देवेश पथ सारिया
वरिष्ठ कवि जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं से गुज़रते हुए लगता है कि यह कवि मनुष्य एवं प्रकृति के बीच तादात्म्य की संभावना देखता है। ‘पुतलियाँ’ कवि का एक प्रिय शब्द है। पुतलियाँ निश्चय ही मनुष्य एवं विराट ब्रह्मांड के बीच की योजक कड़ी हैं। मध्यमवर्गीय संस्कारों के चलते अपने बड़ों की सीख समय-समय पर कवि को याद आती रहती है। कवि ने अपनी नानी से जूझना सीखा है और अपने पिता से मन को उर्वर बनाने की कला।
आसपास बिखरी तमाम बुराई और अव्यवस्था के बावजूद कवि स्वप्नशील है और मानता है कि प्रकृति मनुष्य को सपने देखने की क्षमता से परिपूर्ण बनाए रखेगी। सपने पूरे करने के लिए स्वावलंबी और निरंतर प्रयासरत होना होता है। कवि मानता है कि ‘सपने अधूरी सवारी के विरुद्ध होते हैं’। कवि अपूर्ण इच्छाओं की इतिश्री न कर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा मानता है।
यहाँ पीछे छूट गई चीजों की यादें भी हैं। कवि मानता है कि चीजें भले ही पैसे से आती हैं पर वे पैसा नहीं होती। काग़ज़ के नोटों या सिक्कों से आप चीजों को बदल नहीं सकते। चीजों को बरतते रहने से उनसे एक भावनात्मक जुड़ाव हो जाता है। एक खो गई कैंची को अपने किशोरावस्था के दिनों से प्रौढ़ावस्था तक की यात्रा की सहयात्री मानता है।
“इस जीवन में बहुत कम हैं खाली पल
और काम हैं बहुत सारे
लेकिन वह जरूर याद आएगी
कभी-कभी
औचक
यूँ ही”
‘तमकुही कोठी का मैदान’ कविता में कवि अपनी खो गई साइकिल को भी याद करता है और भूमि माफिया की भेंट चढ़ गए उस मैदान को भी जहां सरकार के विरोध में सर्वहारा एकजुट हो जाता था। कचहरी से संबंधित इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ देर तक मन में गूँजती रहती हैं:
“अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का
वहाँ कोठियाँ हैं फ्लैट्स हैं
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से
धीरे से निकल जाता है
उस ओर
जहाँ कचहरी है
और अब आपको क्या बताना
आप तो जानते ही हैं
जनतंत्र में कचहरी
मृगतृष्णा है गरीब की”
जहाँ एक ओर गाँव से पलायन ने खेतों और उनके काग़ज़ी मालिक के बीच भेद उत्पन्न कर दिया है। वहीं दूसरी ओर तरक्की के साथ आने वाली बुराइयाँ भी गाँव में और भयंकर हुई हैं। जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ इन दोनों पहलुओं को सम्बोधित हैं। इन कविताओं में गाँव केवल एक सुखद नॉस्टैल्जिया की तरह विद्यमान नहीं है।
‘चुप्पी का समाजशास्त्र’ कविता आरंभ में ईश्वर को संबोधित लगती है, पर धीरे-धीरे परतें खुलती हैं और स्पष्ट होता है कि यह मनुष्यता के अनुसंधान की कविता है। ‘अंतराल’ कविता उस बीते दौर की याद दिलाती है, जब प्रेमियों पर संकोच हावी रहता था। इसी संकोच के चलते न जाने कितनी जोड़ियां बनते बनते रह गईं, जैसे इस कविता में दो यात्री हिम्मत के अभाव में अलग-अलग रास्तों पर चल दिए थे।”समय रुकता तो पोखर का पानी हो जाता/तुम रुकतीं तो जीवन आकाश हो जाता” जैसी नायाब पंक्तियों से शुरु हुई ‘रुकना’ भी एक प्रेम कविता है। 2013 की उत्तराखंड त्रासदी के संदर्भ में लिखी गई कविता ‘घर प्रतीक्षा करेगा’, कोरोनाकाल में मजदूरों के पलायन के समय पुनः प्रासंगिक हो उठी।
