विनय सौरभ
नहीं होने ने
जो थोड़ी सी जगह खाली की है
वह मैं हूँ
एक दिन नहीं होना
किसी जगह से आएगा और
मुझसे अपनी जगह वापस मांगेगा
तो मुझे उधार ली हुई यह जगह
उसे वापस लौटानी होगी
हिंदी कविता का यह जो समकालीन परिदृश्य है, उसमें इस तरह की कविताएँ जिसमें संकेत, ध्वनि, प्रकृति, इस संसार और अपनी धरती के प्रति इस तरह के आभार कम दिखते हैं।
आनंद बहादुर का अपनी कविताओं को बरतने का स्वभाव दार्शनिक है। इन कविताओं पर किसी का प्रभाव दिखता हो ऐसा मेरे अनुभव में नहीं आता।
उदाहरण के लिए आप एक फल को देखते हैं तो कैसे देखते हैं? लेकिन इस कवि का उस फल को देखना विस्मय को जन्म देता है। वह कहता है जब चारों तरफ इतना सारा कुछ घट रहा है जो अप्रिय है तो यह फल अपनी निर्माण प्रक्रिया में इतनी सारी सकारात्मकता कैसे समेटे है? इस तरह के कई कौतुहल कवि के भीतर हैं और वह यह सोचता है एक फल के पूरे बनने की तैयारी के बरक्स इस दुनिया में उसकी अपनी भूमिका कितनी कम है! एक विचार सरणी से गुजरता हुआ वह पाता है इस सृष्टि के निर्माण में उसकी भूमिका नगण्य- सी है!
आनंद बहादुर की कविताओं का क्राफ्ट आंतरिक है। उनकी लगभग कविताएं अपने भीतर के संसार की यात्राओं पर आपको लिए चलती हैं। इस कवि को पढ़ते समय आपको थोड़ा थिरना पड़ेगा। कवि को लगता है कि चलते हुए कोई हाथ उसके कंधे पर है, गली में उतर आई सांझ की तरह, जिसमें एक शीतलता भी शामिल है और यह हाथ किसका है जो कंधे से हवा की बातचीत जैसा है?
इन पंक्तियों से गुजरते हुए आप ठिठक जाते हैं ! इस तरह से देखा नहीं था जीवन को! जीवन और प्रकृति के साहचर्य को एक रूपक में पिछली बार कब देखा था आपने ! अपने जीवन को इस रूप में देखने की समझ हममें कब बनती है! कब आती है!
आनंद बहादुर की कविता पंक्तियाँ पढ़ते हुए एक चुप्पी भीतर फैल जाती है । उनके यहाँ कविता पंक्तियां ऐसी हैं जिसमें आप थोड़े कंपित हो जाते हैं । बिंब अनूठे और सर्वथा नये हैं।
मछली जितना पानी
अपने बदन की परछाई से चुरा लेती है…
समूची पृथ्वी मेरी है
कहता हूं तो घास की पत्ती
थोड़ा सा मैदान चुराकर भागने लगती है….
इस तरह के कवि के ख्याल हमें चौका देते हैं। जब हम इस धरती को अपना कहते हैं तो यह भूल जाते हैं कि इसमें थोड़ी सी जगह पुरानी बेकार पड़ी नाव की भी है। एक सुनसान टापू की भी है। एक घास की पत्ती की भी है। अपने संसार में अलक्षित चीजों के प्रति यह कवि जैसे रागात्मक भाव से जुड़ना सिखाता है।
इस तरह कवि पगडंडी पर साइकिल चलाते हुए उस आदमी से मिलना चाहता है जो लटपटा कर गिर पड़ा है। वह उसके धूल- गर्द छाड़ना चाहता है । यह कविता का एक संघर्षरत आदमी का रूपक रचती है और उसके साथ होना चाहती है। आनंद अपनी कहन में जितने सरल दिखते हैं, उतने हैं नहीं। ठहर कर इन पंक्तियों के भीतर फैली फंतासियों में उतरना पड़ता है। इनकी कविताओं को पढ़ने का सुख तब मिल पाएगा।
अपने लिए एक प्रार्थना में जब वह कहता है कि कुछ पीले पत्ते हैं, इधर-उधर बिखरती हुईं… कुछ छोटी धाराएं… वह पूरी पृथ्वी के रहस्य से जैसे पूरी तरह अपरिचित है और इसके चलने के तौर तरीकों से वाकिफ होना चाहता है…
ग्रीष्म सिखाए अगर मुझे
अपनी ताप में तपने का सलीका
वर्षा मुझे भिगने में निष्णात बनाए
शरद के साहचर्य में कांपना ठिठुरना सीख सकूं!
