जयप्रकाश नारायण
हर घर तिरंगा अभियान अपने चरम पर है। लायल्टी प्रर्दशित करने के लिए अभियान में नौकरशाही से लेकर उद्योग जगत तक उतर चुका है।
तिरंगे के ऐतिहासिक महत्व और गरिमा को नेपथ्य में रखते हुए आंकड़े गिनने और उत्सवी वातावरण बनाने के पीछे संघ भाजपा की सोची समझी योजना काम कर रही है।
हिंदुत्व की विचार धारा से प्रेरित संगठनों और व्यक्तियों की चिर परिचित कार्यशैली है कि ऐतिहासिक महत्व की घटना और प्रतीक को उसके परिप्रेक्ष्य और वैचारिक सारतत्व से काटकर बाजारु उत्सव में बदल दिया जाए।
तिरंगा अभियान इसका बेहतरीन नजीर है।भारतीय संविधान में तिरंगे के लिए निर्धारित नियमावली और आचार संहिता को बदलते हुए इसे आम झंडे की तरह लगाने की छूट देकर तिरंगे की गरिमा का अवमूल्यन कर दिया गया है।
राष्ट्रीय ध्वज की पहचान और महत्व राष्ट्रीय आंदोलन में करोड़ों भारतीयों के त्याग, कुर्बानी, और गरिमा के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा है।
हर घर तिरंगा अभियान से राष्ट्रीय ध्वज की गरिमा को भारी धक्का लगा है।
स्वतंत्रता की 75 वी वर्षगांठ के महोत्सव की घोषणा के साथ यह उम्मीद बनी थी, कि सरकार इस अवसर को नागरिकों के सहयोग से भारतीय लोकतंत्र की यात्रा के गंभीर मंथन की दिशा में ले जाएगी।
लेकिन संघ भाजपा की वैचारिक दिशा ही ऐसी है कि आधुनिक सभ्यता के अंदर मौजूद जटिल अंतर्विरोध से उत्पन्न समस्याओं को संबोधित करने की उस में क्षमता ही नहीं है।
मोदी सरकार का आजादी का अमृत महोत्सव इसी तरह का परिणाम देते हुए दिखाई दे रहा है। तिरंगा रैलियों में शामिल संघी कार्यकर्ताओं को देख कर आप समझ सकते हैं कि उनमें तिरंगे की गरिमा के प्रति जरा भी सरोकार नहीं है।
यह सर्वविदित है संघ और भाजपा तिरंगे से अंदर से घृणा करते हैं। उनके वैचारिकी में तीन की संख्या अपशकुन मानी जाती है। इसलिए तिरंगा झंडा संघी हिंदू भारत के लिए अस्वीकार्य है।
आजादी के आंदोलन और उसका प्रतीक तिरंगे के प्रति संघी घृणा छिपी हुई नहीं है।
इसलिए स्वतंत्रता आंदोलन की उपलब्धियों, संविधान, लोकतंत्र, आजादी और तिरंगा के प्रति नफरत का स्वाभाविक परिणाम है कि अमृत महोत्सव के नाम पर तिरंगे की गरिमा को धूलधूसरित करते हुए भगवा ध्वजाधारियों को आनंद की अनुभूति हो रही है।
आजादी के आंदोलन से दूर ही नहीं, बल्कि घृणा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के मातृ संगठन के अंदर मौजूद हीन भावना ही उत्सवी कार्यक्रमों को जन्म देती है।
यह सर्वविदित है कि राष्ट्रीय आंदोलन में इनकी वैचारिक और भौतिक रूप से कोई भूमिका नहीं थी।
हीरक जयंती के शुरुआत के पहले मोदी ने 14 अगस्त 21 को विभाजन बिभीषिका दिवस मनाने का घोषणा की थी।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी भारत के विभाजन से शक्ति और ऊर्जा ग्रहण करने वाला संघ परिवार 15 अगस्त के स्वतंत्रता दिवस का अवमूल्यन करते हुए अपने लिए 14 अगस्त का दिन चुन लिया है। जिसके द्वारा विध्वंसक सांप्रदायिक अभियान को आगे बढ़ा सके।