“यह सच बार-बार झाँकेगा पुतलियों में
जो समा गए धरती में
जिन्हें पी लिया पानी ने
जो विलीन हो गए धूप और हवा में
वे लौटेंगे कैसे कहाँ से
फिर भी घर उनकी प्रतीक्षा करेगा”
कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताओं की रेंज व्यापक है। सहज भाषा में गहरी बात कहना इस कवि की विशेषता है।
जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ
1.सपने अधूरी सवारी के विरुद्ध होते हैं
स्वप्न पालना
हाथी पालना नहीं होता
जो शौक रखते हैं
चमचों, दलालों और गुलामों का
कहे जाते हैं स्वप्नदर्शी सभाओं में
सपने उनके सिरहाने थूकने भी नहीं जाते
सृष्टि में मनुष्यों से अधिक हैं यातनाएँ
यातनाओं से अधिक हैं सपने
सपनों से थोड़े ही कम हैं सपनों के सौदागर
जो छोड़ देते हैं पीछा सपनों का
ऐरे-गैरे दबावों में
फिर लौटते नहीं सपने उन तक
सपनों को कमजोर कंधे
और बार-बार चुंधियाने वाली आँखें
रास नहीं आतीं
उन्हें पसंद नहीं वे लोग
जो ललक कर आते हैं उनके पास
फिर छुई-मुई हो जाते हैं
सपने अधूरी सवारी के विरुद्ध होते हैं।
2. घर प्रतीक्षा करेगा
जो नहीं लौटे
घर उनकी प्रतीक्षा करेगा
यह सच बार-बार झांकेगा पुतलियों में
जो समा गए धरती में
जिन्हें पी लिया पानी ने
जो विलीन हो गए धूप और हवा में
वे लौटेंगे कैसे कहाँ से
फिर भी घर उनकी प्रतीक्षा करेगा
सृष्टि में किसी के पास नहीं
घर जैसी स्मृति
घर कुछ नहीं भूलता
लोग भूल जाते हैं घर।
3. कैंची
गुम हो गयी कैंची
कुछ पल के लिए
गुम हो गया मन का उजास
मैं दुखी नहीं रह सकता
जीवन भर
लेकिन इस क्षण के दुख को
झिड़क भी नहीं सकता
मैं जानता हूँ
कैंची तो मिल जाएगी
पचीस पचास की अधितम सौ डेढ़ सौ की
संभवतः पहले से अधिक धारदार
अभी कम्पनियों ने
बनाना बंद नहीं किया है कैंची
कोई उससे जेब काटे नसें काटे
या काट ले जिगर
इससे झुठलाया नहीं जा सकता कैंची के सही उपयोग को
कैंची बनी थी जीवन संवारने के लिए
अब क्या करे वह
जब कोई बनाने की जगह
बिगाड़ ले या बिगाड़ दे जीवन उससे
काटने लगे उससे आत्मा देश या समाज की
आज सुबह जो खो गई
उसी कैंची से वर्षों पहले
मैंने संवारी थीं अपनी मूंछें पहली बार
रेखों का मूँछों में बदलना
फिर उन्हें संवारना
आसान नहीं है
उन धड़कनों को आज शब्द देना
वह कैंची साक्षी थी
मेरे उन पलोें और उठते दिनों की
फिर मेरे प्रौढ़ होने
मेरी मूंछों के पकने की भी
जो खो गई
जिसे चुरा ले गया यमदूत-सा कोई
बहुत सारे सामानों के साथ
पुतलियों के ऐन नीचे से
वह तथ्य के रूप में महज एक कैंची थी
जिसकी कीमत इन दिनों सौ रूपये होगी
ज्यादा से ज्यादा डेढ़ सौ
लेकिन मैं इतना ही मानकर अपमान नहीं कर सकता
उसके लम्बे साहचर्य का
मैं जानता हूँ
उसकी यादें हर पल नहीं रह सकतीं मेरे साथ
इस जीवन में बहुत कम हैं खाली पल
और काम हैं बहुत सारे
लेकिन वह जरूर याद आएगी कभी-कभी
औचक
यूँ ही।
