते हैं।
केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को सलाह दी थी कि पुलिस अधीक्षक (एसपी) रैंक के अधिकारी को राजद्रोह के आरोप में दर्ज एफआईआर की निगरानी करने की ज़िम्मेदारी दी जा सकती है। मेहता ने पीठ से कहा कि राजद्रोह के आरोप में एफआईआर दर्ज करना बंद नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह प्रावधान एक संज्ञेय अपराध से संबंधित है और 1962 में एक संविधान पीठ ने इसे बरकरार रखा था। केंद्र ने राजद्रोह के लंबित मामलों के संबंध में न्यायालय को सुझाव दिया कि इस प्रकार के मामलों में जमानत याचिकाओं पर शीघ्रता से सुनवाई की जा सकती है, क्योंकि सरकार हर मामले की गंभीरता से अवगत नहीं हैं और ये आतंकवाद, धन शोधन जैसे पहलुओं से जुड़े हो सकते हैं। लेकिन इसके दो दिन बाद, सरकार ने अपने ही हलफ़नामे पर यू-टर्न ले लिया। केंद्र सरकार ने दोबारा से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। बदले हुए हलफ़नामे में केंद्र सरकार ने कहा कि राजद्रोह क़ानून की समीक्षा की जाएगी। प्रधानमंत्री ऐसा चाहते हैं। इस वजह से केंद्र ने कोर्ट से गुज़ारिश की कि वह राजद्रोह क़ानून के ख़िलाफ़ दायर याचिकाओं पर सुनवाई ना करे और केंद्र की ओर से पुनर्विचार की कवायद शुरू होने तक इंतज़ार करे। बहरहाल, केंद्र सरकार द्वारा इस क़ानून की समीक्षा के लिए तैयार होने के बाद ही शीर्ष अदालत ने यह निर्देश दिए।
केदारनाथ बनाम बिहार सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि किसी भी नागरिक को सरकार के तौर तरीकों के बारे में कुछ भी बोलने और लिखने का पूरा अधिकार है, जब तक कि वो लोगों को विधि द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा करने के लिए नहीं उकसाता और सामान्य जन जीवन को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करता है। देशद्रोह की धाराएं तभी लगाई जा सकती हैं, जब किसी अभियुक्त ने हिंसा करने के लिए लोगों को उकसाया हो या फिर जनजीवन प्रभावित करने की कोशिश की हो। यही नहीं साल 1995 में एक दीगर मामले में जिसमें दो लोगों पर देश विरोधी और अलगाववादी नारे लगाये जाने के आरोप लगे थे, सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि केवल नारे लगाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। क्योंकि उससे सरकार को कोई ख़तरा पैदा नहीं होता। ज़्यादा पीछे नहीं जाएं, सर्वोच्च अदालत ने पिछले साल प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ राजद्रोह के मामले को ख़ारिज करते हुए कहा था कि हर पत्रकार केदारनाथ सिंह फ़ैसले के तहत सुरक्षा का हक़दार है। किसान आंदोलन के समय टूलकिट केस से संबंधित दिशा ए रवि मामले में भी अदालत ने अपने ज़मानत आदेश में सरकार के क़दम की आलोचना की थी। अदालत ने यहां तक कहा था कि सरकारों के ग़ुरूर पर लगी ठेस के लिए किसी पर राजद्रोह का इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता।
देश में अंग्रेजी हुक़ूमत ने साल 1860 में स्वतंत्रता सेनानियों के दमन के लिए राजद्रोह क़ानून बनाया था। जिसे साल 1870 में बाक़ायदा आईपीसी में शामिल कर लिया गया। आईपीसी के सेक्शन 124 (ए) के तहत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफ़रत फैलाने या असंतोष ज़ाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है। इसके तहत मामला दर्ज होने पर दोषी को तीन साल से लेकर उम्र कै़द तक की सज़ा हो सकती है। आज़ादी के बाद इस औपनिवेशिक क़ानून को हमारी सरकार ने भी ज्यों के त्यों अपना लिया। तब से इस क़ानून के औचित्य पर संसद से लेकर सड़क तक चर्चा हो चुकी है। इस क़ानून को निरस्त करने या इसमें संशोधन की मांग कई बार उठी, लेकिन जब भी यह मांग उठती है सरकार यह कहकर इस क़ानून का औचित्य साबित करने की कोशिश करती है कि ‘‘धारा 124 (ए) आतंकवाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा जैसी समस्याओं से निबटने के लिए ज़रूरी है।’’ सरकार बार-बार यह दुहाई भी देती है, ‘‘समुचित दायरे में रह कर सरकार की आलोचना करने पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन जब आपत्तिजनक तरीकों का सहारा लिया जाएगा, तभी यह धारा प्रभावी होगी।’’ देशवासियों को इस आश्वासन के बाद भी ऐसे कई मौक़े आए हैं, जब राजद्रोह क़ानून का दुरुपयोग हुआ और सरकार महज़ तमाशाई बनी रही। अब जबकि एक बार फिर शीर्ष अदालत ने इस औपनिवेशिक क़ानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं और सरकार को राजद्रोह क़ानून पर पुनर्विचार करने की सलाह दी है, तो सरकार की भी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इस जनविरोधी और असंवैधानिक क़ानून को निरस्त करने की दिशा में आगे बढ़े। धारा 124 (ए) को भारतीय दंड संहिता से हटा दिया जाए। क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के मूल अधिकार ही सर्वोपरि हैं। असहमति, आलोचना और मतभेद लोकतंत्र को मजबूत बनाते हैं।