दुखद खबरों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा. इसी बीच खबर आ रही है कि हिंदी के वरिष्ठ दलित साहित्यकार सूरजपाल चौहान जी अब हमारे बीच नहीं रहे.
पिछले कुछ दिनों से नोएडा के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. हालांकि बीमार वे पिछले कई सालों से थे. सूरजपाल चौहान नवें दशक की हिंदी में आई दलित पीढ़ी के उन आरंभिक रचनाकारों में से थे जो अपने विद्रोही तेवर और साफगोई के लिए जाने थे.
उनका जन्म 20 अप्रैल 1955 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के फुसावली, अलीगढ़ में हुआ था. आरंभिक जीवन गाँव और बाद का दिल्ली में बीता. वे सफाई कामगार समुदाय से आते थे. पढ़ाई-लिखाई और बेहद संघर्ष करके वे प्रतिष्ठित सरकारी नौकरी में पहुचें थे. उनके अब तक चार कविता कविता संग्रह- ‘प्रयास’, ‘क्यों विश्वास करूँ’ ‘वह दिन जरूर आएगा’ और ‘कब होगा भोर’; तीन कहानी संग्रह- ‘हैरी कब आएगा’, ‘नया ब्राह्मण’ और धोखा; दो बालगीत संग्रह- ‘बच्चे सच्चे किस्से’ और ‘मधुर बालगीत’; दो खण्डों में आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’; एक जीवनी- वीर योद्धा मातादीन प्रकाशित हैं. उन्होंने हिंदी के दलित कहानीकारों की प्रकाशित पहली कहानियों के संकलन का संपादन भी किया था. ‘समकालीन हिंदी दलित साहित्य’ नाम से एक आलोचना पुस्तक भी मिलती है. इस तथ्य से बहुत कम लोग परिचित होगें कि उन्होंने तीन लघु नाटक भी लिखे थे- ‘नई चादर का रहस्य’, ‘छू नहीं सकता’ और ‘सच कहने वाला शूद्र है’. ‘छू नहीं सकता’ और ‘सच कहने वाला शूद्र है’ नाम से उनकी लघुकथाएं भी मिलती हैं.
उनकी मकबूलियत का आलम यह था कि वे सिर्फ हिंदी में ही नहीं पढ़े गए बल्कि उनकी रचनाओं के कई भारतीय और विदेशी भाषाओं अंग्रेजीं, जर्मन, तेलुगू, मराठी, गुजराती, पंजाबी एवं उर्दू आदि में अनुवाद हुए. वे अपनी आत्मकथा से विवादों में भी खूब रहे. उनकी रचनाओं के पाठ; उन पर चर्चा-परिचर्चा आकाशवाणी और दूरदर्शन जैसे माध्यमों से भी हुए. अपने रचनाकर्म के लिए उन्हें कई पुरस्कारों और सम्मान से नवाजा गया. इनमें रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार, हिंदी अकादमी का कृति सम्मान, प्रतिष्ठित सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार आदि शामिल हैं.
सातवें दशक में जब पूरे भारत में दलित जन-आंदोलनों का उभार हुआ तो उत्तर भारत भी उससे बचा नहीं रहा. इस दौर में करिश्माई दलित नेता मान्यवर कांशीराम सामने आए. उनका आना उत्तर भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैसियत रखता है. संभवत: हिंदी दलित साहित्य के उभार को इस ऐतिहासिक परिघटना के बगैर नहीं समझा जा सकता. उन दिनों अपने संघर्ष और संवैधानिक आरक्षण के जरिए दलितों की जो नयी पीढ़ी नौकरियों में आई थी; कांशीराम ने उसको संगठित करने, चेतना और सम्मान दिलाने का काम किया.