4.तमकुही कोठी का मैदान
तमकुही कोठी निशानी होती
महज सामन्तवाद की
तो निश्चित तौर पर मैं उसे याद नहीं करता
यदि वह महज आकाँक्षा होती
अतृप्त दिनों में अघाए दिनों की
तो यक़ीनन मैं उसे याद नहीं करता
मैं उसे इसलिए भी याद नहीं करना चाहता
कि उसके खुले मैदान में खोई थी प्राणों-सी प्यारी मेरी सायकिल
सन् उन्नीस सौ नवासी की एक हंगामेदार राजनीतिक-सभा में
लेकिन मैं उस सभा को नहीं भूलना चाहता
मैं उस जैसी तमाम सभाओं को नहीं भूलना चाहता
जिनमें एक साथ खड़े हो सकते थे हज़ारों पैर
जुड़ सकते थे हज़ारों कन्धे
एक साथ निकल सकती थीं हज़ारों आवाज़ें
बदल सकती थीं सरकारें
कुछ हद तक ही सही
पस्त हो सकते थे निज़ामों के मंसूबे
मैं जिस तरह नहीं भूल सकता अपना शहर
उसी तरह नहीं भूल सकता
तमकुही कोठी का मैदान
वह सामन्तवाद की क़ैद से निकलकर
कब जनतन्त्र का पहरूआ बन गया
शायद उसे भी पता न चला
ठीक-ठीक कोई नहीं जानता
किस दिन शहर की पहचान में बदल गया वह मैदान
न जाने कितनी सभाएँ हुईं वहाँ
न जाने किन-किन लोगों ने कीं वहाँ रैलियाँ
वह जन्तर-मन्तर था अपने शहर में
आपके शहर में भी होगा या रहा होगा
कोई न कोई तमकुही कोठी का मैदान
एक जन्तर-मन्तर
सायास हरा दिए गए लोगों का आक्रोश
वहीं आकार लेता होगा
वहीं रंग पाता होगा अपनी पसन्द का
मेरे शहर में
जिलाधिकारी की नाक के ठीक नीचे
इसी मैदान में
रचा जाता था प्रतिरोध का सौन्दर्यशास्त्र
वह ज़मीन जो ऐशगाह थी कभी सामन्तों की
धन्य-धन्य होती थी
किसानों-मजूरों की चरण-धूलि पाकर
समय बदलने का
एक जीवन्त प्रतीक था तमकुही कोठी का मैदान
लेकिन समय फिर बदल गया
सामन्तों ने फिर चोला बदल लिया
अब नामोनिशान तक नहीं है मैदान का
वहाँ कोठियाँ हैं, फ्लैट्स हैं
अब आम आदमी वहीं बगल की सड़क से
धीरे से निकल जाता है
उस ओर
जहाँ कचहरी है
और अब आपको क्या बताना
आप तो जानते ही हैं
जनतन्त्र में कचहरी मृगतृष्णा है ग़रीब की ।
5. रुकना
समय रुकता तो पोखर का पानी हो जाता
तुम रुकतीं तो जीवन आकाश हो जाता
हम दोनों साथ होते तो जीवन का छोर नहीं
सिर्फ ओर दिखता
लोग थक जाते ताकते-ताकते
सिर्फ खुशियों का जलधि विशाल दिखता
हँसी का उजास दिखता
पर न समय रुका न तुम!
बस मैं ही रुका रहा स्मृतियों के घाट पर
अंजुरी में जल सँभाले।
6. चुप्पी का समाजशास्त्र
उम्मीद थी
मिलोगे तुम इलाहाबाद में
पर नहीं मिले
गोरखपुर में भी ढूँढ़ा
पर नहीं मिले
ढूँढ़ा बनारस, जौनपुर, अयोध्या, उज्जैन, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार
तुम नहीं मिले
किसी ने कहा
तुम मिल सकते हो ओरछा में
मैं वहाँ भी गया
पर तुम कहीं नहीं दिखे
मैंने बेतवा के पारदर्शी जल में
बार-बार देखा
आँखे डुबोकर देखा
तुम नहीं दिखे
गढ़ कुण्हार के खँडहर में भी
मैं भटकता रहा
बार-बार लौटता रहा
तुमको खोजकर
अपने अँधेरे में
न जाने तुम किस चिड़िया के खाली खोते में
सब भूल-भाल सब छोड़-छाड़
अलख जगाए बैठे हो
ताकता हूँ हर दिशा में
बारी-बारी चारों ओर
सब चमाचम है
कभी धूप कभी बदरी
कभी ठंडी हवा कभी लू
सब कुछ अपनी गति से चल रहा है
