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शमशेर जयंती: कवि के पास जाने के लिए उड़ान चाहिए

शामली जिले में 12 जनवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की जयंती (जन्मदिन 13 जनवरी 1911) पर उनके पैतृक गांव एलम में सालाना जलसा आयोजित हुआ। 2024 में इस आयोजन की शुरुआत हुई थी, इसे आयोजित करने वालों में जन संस्कृति मंच, भारत नौजवान भारत सभा और चलचित्र अभियान के अलावा उनके गांव और आसपास के स्थानीय लोग हैं।

दो सत्रों में बंटे इस जलसे में कड़ाके की ठंड के बावजूद एलम इंटर कॉलेज के परिसर में स्थित हाल में पड़ी 200- 250 कुर्सियां न केवल पूरी तरह से भरी थीं बल्कि सुबह 11:15 बजे से शुरू हुए पहले व्याख्यान सत्र और भोजन के बाद कविता पाठ व चलचित्र अभियान द्वारा दिखाई गई शमशेर जी पर फिल्म तक कार्यक्रम शाम 6:00 बजे तक चला, तब भी बमुश्किल 15- 20 लोग ही कम हुए और लोगों की जीवंत प्रतिक्रिया इस जलसे और कवियों के कवि शमशेर जी के लेखन की ताकत को जैसे आंखों के सामने नए नए रूप में खोल रही थी।

देवी प्रसाद मिश्र

व्याख्यान सत्र के मुख्य वक्ता हमारे दौर के मशहूर कवि देवी प्रसाद मिश्र ने अपने संक्षिप्त लेकिन सूत्रबद्ध बातों में कहा कि कवि की स्मृतियों में उसकी जबान होती है, उनकी कविता की संरचना में संशयात्मकता है। इस वाक्य को वह आगे खोलते हैं: उनकी कविता में आक्रामकता नहीं है, गहरी विनम्रता लेकिन दृढ़ता है। बहुत तोल कर शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, एक शब्द भी ज्यादा नहीं, फालतू नहीं। उनकी टूटी हुई बिखरी हुई कविता को उठाकर देवी प्रसाद सवाल करते हैं कि यह टूटना बिखरना क्या है? आगे जोड़ते हैं- 1911 में पैदा हुए शमशेर जी की उम्र के 36 साल गुलाम भारत में फिर 35 साल का जीवन स्वतंत्र भारत में, इस संक्रमण को देखिए, शमशेर जी के यहां जो संशयात्मकता है वह आजादी के बाद समाज में जो बिखराव नजर आता है उस कारण ; उनकी कविता में यह बिखराव, यह डिफ्यूजन दिखेगा कविता का गठन चाहे जितना बेहतर हो। उन्होंने गजल भी लिखी लेकिन चुना उन्होंने खुद गद्यशील काव्य को, क्यों? उन्होंने समाज, राजनीति, अर्थनीति की अंतर्वस्तु को कथ्य में पकड़ा है बिखराव के अंतराल को नाद से संगठित किया है इसलिए उनकी कविताओं में गहरी संगीतिक बद्धता है। इसके बाद उन्होंने खुद शमशेर जी ने जो गजल मुक्तिबोध के लिए लिखी थी –

“जमाने भर का कोई इस कदर अपना ना हो जाए

कि अपनी जिंदगी खुद आपको बेगाना हो जाए।”

श्रोताओं को लगा कि इसके बाद भी वह अपना वक्तव्य जारी रखेंगे, लेकिन आकस्मिकता को जीवन में एक महत्वपूर्ण बात मानने वाले कवि ने यहां भी उसी का परिचय दिया और वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गए। संचालन कर रहे भारत नौजवान सभा के साथी परविंदर खुद भी ऐसे आवाक हुए कि उन्होंने इस वक्तव्य के बाद चाय के लिए ब्रेक कर दिया। हम जैसे लोगों को लगा की इतनी जमी जमी महफिल में अचानक यह चाय का व्यवधान! लेकिन श्रोता ऐसे कि चाय पीकर फिर वही माहौल, लोग आकर कुर्सियों पर ऐसे जम गए जैसे बीच का समय कोई समय ही ना था।

