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वीरेनियत-6: कला और साहित्य का अद्भुत संगम

नई दिल्ली। दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर हॉल में जन संस्कृति मंच द्वारा 15 नवम्बर को कवि वीरेन डंगवाल की स्मृति में आयोजित  सालाना काव्य-जलसे का छठा संस्करण कला और साहित्य के अद्भुत संगम का गवाह बना। इस आयोजन में दिल्ली में होने वाले दीगर कविता आयोजनों की तरह सिर्फ कविता ही नहीं सुनाई जाती बल्कि हरिश्चंद्र पांडे के अनुसार ” यहाँ कवियों का रियूनियन भी होता है।”

‘ वीरेनियत ‘ की खास बात ये भी थी कि जितने कवि कविता पढ़ने के लिए मंच पर बैठे थे, उससे कहीं अधिक वरिष्ठ/युवा कवि श्रोताओं में कविता सुनने के लिए बैठे हुए थे। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कवयित्री अनामिका, असद ज़ैदी, देवी प्रसाद मिश्र, मदन कश्यप, पंकज चतुर्वेदी, आर चेतनक्रांति, संपत सरल, अदनान कफ़ील दरवेश, शुभा, रचित जैसे कवि श्रोताओं में तल्लीनता से कविता सुन रहे थे।

 

कार्यक्रम की शुरुआत अपने निर्धारित समय 6.30 बजे संयोजक-संचालक आशुतोष कुमार ने की, जिन्होंने अपने सधे हुए संचालन की शुरुआत में वीरेन डंगवाल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा- ” वीरेन दा गए मगर वीरेनियत बनी रही। ” इस वाक्य ने न केवल कार्यक्रम की शुरुआत को भावनात्मक गहराई दी, बल्कि उपस्थित श्रोताओं को भी एक अनूठे अनुभव से जोड़ दिया।

इस काव्य संध्या में आमंत्रित कवि थे : नादिम नदीम, पराग पावन, अंचित, विजया सिंह, कविता कादंबरी, हरिश्चंद्र पांडे, पूनम वासम और सत्यपाल सहगल।

आमंत्रित कवियों के काव्यपाठ से पहले मृत्युंजय ने वीरेन दा की प्रसिद्ध कविता ‘ रामपुर बाग़ की प्रेम कहानी ‘ की आवृति की। मृत्युंजय की आवाज़ और उनकी अभिव्यक्ति में वीरेन दा की उपस्थिति को महसूस किया जा सकता था, जिससे श्रोताओं में एक गहरी संवेदनात्मक ख़ामोशी तारी हो गई।

 

सबसे पहले कविता पाठ के लिए छत्तीसगढ़ से आई कवयित्री पूनम वासम को आमंत्रित किया गया। पूनम वासम आदिवासी कविता की सशक्त आवाज़ हैं। वे पेशे से शिक्षिका हैं और बीजापुर के बेहद संवेदनशील इलाके से आती हैं। उन्होंने ‘ माफ करना इस बार ‘, ‘द वर्जिन लैंड’, ‘तीन दरवाजों वाला गाँव’, ‘ प्रवेश निषेध है ‘ और ‘ मैं देखती हूँ एक पवित्र अनुपस्थिति को ‘ जैसी बेहद ज़हीन और संवेदना परक कविताएं पढ़ी। पूनम ने मुठभेड़ में शहीद छह माह की बच्ची मंगली को श्रद्धांजलि देते हुए एक कविता पढ़ी :

” तुम खड़ी हो जाना
अपने नन्हें नन्हें पैरों पर
मैं गले तक प्रेम में बंधकर आऊंगी
तुम्हारा माथा नहीं
तुम्हारे दोनों पैर चूमूंगी। “

इसके बाद दूसरे कवि के रूप में सत्यपाल सहगल आए। सत्यपाल जी स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं के चलते अपनी कविताओं की बस एक झलक ही पेश कर सके। उनकी बाकी कविताएं आशुतोष कुमार ने पढ़ीं। सत्यपाल जी ने कहा कि ” ऐसा अवसर कविता सुनने के अलावा कवि को देखना और कवि की आवाज़ में कविता सुनने का भी होता है। कवि की आवाज़ और उसकी कविता का न सिर्फ गहरा संबंध होता है बल्कि वह एक ज़रूरी आयाम भी है।” वह अपने पहले संग्रह से ‘ माँ की एकाकी चिंता’ कविता का पाठ करते हैं। उनकी बाकी कविताओं में – ‘दरवाज़े के बाहर खड़ी होती है कविता की पहली पंक्ति’, ‘यहां कुछ खून दिखता है बहा हुआ’, ‘आकाश के जल में’, ‘दूर कहीं शोर है’ पढ़ी गईं। उनकी एक कविता का नमूना देखिए:

” इस सर्दी में
मैं तुम्हारा कोट हो सकता हूं
धुला और तहाकर रखा
पहनने के लिए तैयार
ले लो मुझे
जैसा भी मन हो।”

फिर कविता कादंबरी ने अपनी कविताओं में रिश्तों, पहचान और राष्ट्रीयता के मुद्दों पर गहरी सोच प्रस्तुत की। ‘मेरी बिटिया’, ‘आधा हिन्दू-आधा मुसलमान’, ‘मुहावरे’, ‘दुनिया के सबसे शानदार पुरुष’, और ‘मेरे बेटे’ जैसी कविताओं ने श्रोताओं को विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर विचार करने का अवसर दिया। उनकी कविता “दुनिया के सबसे शानदार पुरुष” को श्रोताओं ने हाथों-हाथ लिया :

