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आजादी के पचहत्तर वर्षः प्रोपोगंडा, पाखंड और यथार्थ- तीन

जयप्रकाश नारायण 

संघ द्वारा संचालित और निर्देशित भाजपा की मोदी सरकार ने आजादी के हीरक जयंती को अमृत काल घोषित किया है।

अमृत काल का जश्न मनाने की तैयारी के दौर में  संघ प्रमुख मोहन भागवत जी के मुखारविंद से एक अमृत वचन उच्चरित हुआ था।

एक व्याख्यान को संबोधित करते हुए महामारी में मारे गए नागरिकों के प्रति जो उनकी संवेदना थी, उसे व्यक्त करते हुए संघ कुलाचार्य ने कहा था कि वह भाग्यशाली लोग  थे, जिन्हें इस दुख भरी दुनिया से मुक्ति मिल गई।

जो बच गए हैं उन्हें भौतिक जगत के सारे संताप झेलने होंगे। महामारी के शिकार लोगों के परिवारी जनों और इष्ट मित्रों के दर्द को हवा में उड़ाते हुए निर्लिप्त  भाव से मोहन भागवत ने जो कुछ व्यक्त किया वह संघ की मनुष्य के प्रति वास्तविक सोच को प्रकट करता है। साथ ही संघ की सरकार के संचालन की दिशा को निर्धारित करता है।

संघ की शाखाओं  से निकलें विद्यार्थी आज भारत की सत्ता को चला रहे हैं। यानी  महामारी के चौतरफा विध्वंसक दुष्प्रभाव को नजरअंदाज करते हुए यहां भी हिंदुत्व‌ की  मोक्ष की अवधारणा को आगे कर दिया गया।

आजादी के हीरक जयंती वर्ष में भारत के  जनगण की वास्तविक स्थिति क्या है?  उसके प्रति संसद के मानसून सत्र में सरकार द्वारा दिए जा रहे वक्तव्य से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, कानून व्यवस्था का विध्वंस जैसे सवालों को पूरी तरह से अस्वीकृत कर दिया गया है। मोदी सरकार यथार्थ जीवन की परेशानियों  से परे अमृत काल के आध्यात्मिक आनंद में पूर्णतया निमग्न है।

 

युवा भारत की वास्तविकता को समझने के लिए हमें भारतीय राज्य प्रणाली के अंदर फैल गये कैंसर की चीड़फाड करने की जरूरत है।

हमारे यहां कैंसर को चोर बीमारी कहते हैं । जिसके विषाणु  दबे पांव मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते है ।और लंबे समय तक खामोश रहते हुए लगातार शरीर के तंतुओं में अपनी जगह बनाकर विस्तार करते रहते है।

उचित समय आने पर यह बीमारीअपना असली रूप दिखाती है ।इलाज के दौरान  लगातार रूप और जगह बदलते हुए मनुष्य के सबसे संवेदनशील और  जिंदगी के लिए अनिवार्यअंगों में इसके विषाणु प्रवेश कर जाते हैं।

शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को पूरी तरह से नष्ट कर उस पर अपना नियंत्रण कायम कर लेते हैं और असाध्य रोग में बदल कर मनुष्य की जीवन लीला को समाप्त कर देते हैैं।

इस पूरे दौर में मनुष्य को जिस पीड़ा यातना और आर्थिक विध्वंस से गुजरना होता है । वह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता । यह बीमारी उसकी कई पीढ़ियों को प्रभावित करने में सक्षम है।

 

चूंकि इस बीमारी की सही समय पर पहचान करना मनुष्य के लिए बहुत मुश्किल होता है। जिससे निश्चित समय अवधि में रोग का निदान नहीं हो पाता। जिससे मनुष्य असहाय स्थिति में चला जाता है।

 

लेकिन हमें मनुष्य की जिजीविषा और अनुसंधान वृत्ति पर  यकीन करना चाहिए कि भविष्य में भयानक से भयानक बीमारियों से निवारण की पद्धत को अवश्य खोज लेगा।

