समकालीन जनमत
कविता

गुलज़ार हुसैन की कविताएँ नफ़रत के ख़िलाफ़ मोहब्बत का पैग़ाम हैं

पंकज चौधरी


प्रखर युवा कवि, पत्रकार गुलज़ार हुसैन का जन्म एक अत्यंत कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि में हुआ। नौकरी की तलाश में मुंबई जैसे महानगर पहुँचे, वहाँ कुछ दिनों तक मज़दूरी की, ट्यूशन पढ़ाया, स्कूलों में नौकरी की, छोटी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की, उनके संपादकीय विभागों में वर्षों काम किया। कुछेक वर्षों से नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण में मुख्य उप संपादक के पद पर काम कर रहे हैं।

जन्म से लेकर नौकरी मिलने तक उन्हें न जाने कितनी उपेक्षा, अपमान, अन्याय, शोषण, आर्थिक तंगी झेलनी पड़ी। इतने संघर्षों के बाद भी गुलज़ार ने हार नहीं मानी और वे फौलाद होते गए। ग़ालिब का यह शेर गुलज़ार पर फिट बैठता है- “मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं”

कवि गुलज़ार हुसैन का परिवेश और उसके जीवन संघर्ष ने उन्हें ऐसा फौलाद बना दिया कि उसके हाथ जीने के सूत्र लग गए। ग़ौरतलब है कि प्रकृति प्रतिकूल और विषम माहौल के लिए उसी को चुनती है जिसमें उससे लड़ने का माद्दा हो।

गुलज़ार की कविताओं के बीज शब्द हैं- हिंसा, दंगा, फ़िरकापरस्त, सांप्रदायिकता, युद्ध, धर्मोन्माद, डेथ कैंप, मॉब लिंचिंग, पैग़ाम, मोहब्बत, शांति, अहिंसा आदि। इन शब्दों के ज़रिए ही वे अपनी कविताओं का ताना-बाना बुनते हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि गुलज़ार हुसैन जैसे कलमकार के यहाँ यदि ऐसे शब्‍दों की पुनरावृत्ति होती है तो यह अस्वाभाविक भी नहीं है और उसके मर्म को समझा जा सकता है।

आज यदि किसी एक पूरे समुदाय का जीवन सबसे ज़्यादा असुरक्षित है तो वे मुसलमान हैं। देश के हरेक मुसलमान को संदिग्ध माना जा रहा है। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब लिंचिंग और हत्या की ख़बरें न आती हों। उनकी बस्तियों को बुलडोज़र से नहीं उड़ा दिया जाता हो। उनके जान-माल की क्षति नहीं होती हो। उनके मानवाधिकार का हनन नहीं हो रहा हो। यह सब देखकर गुलज़ार का कवि आक्रोशित और बेचैन हो उठता है, उसे हिटलर याद आता है। हिटलर की गतिविधियाँ जिस तरह यहूदियों के ख़िलाफ़ थीं, उसी तरह आज भारत में राज्य का रवैया मुसलमानों के ख़िलाफ़ है। वे हिटलर और जर्मनी का बिम्ब अपनी कविता में वैसे नहीं लाते-

“हिटलर कहता था
यहूदियों की प्रार्थनाएं हिंसक हैं
और हिटलर के भक्त
तब कहीं भी प्रार्थना करते
यहूदियों को पीट देते थे।”