लोग भी खूब हैं धरती पर
एक नहीं दिख रहा
इस ओर कहाँ ध्यान है किसी का
पैसा पैसा पैसा
पद प्रभाव पैसा
यही आचरण
दर्शन यही समय का
देखो न
बहक गया मैं भी
अभी तो खोजने निकलना है तुमको
और मैं हूँ
कि बताने लगा दुनिया का चाल-चलन
पर किसे फुर्सत है
जो सुने मेरा अगड़म-बगड़म
किसी को क्या दिलचस्पी है इस बात में
कि दिल्ली से हजार कि.मी. दूर
देवरिया जिले के एक गाँव में
सिर्फ एक कट्ठे जमीन के लिए
हो रहा है खून-खराबा
पिछले कई वर्षों से
इन दिनों लोगों की समाचारों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है
वे चिंतित हैं अपनी सुरक्षा को लेकर
उन्हें चिंता है अपने जान-माल की
इज्जत, आबरू की
पर कोई नहीं सोच रहा उन स्त्रियों की
रक्षा और सम्मान के बारे में
जिनसे संभव है
इस जीवन में कभी कोई मुलाकात न हो
हमारे समय में निजता इतना बड़ा मूल्य है
कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता उसके दायरे से
वरना क्यों होता
कि आजाद घूमते बलात्कारी
दलितों-आदिवासियों के हत्यारे
शासन करते
किसानों के अपराधी
सब चुप हैं
अपनी-अपनी चुप्पी में अपना भला ढूँढ़ते
सबने आशय ढूँढ़ लिया है
जनतंत्र का
अपनी-अपनी चुप्पी में
हमारे समय में
जितना आसान है उतना ही कठिन
चुप्पी का भाष्य
बहुत तेजी से बदल रहा है परिदृश्य
बहुत तेजी से बदल रहे हैं निहितार्थ
वह दिन दूर नहीं
जब चुप्पी स्वीकृत हो जाएगी
एक धर्मनिरपेक्ष धार्मिक आचरण में
पर तुम कहाँ हो
मथुरा में अजमेर में
येरुशलम में मक्का-मदीना में
हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में
अमेरिकी राष्ट्रपति के घर में
कहीं तो नहीं हो
तुम ईश्वर भी नहीं हो
किसी धर्म के
जो हम स्वीकार लें तुम्हारी अदृश्यता
तुम्हें बाहर खोजता हूँ
भीतर डूबता हूँ
सूज गई हैं आँखें आत्मा की
नींद बार-बार पटकती है पुतलियों को
शिथिल होता है तन-मन-नयन
पर जानता हूँ
यदि सो गया तो
फिर उठना नहीं होगा
और मुझे तो खोजना है तुम्हें
इसीलिए हारकर बैठूँगा नहीं इस बार
नहीं होने दूँगा तिरोहित
अपनी उम्मीद को
मैं जानता हूँ
खूब अच्छी तरह जानता हूँ
एक दिन मिलोगे तुम जरूर मिलोगे
तुम्हारे बिना होना
बिना पुतलियों की आँख होना है।
7. दिल्ली की नींद
वटवृक्ष की पत्तियों के बीच से
उतर रही हैं किरणें
हरियाली से गलबहियाँ करते हुए
इन क्षणों में हर्षित है धरा
उड़ान में हैं पक्षी
चींटियाँ निकल पड़ी हैं अन्न की खोज में
कुछ सुग्गे कलरव कर रहे हैं
अमरूद के पेड़ पर
झर चुके हैं हरसिंगार के फूल
खुशबू उतर आई है दूब की देह में
यह सुबह है अरावली की
सब जाग रहे हैं धीरेधीरे चारों ओर
टूट रही है लोगों की तन्द्रा
उतार पर है नींद का जादू
पर आश्चर्य!
जिसे जगना चाहिए सबसे पहले
अरावली के मस्तक पर लेटी वह दिल्ली
अभी सो रही है।
8. खेतों का अस्वीकार
आज ज्योंही मैं पहुँचा
गाँव के गोंइड़े वाले खेत में
उसने नजर उठाकर देखा पल भर
फिर पूछा
कहो बाबू, कहाँ से आए हो
कुछ-कुछ शहरी जान पड़ते हो?
लगता है
कोई जान-पहचान है इस गाँव में
इधर निकल आए हो शायद निवृत होने!