आजादी के हीरक जयंती काल में भारतीय समाज  सांप्रदायिक फासीवाद के असाध्य रोग से ग्रसित होगया है। इसके विध्वंसक प्रभाव  हमारे सामाजिक ताने-बाने और  नागरिकों के जीवन में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है।

 

फासीवाद की विकास यात्रा के  काल में सांप्रदायिक फासीवाद ने ब्रिटिश उपनिवेश वादियों से अपने को सुरक्षित रखा। आजादी के लिए चले आंदोलन में  जब भी  ब्रिटिश हुकूमत संकट में घिरती थी तो हिंदुत्व के विचारक खुले या छुपे मदद देकर अपनी अंग्रेज-भक्ति प्रकट करते रहे हैं।

 

साथ ही गोरे मालिकों और रियासतों के राजाओं, महाराजाओं के संरक्षण में पलते हुए अपने को मजबूत करते रहे।

धर्म और संस्कृति के सबसे सरल और प्रचलित परंपराओं विचारों को आगे करते हुए  पूंजी की गुलामी के सभी विचारों को अपने अंदर समेटे हुए लगातार समाज के विभिन्न  तबको में अपनी घुसपैठ कराने की कोशिश में मसगूल रहे।

इस प्रकार सत्ताधारी वर्गों के संरक्षण में सांप्रदायिक फासीवाद ने आधुनिक जीवन के सभी संस्थानों में अपनी पकड़ मजबूत कर ली।

कांग्रेस नेतृत्व में काशी से पुणे तक फैले हुए हिंदुत्ववादी  नेताओं के संरक्षण और सहयोग से विस्तार और विकास की अग्रगति बनाए रखे। जब भी अपने विध्वंसक और हिंसक कारनामों के चलते संकट  आया तुरंत इन्होंने माफीनामा देते हुए लंबी-लंबी कसमें खायीं और झुकते हुए संकट से निकल गए।

इस तरह सांप्रदायिक फासीवाद की विकास यात्रा विभिन्न चरणों से गुजरते हुए 1990 के विध्वंसक काल में प्रवेश की।

 

संघ द्वारा वैचारिक धरातल पर खड़े किए गये शिक्षण संस्थानों, चलने वाली शाखाओं और बड़े पूंजीपतियों के सहयोग से हिंदू भारत के विमर्श को लगातार भारतीय युवा के मानस में प्रतिस्थापित किया गया।

राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस पार्टी का सांगठनिक वैचारिक ढांचा और वर्ग आधार इनके साथ मेल खाता था।

इसलिए गांधी जी की हत्या से लेकर गौ रक्षा आंदोलन और बाबरी मस्जिद विध्वंस तक की यात्रा में कांग्रेस ने इनके खिलाफ कोई कड़ा और निर्णायक कदम नहीं उठाया।

इस सुविधाजनक स्थिति में रहते हुए 21वीं सदी शुरू होते-होते संघ नीत भाजपा कारपोरेटजगत की लाडली पार्टी बन गई।

जिस कारण गुजरात जन संहार जैसी  घटनाओं के बाद भी कांग्रेस कोई निर्णायक प्रहार करने में अक्षम‌ हो गई और अंततोगत्वा आत्मसमर्पण कर दी।

 

1990 के दशक में चले राम मंदिर आंदोलन को भारतीय राष्ट्र के गौरव सनातन संस्कृति के उत्थान के साथ जोड़ दिया गया।

इसने अध कचरे नौजवानों को गहराई से प्रभावित किया । जिससे सवर्ण और कुछ संपन्न पिछड़ी जातियों से आए लोअर इनकम ग्रुप के दिशाहीन बेरोजगार नौजवानों की भारी तादाद संघ भाजपा के प्रभाव  में आ गई।

 

बीपी सिंह की जनता दल सरकार द्वारा मंडल कमीशन की रिपोर्ट  लागू करने के फैसले ने  संघ भाजपा को एक अवसर दे दिया और संघ प्रायोजित आरक्षण विरोधी उन्माद देश के सर पर चढ़कर बोलने लगा।

जिन्होने 1990 से 92 तक के राम मंदिर आंदोलन और बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान युवाओं की भूमिका को देखा है वह  समझ सकते हैं कि भारत अब वैज्ञानिक और औद्योगिक तकनीकी विकास के रास्ते से हट चुका था।