सत्र की शुरुआत करते हुए अध्यापक विक्रम जी ने शमशेर जी के बचपन के कठिन दिनों से लेकर जीवन पर्यंत उनके समझौता विहीन जीवन को उनकी ही पंक्तियां- राह तो एक ही थी हम दोनों की आप किधर से आए गए/ हम जो लुट पिट गए आप जो राज भवन में पाए गए। से याद किया। उन्होंने कहा कि शमशेर जी की अपने जमाने से लेकर भविष्य के संकटों तक पर नजर रहती है, चाहे वह आज के दौर की भयावह सांप्रदायिकता का मामला हो या फिर आजादी के बाद नए साम्राज्यवाद के चपेट में आने का। उन्होंने शमशेर के कठिन होने के प्रचार को भी खारिज करते हुए कहा कि जरूर उनकी कुछ कविताएं लोगों को कठिन लगती हैं जैसे बादाम पाने के लिए उसके खोल को तोड़ने के लिए आपको थोड़ी मशक्कत तो करनी होगी लेकिन ज्यादा कविताएं और गजलें ऐसी हैं जो सीधे आमजन की भाषा में उन्होंने लिखी हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता काल तुझसे होड़ है मेरी को संदर्भित करते हुए उन्होंने कहा कि जो हमारा आज का समय है, काल , वह जन विरोधी ताकतों का । इसे ही होड़ देने की बात करते हैं शमशेर और उसके लिए ऊर्जा, ताकत के लिए वह आम जन जनता के पास लौटते हैं। उन्होंने भी उनकी कविता में जो ठहराव है उसकी ओर इशारा किया। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि उनकी मार्क्सवाद को लेकर गहरी वैचारिक प्रतिबद्धता है जैसे मंगलेश डबराल बर्टोल्ट ब्रेख्त पर लिखते हुए कहते हैं कि वह विचारधारा को सृजनात्मकता के साथ सामने लाते हैं, यही बात शमशेर जी पर भी लागू होती है।