मैं अचरज में पड़ा हुआ
किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा हुआ
ताकने लगा निर्निमेश उसको
जिसकी मिट़्टी में लोट-लोट लहलोट हुआ
मैं बचपन में खेला करता था
मैं भागा तेज वहाँ से
पहुँचा नदी किनारे वाले चक में
चक ने देखा मुझको
कुछ चकमक-चकमक-सा लगा उसे
थोड़ी देर रहा चुप वह
फिर पूछा उसने
किसे ढूंढ रहे हो बाबू
इतनी बेसब्री से
यहाँ तो आँसू हैं
हत सपने हैं
अकथ हुई लाचारी है
लेकिन तुम कुछ अलग-अलग दिखते हो
कहाँ रहते हो?
इधर कहाँ निकल आए हो
यहाँ धूल है मिट्टी है
सड़क के नाम पर गिट्टी है
चारों ओर पसरा हुआ
योजनाओं का कीचड़ है
ख़ैर छोड़ो, कहाँ से आए हो
क्या करते हो
आखिर इतना चुप क्यों हो
क्या कभी नहीं कुछ कहते हो?
मैं ठकुआया खड़ा रहा
बहता रहा आँखों का द्रव
मैं भूला
भूला रहा बरस-बरस बरसों-बरस जिन खेतों को
यही सोच-सोच कि मालिक हूँ उनका
उन खेतों ने सचमुच मुझको भुला दिया था
कुछ देर
मैं अवसन्न खड़़ा रहा सच के सिरहाने
देवियो-सज्जनो
मालिक बनने को उत्सुक लोगो
आज उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इंकार कर दिया है
जिनके मालिक थे मेरे दादा
उनके बाद मेरे पिता
और उनके बाद मैं हूँ
बिना किसी शक-सुब्हे के
आप सब अचरज में पड़ गए हैं सुनते-सुनते
यकीन नहीं कर पा रहे मेरी बातों का
पर सच यही है सोलह आना
कि मैं मालिक हूँ जिनका खसरा खतौनी में
उन खेतों ने
मुझे पहचानने से इंकार कर दिया है।
9. ओ मेरी साँवली आभा
मन की टहनी पर बैठी
ओ मेरी कोयलिया
उड़ मत जाना
मैंने कभी किसी और को
बैठने न दिया यहाँ
पल भर के लिए भी
तुम्हारी प्रतीक्षा में
टकटकी लगाए बैठा रहा हूँ वर्षों
अब जब आ ही गई हो
तन्मय होकर साधो जीवन संगीत
भूल जाओ यात्रा की थकान
अब मेरा हृदय है तुम्हारा मकान
इस मकान को बना लो घर
मैं भी कबसे भटक रहा हूँ बेघर
देखो, नहीं है मेरे पास कोई आश्वासन
बस विश्वास है
जो दे रहा हूँ तुमको
और बस यही चाहता हूँ तुमसे
ओ मेरी साँवली आभा
अब उड़ना
तो मुझे भी साथ लेकर उड़ना !
10. मानुष राग
धन्यवाद पिता
कि आपने चलना सिखाया
अक्षरों
शब्दों
और चेहरों को पढ़ना सिखाया
धन्यवाद पिता
कि आपने मेंड़ पर बैठना ही नहीं
खेत में उतरना भी सिखाया
बड़े होकर
बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँचने वालों की
कहानियाँ ही नहीं सुनाईं
छोटे-छोटे कामों का बड़ा महत्त्व बताया
सिर्फ़ काम कराना नहीं
काम करना भी सिखाया
धन्यवाद पिता
कि आपने मानुष राग सिखाया
बहुत-बहुत धन्यवाद
यह जानते हुए भी
कि पिता और पुत्र के बीच
कोई अर्थ नहीं धन्यवाद का
धन्यवाद
कि आपने कृतज्ञ होना
और धन्यवाद करना सिखाया
धन्यवाद पिता
रोम-रोम से धन्यवाद
कि आपने लेना ही नहीं
उऋण होना भी सिखाया
धन्यवाद
धन्यवाद पिता!!