यह दौर विश्व आइटी क्रान्ति का दौर है। इस दौर के प्रथम चरण में ऐसा लगा कि भारत आईटी क्रान्ति का अग्रणी केंद्र बनेगा।

लेकिन कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के ठोस आकार ग्रहण करते ही भारतीय गणराज्य व बहुलता विरोधी षड्यंत्र के तहत  युवाओं के हाथ में त्रिशूल, तलवार, छुरा और धर्म ध्वजा पकड़ा दी गई थी। जिस कारण से हमारा देश औद्योगिक क्रान्ति  के दरवाजे तक पहुंच कर वापस लौट आया।

समाज शास्त्रियों के विश्लेषण के अनुसार  90 तक भारत में हुए विकास के कारण  नागरिकों का स्वास्थ उम्र और जीवन स्तर उन्नत हुआ था। जिस कारण से भारतीय समाज में एक आत्मविश्वास बना था ।

इस समृद्धि से तकनीकी वैज्ञानिक दक्षता युक्त युवाओं की फौज तैयार हुई थी।

एक समाजशास्त्रीय आंकलन के अनुसार भारत में युवा ऊभार का दौर 1995 से शुरू होना था और  2035 तक चलना था।

यही वह समय था जब भारत अपनी युवा शक्ति को सही ढंग से प्रशिक्षित कर सही‌ ढंग नियोजित करता तो तकनीकी वैज्ञानिक रूप से बड़ी औद्योगिक महाशक्ति बन सकता था ।

लेकिन वैश्विक पूंजी के दबाव और भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के उभार से भारत की विराट संभावना को ग्रहण लग गया।

यह वह दौर है जब भारत के नौजवानों के हाथ में कंप्यूटर और लैपटॉप होना चाहिए था। किताबे होनी चाहिए थी ।तकनीकी औजार और मशीनें होनी चाहिए थी।

उन्हें जागरण मंच में महीनों अपना समय बर्बाद करने की जगह प्रयोगशालाओं में होना चाहिए था। तकनीकी प्रशिक्षण केंद्रों में समय गुजारना था और हुनर विज्ञान कला में दक्ष होना था ।

 

लेकिन उन्हें भजन कीर्तन करने दर्जनों किस्म के देवी देवताओं के जागरण के काम में लगा दिया गया।

मंदिर आंदोलन के विपरीत चले मंडल आंदोलन ने भी पलट कर इसी तरह के परिणाम दिए। अस्मिताओं के उभार से पिछड़ी और दलित जातियों में मध्यवर्ती नेतृत्व उभर कर सामने आया।

लेकिन दूरगामी लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य और प्रतिबद्धता के अभाव के कारण  नेताओं के महिमामंडन और काल्पनिक अतीत के गौरव गान तथा अतीत के किसी दौर से नायकों की खोज तक जाते जाते इस ऊभार ने दम तोड़ दिया।

यह सम्पूर्ण  विमर्श सुसंगत लोकतांत्रिक दिशा के अभाव में सत्ता में हिस्सेदारी तक सिमट के रह गया। इसलिए कारपोरेट संप्रदायिक गठजोड़ के ठोस आकार लेते ही भाजपा को इन्हें पचा लेने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

पहचान वादी राजनीति लोकतंत्र का कोई नया संस्करण तैयार न कर पाने के कारण अब संतृप्ता अवस्था में पहुंच गई है।

हमारे देश में शिक्षा सत्र जुलाई के महीने से शुरू होकर अगस्त में  गति पकड़ता है। लेकिन संघ और भाजपा ने सबसे महत्वपूर्ण समय में नौजवानों को कांवरियों के भेष में महीने भरके लिए सड़कों पर उतार दिया।

भारत के व्यापारी फेस्टिवल सीजन के नाम पर प्रसन्न होते हैं। उनका मानना है कि इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलती है और बाजार में तेजी आती है। यह सीजन अगस्त से शुरू होकर नवंबर के मध्य तक चलता है। यही भारतीय युवाओं के लिए पढ़ने लिखने विद्यालयों में नियमित जाने का समय  है।