1971 में उन्होंने अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की; जो आगे चलकर 1978 में बामसेफ बना. इस संगठन ने दलित समाज के उस संपन्न तबके को इकठ्ठा करने का काम किया जो कि ज्यादातर गाँवों से निकलकर छोटे बड़े शहरों में रहता था; छोटी बड़ी सरकारी नौकरियाँ करता था; दुनिया जहान व आत्मीयों से कटकर अकेला पड़ गया था; इसी खालीपन को भरने और इस तबके को सामजिक चेतना देने का काम इस जनांदोलन ने किया. लेकिन दलितों में राजनीतिक चेतना का अभाव अभी भी था इसके अभाव को देखते हुए कांशीराम ने 1981 में एक और सामाजिक संगठन बनाया जिसे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) के नाम से जाना गया. इस संगठन ने दलितों को सामाजिक के साथ-साथ राजनीतिक चेतना भी दी और उन्हें वोट बैंक के रूप में इकट्ठा किया. आगे चलकर 1984 में उत्तर भारत में बड़े राजनीतिक व सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के लिए बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुई. इसका व्यापक असर हुआ और दलितों में जबरदस्त राजनीतिक व सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का उभार हुआ. इसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के आस पास के शहरी इलाकों में सबसे ज्यादा तब्दीली देखने में आयी. हम देखते हैं कि दिल्ली के ज्यादातर आरंभिक हिंदी दलित साहित्यकार शहरों में रहने वाले, सरकारी नौकरियां करने वाले और पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के आसपास के इलाकों से आए थे. उनकी सांस्कृतिक साहित्यिक चेतना के पीछे इस दलित जन-जागरण आन्दोलन का बड़ा प्रभाव पड़ा था.
दिल्ली की पहली पीढ़ी के दलित साहित्यकारों; जिनमें बिहारीलाल हरित, नाथूराम सागर, रामदास शास्त्री, मंशाराम विद्रोही, नत्थूसिंह पथिक, जसराम हरनोटिया, बुद्धसंघ प्रेमी, बनवारीलाल बर्बाद, हरीश परेशां, हरीकिशन संतोषी, अनुसूया अनु, नाथूराम ताम्र, भगवानदास सुजात, भगवान दास, दिलीप सिंह अश्क, रामदास निमेश, राम सिंह निम, रणजीत सिंह निर्भय, लक्ष्मीनारायण सुधाकर, जयपाल सिंह, भीमसेन संतोष, तेजपाल सिंह ‘तेज’, राजपाल सिंह ‘राज’, कुसुम वियोगी, श्यौराज सिंह बेचैन, शत्रुघन कुमार, मोहनदास नैमिशराय, रजनी तिलक, कर्मशील भारती, जयप्रकाश कर्दम, तेज सिंह और सूरजपाल चौहान आदि मुख्य हैं; में ज्यादातर इसी शहरी परिवेश, नौकरियों व जागृत पश्चिमी उत्तर प्रदेश से जुड़े थे. इन कवियों का एक आरंभिक साझा संकलन 1988 में ‘पीड़ा जो चीख उठी’ नाम से आया था; जिसका प्रकाशन भारतीय दलित साहित्य मंच, दिल्ली ने किया था. इसमें 25 दलित कवियों की कविताएँ संकलित थीं. इनका एक साझा कहानी संकलन ‘समकालीन दलित कहानियां’ नाम से 1998 में छपा था; जिसका संपादन दलित साहित्यकार कुसुम वियोगी ने किया था. इसमें बीसवी सदी के अंतिम दशक के 16 कहानीकारों की कहानियों का संकलन हैं. सूरजपाल चौहान इसी पृष्ठभूमि की उपज हैं.
जैसा की आरंभिक दलित साहित्य के साथ आलोचकों की शिकायत रही है कि उसके पास सिर्फ कच्चे अनुभव हैं व कच्चे अनुभवों भर से साहित्य नहीं बना करता. इसके उलट हम देखते हैं; सूरजपाल चौहान के पास सिर्फ कच्चे अनुभव ही नहीं थे बल्कि पकी हुई समझ भी थी. इसीलिए उनके यहाँ ‘अनुभव की प्रमाणिकता’ के साथ ‘अनुभव की सामाजिकता’ भी मिलती है. दूसरी बड़ी शिकायत आलोचकों की यह रही कि दलित साहित्य व साहित्यकार दलित जीवन की दुर्दशा के लिए कथित तौर पर उंची जातियों और ब्राह्मणवाद को ही जिम्मेदार मानते हैं व ज्यादातर अपने समाज के अंतर्विरोधों पर चुप्पी साध लेते हैं. इस बात का काउंटर भी हमें सूरजपाल चौहान की रचनाओं में मिलता है. ‘दलितों की बस्ती’ जैसी कविताएँ हों या फिर ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’ जैसी आत्मकथाएँ या फिर ‘बदबू’ ‘परिवर्तन की बात’ व ‘बहुरूपिया’ जैसी कहानियाँ सबमें अन्य मुद्दों के साथ दलित सामाजिक अन्तर्विरोधों की मुखालिफत मिलती है.
तीसरी बड़ी शिकायत दलित साहित्य के साथ यह रही है कि इसकी भाषा, क्राफ्ट और सौंदर्यबोध अप टू द मार्क नहीं है. कई बार इनके लिखे को साहित्य ही नही कहा जा सकता है. इसका जवाब भी सूरजपाल चौहान जी की रचनाओं से मिलता है. उनकी कविताओं रचनाओं में ना सिर्फ पोयटिक एंड राइटिंग एलिमेंट मिलते हैं बल्कि रचनात्मक वैविध्य के साथ अंतर्वस्तु की मारक मजबूती व कहन की नवैय्यत भी मिलती है. यह ज़रूर है कि जिस रुमानियत और रुहानियत की खोज मुख्यधारा के आलोचक करते हैं वह यहाँ नहीं मिलेगा. उन्हें इस साहित्य को जानने-समझने के लिए अपने प्रतिमानों के नवीनीकरण की ज़रूरत होगी.
इन बातों के उदहारण के लिए उनकी एक कविता देखी जा सकती हैं जो बेहद चर्चित हुई- ‘दलितों की बस्ती’. उससे चंद लाइने देखें- “सारा शहर बुहारा करते/ अपना ही घर गंदा रखते/ शिक्षा से रह रहें कोसों दूर/ दारू पीते रहते चूर/ बोतल महंगी तो क्या है/ देसी थैली सस्ती है/ यह दलितों की बस्ती है./ यहां जन्मते हर बालक को पकड़ा देते हैं झाड़ू/ ओ बेटा, अबे साले, कहते हैं लालू, कालू/ गोविंदा और मिथुन बनकर/ खोल रहे हैं वे नाली/ दूजा काम इन्हें ना भाता/ इसी काम में मस्ती है/ यह दलितों की बस्ती है./ सूअर घूमते घर-आंगन में/ झबरा कुत्ता घर-द्वारे/ वह पीता है वह भी पीती/ पी-पीकर डमरू बाजे/ भूत उतारे रात रात भर/ बस ऐसे ही कटती है/ यह दलितों की बस्ती है.” दलित बस्ती का नग्न और अप्रिय यथार्थ वे हमारे सामने रखते हैं व सोचने को मजबूर करते हैं. इसी कविता में आगे राजनीतिक चेतना की कमी और स्वार्थ के चलते राजनीतिक दलों द्वारा इस्तेमाल होते दलितों के बारे में अपनी बात बेबाकी से रखते हैं- “बेटा है बजरंगी दल में/ बाप बना भगवाधारी/ भैया हिंदू परिषद में है/ बीजेपी में महतारी/ मंदिर मस्जिद में गोली/ इनके कंधे चलती है/ यह दलितों की बस्ती है.” यही नहीं यह कविता दलितों के भीतर जातिवाद के प्रश्न पर भी मुखर है- “तू चूहड़ा और मैं चमार हूं/ यह खटीक और वह कोली/ एक तो कभी ये बन न पाए/ बन गई जगह-जगह टोली/ अपना मुक्तिदाता भूले/ औरों की झांकी सजती है/ यह दलितों की बस्ती है. और आत्मालोचना का यह प्रखर रूप भी देखिए- “मैं भी लिखना सीख गया हूं/ गीत कहानी और कविता/ इनके दुख और दर्द की बातें/ मैं भी भला कहां लिखता/ कैसे पाऊं! ज्ञानपीठ मैं चिंता यही खटकती है/ यह दलितों की बस्ती है. गांव को लेकर मुख्यधारा के साहित्यकारों में जो रुमानियत है वह दलित साहित्यकारों में क्यों नहीं मिलती? यह विचार का विषय है.