11. अंतराल
उस दिन यह महज संयोग ही था
कि हम एक ही ट्रेन की
एक ही बोगी में बैठे थे आमने-सामने
और चुप थे
जबकि बातें बहुत थीं मेरे पास
ट्रेन भाग रही थी
कभी जिंदगी से थोड़ी तेज
कभी थोड़ी मद्धिम
मैं बच रहा था उसे बार-बार देखने से
इसलिए बार-बार देख रहा था खिड़की से बाहर
दूर तक फैली हरियाली
और कभी-कभी वीरानी भी
समय बरौनियों से उतरकर
समा गया था पुतलियों में
वहाँ उभर आए
असंख्य प्रतिविम्ब और आँखों के लाल डोरे
हिल रहे थे स्मृति-जल में
कि अचानक कुछ देर बाद
मुझे लगातार देख रही उसकी लगभग दो वर्ष की बेटी
चढ़ आई मेरी गोद में
क्षण भर के लिए अचकचा गया मैं
फिर पुचकारने लगा उसे
दिखाने लगा खिड़की से बाहर का दृश्य
वह देखती रही कुछ देर बेटी का मेरे साथ खेलना
फिर बिना कुछ कहे
बच्ची को ले लिया अपनी गोद में
फिर रात ने तान ली रजाई
सन्नाटा पसर गया ट्रेन में
अगली सुबह उतरने से ठीक पहले
कहा उसने-
बहुत बदल गए हो
मैंने बहुत देर में पहचाना तुम्हें
पर तुम्हें तो बोलना चाहिए था कुछ
फिर चुप रहकर कुछ पल
बहुत धीरे से कहा उसने-
सब कुछ है तुम में
बस समय पर कह नहीं पाते तुम समय की बात
और समय निकल जाता है आगे
उस क्षण उदास सी लगी वह मुझे
मैंने कुछ कहा नहीं
बस चुपचाप सुनता रहा उसकी बात
मुझे लगा
कहीं कोई घाव था
जो रिस रहा था उसके भी भीतर।
12. धूप
धूप क़िताबों के ऊपर है
या
भीतर कहीं उसमें
कहना
मुश्किल है इस समय
इस समय मुश्किल है
कहना
कि क़िताबें नहा रही हैं धूप में
या धूप क़िताबों में
पर यह देखना और महसूसना
नहीं मुश्किल
कि मुस्कुरा रही हैं क़िताबें
धूप की तरह
और धूप गरमा रही है क़िताबों की तरह ।
देवरिया (उत्तर प्रदेश) में जन्मे और जे एन यू, नई दिल्ली से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले हिंदी के प्रतिष्ठित कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली की मानविकी विद्यापीठ में हिंदी के प्रोफेसर हैं। पूर्व में इग्नू के कुलसचिव और पर्यटन एवं आतिथ्य सेवा प्रबंध विद्यापीठ के निदेशक रह चुके हैं।इन दिनों इग्नू के अंतरराष्ट्रीय प्रभाग के निदेशक हैं।
आपकी सूरज को अँगूठा, उजास, बेटियाँ, रचना का जीवद्रव्य, कवि ने कहा, कायांतरण, बिल्कुल तुम्हारी तरह, विचारधारा नए विमर्श और समकालीन कविता, भारतीय समाज-राष्ट्रवाद और प्रेमचंद , सर्जक का स्वप्न, कविता का घनत्व आदि 26 से अधिक प्रकाशित पुस्तकें हैं। इनकी कई कविताओं का चीनी और अंग्रेजी के अतिरिक्त मराठी, उर्दू, उड़िया , पंजाबी और कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। लम्बी कविता ‘सोनचिरई’ की कई नाट्य प्रस्तुतियां हो चुकी हैं। कई विश्वविद्यालयों के कविता केंद्रित पाठयक्रमों में इनकी कविताएँ शामिल हैं। इनकी कविताओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोधकार्य हो चुके हैं।इन्होंने महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका ‘उम्मीद’ का स॔पादन भी किया है।
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव अब तक कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान और आलोचना के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान सहित हिंदी अकादमी दिल्ली के कृति सम्मान, उ.प्र. हिंदी स॔स्थान के रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार और विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता के युवा पुरस्कार, डाॅ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान, परंपरा ॠतुराज सम्मान, गोपालकृष्ण रथ स्मृति सम्मान आदि से सम्मानित हैं।
प्रो.जितेन्द्र श्रीवास्तव से jitendra82003@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।
टिप्पणीकार देवेश पथ सारिया ताइवान में खगोल विज्ञाम में शोधरत युवा कवि हैं। उनका प्रथम कविता संग्रह ‘नूह की नाव’ (2022) साहित्य अकादमी, दिल्ली से एवं उनकी ताइवान डायरी, ‘छोटी आँखों की पुतलियों में’ (2022) सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हैं। संपर्क : deveshpath@gmail.com