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पुस्तक ” ग़ज़ल एकादश ”  हुआ विमोचन

लखनऊ। लोक प्रिय जनवादी ग़ज़लकार डॉ डी एम मिश्र द्वारा संपादित ग़ज़ल पुस्तक ” ग़ज़ल एकादश ” का ‘हिंदी श्री’ के पटल पर ऑनलाइन विमोचन कार्यक्रम हुआ।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि देश के जाने माने साहित्यकार और आलोचक डॉ. जीवन सिंह रहे। अध्यक्षता ‘अलाव’ पत्रिका के संपादक रामकुमार कृषक ने की। संयोजन डॉ डी एम मिश्र व भोलानाथ कुशवाहा ने किया। संचालन आनंद अमित ने किया। विशिष्ट वक्ता शैलेन्द्र चौहान रहे।

इस संग्रह की विशेषता यह है कि इसकी भूमिका भी डॉक्टर जीवन सिंह ने लिखी है । इसके साथ ही समस्त 11 ग़ज़लकारों की गजलों पर 11 समीक्षकों ने भी इसमें अपनी टिप्पणी दी है।

इस अवसर पर कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ जीवन सिंह ने कहा कि साहित्य लेखन के लिए साधना बहुत आवश्यक है और लेखक को अपने समय को समझना पड़ता है। हमारे शब्दों का संघर्ष इंसानियत और बराबरी के लिए है। हमारे सामने बराबरी के लिए चुनौतियां बहुत लंबे समय से खड़ी हैं जिसे लेखक को समझना होगा। इस ग़ज़ल संग्रह के रचनाकारों ने इन सभी बातों को उठाया है जिससे यह ग़ज़ल संग्रह अति महत्वपूर्ण है।

अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार रामकुमार कृषक ने कहा कि आज ग़ज़ल जीवन के विविध आयामों को छू रही है अपनी यात्रा में ग़ज़ल आज के समय को प्रदर्शित करने में पूरी तरह सक्षम है और अपनी मारक क्षमता के चलते वह लोकप्रिय भी है। यह समय एक तरह से ग़ज़ल का है।

विशिष्ट वक्ता शैलेन्द्र चौहान ने कहा कि इस ग़ज़ल संग्रह का तेवर अन्य किताबों से अलग है और यही इसकी विशेषता है।
ग़ज़ल एकादश के संपादक डॉ डी एम मिश्र ने कहा कि देश के तमाम ग़ज़लकारों के बीच से उत्कृष्ट ग़ज़लकारों को चुनना और उनकी रचनाएँ लेकर शीघ्र प्रकाशित कर पाना मेरे लिए चुनौती भरा कार्य था , जो आप सभी के सहयोग से कुशलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।

कार्यक्रम के अंत में ग़ज़ल एकादश में सम्मिलित ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल पाठ किया।

रामकुमार कृषक ने सुनाया- हमने स्याही से उजाला लिक्खा/ उनका कहना है कि काला लिक्खा।। राम मेश्राम ने पढ़ा- मौत का खौफ जनता से राजा को है/ और जनता को किससे डर चाहिए। भोलानाथ कुशवाहा ने सुनाया- इतनी दूरी ठीक नहीं, ये मजबूरी ठीक नहीं/ दिन को रात बताओगे, ये बरजोरी ठीक नहीं।

डॉ डी एम मिश्र ने पढ़ा- उजड़ रहा है चमन इसको बचाऊँ कैसे/ लगी है आग मगर आग बुझाऊँ कैसे। डॉ प्रभा दीक्षित ने कहा- हर नजर भीगी हुई है बरगदों की छाँव में/ एक ऐसा दर्द बरसा है हमारे गांव में।

हरे राम समीप ने सुनाया- झुलसती धूप थकते पाँव मीलों तक नहीं पानी/ बताओ तो कहां धोऊँ सफर की ये परेशानी।

शिवकुमार पराग ने सुनाया- पाँव मेरे फिसल गए होते/ मेरी कविता मुझे बचाती रही। डॉ भावना ने पढ़ा- किसी के ख़्वाब में वो इस क़दर तल्लीन लगती है /नदी वह गाँव वाली आजकल गमगीन लगती है। डॉ पंकज कर्ण ने सुनाया- वो सियासी हैं वो बातों को बदल कहते हैं/ हम तो भूख और बेबसी को ग़ज़ल कहते हैं।

हिंदी श्री की संस्थापिका कुमारी सृष्टि राज ने सभी का आभार व्यक्त किया।

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