(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)
एक लड़ाई, इंटर की पढ़ाई
जैसे तैसे समय बीतता गया और मेरी शादी तय हो गई। शादी के बाद एक बार फिर इंटर करने की बात चली। रामजी राय कहे कि आगे आप को पढ़ना हो तो फार्म भर दीजिएगा। फिर वो इलाहाबाद चले गए। जाते समय घर में जेठ (अपने बड़े भाई) से बोल दिए थे कि मीना का इंटर का फार्म भरवा लीजिएगा या उसको इस काम के लिए मायके जाने दीजिएगा। शादी के बाद ससुराल से पढ़ने की हरी झंडी मिलते ही मैंने स्कूल के प्रिंसिपल को पत्र लिखा कि -सर मेरे ससुराल वालों ने मुझे आगे की पढ़ाई करने का परमीशन दे दिया है। आप मेरा सहयोग कर दीजिए। आप मेरे पिताजी को फार्म देकर भरवा लीजिएगा तथा फार्म जमा करने की अंतिम तिथि भी उनको बता दीजिएगा। इधर पिताजी को भी पत्र लिख दिए कि नन्हें को भेज दीजिए, उसी के साथ मैं गाजीपुर जाकर फोटो खिंचवाते हुए आ जाऊंगी और फार्म की बाकी कार्यवाही पूरा कर जमा कर दूंगी। फार्म समय से भर कर जमा हो गया। फिर किताब कापी खरीदकर ससुराल आ गई। वैसे ही पढ़ने का टाइम कम मिलता था। माताजी ( सास ) ने कहा कि शाम में खाना बनाकर तुम पढ़ने बैठ जाया करो। लोगों को खिलाने का काम बाकी लोग कर लेंगे। मैं खाना बनाकर पढ़ने तो बैठ जाती, लेकिन कभी कोई लालटेन ही उठा ले जाता, तो कभी कोई खाना खाने आ जाय तो बुलाने लगते कि इनको खाना दे दो बड़की जनी बहरी ओर (खेत में शौच करने) गई हैं। कुल मिलाकर पढ़ाई न के बराबर होती थी। माताजी चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पा रही थीं। कभी इसके लिए बोल भी देती थीं तो घर में पढ़ाई को लेकर ही लड़ाई होने लगती थी। रामजी राय से भी ये सब नहीं बताते थे कि फिर न कोई बात हो जाए। दशहरे में गांव गए तो नई लालटेन ले आए कि अब कोई लालटेन नहीं ले जाएगा। लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। कभी पुरानी लालटेन की बत्ती खतम है, तो कभी तेल, तो कभी भभकने के कारण मेरी लालटेन चली जाती। दिन में भी नाश्ता, खाना बनाने के बाद दोपहर में थोड़ा टाइम मिलता तो थकान के कारण नींद भी आ जाती थी। फिर भी कुछ पढ़ाई हो जाती थी। वैसे ये मेरे साथ ही नहीं हो रहा था। उस समय औरतों की पढ़ाई उसमें भी बहुओं की पढ़ाई के प्रति समाज की सोच ही यही थी। एक दो घर ही शायद रहे हों जो बहुओं को ऐसा माहौल देते हों कि वे आगे पढ़ सकें। खैर, मैं तो मायके में भी पढ़ाई को लेकर झेल चुकी थी, भले रूप दूसरा था। करते -करते दिसम्बर आ गया। रामजी राय इलाहाबाद से घर आए हुए थे। मेरी पढ़ाई की स्थिति मोहन (हमारे चचेरे बड़े जेठ के लड़के) देखते ही रहते थे। मोहन ने रामजी राय से कहा कि- चाचा, अगर आप चाची को पढ़ाना चाहते हैं तो उनको परीक्षा तक के लिए मायके भेज दीजिए, क्योंकि यहां रहकर जो पढ़ाई हो रही है उससे उनका पास होना मुश्किल है। उस समय मैं प्रेग्नेंट भी थी। माताजी से बात करके रामजी राय मुझे मायके छोड़ आए।
रिजल्ट आ गया और मैं द्वितीय श्रेणी से पास हो गई थी। ये नहीं याद आ रहा कि समता के होने के बाद रिजल्ट आया या पहले आया था खैर…। दो जून को मां पूरी तैयारी से मुझे गाजीपुर हॉस्पिटल लेकर गई। वहां डाक्टर को दिखाया गया। डाक्टर ने कहा सब ठीक है। जब दर्द शुरू हो, तब लेकर आइएगा। उस समय हमारे छोटे वाले ननदोई गजानंद जीजा और रामजी राय के मामा का लड़का कमला राय साझे में गाजीपुर में ही कोयले की दुकान चला रहे थे। माताजी भी वहां आई हुई थीं। वहीं पर हम लोग खाना खाए और रुकने के लिए पास ही में एक कमरा लेकर रुके थे। कमरे के बाहर खुली छत थी। अगले दिन रात में माताजी भी हम लोग के साथ ही रुकीं। माताजी चलती फिरती मिडवाइफ थीं। सुबह दुकान पर जाते समय मुझे देखकर मां से बोलीं कि आज हॉस्पिटल जाना पड़ सकता है। उनके जाने के थोड़ी देर बाद ही लेबर पेन शुरु हो गया। मां मुझे हास्पीटल लेकर गई। दिन भर दर्द झेलते रहे। दिन भर मां यहां से वहां दौड़ती रही। 4 जून 1977 को शाम सात बजे समता हुई। अब गांव में उस समय कोई टेस्ट वगैरह तो होता नहीं था। सीधे पेन होने पर लोग अस्पताल चले जाते थे और डिलीवरी हो जाती थी। वो तो अंकुर के समय जब इलाहाबाद में डाक्टर ने टेस्ट के बाद बताया कि आपका आर एच निगेटिव है। आप का पहला बच्चा हुआ था तो आर एच निगेटिव संबंधी कोई इंजेक्शन आपको लगाया गया था? समता के समय तो कोई टेस्ट ही नहीं हुआ था। न ही कोई इंजेक्शन लगा था।