देश में आए दिनों ‘भक्तों’ के उत्पात को हम देख सकते हैं। भक्त इतने ताकतवर हैं कि वे निज़ाम की मंशा को पूरी करने के लिए पहले से तैयार बैठे हैं। इस देश में सबसे ज़्यादा पीड़ित दलित हैं और दलितों से भी ज़्यादा पीड़ित वर्तमान में अल्पसंख्यक हैं। इसका सबूत उसके प्रति दिन-प्रतिदिन बढ़ती घटनाएँ हैं। इसके बावजूद उसकी सुरक्षा-संरक्षा को लेकर अघोषित रूप से पाबंदी और प्रतिबंध है। ऐसा माहौल तैयार कर दिया गया है कि हरेक अल्पसंख्यक को पाकिस्तानी मानो और वह हिन्‍दुस्‍तान का दुश्मन है। आश्चर्य तो यह है कि 15-20 प्रतिशत की आबादी को 80-85 प्रतिशत की आबादी के लिए ख़तरा बताया जा रहा है। कवि गुलज़ार की संचित पीड़ा, वेदना और आँसू छलक पड़ते हैं-

“वह चीख-चीखकर पूछना चाहता था अपना अपराध
लेकिन गूंजते शोर में किसी दम तोड़ते पंछी की तरह
वह केवल हिचकी ले पा रहा था
भीड़ लाठियां बरसाती हुई अट्टहास कर रही थी
मारो-मारो इस पशु तस्कर को
और वह कहना चाह रहा था कि इस गाछी के पार उसका घर है
कि उसकी अम्मा उसका इंतजार कर रही है
काली चाय चूल्हे पर चढ़ाकर कि अकबर आएगा
तो साथ में पिऊंगी चाय
कि घरों के आगे खेल रहे बच्चे देख रहे हैं राह
अपने अब्बा का जो लेकर आएंगे उनके लिए चॉकलेट
कि वह कहना चाहता था कि
अपने गांव का आदमी तस्कर कैसे हो सकता है

लेकिन सूखकर पपड़ाए उसके होंठों का हिलना बंद हो रहा था
और आंखें मूंदने से पहले
उसने देखा था खाकी वर्दी वाले की आंखों में
जहां रत्तीभर भी नमी नहीं थी।”

गुलज़ार ने ग्राहम स्टेंस को लेकर कई कविताएँ लिखी हैं। स्टेंस और उसके पूरे परिवार को ज़िंदा जला देना किसी की भी संवेदना को झकझोर सकता है। गुलज़ार का कवि इस घटना को याद करके हाहाकार कर उठता है। स्टेंस जैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो, इसका वे आह्वान करते हैं –

“उस अग्निकांड की रात तुम गहरी नींद में सो रहे थे
लेकिन अब तो जाग रहे हो
इसलिए और लोगों को भी जगाओ
ताकि फिर किसी को जिंदा न जलाया जाए।”

भारत के अल्पसंख्यकों का वर्तमान यदि देखना हो तो गुलज़ार हुसैन को पढ़ा जाना चाहिए। उन्होंने इस विषय पर शायद सबसे हौलनाक और बेचैन करने वाली कविताएँ लिखी हैं। गुलज़ार के सरोकार, संवेदना और करुणा के उत्स यहीं छिपे हैं। गुलजार की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे मोहब्बत का भी पैगाम देना नहीं भूलते।

गुलज़ार में विविधता है। वे प्रेम, प्रकृति, बच्चे, महान अफ़सानानिगार मंटो, किसान, रेडियो, दलित, बड़ी माँ पर भी कविताएँ लिखकर हमारी संवेदना को संवेदित और जागृत करते हैं। आपको यहाँ कविताओं की भाषा सरल और सहज मिलेगी, जो गुलज़ार जैसे कवि की अतिरिक्त विशेषता होती है।

अंत में यहाँ एक बात जोड़ना मैं मुनासिब समझता हूँ कि अभी हिंदी में कई मुस्लिम युवा कवि सक्रिय हैं जो अपनी सामाजिक, राजनीतिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं का परिचय दे रहे हैं, लेकिन वह कौन-सी साजिश है कि उनमें से किसी एक को टोकन के तौर पर उठा लिया जाता है। उसी को बार-बार रेखांकित किया जाता है और बाकी को ओवरलुक (ओझल) कर दिया जाता है? इसके साथ यह संदेश भी देने की कोशिश की जाती है कि हिंदी में दलित-आदिवासियों के साथ मुस्लिम कवियों का भी प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है। क्‍या यहाँ भी सब कुछ गोलमाल है?