विभाजन विभीषिका स्मृति से संबंधित मोदी सरकार के द्वारा जारी हुआ परिपत्र यह दर्शाता है कि भारत के विभाजन की त्रासद घटना को संघ अपने विस्तार के लिए एक अस्त्र के रूप में प्रयोग कर रहा है।
विभाजन के दौर में भी भारतीय समाज में बहुत कुछ ऐसा था जिस पर गर्व किया जाना चाहिए। उस उन्मादी समय में भी आम लोगों ने एक दूसरे के साथ सौहार्द, भाईचारा बनाए रखने की हर संभव कोशिश की थी ।
लेकिन इन मूल्यों को नेपथ्य में रखते हुए बर्बरता और क्रूरता को महिमामंडित करना निश्चय ही मोदी सरकार की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यही वह हथियार है जिसके बल पर उन्होंने भारत की सत्ता को हथिया लिया है और अपने नृशंस कृत्यों को जायज ठहराया।
इसलिए हीरक जयंती वर्ष में जब हम 75 वर्षों की लोकतांत्रिक यात्रा पर मंथन और चिंतन कर रहे हैं तो हमें मोदी सरकार के आने के बाद भारतीय लोकतंत्र पर पड़े नकारात्मक प्रभाव को गंभीरता से चिन्हित करना होगा।
मोदी सरकार आने के बाद भारत में चौतरफा विध्वंस का अभियान चल रहा है । लोकतांत्रिक पैमाने पर भारत लगातार नीचे गिरता हुआ अर्धस्वतंत्र देशों की श्रेणी में चला गया है।
भूख का भूगोल बढ रहा है। 94% आबादी की कमाई ₹20000 भी नहीं है। वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 117 देशों में 102 वें पायदान पर है।
कुपोषित बच्चों और महिलाओं की कतार बढ़ रही है। महिला कुपोषण गुजरात जैसे राज्य में 54% से बढ़कर 59% तक पहुंच गई है।
मानव विकास यानी ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स (एचडीई )में भारत दुनिया में 131वेंपायदान पर है।
नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान से भी पीछे।
हताशा, निराशा, चरम पर है । आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष आत्महत्या करने वालों की तादाद बढ़ रही है और इसमें नये-नये वर्ग शामिल हो रहे हैं।
2018 से 22 के बीच में किसानों के अलावा 24 हजार आत्महत्या अन्य वर्गों के लोगों ने की है। 2 दिन 21 और 22 अगस्त में बनारस और आजमगढ़ जैसे जिले में 6 आत्महत्या विभिन्न कारणों से दर्ज की गई है।
पर्यावरणीय विध्वंस में हम विश्व के 80 देशों में 80वें स्थान पर हैं। इसका मूल कारण मोदी सरकार की कारपोरेट प्रतिबद्धता है।
भारत की विकास दर बुरी तरह से गिर गई है। जो महामारी काल में -7 तक पहुच गई थी।
रुपया डूब रहा है। डॉलर के मुकाबले अब तक के निम्नतम स्तर पर पहुंच गया है।
सरकारी संसाधनों और संस्थानों को बेचा जा रहा है।
मित्र पूंजीपतियों के लिए नियम कानून तोड़ दिए गए हैं या बदले जा रहे हैं।
नजीर के लिए राफेल से लेकर हवाई अड्डे, कोयला आयात और 5G स्पेक्ट्रम जैसे क्षेत्रों पर नजर डाली जा सकती है।