बसंत त्रिपाठी

गोष्ठी के अंतिम वक्ता इलाहाबाद से एलम पहुंचे चर्चित कवि और कथाकार बसंत त्रिपाठी ने कहा कि कवियों के पास उड़कर ही जाना होता है, खासकर शमशेर जैसे कवि के पास जाने के लिए एक उड़ान तो लेनी ही पड़ेगी। एक पाठक से शरतचंद की हुई बातचीत का जिक्र करते हुए, जिसमें शरतचंद्र ने टैगोर को कवियों का कवि कहा था, उन्होंने कहा कि हम लोगों के लिए शमशेर की कविता ऐसी ही है जिसके पास बार-बार जाना होता है और हर बार वह आपमें आप में कुछ नया अर्थ भर जाती है। बसंत त्रिपाठी शमशेर जी के जीवन और कविता दोनों में गहरी संवेदना का जिक्र करते हुए बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन और शमशेर के किस्से का जिक्र करते हैं- मध्य प्रदेश के एक शहर में कुछ नौजवानों ने इन लोगों को संपर्क किया कि यह लोग कविता पाठ के लिए आएं। तीनों कवियों ने से सहर्ष स्वीकार कर लिया और पहुंच गए। कार्यक्रम के बाद चलते वक्त त्रिलोचन जी को, जिनके पास निश्चित रूप से बहुत कम संसाधन था, उन लोगों ने लिफाफे में कुछ रुपया किराए भाड़े के लिए रखकर इन लोगों बढ़ाया (त्रिलोचन जी ने नीची नजर किए हुए बहुत संकोच से लिफाफा लिया। त्रिलोचन जी की गहरी आर्थिक विपन्नता से कौन नहीं परिचित होगा)। बाबा की जैसी मुद्रा थी उन्होंने कहा- अच्छा अब तुम मुझे नागार्जुन को पैसा दोगे, चलो भागो भागो यहां से। शमशेर जी ने कुछ नहीं कहा। लिफाफा लेकर रख लिया और जब चलने का समय हुआ तो उस लिफाफे में कुछ और रुपया रखकर आयोजकों को वापस करते हुए कहा कि हम लोगों का सहयोग है, ऐसे कार्यक्रमों के लिए। कितनी गहरी संवेदना से उपजी होगी यह बात। यह है शमशेर जी का व्यक्तित्व। बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि शमशेर जी अपनी कविता में अपने समय के विद्रूपताओं को भी रचते हैं, शमशेर उस समय 30 के दशक में प्रगतिशील सोच और सौंदर्य के दूसरे मत के बीच खड़े कवि हैं। इसलिए उनकी कविता प्रगतिशील वैचारिक प्रतिबद्धता को वहन करती हुई लेकिन भाषा के सौंदर्य को एक पल भी न छोड़ने को तैयार कविता दिखती है। शमशेर कविता की ताकत और वहीं पॉपुलर कविता की ताकत खूब समझते थे। उनकी रचनाएं इसकी गवाह हैं, चाहे वह वाम वाम वाम जैसी कविता हो या उनकी गजलें। लेकिन उन्होंने गद्य कविता को ही प्रतिवाद की ताकत के रूप में चुना। प्रयोगवाद चाहे अज्ञेय से लेकर अन्य जो चर्चित हुए लेकिन आप देखेंगे तो पाएंगे कि शमशेर से ज्यादा प्रयोग किसी ने हिंदी कविता में नहीं किए हैं और शायद अग्रजों, मित्रों पर सबसे अधिक कविताएं भी उन्होंने ही लिखी है। अपनी रचना के साथ उनका गहरा एकात्म है। अपनी रचना में वह शब्दों से चित्र बनाते हैं, जैसे आप देखिए वह पहाड़, हंसा, दांत सोने चट्टानी या आसमान पिघल रहा पीला दरिया, वह रोज ब रोज के दृश्यों को शब्दों में रचते हैं। उनके भीतर उसे व्यक्त करने की गहरी छटपटाहट दिखती है। मनुष्य और उसकी संवेदना को पूरे सौंदर्य के साथ व्यक्त करने की उनकी यही छटपटाहट है। यही बात उनसे नए-नए प्रयोग करवाती है लेकिन अकविता की तरह नहीं जहां कई बार मनुष्यता को रिड्यूस कर दिया जाता है। इसलिए वह हमारे जैसे तमाम कवियों के कवि भी हैं और आमजन के तो हैं ही।

दिगंबर

इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए संपादक अनुवादक वरिष्ठ साथी दिगंबर ने आज के देश के हालात में उनके गंगा जमुनी दोआब की संस्कृति और हिंदी उर्दू भाषा के शीर्ष के रूप में याद किया। उन्होंने उनकी कविता पूरी दुनिया पर कैसे नजर रहती थी, उसे स्मरण करते हुए विभिन्न देशों की शीर्षक वाली कविताओं का जिक्र भी किया। उन्होंने इस जलसे को लेकर कहा कि अब यह सालाना जलसा बनता जा रहा है और आज हम यह कहने की स्थिति में हैं कि आप सब के सहयोग से यह सालाना जलसा हर साल होता रहेगा।

इसके बाद दोपहर का स्वादिष्ट भोजन और साथ में इलाके की खास गन्ने की रस में पकी खीर खाने के बाद कविता पाठ का दूसरा सत्र शुरू हुआ जिसका संचालन दिगंबर जी ने किया। इस भरे पूरे सत्र में कोटा से आए वरिष्ठ कवि महेंद्र नेह , इलाहाबाद से आए बसंत त्रिपाठी, लक्ष्मण प्रसाद, दिल्ली से पहुंचे देवी प्रसाद मिश्र, अनुपम सिंह, जावेद आलम ख़ान, पंकज श्रीवास्तव, अशोक, बरेली से आए संदीप तिवारी, ऐलम गांव के ही राजेश चौधरी, मास्टर विजेंदर और कांधला की अध्यापिका और युवा कवि इरा कलशाण ने कविताओं और गजलों, नज्मों की जो शाम सजाई तो रह रह कर घूमती तालियों का शोर जैसे न सिर्फ अपने सामने कविता पाठ कर रहे कवियों का सम्मान कर रही थी बल्कि शमशेर जी की उस भरी पूरी परंपरा का भी सम्मान कर रही थी जिसे वह हमारे लिए छोड़ गए हैं।