पाब्लो नेरुदा की प्रसिद्ध पंक्तियां हैं-

“तुम सारे फूलों को कुचल सकते हो
लेकिन वसंत का आना नहीं रोक सकते।”

 

गुलज़ार हुसैन की कविताएँ

 

1.हमलावर का चेहरा किसी ने नहीं देखा है

मोटे फ्रेम का चश्मा पहने एक वृद्ध के सीने पर गोली मारने के बाद
अभी-अभी जो हमलावर भाग गया है, उसका चेहरा किसी ने नहीं देखा है
गोली मारने के बाद जिस गली में वह गुम हो गया है
उस गली के सभी घरों की खिड़कियों और दरवाजों पर मोटे-मोटे पर्दे लगे हुए हैं
हमलावर ने नहीं ढका है अपना मुंह, लेकिन तेज धूप की चमक से
उसके चेहरे की घृणा पिघल कर नाक की नोक से पसीने की बूंद बनकर गिर रही है
बिना थके और हांफे सरपट दौड़ता हुआ वह शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर पल भर झिझका है
लेकिन लोग फिर भी उसके चेहरे की ओर नहीं देखकर उसके हाथ में कसे बंदूक की ओर देख रहे हैं
और समझ रहे हैं कि खिलौना लेकर वह लोगों को डरा रहा है शायद
हमलावर उस ओर दौड़ गया है, जहां भीड़ में सब एक ही तरह के कपड़े पहने चल रहे हैं
और एक ही तरह के नारे लगा रहे हैं
वह अपनी बंदूक को उस भीड़ के एकरंगे झंडे के समानांतर उठाकर विजयोन्माद में चीख रहा है
उसके चीखने और नारे की आवाज में कोई अधिक फर्क नहीं है
लोग उस सामूहिक नारे और चीख को सुनने और उसका अर्थ जानने की कोशिश कर रहे हैं
और ठीक उसी समय हमलावर भीड़ में घुस कर लापता हो गया है

हमलावर का चेहरा किसी ने नहीं देखा है
लेकिन सड़क पर अपने पिता का हाथ पकड़ कर चल रही छोटी सी लड़की देख रही है
कि एकरंगे झंडे लिए हाथों के बीच एक बंदूक भी तनी है
वह लड़की अपने पापा को वह दिखाना चाहती है

 

2. ख़ून पीने के भागीदार

हिटलर कहता था
यहूदियों की टोपी में षडयंत्र है
और हिटलर के भक्त चलते हुए यहूदी की टोपी नोच लेते थे

हिटलर कहता था
यहूदियों की प्रार्थनाएं हिंसक हैं
और हिटलर के भक्त तब कहीं भी प्रार्थना करते यहूदियों को पीट देते थे

हिटलर कहता था
यहूदियों के खान-पान पर नजर रखो
और हिटलर भक्त तब यहूदियों की थाली छीन कर उसी से उन पर वार कर देते थे

हिटलर कहता था
यहूदियों से दूर रहना चाहिए
और हिटलर भक्त तब सड़कों पर चलते हुए यहूदियों पर पत्थर बरसाते थे

हिटलर कहता था
यहूदी अपवित्र हैं
और हिटलर के भक्त तब यहूदियों को देखते ही मुंह फेर लेते थे

इस तरह हिटलर ने
अपने भक्तों को अमानवीय हिंसक खेल में उलझाए रखा
और यहूदियों के फूड फ्रीडम, धार्मिक स्वतंत्रता, पढ़ाई-लिखाई, रोजगार पर रोक लगा दी

हिटलर जब यहूदियों को डेथ कैंप की ओर ले जा रहा था
तब हिटलर के भक्त हाथ उठकर हेल हिटलर बोल रहे थे

लेकिन, भक्त यह कभी नहीं समझ पाए
कि उन्हें हिटलर ने 60 लाख यहूदियों का खून पीने में भागीदार बना दिया

