समकालीन जनमत
शख्सियत

याद ए मकबूल जायसी का आयोजन : चर्चा और ग़ज़ल संध्या 

 

‘मकबूल जायसी की शायरी हिंदुस्तानियत और इंसानियत से सराबोर’ 

‘अब ये गजलें मिजाज बदलेंगी

लखनऊ। जन संस्कृति मंच (जसम) की ओर से ‘याद ए मकबूल जायसी’ का आयोजन इप्टा दफ्तर, 22 कैसरबाग में किया गया। इसमें जनाब मकबूल जायसी की शायरी पर गुफ्तगू हुई और जाने-माने शायरों द्वारा गजलों का पाठ किया गया। ज्ञात हो कि जनाब मकबूल जायसी का इंतकाल इसी साल दो अक्टूबर को हुआ।

कार्यक्रम की अध्यक्षता जाने माने कवि व लेखक कौशल किशोर ने की ।

मकबूल जायसी पर चर्चा की शुरुआत करते हुए जाने माने उर्दू लेखक और जसम लखनऊ के कार्यकारी सदर असग़र मेहदी ने कहा कि हम सबने एक बड़ा सरमाया खो दिया है। मक़बूल जायसी को शायरी विरसे में नहीं मिली थी। एक अदीब और शायर का कलाम ही इस का बेहतरीन तआरुफ़, उसकी हैसियत और शख़्सी तख़मीना का ज़रीया होता है। इस दृष्टिकोण से देखें तो मक़बूल जायसी का जो कलाम हम तक पहुँचा है उसकी रोशनी में हम उनको एक हमागीर शायर तसव्वुर कर सकते हैं। मक़बूल जायसी के 55 वर्षीय अदबी ज़िंदगी में आठ संकलन प्रकाशित हुए हैं जिसमें ग़ज़ल, नज़म, रुबाई, क़ता’, नौहा, मनक़बत, मर्सिया जैसी तमाम सिन्फ़ (विधाओं) में बेहतरीन रचनाएं मिलती हैं।

 

असग़र मेहदी ने कहा कि इनके कलाम में सच्चाई के रास्ते पर चलने की दावत और बातिल से दूरी की ताकीद है। मर्सिया का सब्जेक्ट कर्बला का वाक़िया है, और अगर इस वाक़िया पर मरकूज़ कलाम में अमली पहलू सामने नहीं आते तो ये शायरी बेमानी हो जाती है। यहाँ पर शायर की पोलेटिकल समझ काफ़ी अहम होती है। उनके यहां तीर, नेज़ा, दरिया, हरमिला, हुर, दश्त, प्यास, वफ़ा, सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं हैं बल्कि हक़-ओ-बातिल की जंग में फ़लसफ़ाती किरदार हैं। “हर मर्द के फ़रोग़ में औरत का हाथ है” जैसे मर्सिये का ज़िक्र भी आया जिसकी सबसे ख़ूबसूरत बात यह है कि हर तहरीक में मक़बूल जायसी औरतों की मुकम्मल शमूलीयत की वकालत करते है। अपनी बात को ख़त्म करते हुए असग़र मेहदी ने मक़बूल जायसी की पंक्तियाँ पढ़ीं-

‘दो-गज़ ज़मीं लूँगा यक़ीनन है हक़ मेरा/मर्क़द से लाश जाएगी ख़ुद कू-ए-यार में’।

सीनियर उर्दू लेखक डॉ वज़ाहत हुसैन रिजवी ने मकबूल जायसी की ग़ज़ल, नज़्म, मर्सिया आदि के हवाले से अपनी बात कही। उनका कहना था कि जनाब मकबूल जायसी की शायरी में नजीर अकबराबादी नजर आते हैं। वे इस परंपरा को आगे बढ़ते हैं। उनकी शायरी में होली, दिवाली, ईद, सावन, माता-पिता, स्त्री पुरुष, माघ मेला के साथ समाज का दर्द, उसकी परेशानी व्यक्त हुई है। वे भाईचारे का संदेश देते हैं तो वहीं अत्याचार से लड़ने का हौसला भी देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे पेशे से फायर आफिसर थे। उन्होंने दुनिया को दो तरह से जलने से बचाया। एक तो वह आग जिससे बस्तियां जल जाती हैं, शहर जल जाते हैं दूसरी वह आग जिससे समाज की आत्मा चल जाती है। शहर को पानी की फुहार से जलने से बचाया तो समाज की आत्मा को कलम की रोशनी से जलने से बचाया। उनकी शायरी इस आग के विरुद्ध ज़िन्दगी का संदेश देती है।