इस कवि की कविताओं में अपनी दुनिया के लिए विनम्रता बहुत है । कविताओं के भीतर बहती एक अनिवार्य किस्म की संवेदनशीलता को आप रेखांकित किए बिना नहीं रह सकते। बहुत सारी कविता पंक्तियां एक आप्त वचन की तरह आपको याद रह जाएंगी। ये पंक्तियां मुझे बांधती हैं। कविताओं को पढ़ने के सुख से भर देती हैं।उनके कविता संसार को मैं इस तरह से समृद्ध पाता हूँ। उनकी पूरी कविता यात्रा में आप कविता के भीतर रच- बस जाते हैं और उन पंक्तियों का सौंदर्य आपको जीवन के रहस्य से परिचित कराता हुआ सा लगता है। एक आत्म- यात्रा इन कविताओं के भीतर संभव होती हुई दिखती है। उनकी ज्यादातर कविताएं अपने अंतर की यात्राओं का पता देती हैं। उन यात्राओं का पता, जब आप किसी संगीत से, प्रकृति के किसी दृश्य से अपने आपको, एक अनुभूति से कंपित हुआ पाते हैं, उससे आबद्ध पाते हैं।
मुझे तो कई बार लगता रहा कि वीतरागी होकर आप इन कविताओं के साथ कवि के मानस और उसके मर्म तक ठीक – ठीक पहुंच पायेंगे।
बारिश के साथ
तुम्हारा ना होना भी बरस रहा है।
‘विदा की बात’ उनकी एक बहुत मार्मिक शिल्प में लिखी कविता है जो मन में कहीं अटक गयी है। यह सचमुच वीतरागी और एकाग्र होकर समझी और महसूस कर सकने वाली कविता है। अनिर्वचनीय सुख की कविता !
ये कविताएँ आपको रोकती हैं और फिर कहता हूं कि ठहरकर पढ़ने की मांग करती हैं। इन्हे पढ़ते हुए मुझे ओशो बहुत याद आते रहे। बहुत कोमल ध्वनि इन कविताओं की विशेषता है। यहाँ संसार के लिए भरोसे की बातें हैं। विदा के क्षण हैं। एकात्म भाव हैं। एक लोक गायक है। एक अपरिचित भाषा है मगर अर्थ पूरी तरह ज्ञात है। इस नश्वर जीवन में आनंद बहादुर की कविताएं जीवन और अपने साथ लगातार बनते संवाद की कविताएं हैं।
आंनद बहादुर की कविताएँ
1. कंधे पर धरा हाथ
अभी चलते-चलते
मैं लगातार महसूस कर रहा हूँ
कि मेरे कंधे पर
एक हाथ धरा हुआ है
अभी जब मेरे साथ
कोई नहीं चल रहा है
कंधे पर फिर भी धरा हुआ है
एक हाथ का स्पर्श
यह हाथ
एक बुझी हुई आग
कि एक सुगबुगाती हुई आत्मा
जो इस समय मेरे कंधे पर है
एक बहुत हल्के रखा हुआ हाथ है यह
हाँ, यह स्पष्ट है
यह हाथ
कंधे से हवा की बातचीत जैसा है
मैं सुन सकता हूँ
इस हाथ को
गली में उतर आई सांझ की तरह
जिसके साथ
एक कोमल शीतलता भी उतरी है
जैसे धीरे से सर हिला कर
मुझे आश्वस्त कर रही हो
मगर अभी भी
महसूस कर रहा हूँ कंधे पर
एक हथेली भर नर्म सी गर्मी
यह तय नहीं है
कि हाथ को कंधे की जरूरत है
या कंधे को हाथ की
मगर इसीसे निचुड़ कर आ रहा है
हम दोनों के लिए
साथ का बहुत सारा एहसास
हम दोनों
जरूरत भर ही चल रहे हैं।
2. एक आँख-चित्र
मछली जितना पानी
अपने बदन की
परछाई से चुरा लेती है
उसके बाद का
नदी का चित्र
मेरा है
तट पर खड़े ठूँठ पर बैठी
चिड़िया की चहचहाहट के पीछे का
छुपा हुआ एकांत
पुरानी बेकार नाव के
लँगर से बंधा हुआ
चुप का टापू
समूची पृथ्वी मेरी है-
कहता हूँ तो
घास की एक पत्ती
थोड़ा-सा मैदान चुरा कर
भागने लगती है
एक बार सुंदर एक बार भयावह
आँख के बनाए चित्र में
नहीं है एक भी मछली।
3. पगडंडी पर साइकिल
उस व्यक्ति से करना चाहता हूँ बात
जो धूल-भरी पगडंडी पर
अपनी साइकिल से लटपटा कर
गिर गया है
क्या उसे चलकर उठाऊँ?