3. उस बच्चे जैसा तो नहीं मैं

मैं अब
उस बच्चे जैसा तो नहीं
जो बात-बात पर खिलौने खरीदने के लिए रो देता हो
और वैसा नादान बच्चा तो बिल्कुल नहीं,
जो खजूर के पके फलों की सुगंध से मचल जाऊं
और जिद करने लगूं कि वह मुझे अभी के अभी चाहिए
और मुझे अंगुली से पकड़ के ले जा रहे मेरे पिता परेशान हो जाएं
कि अभी इस ऊंचे पेड़ पर चढूं कैसे?

पिता मेरी ऊंगली पकड़ के कहां-कहां ले गए थे
याद है मुझे
एक बार तो कंधे पर बिठा के ले गए
मोहर्रम का जुलूस दिखाने
लेकिन मैं कभी उनकी गोद या अंगुली छुड़ाकर नहीं भागा-
दूर मैदान में
या आम की बड़ी गाछी में
या जामुन के पेड़ पर चढ़ने के लिए

लेकिन अब मैं उस बच्चे जैसा भी नहीं
अब कोई मेरी अंगुली पकड़ के चले तो
मैं दूर भाग जाऊं
जैसे भाग जाता है चमगादड़ सुबह होते ही
जो रात भर खपरैल छप्पड़ में घुस के सरसर करता रहा था

मुझे याद है मैं पहली बार किस पेड़ पर चढ़ा था
वह बहुत विशाल कदम का पेड़ था,
तिराहे पर के मदरसे के पास था वह पेड़
डर-डर कर चढ़ा मैं,
कि बाबा सुनेंगे तो बहुत डांटेंगे,
लेकिन फिर भी बहुत ऊपर तक चला गया
और जब नीचे देखा,
तो उतरने की सोचकर ही मेरी सांस फूल गई

मैं अब
उस बच्चे जैसा तो नहीं
कि पेड़ पर चढ़ जाऊं किसी रोज
और किसी को नहीं बताऊं
कि उतरते समय मेरा क्या हाल हुआ था

4. प्यार कभी- कभी

किसी युवक का प्यार कभी-कभी प्यार नहीं होता
प्यार किसी लड़की को अपना बनाने का नाम ही नहीं होता
अपना बना लेना भी प्यार ही होता हो शायद
लेकिन किसी को अपना बना कर –
उम्र भर यातना देने का नाम प्यार हरगिज़ नहीं होता
किसी को घर लाकर उससे दहेज़ मांगना भी प्यार नहीं होता
किसी को घर लाकर उसकी नौकरी छुड़वा देना भी प्यार नहीं होता

प्यार क्या ठीक उस कैस के प्यार की तरह नहीं होना चाहिए
जिसने लैला को दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की कहते हुए
उसके पैर चूमे थे
और उसके लिए दुनिया की हर सत्ता, लोभ, लालच से किनारा कर लिया था

उस कैस की तरह…
…कि जब लैला मर गई
तो कैस ने उसके पैर चूमते हुए अपनी जान दे दी थी।
(प्यार के बारे में सोचते हुए …)

5. दंगाई

कितनी जी तोड़ मेहनत
और वर्षों के धैर्य से
कोई बनता है सबसे मोहब्बत करने वाला मुकम्मल इंसान

और कितनी आसानी से कोई दंगाई
पल भर में
उसकी पीठ में धर्म के नाम पर छूरा भोंक देता है

दशकों से संचित प्रेम भरा दिल
एक झटके में ऐसे बेजान हो जाता है,
जैसे किसी चहकती चिड़िया
के गले में लग जाए तीर

6. पृथ्वी रो रही है

”पृथ्वी गोल है”
इसे साबित करने में वैज्ञानिकों का जितना खून बहा
उससे भी अधिक लहू यह साबित करने में बह रहा है-
कि हम सभी की एक ही पृथ्वी है