कार्यक्रम की सदारत करते हुए कौशल किशोर ने जनाब मकबूल जायसी को याद करते हुए कहा कि कि उनकी शायरी के अनेक रंग हैं। वह हिंदुस्तानियत और इंसानियत से भरी हुई है। आम आदमी के मसाइल को वह एड्रेस करते हैं। अपने जीवन के अनुभव को अपनी शायरी का विषय बनाया है। वे बुद्धि और ज्ञान के महत्व को सामने लाते हैं। वहीं इस बात पर भी रंज है कि आज प्रेम की गंगा लुप्त होती जा रही है। आज जब सामाजिक ताने-बाने को नष्ट किया जा रहा है, ऐसी शख्सियत का महत्व बढ़ जाता है। कौशल किशोर का प्रस्ताव था कि उनकी शायरी को हिंदी में भी ले आया जाए तथा जसम की ओर से हरेक साल अगस्त में उनकी याद में आयोजन हो।

 

कार्यक्रम का संचालन जसम लखनऊ के सचिव युवा कथाकार फरजाना महदी ने की। उन्होंने मकबूल जायसी के जीवन वृत्त को रखा और बताया कि कि उनका हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रहा है। उन्हें अनेक साहित्यिक अवार्ड से सम्मानित किया गया। पेशे से वे फायर अफसर थे जिन्हें उत्तम सेवा के मद्देनजर राष्ट्रपति पदक भी मिला। उनका जन्म 1 अगस्त 1946 को हुआ था। 78 साल की उम्र में उनका इंतकाल हुआ।

कार्यक्रम दूसरे हिस्से में अनेक शायरों ने अपनी गजलें सुनाई। सुल्तानपुर से आए डी एम मिश्र ने जनवादी ग़ज़लें सुनाकर वाहवाही लूटी। वे कहते हैं ‘अब ये गजलें मिजाज बदलेंगी /बेईमानों का राज बदलेंगी/खूब दरबार कर चुकीं गजलें/ अब यही तख्त-व-ताज बदलेंगी।’ दूसरी ग़ज़ल में वे कहते हैं -‘क्या क्या नहीं बाज़ार में इस बार बिक गया/सस्ते में मेरी कौम का सरदार बिक गया’।

 

ओमप्रकाश नदीम अपनी ग़ज़ल में कहते हैं ‘अपनी ऑंखें फ़िट कर देना सबकी ऑंखों के अंदर/फिर अपने ही ख़्वाब दिखाना छोटी मोटी बात है क्या…. ख़ुद अपनी तस्वीर बनाना फिर भरना मनचाहे रंग/ फिर उस पर लट्टू हो जाना छोटी मोटी बात है क्या’। शैलेश पंडित कहते हैं ‘वे जो जम्हूरियत के दिन थे, हमें लौटा दो /ये रामराज हटाओ, बहुत अंधेरा है /ये इतनी मौत, इतने ध्वंस, बुलडोजर का नशा /शहंशाह, होश में आओ, बहुत अंधेरा है’।

 

अनिल कुमार श्रीवास्तव कहते हैं ‘वो जो, बा-ज़मीर हैं, फ़ितरतन फ़क़ीर हैं/मुफ़्तखोर हो रहे, दौर के अमीर हैं’। बाराबंकी से आए डॉक्टर फिदा हुसैन का कहना था ‘सदियों सदियों अलख जगाना होता है/तब जाकर बेदार ज़माना होता है/सारी मस्जिद और मज़ारों के नीचे/वोटों का भरपूर खज़ाना होता है’। रामप्रकाश ‘बेखुद’ और वकार बाराबंकवी ने भी अपनी गजलें सुनाईं और जाड़े की शाम के अंधेरे को रौशन किया। सुनने वालों में गर्मी आई।

 

इस मौके पर शकील सिद्दीकी, आशीष सिंह, के के शुक्ला, विमल किशोर, डॉ अवन्तिका सिंह, इरा श्रीवास्तव, कल्पना पांडेय, रोहिणी जान, अरुण सिंह, अशोक वर्मा, अशोक मिश्र, वीरेंद्र त्रिपाठी, रमेश सिंह सेंगर, मधुसूदन मगन, अजय शर्मा आदि मौजूद थे।

 

फरजाना महदी ,चिव, जन संस्कृति मंच, लखनऊ 

मोबाइल – 99841 54059, 8400208031

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