बेरोजगारी का विस्तार पढ़े-लिखे नौजवानों से लेकर ग्रामीण गरीबों खेतिहर मजदूरों शहरी झुग्गी झोपड़ी वासियोंऔर छोटे-मोटे कारोबारियों तक फैल गया है।
ग्रामीण बेरोजगारी मार्च में 7.60 प्रतिशत से बढ़कर अप्रैल में 8.22 प्रतिशत हो गई । यही हाल शहरी बेरोजगारी ने की है। जो 8 से बढ़कर 9 से ऊपर हो गई।
आज ठेके और अनियमित मजदूरों और सेवा क्षेत्र के कर्मचारियों की छंटनी व सुरक्षित सम्मान जनक रोजगार वाले मजदूरों की तादाद खत्म होती जा रही है।
पिछले 4 वर्षों में 4.50 से 5 करोड़ तक शहरी मजदूर अपने कारोबार से बाहर जा चुके हैं। चार श्रम कोड लागू होने के बाद इस रफ्तार में तेजी से वृद्धि होगी।
राजकीय और पब्लिक क्षेत्र के उद्योगों के निजीकरण और अंधाधुंध विनिवेश से भारत में औद्योगिक ढांचा लगभग ध्वस्त हो गया है।
किसी भी देश के लिए यह शर्म की बात हो सकती है कि आबादी के 70% हिस्से को 5 किलो अनाज पर जिंदा रखने के लिए मजबूर कर दिया जाए।
मोदी सरकार के दिखावटी समर्पणवादी राष्ट्रवाद की चीख-पुकार सेना के पीछे छिपने की होती थी। लेकिन सैन्य साजो सामान के उत्पादन में देशी -विदेशी कंपनियों को शामिल कर तथा ठेकेदारी प्रथा को बल देने वाली अग्निपथ योजना के बाद सैन्य संस्थाओं में भी बेहद निराशा का वातावरण है।
मोदी सरकार ने भारत की सुरक्षा के साथ गंभीर खिलवाड़ किया है।
शायद मोदी सरकार की अमेरिका के साथ रणनीतिक सुरक्षा संधि करके भारत को दक्षिण कोरिया बनाने की योजना है।
लोकतांत्रिक संस्थाओं से घृणा मोदी सरकार की चारित्रिक विशेषता है। मानवाधिकार असहमति, अभिव्यक्ति की आजादी और तार्तिक बौद्धिक विचार-विमर्श से मोदी सरकार हर समय चिढ़ी रहती है।
इसलिए नागरिक समाज और स्वतंत्र मानवाधिकार संस्थाएं 8 वर्षों में या तो दमन उत्पीड़न द्वारा नष्ट की जा रही हैं या उन्हें पंगु बना दिया गया है।
एकमात्र उम्मीद न्यायपालिका अब हांफते हुए दिख रही है। पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका के अंदर और बाहर से जितने सवाल, शंकायें उठाई गई हैं वह चिंताजनक है । ऐसा लगता है के न्यायिक संस्थाएं अपनी स्वायतता खो बैठी हैं।
भारतीय नागरिकों खासकर अल्पसंख्यकों दलितों आदिवासियों कमजोर वर्गों तथा मानवाधिकार लोकतंत्रवादी नागरिकों की एकमात्र आशा न्यायपालिका भी अब सवालों के घेरे में आ चुकी है।
हिमांशु कुमार और जाकिया जाफरी के केस के बाद सुप्रीम कोर्ट के परिसर से भी न्याय पालिका पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं।
नौकरशाही पूरी तरह से भ्रष्ट, निरंकुश और जनविरोधी है और संघ परिवार के शिकंजे से कस दी गई है ।
पिछले दिनों कुछ नौकरशाहों न्यायबिदों और राजनीतिक विरोधियों की संदिग्ध मौतों ने भारतीय लोकतंत्र के सभी संस्थानों में एक अदृश्य आतंक का सृजन किया है।
आज आम बात है कि ईडी सीबीआई एनसीवी पुलिस एक पक्षीय हो चुकी है और यह संघ और मोदी सरकार के हित में काम कर रही है।