पृथ्वी एक है, फिर भी-
…एक देश युद्ध की आग में जल रहा है
…एक देश परमाणु हमले की तैयारी कर रहा है
…एक देश युद्ध के जख्मों से उबरने में लगा है
…एक देश में धर्मोन्मादी नेता नफरत फैलाने में लगे हैं
…एक देश सांप्रदायिक दंगे में झुलस रहा है

यह जानते हुए भी कि
सभी देशों की एक ही पृथ्वी है
सब लिप्त हैं- युद्ध, दंगे और नरसंहार करवाने में
पृथ्वी पर ही खड़े होकर
पृथ्वी को ही जख्मी किए जा रहे हैं
बारंबार

सभी देशों की अपनी प्यारी गोल पृथ्वी
रो रही है ज़ार-ओ-क़तार
और युद्धोन्मादी देश के कट्टर जहांपनाह नेता कर रहे हैं अट्टहास
और बारूद की तपिश फैलती जा रही है
इस धरती पर

लेकिन सावधान,
पृथ्वी की एक छोर में गिराया गया बम
दूसरी छोर से फट सकता है
काश यह सबको पता होता

7. मैं और मंटो

मंटो की कहानियों में
मैं बार-बार ढूंढता हूं
फिरकापरस्ती से उपजे उस दर्द को
जो बिटवीन द वर्ड्स है

जिसको लिखते हुए कभी मंटो
कमाठीपुरा के एक बदनाम शराबखाने में बैठकर रोया होगा
और जाम पूरी किए बगैर
लड़खड़ाते हुए उठ गया होगा

मैं उसकी कहानियों में उस वेश्या को ढूंढता हूं
जिसने किसी खूनी फिरकापरस्त के साथ सोने से इनकार कर दिया होगा
और फर्श पर थूकते हुए
मुंह पर फेंक मारी होगी नोटों की गड्डी

मैं उस पल को महसूस करना चाहता हूं
जब मंटों ने कहानी लिखते हुए उस फिरकापरस्त पर दोबारा थूका होगा

आज मैं फिर मंटो के साथ-साथ
उस फिरकापरस्त पर थूकना चाहता हूं
तीसरी बार

 

8. उसने कभी नहीं सोचा होगा

वह कभी तो रोई होगी फफक- फफककर
अपने प्रेमी के कंधे पर सर टिकाए हुए, जब अचानक आ गई होगी पिता की याद
कि कैसे बचपन में जब पिता उसके लिए खिलौने लेकर आते थे
और वह दौड़ पड़ती थी खिलखिलाते हुए
और पिता उसे गोद में उठा लेते थे
फिर वह अचानक प्रेमी के पास से हटकर किसी पेड़ के नीचे एकांत में चली गई होगी

किसी रोज तो अपने प्रेमी की हथेलियां थामे हुए उसे मां की याद आई होगी शिद्दत से
कि कैसे उसके स्कूल से आते ही मां ले आती थी उसका मनपसंद खाना और बालों में प्यार से हाथ फेरती थी
तब उसने प्रेमी के हाथ से छुड़ा ली होगी अपनी हथेली
और सोचा होगा
कि जिसके लिए छोड़ आई है दुनिया-संसार, रीति-रिवाज, उस पर कितना भरोसा है उसे…

उसने कभी तो सोचा होगा अपने प्रेमी की आंखों में देखकर
…कि उसे अपने प्रेमी पर इतना तो यकीन है ही कि वह उसे छोड़कर नहीं भाग जाएगा किसी और के पास
…कि उसे इतना तो विश्वास है ही उस पर कि वह उसे तड़पता नहीं देख पाएगा, जब वह बुखार में तप रही होगी
…कि उसे इतना तो भरोसा होगा ही उस पर कि वह उसे तब थप्पड़ नहीं मारेगा, जब दाल में नमक तनिक ज्यादा पड़ी होगी