हल्के थपथपाकर धूल-गर्द झाड़ूँ ?
देते हुए दिलासा
कि यह तो होता ही है भाई
और इसी बीच
उसकी साइकिल के एक अनायास मिले
स्पर्श से पाऊँ
उसके जीवन का ठोसपन
उसकी सुदृढ़ता
वह सब-कुछ जो उस दूर पगडंडी पर
उसके साथ बहा चला जा रहा था
होने के इतने बड़े कुछ नहीं के बावजूद
कितना कुछ तो था
उसकी साइकिल पर लदा-फंदा
मैं काफी दिनों से
उस व्यक्ति को देखता रहा हूँ
जो इतना कुछ लिये-लिये
अपनी साइकिल से लटपटा कर गिरता है
उसे उठाने का बनाता हूँ मन
पर उसे किसी की नहीं है प्रतीक्षा
खुद उठता है
अपनी धूल झाड़
चल देता है
बहुत धीमे-धीमे साइकिल चलाता हुआ
कोई धूल-भरी खड़खड़िया साइकिल
मुझे भी मिल जाय
तो कबाड़ बनी इस पृथ्वी को उसपर लाद
मैं भी धीमे-धीमे चल दूँ
किसी अन्य ही पगडंडी पर।
4. साइकिल पर दूध
साइकिल पर एक आदमी
आया है निकट
उसकी साइकिल,
रुकने के ठीक पहले
थोड़ा हिल, हल्की तिरछी हुई है
मानो वह कोई निर्णय ले रही हो
फिर सबकुछ सहज
आश्वस्त कि हाँ, यही है- ठीक
दूध, साइकिल के कैरियर में
प्लास्टिक के ज़ार में फँसा कसमसाया,
थोड़ा कुनमुनाया
जैसे कोई छोटा सफेद खरगोश
या अण्डों जैसे चूजे छः आठ
कुनमुना कर शांत
या कि साइकिल वाले आदिवासी का ही मन
क्या पता थोड़ा डगमगाया
यह उसके भीतर एक सुगंध-भर
जंगल की ताजा हवा का झोंका आया
या क्या जाने उसने
साइकिल डिगने भर
जमाने की बेइमान दुर्गन्ध पाई
या क्या पता सब सहज-स्वभाविक ही हो
सिर्फ एक साइकिल ही हिली-डुली हो
मगर साइकिल की धातु में
हल्की-सी कौंध जरूर उपस्थित हो गई थी
हाँ, दिखी तो थी
जैसे आकाशगंगा से एक नई साइकिल
आ धमकी हो चुपचाप।
5. खेल
समय ने मुझे
कागज के बेकार पड़े टुकडे़ की तरह
मचोड़ कर फेंक दिया था
यह तो एक बच्चे ने
कागज को उठाया
और एक हवाईजहाज बनाया
शून्य की मेरी यह पलभर की सैर
वक्त और एक बच्चे के बीच
खेले जा रहे खेल का हिस्सा है
जानता हूँ
कि पलभर हवा में तिरने के बाद
जब मैं औंधे-मुँह गिरूँगा
और समय
अपने भारी-भरकम कदमों तले
मुझे कुचल कर चला जाएगा
तो फिर कोई बच्चा आएगा
शायद इस बार
वह मुझे नाव बनाएगा।
6. अपने लिए एक प्रार्थना
एक पल मेरी लालसा में है
जिसके सम्मुख
यह जो सर्वत्र बिखरा
उसका प्रतिसंसार है:
महत्वहीन होता चला गया है
कुछ पीले पत्ते हैं
इधर-उधर बिखरती हुई
कुछ छोटी-छोटी धाराएँ
ढलानों से उतरतीं
खोड़रों में समातीं
थोड़ा -सा कुहासा
और थोड़ी आग-
मेरी शिराओं में
कुल मिलाकर इतना ही है
कोई मौसम
अपने समूचेपन में यहाँ है ही कहाँ?