किसान भुखमरी और दरिद्री करण के शिकार हैं और लगभग 2 वर्षों से अनवरत आंदोलनरत हैं। मजदूरों के जीवन में रोजगार के अवसर घटने से से गहरी निराशाहै।
रोजगार हीनता की स्थिति को 28 करोड़ से ज्यादा ई-श्रम कार्डों मैं रजिस्टर्ड मजदूरों की संख्या से हम समझ सकते हैं। ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट नौजवानों ने भी ई- श्रम कार्ड बनवाए हैं।
विश्वविद्यालय अपनी गरिमा और महत्त्व से लगातार खोते जा रहे हैं और उनके स्वायत्त जीवनमें हस्तक्षेप वायरस की तरह बढ़ता जा रहा है। वित्तीय संसाधन बंद कर दिए गए हैं।
अब सामान्य पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों के लिए शिक्षा हासिल करना मुश्किल हो गया है।
डीयू में चयनित होने के बाद भी हजारों छात्रों ने पैसे के अभाव में दाखिला नहीं लिया है।
शिक्षा के भगवाकरण का अभियान चला कर तार्किक और विखंडित जहरीले विचारों वाला नागरिक पैदा किया जा रहा है ।
सरकार स्थिति से बेखबर आत्ममुग्धता में डूबी है। सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ लोक प्रतिनिधि शानशाही जीवन जीते हुए भारत के 135 करोड़ नागरिकों का अपमान कर रहा है ।
राष्ट्र निर्माण की यात्रा में परिकल्पना थी कि 47 की त्रासदी से बाहर निकलकर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने की जद्दोजहद करते हुए एक एक कदम आगे बढ़ता जायेगा।
दो, नागरिकों में विभाजन के चलते आपसी कटुता और अविश्वास पैदा हुआ था ।उसे जड़ों से निर्मूल करते हुए नागरिक समाज बनाया जाएगा।
तीसरा, सामाजिक सांस्कृतिक रूप से धर्म और परंपरा में जकड़े हुए समाज को लगातार वैज्ञानिक तार्किक की विचारों का प्रचार करते हुए एक आधुनिक मनुष्य का निर्माण होगा जो धर्म भाषा जाति क्षेत्र से मुक्त होगा।
चार, वर्ण व्यवस्था जनित समाज में जाति का विध्वंस सबसे बड़ा सवाल था । लेकिन मंडल और मंदिर की राजनीति के दौर में जातीय चेतना और गौरव खत्म होने की जगह बढ़ता गया। जाति अहम के कारण भारतीय नागरिक बनाने में असफल हो गए।
पांचवा सवाल था औपनिवेशिक राज्य मशीनरी के रूपांतरण का। उसे लोकतांत्रिक व्यवहारों और विचारों से दीक्षित प्रशिक्षित करना।
छठा, भारत विभाजन से सीख लेते हुए भविष्य में किसी भी तरह के विभाजन कारी विचारों व्यवहारों और परिस्थितियों के मुकम्मल खात्मे का प्रयास करना। जिससे भारत की एकता अखंडता को पुख्ता किया जा सके।
शुरुआती दौर में इस दिशा में कोशिशें हुई थीं।
लेकिन आज इन सारी कोशिशों को उलट दिया गया है।
सातवां लक्ष्य था एक पिछड़े कृषि प्रधान देश से भारत को धीरे-धीरे उन्नत करते हुए आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र बनाने का।
हिंदुत्व के उभार के साथ आधुनिक भारत और निर्माण की सभी परियोजनाएं धीरे धीरे ढह गई।
<span;> हीरक जयंती वर्ष पर चले सभी तरह के क्रियाकलाप और विचार विमर्श में इन समस्याओं के समाधान के संदर्भ में लेश मात्र भी चिंता नहीं दिखाई दी।