…कि उसने हर उस प्रेमिका की तरह अपने प्रेमी पर विश्वास किया होगा, जिन्होंने अपने-अपने घर-द्वार छोड़ प्रेमी संग घर बसाए

…और उसने दुनिया की हर प्रेमिका की तरह ही यह कभी भी नहीं सोचा होगा

कि उसने जिन भावों से प्रेमी के लिए स्नेह-प्रेम की बारिश की
वही प्रेमी एक दिन चुपके से उसके उन्हीं स्नेहिल भावों को रौंद देगा
…और उसकी देह और आत्मा के टुकड़े-टुकड़े कर देगा

(एक प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका की नृशंस हत्या पर)

 

9. दुष्ट जादूगर

उठो बच्चों,
उठो, इससे पहले कि स्कूल बंद होने का फायदा उठाते हुए कोई दुष्ट जादूगर तुम्हारे पास आ जाए…
और जादू से तुम्हें कुछ और बना दे, तुम उठ जाओ

जागो, इससे पहले कि वह दुष्ट जादूगर तुम्हें खूनी भेड़िये में बदल दे, तुम उठकर कोई किताब खोल लो

एक ऐसी किताब खोल लो
जिसमें उस दुष्ट जादूगर के हर नफरती मंत्रों का जवाब हो

सुनो बच्चों,
जब दुष्ट जादूगर तुम्हें केवल एक धर्म को श्रेष्ठ कहते हुए, बाकी सब धर्म से नफरत करने को कहे
तो तुम उस किताब में पढ़ लो कि हमें सभी धर्मों का आदर करना चाहिए
और इस वाक्य को उसे सुनाकर मुस्कुरा दो

जब दुष्ट जादूगर तुम्हें केवल एक धर्म के धर्मस्थल को बनाने के लिए बाकी धर्म के धर्मस्थलों को तोड़ना सिखाए,
तो तुम्हारी किताब यह बताए कि जितना महत्व एक धर्म के धर्मस्थल का है, उतना ही महत्व अन्य धर्म के धर्मस्थलों का भी है

जब दुष्ट जादूगर तुम्हें उकसाए कि पराए धर्म के मानने वालों से नफरत करते हुए उन पर पत्थर फेंको
तब वह किताब तुम्हें बताए कि भले ही लोग अलग-अलग धर्म के मानने वाले हैं, पर हैं एक ही तरह के इंसान
किताब तुम्हें बताए कि हर इंसान से प्यार करो

जब दुष्ट जादूगर तुमसे कहे कि किसी धर्म के मानने वाले को कपड़े से पहचानो
और उनकेे खिलाफ दंगा फैला दो
तब तुम्हारी किताब तुम्हें बताए कि चाहे इंसान अलग अलग तरह के कपड़े पहने हों, लेकिन सभी इंसान के अंदर दिल एक तरह धड़कता है
तब वह किताब तुमसे कहे कि किसी भी तरह के कपड़े पहने इंसान का खून कभी न बहाओ
बल्कि मोहब्बत का पैगाम फैलाओ

सुनो बच्चों
दुष्ट जादूगर के झांसे में मत आओ
इससे पहले कि वह जोंक का रूप धरकर तुम्हारे अंदर घुस जाए, और तुम्हें पिशाच में बदल दे
तुम किताब में घुस जाओ

10. ताकि फिर किसी को जिंदा न जलाया जाए

एक सुबह तुम उठो
और अचानक तुम्‍हें पता चले
कि जिस संगठन में अपने बच्‍चों को भेजते रहे हो
उस संगठन के लोगों ने ही
फादर ग्राहम स्‍टेंस को उनके दो बेटों सहित जिंदा जला दिया था
तब तुम क्‍या करोगे?