मुझे ज्ञात नहीं
कि हवा में उड़ने
पानी में तैरने
या धरती पर चलने के लिये
मुझे क्या करना चाहिये
ग्रीष्म सिखाए अगर मुझे
अपनी ताप में तपने का सलीका
वर्षा मुझे भींगने में निष्णात बनाए
शरद के सहचर्य में
मैं काँपना, ठिठुरना सीख सकूँ
हे प्रभु! ताप-शीत-जल में
सही-सही उतर पाऊँ
तो कुछ सधूँ।
7. कविता और कपास
रात कुछ ध्वनियाँ आई थीं
अर्थ के सँगुफन में
कविता जैसी लगतीं
या कि प्रार्थना जैसी
वह कविता,
कि प्रार्थना-
मेरी निजता में उपस्थित हो
बिना उसे कहीं से भी स्पर्श किये
विदा हो गई
उसे जल्दी रही होगी शायद
कपास के खेतों में खड़े
बिजूकों से मिलने की
जिनके चेहरों पर
एक मौसम में ही
अनंत की यातना उग आती है
कविता,
कि प्रार्थना
मेरे संताप में
एक अस्फुट हलचल पैदा कर
आगे निकल गई चुपचाप
अभी वह तैरती हुई चली जा रही होगी
पहाड़ों, झीलों, उपत्यकाओं के पार
उसने छूआ होगा फुनगियों को
कहीं से बटोर कर सुगंधें
वह छोड़ आई होगी ऐसी जगहों पर
जहाँ चीजें
अब तक सपाट और लयहीन
कपास के खेतों तक
अब वह पहुँचने ही वाली होगी।
8. प्रेम में भूला
प्रेम में भूला
घर के कोने में बैठा
मैं घर को नहीं दिखा
अदृश्य हो गया छतों दीवारों से
थोड़ा-सा बहुत चुपके
मुझसे भी चुरा कर उठा और यूँ ही
बेमतलब सड़क पर घूम-टहल आया
लौटा, तो वहाँ कोई नहीं था
प्रेम में टहल्ला मार कर लौटता
प्रेम में भूला
गिर गया फिसल कर
किसी पुराने, पुरइन ढँके तालाब में
वहाँ, एक चमकदार नन्ही मछली
तैरना भूल गई थी
वह एक सफेद कौंध बनकर
पुरइन के चौड़े-चकले पात पर
तड़प रही थी
कोई कृपालु हाथ काश
पत्ते पर से उठा कर
उस नन्ही गरई को
वापस जल में डालता
मैं प्रेम में लौट आता वापस
घर को
घर की छतों-दीवारों को
साफ-साफ दिखता हुआ।
8. सोचना शुरू करते ही
मैं तुरंत बासी हो जाता हूँ
रोटी का एक बासी टुकड़ा
बनने के तुरंत बाद बासी हो जाता हुआ
एक सेकेंड बाद
एक संकेंड बासी,
आधा घंटा बाद
आधा घंटा बासी,
रात भर बासी,
एक सप्ताह बासी,
चार हजार साल बासी,
मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिला
बासी रोटी का टुकड़ा
सोचना शुरू करते ही
सोच बासी होने लगती है
अभी तुरंत इस सोच को
छोड़ कर चल देना है
कहीं एक कदम चलते ही
चलना बासी हो जाय तो?
सामने तालाब के स्थिर जल में
एक पत्थर फेंकता हूँ
पत्थर तालाब में छपाक-से गिरता है
फिर सीधा डूबता जाता है
वह कितनी देर में बासी हो जाएगा?
तल में पहुँचने तक?
या गोलाकार लहर
तालाब में दिखती रहेगी तब तक?
लहर दिखने तक ही होगी
कि बाद में महीनों तक
तालाब की सोच में उसके होने की
महीन लहर फैलती रहेगी?
कहीं इसी बीच
सारा तालाब ही बासी न हो जाए!
डूबे हुए पत्थर पर काई न उग आए!
काई उगे तो पत्थर
बासी हो जाएगा?
कि नया?
आदमी पर जन्म लेते ही
बासीपन की काई
जमने लगती है
अपने बासीपन को
बर्दाश्त किये-किये जीए जाना
जबतक कि आदमी सड़ न जाय!
