आशीष मिश्रा, युवा आलोचक
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह हमारे बीच नहीं रहे . कवि केदारनाथ सिंह के जाने के साथ ही न सिर्फ़ ‘तीसरा सप्तक’ के कवियों में से अब कोई हमारे बीच नहीं रहा बल्कि उनके साथ हिन्दी कविता के एक युग का अवसान हो गया .
केदारनाथ सिंह ने नई कविता आन्दोलन के साथ अपनी पहचान बनाई. अज्ञेय द्वारा संपादित और 1959 में प्रकाशित, हिन्दी के महत्त्वपूर्ण काव्य संकलन ‘तीसरा सप्तक’ के सात कवियों में केदारनाथ सिंह भी एक थे. इस संकलन के कई गीत हिन्दी-समाज की स्मृतियों में छपे रह गए. इसके साथ ही 1960 में उनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ- अभी बिल्कुल अभी. इस संग्रह की कविताओं में पुरबिया जमीन की दुद्धा गंध को लक्षित किया गया. इसके अतिरिक्त ‘ यहाँ से देखो ’, ‘ जमीन पक रही है ’, ‘अकाल में सारस’, ‘ उत्तर कबीर और अन्य कविताएं ’, ‘ ताल्स्ताय और साइकिल ’, ‘ सृष्टि पर पहरा ’ आदि प्रमुख काव्य-संग्रह हैं. ‘ बाघ ’ शीर्षक लंबी कविता भी पुस्तकाकार छपी और खूब प्रशंसित हुई.
केदारनाथ सिंह की शुरुआती कविताओं में गाँव और लोक से जुड़ी हुई स्मृतियाँ और उनका अनुचितन जो प्रगीतात्मक ढंग से व्यक्त होती हैं. बाद में दिल्ली आने पर उनकी कविताओं में शहरी जीवन का तनाव बढ़ता जाता है, जिससे भाषा और भाव-बोध दोनों में परिवर्तन होता है. गाँव और शहर के तनाव से जो यथार्थबोध विकसित हुआ, उससे वृहत्तर पाठक वर्ग प्रभावित हुआ. उनमें न सिर्फ़ प्रगतिशील विचार और जन-संघर्षों को लेकर काव्यात्मक प्रतिबद्धता दिखाई पड़ती है बल्कि सौंदर्य और भाषिक रचाव की सुरुचि भी है.
इस विविधवर्णी दुनिया से अपार प्रेम करने वाला हमारा कवि नहीं रहा लेकिन वह जहां भी होगा, उसके साथ यह उसकी महबूब दुनिया ज़रूर होगी. उसने कभी बहुत आत्मविश्वास से कहा था-
मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी-समेत
जल और कच्छप-समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।