तुम्‍हें नहीं पता
उस रात
जिस संगठन के लोगों ने
स्‍टेंस की जीप को घेरकर
आग के हवाले कर दिया था
अगली सुबह तुम उसी हिंसक संगठन में
अपने बच्‍चों को नैतिक शिक्षा के लिए भेज रहे थे

अब भी वक्‍त है
उस स्‍टेंस के बारे में अपने मासूम बच्‍चों को बताओ
कि कैसे स्‍टेंस ने अपने चालीस साल कुष्‍ठ रोगियों के इलाज- सेवा में लगा दिए
कि वे उस समय कुष्‍ठ रोगियों के घाव हाथ से साफ करते थे, जब इसका इलाज बेहद कठिन था
कि उन दिनों जब कुष्‍ठ रोगियों को पूर्व जन्‍म का पाप कहकर
घर के बाहर फेंक दिया जाता था, स्‍टेंस उन्‍हें अपने सीने से लगा लेते थे
फिर भी उन्‍हें उनके मासूब बच्‍चों सहित फूंक दिया गया

उस अग्निकांड की रात तुम गहरी नींद में सो रहे थे
लेकिन अब तो जाग रहे हो
इसलिए और लोगों को भी जगा दो
ताकि फिर किसी को जिंदा न जलाया जाए

11. अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा

अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा
तो कैसे भूल जाऊंगा उस सांवले प्रेमी को जो ऑनर किलिंग का शिकार हो गया
और कैसे याद नहीं करूंगा उसकी प्रेमिका को, जिसने अपने गले में फंदा लगाकर जान दे दी

अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा
तो मैं कैसे भूल जाऊंगा
नदी में कूद कर जान देने वाली उस नवविवाहिता को
जो पति की मांग पर बार-बार दहेज न जुटा सकी

अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा
तो अधेड़ होती उस औरत पर कलम कैसे नहीं चलाऊंगा
जो अपने उस शराबी तोंदियल पति का रोज शाम गरमागर्म खाना बनाकर इंतज़ार करती है,
जो किसी सेक्रेटरी के साथ रंगरेलियां मनाकर आता है
और बेल्ट से पीटकर अपनी पत्नी का जिस्म
नीले निशान से भर देता है
इसके बावजूद वह रात में उसके नीचे बर्फ की सिल्ली सी लेट जाती है

अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा
तो सड़क पर भटकती, बुदबुदाती उन अर्धविक्षिप्त युवतियों के जीवन संघर्ष पर कैसे नहीं लिखूंगा
जो अपने प्रेमी के धोखे के धक्के को सह नहीं पाईं

अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा
तो उन वेश्याओं को कैसे भूल जाऊंगा
जो जिस्म की बदौलत अपने बच्चों को रोटियां खिलाती हैं,
लेकिन फिर भी चाकू से नहीं काटती उन मर्दों के शिश्न
जिन्होंने देह को रौंदने के बाद इस नर्क में धकेल दिया

अगर मैं प्रेम के बारे में लिखूंगा
तो मैं प्रेम की उस दुनिया के बारे में कैसे नहीं लिखूंगा जो रक्तरंजित है

12. खेत में रेडियो और किसान

बचपन में देखा है मैंने
खेत की मेढ़ पर बैठकर रेडियो सुनते किसान को
मोहम्मद रफी का गाना-‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना’ सुनते हुए
और अपनी भर आई आंखों को मिट्टी लगी उंगलियों से पोछते हुए देखा है मैंने

गाना सुनते हुए, किसान आकाश की ओर नहीं देखता, जहां पंछी उड़े चले जा रहे हैं
वह देखता है खेतों में बैठे पंछियों की ओर
जो ढूंढ़ रहे हैं दाना अपने बच्चों के लिए, जिसे चोंच में दबाकर पल भर में उड़ जाएंगे वे

किसान रेडियो पर गाना ही नहीं सुनता, वह समाचार भी सुनता है
‘यह आकाशवाणी पटना है, अब आप थोड़ी देर में समाचार सुनेंगे’
समाचार सुनते हुए किसान
अपने हाथों की मिट्टी गमछे से पोछकर बढ़ा देता है रेडियो का थोड़ा वॉल्यूम