मुझे बासी होने और सड़ जाने में से
चुनना हो तो मैं सड़ जाना
अधिक पसंद करूँगा
क्योंकि सड़ कर मैं बनूँगा खाद।
10. समवेत सांस
एक सांस में कई सासें हैं
हर सांस के साथ
किसी और सांस का साथ है
दुनिया भर के जीव
सांस छोड़ रहे हैं
सांस ले रहे हैं
सांसों से घुल-मिल कर
एक बहुत बड़ी सांस बन रही है
सांस में सांस
इस तरह आ-जा रही है
एक पेड़ जो सांस छोड़ रहा है
उसे एक बकरी खींच रही है
किसी तितली की छोड़ी सांस
किसी फूल के फेंफड़े में समा रही है
हम सब एक दूसरे की छोड़ी सांस ले रहे हैं
अभी-अभी मैंने जो ली
वो शायद किसी चिड़िया की सांस थी
जो विचार के निकट से
बड़ी तेज़ी के साथ गुजरी थी
या किसी चींटी की
जो इस कविता के नेपथ्य से
अभी तक रेंगती हुई चली जा रही है
और समूची पृथ्वी ही ले रही है जो
वह ब्रह्मांड के किसी अन्य ग्रह की
छोड़ी हुई सांस है
मैं जब जन्मा
तो मेरी पहली सांस में शामिल थी
किसी मुरझाए हुए फूल की
आखिरी सांस
इसी तरह एक दिन मैं भी
छोड़ कर चल दूँगा
किसी फूल, तितली या बच्चे के लिए
अपनी आखिरी सांस।
11. कविता में प्रेम
जिसके अंदर तुम हो
उसे कितना देख सकते हो?
आकाश को कितना आकाश दिखता है?
धरती कितना देखती है धरती को?
पानी अपने प्रतिबिम्ब को कितना जानता होगा?
दर्पण अपना ही चेहरा कितना पहचानता होगा?
पेड़ को जितना दिखता है जंगल
पत्तों को जितना नजर आता है पेड़
उससे कहीं अधिक
मैं प्रेम में देखता हूँ प्रेम
कविता में किसी बात का कह दिया जाना
ताकि वह जितनी है उससे अधिक दिखे
समूचा जीवन
एक बूंद रोशनाई में समा सके
एक परिंदा उड़े तो
आकाश उस उड़ान में
समूचा आ जाय।
12. तैरने जैसी उड़ान
यहाँ आकाश खुद
एक धातुई महासागर में समाता हुआ
यहाँ नर्म पानियों की छलछलाहट का
गति के एक गझिन वायुमंडल में पैठना
सर्पिल धुँए का उठना
अंधेरे का छितराना-बिखरना
धूप के अंदर
छोटी-छोटी मछलियों के पंख
हम, हमारे सुख, हमारी तैरने जैसी उड़ान
जल में पंछी
आकाश में मछली
हमारा कुछ भी नहीं
हमारा न आकाश
न समुद्र
न हमारे अंदर हवा
न पानी
न हम पंछी
न मछली।
13. पुनर्विचार जूता चमकाने जैसी क्रिया है
पुनर्विचार
जूता चमकाने जैसी क्रिया है
जैसे जूता पाॅलिश करने वाला
पहले जूते के
एक-एक हिस्से को
अलग अलग चमकाता है
मुझे टुकड़ा-टुकड़ा अलग-अलग
जीवन के हर हिस्से पर
बार-बार विचार करने की
जरूरत महसूस होती है
मैं जीवन-जूते को
एक मोची की तरह
हर तरह से मरम्मत कर
उसे ठोंक-पीटकर
दुरुस्त करने के बाद
एक-एक हिस्से को
अलग-अलग चमकाता हूँ
अंत में सपाक्-सपाक्
तेज विचार की फिसलन पर
समूचे जीवन को सान पर रखता
बिल्कुल ठीक-ठाक
चमकता हुआ जूता पहनकर
अभी मैं खड़ा होता ही हूँ
चल पड़ने को उद्धत
कि पाता हूँ-
जूता एक बार फिर
धूल गर्द से पटा जा रहा है
सिलाइयाँ फिर से चरमराने लगी हैं
तल्ली फिर खुलने लगी है
बहुत जल्द यह एक
बिलकुल फटे-पुराने जूते में
बदल जाएगा
मरम्मत, साफ-सफाई,
पाॅलिश के लिए तैयार
बार-बार अपने मूल्यों पर
करता हूँ पुनर्विचार
बार-बार
एक फटे पुराने जूते को
लाता हूँ राह पर।
14. कोई पूछता है मेरा पता
तुमने कहाँ जन्म लिया?