जैसाकि डॉ. अंबेडकर कहते हैं दरअसल गांव दलितों के लिए शोषण के अड्डे हैं; जातिवाद के गढ़ हैं इसीलिए अन्य दलित साहित्यकारों की तरह ही जब भी सूरजपाल चौहान गांव की बात करते हैं तो उनके साहित्य में रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी समस्याओं के साथ जातिवाद, बेगारी, अपमान व शोषण के प्रति टीस और गुस्सा दिखाई पड़ता है.
सूरजपाल चौहान को कई अच्छी कहानियों के लिए भी याद किया जाएगा. यहाँ सिर्फ एक की चर्चा अपेक्षित है. ‘बदबू’ (‘अपेक्षा’, जनवरी-मार्च, 2004, अंक-6) नाम की यह कहानी बेहद मकबूल हुई. ‘बदबू’ नाम से हमें दो अन्य कहानियां मिलती हैं- शेखर जोशी और विजयदान देथा की. जहाँ शेखर जोशी की कहानी में मजदूर की व्यथा कथा का वर्णन है और विजयदान देथा की कहानी अलग-अलग जीवन स्थितियों के चलते सौंदर्यबोध के अलगाव पर बेहद मार्मिकता से बोलती दिखती है; वहीँ सूरजपाल चौहान की कहानी ‘बदबू’ दलित जीवन की विवशता और उससे निकलने छटपटाहट को हमारे सामने रखती है. इस व्यवस्था की चोटें सिर्फ शरीर पर नहीं पड़ती हैं बल्कि इससे आत्मा भी चोटिल है. एक दलित लड़की जिसने हाई स्कूल 70 फ़ीसदी अंकों के साथ पास किया है; उसे जब मैला ढोने के लिए जाना पड़ता है तब उसे किस तरह की अनुभूति होती है; उसका अभूतपूर्व, हृदयविदारक चित्रण सूरजपाल चौहान ने किया है- “घर आते-आते उसकी तबीयत बहुत बिगड़ गई. उबकाईयाँ बंद होने का नाम नहीं ले रही थीं. आते ही सबसे पहले वह नहाने दौड़ी. गुसलखाने में जितना पानी रखा था; सारा का सारा उसने अपने शरीर पर उड़ेल लिया. कई-कई बार साबुन से रगड़-रगड़ कर पूरे शरीर को साफ किया. उसे अब भी ऐसा लग रहा था जैसे उसका पूरा शरीर मल-मूत्र से लथपथ हो, हाथ, ऊँगलियाँ; जो गंद से सन गई थी; उन्हें वह काटकर अलग कर देना चाहती थी.”
सूरजपाल चौहान ने हिंदी साहित्य के परम्परित सौन्दर्यबोध को ध्वस्त कर; नए सौंदर्यबोध का निर्माण किया. जिन्हें कभी मनुष्य नहीं समझा गया; उनको मनुष्य मानने की वकालत की; उनका पक्ष लिया और हमारी संकुचित जातिकेंद्रित मनुष्यता का विस्तार किया; हमें ज्यादा ह्यूमन बनाया. इन सब क्रांतिकारी रैडिकल बातों के साथ उनके लेखन-चिंतन की कुछ सीमाएं थीं. अपने लेखन के आरंभिक दिनों से ही उनके चिंतन और साहित्य में स्त्रियों को लेकर एक किस्म की कुंठा दिखाई पड़ती है; जो आगे चलकर और बढ़ती गयी. उनकी आत्मकथाओं ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’ के प्रसंगों को देखें या फिर उनके वैचारिक लेखन को देखें; जो उन्होंने गैर-दलित महिलाओं (ठकुराइन भगवंती का प्रसंग), दलित महिलाओं या फिर अपनी पत्नी के बारे में लिखें हैं; उनमें एक एंटी फेमिनिस्ट एप्रोच दिखाई देता है.