वह सचेत होकर रोज समाचार सुनता है
इस आशा में
कि सरकार ने तंगहाली में जीवन गुजारने वाले किसानों के लिए राहें आसान कर दी होंगी
लेकिन पल भर में रेडियो पर आवाज आती है-‘अब आप सुनेंगे खेल समाचार’

किसान देखता है दूर पगडंडी पर उसकी बेटी दौड़ी चली आ रही है
झोले में उसके लिए दोपहर का खाना लिए

किसान रेडियो बंद कर देता है

13. बड़ी माँ

बचपन में खाना खाते-खाते
जब अचानक किसी बात पर रूठ जाता था मैं
और खाना छोड़कर उठ जाता था

…फिर किसी के मनाने से नहीं मानता था
न बाबा के समझाने पर खाता था
न भाई-बहनों के बुलाने पर खाता था
और न ही मां के मनाने पर खाता था

तब दौड़ी आती थी मेरी बड़ी मां
और मेरा हाथ पकड़ के कहती थी-
उठ, चल रे गुलजार, खाना खा ले

लेकिन मैं
उनकी बात को भी अनसुना करते हुए
फेर लेता था मुंह

…लेकिन बड़ी मां मुझे ऐसे नहीं जाती थी छोड़कर
वह मेरा सर घुमा लेती अपनी तरफ
और कहती- जब मैं इस दुनिया में नहीं रहूंगी एक दिन
और जब तुम कभी खाने के समय रूठ जाओगे
तब तुम मुझे याद करना मेरे बेटे
मुझे याद करना कि तुम्हारी एक ऐसी मां भी थी
जो दौड़ी आती थी मनाने खाने के लिए
और खाना खिलाए बिना लौटती नहीं थी

इतना सुनते ही मैं खाने के लिए दौड़ा चला जाता था

आज इस दुनिया में नहीं है वो
पर अब जब भी किसी बात से निराश मन
खाने के समय हो जाता है उदास
तब महसूस करता हूं मैं अपने सर पर बड़ी मां का स्नेह भरा हाथ

 


कवि गुलज़ार हुसैन
जन्म-तिथि – 21 जून, 1976

कविताएँ, कहानियाँ, लेख और रेखांकन विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित। कई साझा संग्रह में लघुकथाएँ और कविताएँ प्रकाशित। एक कविता संग्रह ‘लोहे की पीठ’ प्रकाशित।

संप्रति : मुंबई  से प्रकाशित होने वाले नवभारत टाइम्स में मुख्य उप सम्पादक।

सम्पर्क: +919321031379

 

 

टिप्पणीकार पंकज चौधरी, जन्म वर्ष-15 जुलाई, 1976, जन्म स्थान : ग्राम+ पोस्‍ट-कर्णपुर, थाना+जिला – सुपौल, राज्‍य-बिहार,शिक्षा : एमए (हिंदी)।  प्रकाशित किताब- ‘उस देश की कथा’और ‘किस किस से लड़ोगे'(कविता संग्रह) ‘आम्‍बेडकर का न्‍याय दर्शन’ एवं ‘पिछड़ा वर्ग’ नाम से 2 वैचारिक आलेखों की किताबों का सम्‍पादन। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित। सम्मान : बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘युवा साहित्यकार सम्मान’, पटना पुस्तक मेला का ‘विद्यापति सम्मान’ और प्रलेस का ‘कवि कन्‍हैया स्‍मृति सम्‍मान’, वर्ष 2023 में  ‘नई धारा रचना सम्मान’ से सम्मानित।

पत्रकारीय कार्यानुभव- आज समाज, दैनिक जनवाणी, फॉरवर्ड प्रेस, युद्धरत आम आदमी एवं सूचना एवं प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्‍ली जैसी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और संस्‍थानों में सम्‍पादकीय पदों पर नौकरी।

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