समकालीन जनमत
स्मृति

प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय मुँह में ज़बान रखने वाले आलोचक थे: कौशल किशोर

 

शीर्षस्थ कथाकार शेखर जोशी के निधन के शोक से हम अभी उबर भी नहीं पाए थे कि प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक, सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतक, ओजस्वी वक्ता और जन संस्कृति मंच के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडे के निधन की खबर ने एक और आघात दिया। उनके जाने से प्रगतिशील व जनवादी आंदोलन की धारा में जो अंतराल पैदा हुआ है, उसे भर पाना आसान नहीं होगा। वे महज आलोचक नहीं थे। उनमें क्रांतिकारी बदलाव का सामाजिक-सांस्कृतिक चिंतन था। हमारे समय की राजनीति व समाज के बारे में उनके पास वैज्ञानिक विश्व दृष्टि थी। वे सच्चे मायने में पब्लिक इंटेलेक्चुअल (जन बुद्धिजीवी) की भूमिका में थे।

मैनेजर पांडेय के साक्षात्कार की किताब है ‘मैं मुंह में जबान रखता हूं’। ऐसे समय में जब जबान रखने के बाद भी कुछ बुद्धिजीवी चुप रहते हैं या ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उनके मुंह में जबान ही नहीं है, वहीं मैनेजर पांडे सच के पक्ष में जिस मजबूती से खड़े रहे हैं, वह अनुकरणीय है। सत्ता संस्कृति के विरुद्ध उनकी पक्षधरता शोषित, उत्पीड़ित, दलित, श्रमजीवी समुदाय के पक्ष में रही है। उनकी वैचारिकी की निर्मिति में नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन की भूमिका है। जनवादी रूपांतरण में किसानों की भूमिका को वे जरूरी मानते थे। उनकी आलोचना दृष्टि न सिर्फ उपनिवेशवाद व नव उपनिवेशवाद के विरुद्ध है बल्क भारतीय समाज में सदियों से व्याप्त आंतरिक उपनिवेशवाद तक के विरोध तक जाती है। वे वर्णाश्रम व ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खात्मे में ही भारतीय समाज के सच्चे रूपांतरण को देखते हैं।

प्रोफेसर मैनेजर पांडे का जन्म 23 सितंबर 1941 को बिहार के गोपालगंज के लोहाटी ग्राम में हुआ। वे हिंदी आलोचना की प्रखर जनवादी परंपरा से न सिर्फ जुड़ते हैं बल्कि उसके नए द्वार भी खोलते हैं। इन्होंने दर्जनों आलोचनात्मक और वैचारिक कृतियों की रचना की। उनमें शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास दृष्टि, भक्ति आंदोलन और सूरदास का तात्पर्य, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, आलोचना की सामाजिकता, उपन्यास और लोकतंत्र, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, साहित्य और दलित दृष्टि, आलोचना में सहमति-असहमति, भारतीय साहित्य में प्रतिरोध की परंपरा, शब्द और साधना, मुगल बादशाहों की हिंदी कविता आदि प्रमुख हैं।

मैनेजर पांडेय रचना, विचार और आलोचना के ही नहीं बल्कि आंदोलन और संगठन के भी व्यक्ति रहे हैं। सामाजिक बदलाव के लिए संगठन और आंदोलन की जरूरत को वे शिद्दत से महसूस करते थे। यही कारण है कि हिंदी पट्टी में लेखकों व संस्कृतिकर्मियों को संगठित करने की प्रक्रिया की शुरुआत से ही उनका जुड़ाव रहा। तीसरी धारा के सांस्कृतिक संगठन के निर्माण में उनकी उल्लेखनीय भूमिका है। अस्सी के दशक में जब बिहार में नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, उत्तर प्रदेश में जन संस्कृति मंच का गठन हुआ, उन्हीं दिनों दिल्ली में नव जनवादी सांस्कृतिक संगठन अस्तित्व में आया। मैनेजर पांडे का इसके साथ जुड़ाव तो रहा ही, इसके सू जन संस्कृति मंच के 1985 में हुए स्थापना सम्मेलन की स्वागत समिति में शामिल थे और जो पहली राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनी उसके भी सदस्य थे। वे लंबे समय तक जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष भी रहे। संप्रति वे मंच की राष्ट्रीय परिषद में शामिल थे। जसम को वैचारिक व सांस्कृतिक रूप से गतिशील बनाए रखने में उनकी भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है।

प्रोफेसर मैनेजर पांडे का लखनऊ के साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों मे भी आना होता रहा है। 1986 के मार्च महीने में लखनऊ में जसम की पहली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बंगाली क्लब में बैठक हुई थी। इस दौरान दमन और परतंत्रता की संस्कृति के खिलाफ जो सांस्कृतिक मार्च बंगाली क्लब से यूपी प्रेस क्लब तक निकाला गया, उसके नेतृत्वकारी भूमिका में गुरशरण सिंह और गोरख पांडे के साथ वे शामिल थे। 2012 में जयशंकर प्रसाद सभागार में हिंदी के तीन प्रगतिशील कवियों शमशेर-केदार-नागार्जुन शताब्दी समारोह का आयोजन किया गया। उसमें मुख्य वक्ता के रूप में मैनेजर पांडेय शामिल हुए। इस मौके पर उन्होंने कवि और आलोचक चंद्रेश्वर के पहले कविता संग्रह ‘अब भी’ का लोकार्पण किया। उनके 75 साल पूरा होने पर लखनऊ विश्वविद्यालय में भव्य आयोजन हुआ।

मैनेजर पांडेय का साहित्य समाज में होने का विशेष महत्व है। उनके निधन से जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन ने एक कमांडर, विचारक, अभिभावक और साथी को खोया है। वे अपने विचारों के साथ हमारे बीच रहेंगे और उससे फासीवाद के खिलाफ संघर्ष को ऊर्जा मिलती रहेगी। जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश उनके निधन पर शोक प्रकट करता है। उनके चाहने वाला का बड़ा परिवार है। इस दुख से उबरने की सभी को शक्ति मिले। अपने प्रिय और प्रेरक आलोचक को सलाम।

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion