समकालीन जनमत
कविता

संदीप नाईक की कविताएँ स्मृतियों को बचाए रखने की कोशिशें हैं

पुरु मालव


समस्त कलाएँ और विधाएँ परस्पर भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण करती हैं क्योंकि अभिव्यक्ति का मूल तत्व इन सबके बीच संचरण करता है। समस्त कलाएँ और विधाएँ अभिव्यक्ति का माध्यम ही तो हैं। कविता तो यूँ भी अनादि काल से अभिव्यक्ति का प्रभावशाली माध्यम रही है।

संदीप नाईक की कविताओं को पढ़ते हुए ये आभास निरंतर होता है। वो कवि और कथाकार दोनों हैं। उनकी कविताओं में कथा- तत्व घुला रहता है। अपेक्षाकृत लम्बी कविताओं में इसकी प्रधानता देखी जा है।’आपने सिक्कों की खनक सुनी है’,’बाजार से गायब है कुंदन सेठ’,’जहाँ घर है वहां पेड़ है’ आदि कविताओं में इसका सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

अभिव्यक्ति के अपने ख़तरे हैं और ये ख़तरे निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। विशेष रूप से विगत एक दशक से। जब से साम्प्रदायिक शक्तियाँ सत्ता पर क़ाबिज़ हुई हैं। उन्होंने सबसे पहले व्यक्ति से उसकी स्मृतियाँ छीनने का कार्य किया है और इस दिशाहीन समय में कवि का क्या दायित्व हो जाता है, इसे कवि ही के शब्दों में कहा जाए तो-

“ये स्मृतियों के विलोप का समय है
कविता लिखकर याद रखना चाहता हूँ”

संदीप नाईक की कविताओं को पढ़ते हुए अधिक धैर्य की आवश्यकता नहीं होती। एक सहजता सदैव बनी रहती है। कविता स्वयं आमंत्रित करती है; अपने भीतर आने का रास्ता देती है; पाठक को प्रवेश करने देती है और शीघ्र ही अपने प्रभाव में ले लेती है। पाठक देर तक उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता।

स्त्री विषयक कविताओं के संदर्भ में कवि पवन करण याद किया जाता है। स्त्री विषयक कविताएँ जितनी विविधता और प्रचुरता में उनके यहाँ हैं शायद ही किसी हिंदी कवि यहाँ हो। उनकी कविताओं में स्त्री अनायास भी आई है और प्रयत्न पूर्वक लाया भी गया है।संदीप नाईक के यहाँ स्त्री जिस रूप में आती है, वो अचंभित करता है।

“मैं उस स्त्री के भी प्रेम में पड़ गया था
जिसका लुगड़ा पीला था और वो ठीक मेरी दादी की तरह
लगती थी”

कवि का अनुभव क्षेत्र व्यापक है। जो उनके गृहक्षेत्र देवास से लेकर पुणे, दिल्ली, राँची, रायपुर, भोपाल, सत्यमंगलम के जंगलों तक विस्तृत है। उनके पात्र इन्हीं स्थानों से उठकर कविताओं में आते हैं और अपनी असाधारण उपस्थिति दर्ज़ करते हैं।
“और मैं उस स्त्री से बहुत प्यार करता हूँ जो सड़क पर गुमटी चलाते हुए एक आरपार की लड़ाई लड़ रही है”

‘सुनो, ज्ञानरंजन’, उनकी बेहद चर्चित कविता है जो कथाकार ज्ञानरंजन को समर्पित है। एक कविता उन्होंने युवा कवि- मित्र देवेश पथ सारिया को भी समर्पित की है किंतु यहां प्रस्तुत कविताएँ उन स्त्रियों को समर्पित है जो सायास-अनायास कवि के जीवन में आईं और उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके अनुभव संसार में घर-परिवार, नाते- रिश्तेदार और सहकर्मियों से लेकर सत्यमंगलम के जंगलों रहने वाली अस्सी वर्षीय कृशकाय स्त्री तक विद्यमान हैं। कुछ अपरिचित थीं और अचानक से उनसे सामना हुआ। लेकिन अपनी अदम्य जिजीविषा, अथक परिश्रम और संघर्ष की बदौलत कवि के ह्रदय में अमिट छाप छोड़ गईं।

यह एक टिप्पणी मात्र है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए जो विचार मन में उभरे उन्हें ही यहाँ प्रकट किया है। इनसे कोई निष्कर्ष निकालना बेमानी होगा। उनकी कविताओं के और भी निहितार्थ यह मैं सुधि आलोचकों और रसिक पाठकों पर छोड़ता हूँ।

 

संदीप नाईक की कविताएँ

1.
पहले माँ, दादी, नानी, चाची, मौसी और बुआओं ने पाला
बचपन में माँ के स्कूल जाने पर एक भागा माँ सम्हालती थी कसरावद में
जो बीमार रहने पर ताजियों के नीचे से निकालती
परात भर मैदे से बनें मीठे रोट नवाजती थी
और मुहल्ले भर बाँटती थी
कि मै ठीक रहूँ
फिर देवास में एक बाई सम्हालती दिनभर
जिसके अपने बच्चे थे और वह दिन भर मेहनत-मजदूरी करती
नौकरी में अभी तक मेरी चार बॉस रही
जिन्होंने मेरे हुनर और दक्षताओं को संवारा
कैसे कह दूं कि मेरे जीवन में स्त्रियों का कोई हाथ नहीं
जो यह कहते है कि मै स्त्री विरोधी हूँ
उन्हें क्या मालूम कि एक पुरूष के घड़ने में
असंख्य स्त्रियों का हाथ होता है
तभी कोई पुरूष ठीक ठाक सा जीवन जी लेता है मरने तक
मैंने इन स्त्रियों से जाना कि प्रेम क्या है
प्रेम का ककहरा यही से सीखा

 

2.
पूना के माई मंगेशकर अस्पताल के पास
जो वारजे जैसी भीड़ भरे इलाके में है
एक रेहड़ी वालों का अड्डा है
अभी तीन-चार दिन वहाँ था
शाम तफरी करने चला जाता था
अंडा, भुर्जी, डोसा, चिकन और चाइनीज के नाम पर ढ़ेर चीज़े थी
आसपास के मजदूर और दिहाड़ी से काम करने वाले रोज़ इकठ्ठा होते
बीड़ी के धुएँ और देशी पाव की बोतलें जब फिंक जाती तो
लाल परी का नशा जब दम तोड़ता
सबको भोजन की याद आती
टूट पड़ते सस्ते खाने पर
सबसे कोने में उस बुजुर्ग महिला का ठेला था
झुणका भाकर का ठेला
ज्वार, बाजरी और नाचणी के साथ गेंहू के आटे की भाकर भी थी
चालीस रुपये में दो भाकर और झुणका पेटभर
एक दिन मैंने भी चखा
उस दिन उस बुजुर्ग महिला का स्नेह लुभा गया
अब रोज शाम को वही जाता और वह सब छोड़कर
मुझे ही खिलाती = झुणका और पतली छोटी भाकर
जब तीसरे दिन उसे बताया कि कल लौट जाऊँगा अपने देस
तो उसने लकड़ी की छोटी पेटी खोली
जो काली हो चुकी थी और बहुत चीकट थी
उसमें से दो सौ बीस रुपये निकालकर मेरे हथेली पर रख दिये
दौड़कर पास से चितळे की भाकरवड़ी ले आई
आँखों में आंसू थे उसके
मैं उस स्त्री के भी प्रेम में पड़ गया था जिसका लुगड़ा पीला था
और वो ठीक मेरी दादी की तरह लगती थी।

 

3.
सत्यमंगल के जंगलों में जब हाथियों के झुंड से घबराकर
मैं किसी कच्ची झोपड़ी पहुँचा उस बरसात की दोपहर में
तो देखा कि वह एक छोटी सी दुकान थी
कुख्यात हाथीदाँत चोर वीरप्पन का इलाका था
तमिलनाडु के इरोड जिले के ऊपर पहाड़ियों पर था
वो साक्षात अन्नपूर्णा ही थी
अस्सी के आसपास उम्र रही होगी
कृशकाय परन्तु मजबूत काया
सफ़ेद बालों और पोपले मुंह की हंसी
सारे ग्राहकों से हंसी मज़ाक करती हुई
कच्ची झोपडी में दूकान जिसका कुल सामान
पांच सौं रुपयों का भी नहीं होगा
मुझे सहमा हुआ देखकर खूब हंसी
तमिल में कुछ ऐसा बोली कि वहाँ बैठे लोग हंस दिए
बीडी पीते सफ़ेद लूंगी में बैठे लोग
थोड़ी देर में फिर उसी ने सबको डपट दिया था
मुझे नींबू वाली काली चाय पिलाई
दो नर्म सी इडली स्वादिष्ट चटनी के साथ केले के पत्ते पर दी
बार – बार आग्रह के बाद भी उसने रूपये नही लिये
मुस्कुराती रही
एक अनजान भाषा में प्यार दब नही पाया था उसका
बाद में जब अपने होटल लौटा तो
किसी ने बताया कि जंगल की उस बूढ़ी की दुकान पर
वीरप्पन का आना-जाना है
और उस खूँखार वीरप्पन की खबरी वही है
उस खूँखार वीरप्पन को डाँटने की हिम्मत उसी की है
बाकी जंगल के अधिकारी या पुलिस किसी से नही डरती वह
मैं आज भी वही जाना चाहता हूँ
वैसी इडली आज तक नही खा पाया
और उसकी आँखों से प्यार पाना चाहता हूँ
जिस दिन वीरप्पन के मरने की खबर मिली थी
मै चिंता में सोया नहीं कि अब उसका क्या होगा
क्या पुलिस परेशान करेगी उसे

 

4.
राँची स्टेशन से चर्च रोड पर जब आप आते है
तो एक बड़े से बंगले के सामने
छोटी सी नीले पतरे वाली गुमटी होती थी
एक बार चाय और आलू गोंडा खाने रूक गया
सफ़ेद खादी की साड़ी में एक बुजुर्ग महिला ने चाय बनाई
गर्म आलू गोंडा दिया
और कुछ पुरूषों से बात करने बैठ गई
दो चार सायकिल पड़ी थी और एकाध बाइक
लोग बैठे गप्प कर रहें थे
ज़मीन, जंगल और अधिकार
मेरी रुचि नही थी पर जिस ठसक से वह महिला बोल रही थी
उसकी आवाज़ और तर्कों की धमक थी
वह चकित करने वाली थी
एक आदमी से पूछा मैंने कौन है यह
दयामनी बारेला
मैं चौक गया, झारखंड से मित्तल को भगाने वाली
नेतरहाट के आदिवासियों और जंगल की लड़ाई की अगुआ
मैं हाथ में चाय को पकडे निहारता रहा उसे
और मुंह में रस घोल रहें आलू गोण्डे को खाते हुए हैरान था
थोड़ी देर अथक सुनता रहा
फिर धीरे से उन्हें हाथ जोड़े तो
मेरे खादी के कुर्ते और टायर की चप्पल को देख
वो हंस पड़ी बोली
बाबू यह तुम्हारी ही दुकान है
रूपये तो दो मत, और देना ही हो तो ज्यादा दो
हम यहाँ अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे है
मैंने पांच सौ का नोट निकालकर रख दिया
उनकी शुष्क हथेली और कड़क उंगलियाँ छूकर याद आई कविता
दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिये
उनका वो हाथ अभी भी सपने में आता है
और मैं उस स्त्री से बहुत प्यार करता हूँ
जो सड़क पर गुमटी चलाते हुए
एक आरपार की लड़ाई लड़ रही है

 

5.
दिल्ली, राँची, रायपुर, भोपाल या काँकेर में मिला
कितनी सहज कितनी सरल
साफ और सुंदर बोलने वाली स्त्री ने कैसे सहा होगा
दर्जनों बार प्रताड़ित हुई, कभी मार खाई सड़कों पर
कभी ठूँस दी गई जेल में
कभी एम्स दिल्ली में कराहते हुए भी हिम्मत नही हारी
जब राज्य ने उसकी योनि में भर दिए थे पत्थर
संविधान पता नहीं कहाँ सो रहा था उस दिन
जब भी मिला शिकन नही कभी चेहरे पर
एसिड के दाग़ , शरीर पर मार के निशान
पर प्रेम और भाषा में कोई अशिष्टता नही
जंगल, आदिवासी और ज़मीर की लड़ाई आज भी जारी है
सोनी सोरी अब रूकने वाली नहीं है
सुधा हो, बेला, नलिनी सुंदरम हो या अरुंधति
सोनी सोरी और ऐसी सारी महिलाओं से मैं प्रेम करता हूँ
मैं हर उस स्त्री से प्रेम करता हूँ जो भरी सभा में
राजा को नँगा कहने का साहस रखती है
अपने लोगों से प्रश्न पूछने का साहस करती है।

 

6.
नदी भी एक दिन लड़ाई बन जाती है
यह बात मेघा पाटकर से बेहतर कोई समझा सकता है
चार दशकों से नमामि नर्मदे देवी की गोद में
सरकार और साम्राज्यवाद से लड़ रही मेघा पाटकर संघर्ष है
हजारों आदिवासियों के साथ लाखों किलोमीटर चल चुकी
मालवा – निमाड़ या भोपाल का कोई जेल नही छोड़ा
जिसकी दीवारों के आईनों में मार के चीन्ह ना हो
मेघा की पीठ सभ्यता के विकास की कहानी है
भूखे रहकर लड़ाई लड़ने का माद्दा एक स्त्री के अभ्यास का हिस्सा है
जिसने वृहद आदिवासी समुदाय को परिवार बना लिया
जिसने बची रोटी को साड़ी के पल्लू में बाँधकर शाम के लिये रख लिया
जिसने निमाड़ – मालवा के गांवों को पग – पग नाप लिया
मैं उसकी मेधा को प्यार करता हूँ
मैं मेघा पाटकर को उन लाखों लोगों की तरह प्यार करता हूँ
जिनके जीवन के चालीस साल निकल गए
अब आंदोलन खत्म हो गए है
यह कहने वाली मेघा की आंखे अभी भी उम्मीद से भरी है
और मैं उम्मीद को प्यार करता हूँ

 

7.
इधर ना जाने क्यों जब भी अवसाद में होता हूँ
तीन महिलाओं के फोन आते है
तीनों सत्तर पार की है और मेरे से लम्बे अरसे से जुड़ी है
एक को व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ
पिछले चौतीस वर्षों से
दो मेरे साथ पिछले बारह वर्षों से जुड़ी है
हमेशा डांटती है और मै मजाक कर लेता हूँ
हम घण्टों बातें करते है
वे अपने सुख – दुख बताती है
अपनी यात्राएँ और घूमी हुई जगहों के अनुभव शेयर करती है
इन दिनों बेटी के यहाँ हूँ लखनऊ में
या दिल्ली का पुराना घर बेचकर
इस घर में आये तो फ़्लैट में मन नही लगता
मैं ना जाने क्यों इनसे बातें करके ख़ुश हो लेता हूँ
तीनों के बड़े परिवार है पर शायद बात करने वाला नही कोई
पता नही मिल पाउँगा इनसे या नही कभी
पर फोन ही एक सेतु है जो सुख दुख का
सच्चा साथी है
एक ने अभी कहा कि वो नया फोन गिफ्ट करने वाली थी
मेरे जन्मदिन पर कि कुछ देना चाहती हूँ तुम्हे मरने के पहले
पर पेंशन अटक गई – जीवित रहने का प्रमाणपत्र नही दे पाई
अब बेटे के पास है मेरा एटीएम
बहु की निगाह रही है अकाउंट पर इधर
जब आओ इधर तो बताना
मैं इन तीनों स्त्रियों से बेहद प्रेम करता हूँ

समाहार
अपने जीवन में नितांत अकेला हूँ
स्त्रियाँ मेरे जीवन का अभिन्न अंग है
मेरी माँ मरने के बाद भी मेरे भीतर है
ये संघर्षरत स्त्रियाँ जिनसे मैं प्रेम करता हूँ
इन्हें देखता, समझता हूँ रोज़-रोज़
फिर कैसे कह दूँ कि स्त्रियाँ मेरे जीवन में नही

कवि संदीप नाईक का जन्म महू जिला इंदौर मप्र में 5 अप्रैल 1967 को हुआ

आरंभिक शिक्षा देवास में हुई विज्ञान, कानून और शिक्षा में स्नातक होने के साथ अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा, समाज कार्य ग्रामीण विकास एवं कानून में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त हैं, भविष्य अध्ययन में शोध किया है

आपने विक्रम विश्वविद्यालय – उज्जैन, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय – इंदौर चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय एवं टाटा सामाजिक संस्थान, मुंबई से ये उपाधियां प्राप्त की है

कैरियर के शुरुआती वर्षों में हायर सेकेंडरी स्कूल एवं एक निजी महाविद्यालय में अंग्रेजी विषय पढ़ाया, बाद में सीबीएसई के दो एवं आर्मी स्कूल के प्राचार्य रहे

एक लंबा समय एनजीओ एवं अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग एजेंसी में काम किया है, आखिरी नौकरी भारत सरकार के तत्कालीन योजना आयोग में की थी और सन 2014 से फ्रीलांसिंग का काम कर रहे हैं

इन दिनों देवास मप्र में रहते हैं हिंदी, अंग्रेजी, मराठी एवं गुजराती में अनुवाद के काम के साथ-साथ लिखना – पढ़ना एवं एनजीओ के लिये कंसल्टेंसी का कार्य करते हैं

लगभग 50 कहानियाँ और 200 से ज्यादा कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं, 500 से ज़्यादा आलेख एवं शोध पत्र प्रकाशित हैं, आपकी रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर नियमित प्रसारण हुआ है, दर्जनों गतिविधि पुस्तकें, कई पुस्तकों के साथ सँविधान पर लिखी हुई पुस्तकों का संपादन किया है “*नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं*” नामक कहानी संकलन को हिंदी का प्रतिष्ठित वागेश्वरी सम्मान प्राप्त हुआ है

सम्पर्क: 7974629897
ई मेल: naiksandi@gmail.com

 

टिप्पणीकार पुरू मालव, जन्मः 5 दिसम्बर 1977, बाराँ (राजस्थान) के ग्राम दीगोद खालसा में। शिक्षाः हिन्दी और उर्दू में स्नातकोत्तर, बी.एड.। सृजनः हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये दरिया इश्क का गहरा बहुत है’ प्रकाशित।पुरस्कारः हिन्दीनामा-कविता कोश द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार

सम्प्रतिः अध्यापन

सम्पर्कः कृषि उपज मंडी के पास, अकलेरा रोड, छीपाबड़ौद, जिला बारां (राजस्थान)

पिन-325221

मोबाइलः 9928426490

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