सत्र के शुरुआत और बीच-बीच में जब कभी बिजली गुल हो जाए और जनरेटर चलने में जो समय लगता , उसका भी खूबसूरत इस्तेमाल दिल्ली और मेरठ से आई गायन टीमें – विकल्प मंच शाहदरा, शमशेर बहादुर कला मंच, ऐलम की टीमों ने श्रोताओं को मुक्तिबोध, शमशेर, शैलेंद्र, महेंद्र, दिनेश कुमार शुक्ल, यश मालवीय की कविताओं और गीतों को संगीतबद्ध तरीके से सुना कर इसे कविता के जश्न में बदल दिया। शमशेर जी की कविता बात बोलेगी स्थानीय रागिनी की धुन में सुनना भी शानदार अनुभव था।

अनुपम सिंह

इस कार्यक्रम की खास बात गौर की जानी चाहिए कि स्थानीय साथियों के साथ में यह गायन टीमों के साथी भी अलग-अलग समय पर चाय पिलाने से लेकर खाना खिलाने तक के जिम्मेदारी संभाली हुई थी। हाल के बाहर बुक स्टॉल और हाल के बाहर से लेकर भीतर तक कविताओं के पोस्टर अलग आकर्षण के केंद्र थे। कार्यक्रम के शुरू में चलचित्र अभियान के साथियों ने शमशेर जी पर केंद्रित दूरदर्शन अरकाईव से एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई, अंतिम कार्यक्रम के रूप मे CCA द्वारा स्थानीय किसानों की समस्याओं पर केंद्रित दस्तावेजी फिल्म का प्रदर्शन किया गया। फिल्म स्क्रीनिंग की जिम्मेदारी चलचित्र अभियान के विशाल, शाकिब, शावेज और सचिन निभा रहे थे और वे अपनी टीम के साथ इस पूरे कार्यक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग भी कर रहे थे।

अतिथियों, कार्यकर्ताओं व श्रोताओं को धन्यवाद देते हुए आलोचक- लेखक रामायन राम ने कहा कि जब साहित्य संस्कृति को शहरों नगरों तक सीमित कर रह गई है और जिनके लिए सबसे अधिक रचनाएं जरूरी है तब उसे उनके पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं । रचना के लिए भी आपको जन तक आना होगा,उन्हें महसूस करना होगा तभी आपकी रचना भी उस संवेदना से भरपूर होगी जिसकी बात इस कार्यक्रम में लगातार होती रही है। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि इस दौर में शहरों, महानगरों में कार्यक्रम करने तक की जगह भी सिकुड़ती गई है। इसलिए भी जरूरी है कि आपके पास जहां जन का आधार मिले, जिसके बल पर आप कार्यक्रम कर सकते हैं, हमें इस दिशा में ही सोचना होगा और यह जलसा उसी की देन है जिसमें हम लोगों ने सोचा कि अपने पूर्वज रचनाकारों के ही गांव से हम इसकी शुरुआत करें और यह लगातार बेहतर होता गया है। कार्यक्रम में मुख्य रूप से शमशेर जी के भतीजे बलराज जी सहित उनके पारिवारिक लोग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यापक आलोचक प्रेम शंकर सिंह, स्थानीय ग्रामवासी सुबोध पँवार, राजेंद्र पँवार, मास्टर प्रेम पाल पँवार, प्रो.राजपाल पँवार, एडवोकेट विकुल पंवार, हाई कोर्ट इलाहाबाद, इंजीनियर सुशील पंवार, डॉ. पंकज चौधरी, जटाशंकर यादव,ऐलम इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य अब्दुल बासिद, अध्यापक रवि पंवार, अमर पाल, किसान नेता प्रवीण, आशू वर्मा, मोहित वर्मा, अरुणा शर्मा, सुनीता, नीशू, पायल इत्यादि लोग उपस्थित रहे।

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