कोई पूछता है मुझसे
कहाँ का वासी हूँ मैं?
शायद वह मुझे एक पत्र लिखना चाहता है
कहाँ का वासी हूँ मैं?
मैं सकपकाता हूँ
मैंने एक बूंद में जन्म लिया
बताता हूँ मैं
मुझे अच्छी तरह याद है
बूंद भर का मेरा वह जन्मस्थान!
कहाँ जन्म लिया? कहाँ?
पूछता है कोई
जिस सतह पर जन्मा मैं
वह एक कण था श्रीमान!
कहता हूँ होकर सावधान
मुझे अभी तक याद है
उस कण की सतह
कहाँ? कहाँ?
पता लिखने वाला पूछता है
टूटता है उसके सब्र का बांध
एक मुहल्ला जो एक
शहर था जो एक
राज्य था जो
एक देश था
देश जो पृथ्वी था
इसलिये क्या मैं
पृथ्वी को बता सकता हूँ
अपना जन्मस्थान?
सचमुच गड़बड़ाता हूँ मैं
जल्दी बताओ, जल्दी
कहाँ जन्म लिए?
फिर कहाँ गए?
डाँट कर कहता है पता पूछने वाला
देखते नहीं एक बहुत जरूरी चिट्ठी
जाने वाली है तुम्हारे नाम!
पृथ्वी लेकिन ब्रह्माण्ड के भीतर
एक कण-भर थी
मैं बहुत जोर देकर याद करता हूँ
अगर तुम जानना चाहते हो
कि मैंने कहाँ जन्म लिया
तो बताना चाहूँगा
कि ब्रह्माण्ड ही है मेरा जन्मस्थान
जन्म से लेकर अब तक
मैं यहीं रहता आया
कभी नहीं बदला मेरा पता
कोई अगर मुझे चिट्ठी भेजना चाहे
तो लिफाफे पर लिखे मेरा नाम
और पते की जगह लिखे- ब्रह्माण्ड!
पता बताओ, पता
गूँजता है मेरे कान में।
15. समतल
समतल
ज्यादा दिन समतल नहीं रहता
धीरे-धीरे एक पर्वत उग आता है
मेरे पास भी एक समतल है
जिसके नीचे
कोई पर्वत मुझे छू रहा है
और मुझे अन्दर से से ढकेल रहा है
मेरे ऊपर अभी एक फरीछ आसमान है
जिसे पता है कि पर्वत मेरे भीतर उगेगा
अवश्य उगेगा
उगेगा ही उगेगा
मगर मैं जानता हूँ कि पर्वत उगा
तो कोई सरिता जरूर फूटेगी
सरिता फूटेगी तो आकाश,
कभी लाल
कभी नीला
कभी भूरा
रंग उसमें घोलेगा
और फिर सरिता मुझे
बून्द-बून्द रंगों में बाँट कर
उपत्यकाओं में फेंक आएगी
ऐसा वह तब तक करती रहेगी
जब तक मैं
फिर से
समतल नहीं हो जाता।
फरीछ आसमान- हमारी लोकभाषा (मगही) में सुबह का नवजात आसमान यानी सूरज उगने से ठीक पहले या पानी बरसनेे के तुरंत बाद का खुला हुआ आसमान।
कवि आनंद बहादुर, चार दशक से लगातार लेखन। कविता, कहानी, ग़ज़ल, अनुवाद, संपादन के अलावा शौकिया वायलिन वादन। विभिन्न सिन्फ़े-सुखन के पांच संग्रह प्रकाशित। पेशे से अंग्रेजी के प्राध्यापक। अभी एक विश्वविद्यालय में कार्यरत। मूलतः बिहार के, अभी रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।
फोन- 81033 72201
ईमेल- anand.bahadur.anand@gmail.com
टिप्पणीकार विनय सौरभ झारखंड के नोनीहाट, दुमका में जन्म. भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता की पढ़ाई नब्बे के दशक में तेजी से उभरे युवा कवि. सभी शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन. पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. झारखंड सरकार के सहकारिता विभाग में सेवारत
संपर्क:binay.saurabh@gmail.com