अच्युतानंद मिश्र
प्रगतिशील धारा से सम्बद्ध वरिष्ठ लेखक विष्णुचंद्र शर्मा(1/4/1933-2/11/2020) का 2 नवम्बर को निधन हो गया। सोचता हूँ वे अगर इस वाक्य को सुनते तो नज़र अंदाज़ कर आगे बढ़ जाते।
एक लम्बा साहित्यिक जीवन उन्होंने जिया। जिसमें लिखना पढ़ना बहस करना रूठ जाना और जरा सी बात पर प्रसन्न हो जाना शामिल है। मुझे वे नागार्जुन और त्रिलोचन की कड़ी में लगते थे।
नागार्जुन ,त्रिलोचन से मिलने का मुझे सौभाग्य नहीं मिला पर मैं विष्णुचन्द्र शर्मा से दो तीन बार मिला था। फ़ोन पर उनसे कई बार लम्बी बात हुयी थी। अभी याद करता हूँ तो लगता है, उनके चले जाने से जैसे थोड़ी हवा ठहर गयी है। हिंदी साहित्य में कभी न भरने वाली एक जगह रिक्त हो गयी।
वे अपने तरह के अनूठे लेखक थे। उनके भीतर असमाप्त ऊर्जा का अक्षय श्रोत था। वे तेज़ बोलते थे और बहुत तेज़ लिखते भी थे। उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे हर वक्त उनके भीतर कुछ चल रहा है।
उन्होंने ग़ालिब और निराला पर एक पुस्तक लिखी थी ग़ालिब और निराला: मेरा काव्यानुमान शीर्षक से। वह पुस्तक भारत में आधुनिकता के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को जेहेन में रखकर लिखी गयी थी। हिंदी के तमाम बड़े आलोचकों से भिन्न तरह से उन्होंने निराला को देखा था।
जिस तरह परकाया प्रवेश कर उन्होंने मुक्तिबोध की आत्मकथा लिखी थी, वह हिंदी गद्य लेखन में एक मिसाल है। याद करता हूँ कि काल से होड़ लेता शमशेर शीर्षक से उन्होंने शमशेर पर एक पतली सी किताब लिखी थी। मेरी स्मृति में वह कविता पर लिखी हुई पहली पुस्तक थी, जो मैंने पढ़ी थी।
संस्मरण और आलोचना के बीच से झांकती काव्य-आस्वाद की वह दिलचस्प पुस्तक थी। मैंने शमशेर की कविताएं बाद में पढ़ी। वह पुस्तक पहले। वेटिंग रूम में 12 घण्टे विलंब से चल रही ट्रेन की प्रतीक्षा को उस पुस्तक ने रोमांचकारी बना दिया था।
विष्णुचन्द्र शर्मा ने एक ऐसी आलोचना इजाद की जिसमें कृति और व्यक्ति का एक दिलचस्प सामंजस्य नज़र आता है। एक बड़ा लेखक आपको दूसरे लेखकों को प्यार करना भी सिखाता है। विष्णुचन्द्र शर्मा ने अपने पाठकों को लेखकों को प्यार करना सीखाया। कबीर, ग़ालिब, नजरुल, राहुल सांकृत्यायन, निराला, मुक्तिबोध, शमशेर आदि लेखकों पर उन्होंने बहुत आत्मीयता के साथ लिखा था।
विष्णुचन्द्र शर्मा के लेखन में एक तीव्रता थी, जो उनके मन -मिज़ाज़ से मेल खाती थी। उन्होंने साधारण मगर बड़ा जीवन जिया। एक सच्चे लेखक का जीवन। बेबाक। अपनी शर्तों पर। एक बार वे बिना पैसे के अमेरिका तक की यात्रा कर आये।
हमारे बाद के लोग इन कथाओं को कपोल कल्पना की तरह पढ़ेंगे। एक लेखक के विषय में गढ़े गये किस्से की तरह। लेकिन यह सच्चाई है। ऐसी कितनी ही कथाएं हैं, जो विष्णुचन्द्र शर्मा से होकर निकलती हैं।
उन्होंने मौन शांत सेंदूर जल का, आकाश अविभाजित है, तत्काल, अंतरंग (कविता संग्रह ) , तालमेल, चाणक्य की जय कथा , दिल को मला करें (उपन्यास), अपना पोस्टर , दोगले सपने(कहानी संग्रह), मुक्तिबोध की आत्मकथा, कबीर की डायरी , काल से होड़ लेता शमशेर , समय साम्यवादी आदि अनेक आलोचना और जीवनीपरक पुस्तकें। चुप हैं यों संस्मरण की अद्भुत पुस्तक है। 50 के दशक में कवि पत्रिका का संपादन किया जिसका हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व है। कई वर्षों तक सर्वनाम पत्रिका का संपादन किया।
अगर उनके जीवन को कोई निकट से देखे तो वह कई अध्यायों में लिखे जाने वाले उपन्यास की तरह प्रतीत होगा, जिसमें हकीकत और किस्सागोई दोनों इस तरह घुल मिल गए हैं कि वह झूठ और सच की स्थूलताओं से परे नज़र आता है।
सादतपुर में हुई उनसे दो एक मुलाकातें आंखों के आगे कौंध रही हैं। उम्र उनके चेहरे और मिजाज़ पर कभी हावी नहीं हुयी।
उनका यह वाक्य मेरे जेहन में अटका हुआ है- एक लेखक को नाराज़ होना नहीं छोड़ना चाहिए। हिंदी साहित्य की इस शाम एक नाराज़ सूरज डूब गया।
उनकी स्मृति को नमन!