लड़कियों की जिन्दगी बहुत कठिन होती है। कहते हैं लोग कि शादी के बाद लड़कियों की दो मां हो जाती हैं। जब कि होता ये है कि एक भी मां नहीं रह जाती। शादी के बाद अपनी ही मां से हम अपनी दिक्कत नहीं बता सकते। क्योंकि वह मुझे लेकर चिन्तित रहेगी। मायके में ससुराल की कमी नहीं बता सकती और न ससुराल में मायके की। परिस्थिति अनुसार खुद को ही मजबूत बनाना पड़ता है। समाज पितृसत्तातमक है। पति न सर्विस करे तो ससुराल में आपका कोई महत्व नहीं है, भले बहू सर्विस करे। मेरे ससुराल में आज तक मुझे एक कमरा नहीं मिला जिसे मैं अपना कमरा कह सकूं। कभी अपना घर महसूस ही नहीं होने दिया इन लोगों ने। बहुत पहले ( तब सास भी थीं अभी ) एक बार मैंने जरूरत के कुछ सामान (मैक्सी, अपना तथा बच्चों का चप्पल, गमछा और ओढ़ने का चादर), जो हर बार घर जाते समय मुझे ले जाना पड़ता था, उसे एक कमरे में दीवार में बनी निहायत एक छोटी सी आलमारी में रख कर ताला बंद कर दिया था। मेरे चले जाने के बाद मेरे जेठ का लड़का गुड्डू उस आलमारी में लगे ताले को तोड़ कर उसमें का सामान निकाल दिया था। दुबारा घर गए तो पता चला मेरा एक भी सामान उसमें नहीं है। मैंने रामजी राय से कहा। उन्होंने भी उस समय कह दिया कि ठीक हुआ, ताला क्यों बंद की थीं? ये ताला बंद करने का प्रतिरोध है। (आज जेठ की बहुएं अपने-अपने कमरों में ताला बंद करतीं हैं, अब कोई उनका ताला तोड़ के देखे) मैंने रामजी राय से कहा कि ठीक है। मेरा सामान तो मिलना चाहिए। मैं रामजी राय से कितनी बार कहा कि कमरे न होते तो कोई बात नहीं, अब तो सात-आठ कमरे हैं, एक कमरा मुझे चाहिए। लेकिन न कोई ज़बाब दिए न घर में इसके लिए कोई बात किए। मैंने सास, जेठ, जिठानी यहां तक कि बहुओं से भी बात की कि तुम लोगों को तो ये समझना चाहिए कि ससुराल में अपने कमरे का क्या महत्व होता है। ससुराल में चाहे जितना काम करें, आधा घंटा भी अपने कमरे में आराम कर लेने से थकान दूर हो जाती है। किसी ने मेरी बात नहीं सुनी। मेरा मानना है कि रामजी राय के न बोलने के कारण आज तक मुझे कमरा नहीं मिल पाया। सास, ससुर, जेठ, जिठानी सब गुजर गए लेकिन अभी भी मुझे कोई कमरा नहीं मिला है। कितनी बार अपनी बात रखे, लेकिन औरतों की बात सुनता ही कौन है। जबकि रामजी राय की सोच तो ऐसी नहीं है, फिर घर में पता नहीं क्यों नहीं बोलते। घर जाने पर मुझे इधर उधर ही सोना पड़ता है, कभी बरामदे में तो कभी कहीं तो कभी छोटे वाले जेठ के घर। यहां तक कि मेरे शादी का बेड भी जेठ की बीच वाली बहू अपने कमरे में रख ली है। ऐसे में घर जाने का क्या मन करेगा। माता जी के गुजर जाने के बाद अपने हिस्से के लिए बात करने के लिए रामजी राय से कहने पर कहने लगे, भइया हमको पढ़ाए हैं। भइया, भाभी के गुजर जाने पर कहने लगे, भतीजे बेइमान नहीं हैं। गुस्से में मैंने रामजी राय को एक बार बहुत कड़ा बोल दिया कि क्या पूरा खानदान गुजर जाएगा तब बात करिएगा क्या, और बात करने के लिए हम लोग बचे रहेंगे। इसको लेकर कई बार रामजी राय से मेरी बहस हो चुकी। अंकुर, समता भी कहे कि छोड़ दो, जो उनका मन करे करने दो। समझ में नहीं आता कि दूसरों को हक दिलाने की राजनीति करने वाले रामजी राय अपने घर में अपने हक के लिए आखिर क्यों नहीं बोल पाते।