लेकिन दर्जनों त्योहारों, जागरणों को सत्ता समर्थक प्रचार तंत्र द्वारा महिमामंडित किया जाता है। सांस्कृतिक उत्सवों का महिमामंडन करके युवा वर्ग के भविष्य के साथ विश्वासघात कौन  कर रहा है।

उत्सवों और यात्राओं में फूलों की वर्षा कर भारत के युवाओं के साथ किए जा रहे विश्वासघात को छुपाने की कोशिश की जा रही है।

दुर्भाग्य है कि भारतीय उच्च मध्य वर्ग भी वैचारिक रूप से अब अवैज्ञानिक और अतार्किक पतनशील विचार के प्रभाव में आकंठ डूबा है। उसके सरोकारों में हो रहे लोकतांत्रिक मूल्यों के  विध्वंस की कोई चिंता दिखाई नहीं देती।

जिस कारण से आज भारतीय युवा लगभग दो विपरीत ध्रुवों में विभाजित हो गया है।

एक आधुनिक तकनीकी ज्ञान में दक्ष युवा वर्ग है।  जो अलगाव, अवसाद और बेरोजगारी के संकट से गुजर रहा है।

वह हुड़दंग और कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए भगवा रंग में ढके, पले युवाओं का हुजूम देख रहा है। दूसरी तरफ अपने भविष्य के लिए चिंतित है।

उसके लिए भारत में कोई जगह नहीं बची है। आज सरकारों की प्राथमिकताएं बदल गई हैं, गौ रक्षा से लेकर धर्म रक्षा उनके एजेंडे में पहले नंबर पर है।

शिक्षा पर बजट घटाया जा रहा है और मंदिरों, धार्मिक आयोजनों को तरजीह दी जा रही है।

यूजीसी ने भारत के 10 प्रमुख विश्विविद्यालयों में से एक एएमयू के बजट को ₹64 करोड़ से घटाकर 9 करोड़ कर दिया गया है।

आईआईटी में 4600 पद शिक्षकों के खाली पड़े हैं।  करीब डेढ़ लाख शिक्षकों की भर्ती उच्च शिक्षा के क्षेत्र में होनी है।

शिक्षा क्षेत्र में निजीकरण की आंधी चल रही है। सवा लाख से ऊपर शिक्षकों की संख्या निजी विद्यालयों में बढ़ गई है और सरकारी संस्थानों में अध्यापकों की संख्या लगातार घट रही है।

यह दिखाता है कि युवाओं के भविष्य के प्रति सरकार का नजरिया क्या है?

आजादी के तथाकथित अमृत काल में रोजगार मांग रहे छात्रों और अग्निपथ का विरोध कर रहे नौजवानों के ऊपर जो बर्बरता हुई है। उसने दिखा दिया है कि भारत युवाओं के लिए कठिन देश होता जा रहा है।

हाल ही में सरकार द्वारा दिए गए आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष अपनी मातृभूमि को छोड़कर व विदेशों की नागरिकता लेने वालों की बाढ़ सी आ गई है।

स्पष्टत: भारत को इस दशा में ले जाने के लिए हिंदुत्ववादी राजनीति सीधे तौर पर जिम्मेदार है।

बीजेपी ने आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन लोकतांत्रिक जीवन प्रणाली और समतामूलक समाज के विपरीत काम करते हुए भारत को कारपोरेट लूट के सबसे मुफीद देशों की कतार में ला दिया है।

जिससे भारतीय युवाओं का भविष्य अंधकार में तो चला ही गया है और भारत के अब वैश्विक आधुनिक विकसित देश बनने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गई है।

अगर हम एक वाक्य में कहें तो हिंदुत्व के उभार के साथ-साथ भारत के विकास की यात्रा  दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी है।

हमारी प्रिय मातृभूमि के युवा स्वतंत्रता के हीरक वर्ष तक आते-आते अंधी गली की तरफ  ढकेल दिए गये हैं। जहां से आगे का रास्ता बहुत कठिन है!

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