” इतने धार्मिक मत होना
कि ईश्वर को बचाने के लिए
इंसान पर उठ जाए तुम्हारा हाथ

ना कभी इतने देशभक्त
कि किसी घायल को उठाने के लिए
झंडा जमीन पर ना रख सको “

कविता की ये नसीहतें बरबस वीरेन दा की चेतावनी को पुनर्जीवित करती हैं – ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी/ जितने भले हुआ करते हैं सर्कस के हाथी।’

चौथे कवि के रूप में अंचित ने एंटोनियो ग्राम्शी को याद करते हुए एक कविता पढ़ी ‌- ‘ इस घनी काली रात में ‘ । अन्य कविताओं में उन्होंने ‘ रोड शो ‘, ‘ जिनसे कभी माफ़ी न माँग सका उनके प्रति माफ़ीनामा ‘, और ‘ एक आदर्श के पीछे फासिस्ट ‘ सुनाई। ये कविताएं न केवल व्यक्तिगत त्रासदियों को उजागर करती हैं, बल्कि समकालीन समाज और राजनीति के प्रति एक तीखा कटाक्ष भी प्रस्तुत करती हैं। अंचित की रचनाओं में मौजूदा दौर की नकारात्मकता और असमानताएँ सामने आईं, जिन्हें श्रोताओं ने गहरे स्तर तक महसूस किया।

फिर विजया सिंह की कविता ने भी श्रोताओं को चकित किया। उनकी कविताएँ ‘खान यूनिस’, ‘नजवान दरवेश’, ‘हबीबा’, ‘मच्छर’, ‘छिपकलियां’, ‘दफ़्तर का ताला, ‘बहनें’ और ‘स्वर्ण चम्पा दहक रहे हैं’ ने भाषा की सूक्ष्मता और अर्थ की गहराई को उजागर किया। उनका काव्य-पाठ एक अलग ही रंग में था, जिसमें हर कविता में एक छुपा हुआ सत्य था, जो धीरे-धीरे उभरकर सामने आता गया ।

वीरेनियत की फेहरिस्त में वाहिद शाइर नादिम नदीम की शाइरी ने महफ़िल को नई ऊंचाईयाँ दीं । उनकी गज़लें अपनी ताज़गी और लाजवाब अंदाज़ के लिए चर्चित रही, जिससे श्रोताओं ने उनकी सराहना की और उन्हें उत्साहपूर्ण समर्थन दिया। उनके पहले मतले पर महफ़िल झूम उठी –

 ‘ रक्स में साथ जो सहरा को भी ढ़ाले हुए हैं
ये किसी शहर-ए-तमन्ना के निकाले हुए हैं ।’

उनके एक मुन्फरिद शेर को लोगों ने बेहद पसंद किया –

‘मैं चीखता रहा तन्हा सवाल करता रहा
हज़ार लोग खड़े मगर थे ख़ुदा की तरफ ।’

फिर पराग पावन ने भी अपनी काव्य प्रस्तुति से विचारोत्तेजक दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। जेएनयू से शोध कर रहे पराग ने देश की सबसे जटिल समस्या बेरोजगारी पर कई कविताएं पढ़ीं । उन पर विद्रोही परंपरा का रंग चढ़ रहा है । उन्होंने कहा –

‘असली हत्यारों की शिनाख़्त करनी हो
तो उपसंहार तक कभी मत जाना
असली हत्यारे भूमिका में
अपना काम कर चुके होते हैं । ‘

‘ चूल्हे की राख ‘, ‘स्त्रियाँ’ और ‘कितना पानी है काफलपानी में’ जैसी रचनाओं ने समाज की असमानताओं पर कविता लिखकर अन्यायपूर्ण ढाँचों पर गहरी चर्चा की।

कार्यक्रम में सबसे अंतिम कवि के रूप में हरिश्चंद्र पांडे ने अपनी कविताओं में जल जंगल के दोहन पर तीखा प्रहार किया। ‘ वेश्यालय में छापा ‘, ‘ कछार कथा ‘, ‘ मैं एक भ्रूण गिराना चाहती हूं ‘, और ‘ मैं 21वीं सदी का एक दृश्य हूं ‘ जैसी कविताओं ने न केवल साहित्यिक उत्कृष्टता का परिचय दिया, बल्कि समाज की कड़ी सच्चाइयों को भी उजागर किया। इन रचनाओं के ज़रिए हिंसा, अत्याचार और सत्ता की दमनकारी प्रवृत्तियों पर गहरी चोट की गई । उनके विचारों की गहराई ने कार्यक्रम के समापन को एक बौद्धिक एकांत में तब्दील कर दिया।

कविता पाठ के बाद सभी कवियों को एक कविता पोर्ट्रेट, अन्बाउन्ड प्रकाशन की ओर से एक गिफ्ट पैकेट, और नवारुण प्रकाशन की ओर से ‘ कविता वीरेन ‘ की एक कॉपी उपहार स्वरूप भेंट की गई।

इस काव्य जलसे में न केवल कवियों ने अपनी उत्कृष्ट काव्य-प्रस्तुतियाँ दीं, बल्कि श्रोताओं ने भी उन्हें बड़ी सजगता से सुना। इस आयोजन ने यह साबित कर दिया कि कविता जीवन को समझने, समाज की समस्याओं को उजागर करने और हर संवेदनशील व्यक्ति के दिल तक पहुँचने का सबसे प्रभावशाली माध्यम है।

 रिपोर्ट  अंशु कुमार चौधरी और हर्ष ने तैयार की । अंशु दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक, और वर्तमान में इसी विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं। प्रभाकर प्रकाशन, दिल्ली के संपादक-निदेशक हैं तथा “विष्णु खरे: विलाप का आलाप” नामक पुस्तक के संपादक।

हर्ष दिल्ली विश्वाविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं ।

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