इस प्रक्रिया में अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे धर्मवीरीय स्त्री दृष्टि तक पहुँच गए थे. उनकी अंतिम कविताएँ जो ‘नई धारा’ पत्रिका (फरवरी-मार्च 2021) में प्रकाशित हुई थीं; वह भी उनके स्त्री विरोधी ग्रंथि का ही नमूना है. ‘दलित नहीं, ठाकुर की पत्नी है’ नाम की इस कविता में वे बेहद छिछले स्तर पर पहुँच गए थे. हालाँकि अपनी कुछ अन्य क्रिएटिव राइटिंग्स में वे इससे उलट स्टैंड लेते भी दिखाई देते हैं. वहां स्त्री को लेकर कुंठा के नहीं बल्कि मानवीय मार्मिकता के दर्शन होते हैं. उदाहरणार्थ ‘बदबू’ कहानी की संतोष का चित्रण देखा जा सकता है.
कुल मिलाकर सूरजपाल चौहान के लेखन चिंतन और जीवन को देखें तो दलित समाज के प्रति जागृत सजग व्यक्तित्व के साथ कुंठाओं सीमाओं का अंतर्विरोधी व्यक्तित्व भी दिखाई पड़ता है. वे लगातार लिखते रहे. मुखर होकर बोलते रहे. बिना यह परवाह किए कि कोई क्या सोचेगा; क्या समझेगा; कैसे मूल्यांकन करेगा; कैसे रियक्ट करेगा; रिजेक्ट करेगा या एक्सेप्ट करेगा; वे बोलते रहे, निडरता के साथ. ऐसे समय में जब बोलना मुश्किल होता जा रहा हो, बोलने की संस्कृति का विस्तार करने वाले सूरजपाल चौहान का जाना बड़ी क्षति है. अब उनके जाने के बाद हमारे सामने उनका साहित्य है; उसका समग्रता में मूल्यांकन होना अभी बाकी है. सीमाओं के रेखांकन के साथ उनके योगदान का मूल्यांकन भी होना चाहिए. वे हिंदी प्रदेश में आए दलित विमर्श के पायनियर होने के साथ-साथ दिल्ली के उन दलित साहित्यकारों में थे; जो अपने जीवन में ही खूब मकबूल हुए, बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपे. बड़े प्रकाशनगृहों से शाया हुए. भरपूर पढ़े गए; खूब पुरस्कृत हुए; बेहद विवादित रहे. वे दलित लेखक संघ के पहले अध्यक्ष भी थे जो अब भी टूटते-बिखरते चल रहा है. जब भी हिंदी दलित साहित्य का इतिहास लिखा जाएगा; उसमें सूरजपाल चौहान महत्वपूर्ण होंगे; उनके बगैर हिंदी दलित साहित्य का इतिहास कभी पूरा नहीं होगा.
(डॉ. सर्वेश कुमार मौर्य, जन्म- आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश, स्कूली शिक्षा गाँव से, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली से एम ए, एम. फिल व पीएच डी.
एम. फिल व पीएच.डी में शोध के विषय क्रमशः -‘यथार्थवाद और दलित साहित्य चिंतन’ तथा ‘अफ़्रीकी-अमेरिकी साहित्य और हिंदी दलित साहित्य: तुलनात्मक अध्ययन’. अख़बार व पत्र पत्रिकाओं में नियमित आलोचनात्मक लेखन
प्रकाशित कृतियाँ
यथार्थवाद और हिंदी दलित साहित्य (आलोचना), हिंदी दलित एकांकी संचयन, दलित नाटक की सैद्धांतिकी, दलित नाट्क की आलोचना, दलित लोक नाटक, साहित्य और दलित दृष्टि (संपादन), दलित मुक्ति दर्शन, दलित साहित्य चिंतन, दलित साहित्य विमर्श (सह-संपादन)
‘जनतंत्र के पक्ष में’ सीरिज के अंतर्गत12 पुस्तकों का सम्पादन।
सम्प्रति: एनसीईआरटी के रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एजुकेशन, मैसूर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर
मोबाइल: 9999508476
ईमेल : drsarveshmouryancert@gmail.com sarveshkumarmauryajnu@gmail.com)