समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

बहुजन का नया संस्करण और दलित राजनीति का असमंजस

आर. राम

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सीधे सीधे दो ध्रुवों के बीच की लड़ाई के रूप में सामने आ चुका है जिसे राजनीतिक दल 80-20 और 15-85 के सामाजिक फार्मूले के हिसाब से परिभाषित करने और नारा गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा के मुस्लिम विरोध पर आधारित हिंदू एकता और गैर जाटव, गैर यादव गोलबंदी के सफल समीकरण के खिलाफ पिछड़ा, दलित, मुस्लिम समीकरण को साध कर भाजपा को चुनाव में रोकने की कोशिश हो रही है। आज एक नये सिरे से बहुजन संकल्पना निर्मित करने की कोशिश हो रही है जिसमें पिछड़े और दलित जाति के नेताओं व उनकी पार्टियों को गोलबंद कर व्यापक बहुजन एकता बन सके।

लेकिन यह एक विडंबना ही है कि अस्सी और नब्बे के दशक में कांशीराम ने जिस जाति की ताकत और संख्या बल को आधार बनाकर ‘बहुजन’ अवधारणा को निर्मित किया था आज वह जाति यानी जाटव या चमार जाति इस बहुजन एकता के दायरे से बाहर हो गई है या मान ली गई है। पिछले तीन दशक में पहली बार ऐसा होगा कि उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी संख्या वाली दलित जाति चुनावी राजनीति के केंद्र से निर्वासित होकर हाशिये की ताकत बन गई है।
1990 के बाद हर चुनाव में अपनी नेता बहन मायावती को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनाने के नारे के साथ चुनाव मे ‘स्वर्गारोहण’ करने को तैयार रहने वाली जाति का जनमत आज असमंजस में है। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की रहस्यमयी चुप्पी और भीम आर्मी और आज़ाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर के हताश आंसुओं ने उनके सामने नेतृत्वविहीनता की स्थिति पैदा कर दी है।
मायावती की निष्क्रियता और भाजपा के सामने उनका समर्पण अब पुरानी और स्थापित बात साबित हो चुकी है, लेकिन इसके बावजूद उनके आधार वोट का बहुसंख्यक हिस्सा उनके साथ ही बना हुआ है। जातीय पहचान की राजनीति का एक मुख्य आधार है अपनी जाति के नेता की मसीहाई पर अगाध भरोसा ! यहाँ समूची जाति की अस्मिता उसके नेता के अंदर समाहित हो जाती है और इस तरह  का अपनी जाति के वोटों का ठेकेदार हो जाता है, उन वोटों के बल पर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी की गारंटी करना चाहता है। यह स्थिति जाति के नाम पर बनी हर पार्टी की है। मायावती जी चूंकि चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं शायद इसलिए अब उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी की भी ज्यादा चिंता नहीं है। न वे उसके लिए परेशान होना जरूरी समझती हैं। उनका राजनैतिक और सांगठनिक लक्ष्य और रणनीति क्या है यह शायद भविष्य में ही पता चले।
    भीम आर्मी चीफ और आजाद समाज पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन का युवा व जोशीला चेहरा माने जाने वाले चंद्रशेखर रावण ने  समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के साथ गठबन्धन करने और अपने लिए ज्यादा सीटों की मांग को लेकर जो स्टैंड लिया उससे भी दलित नेतृत्व की दयनीय हालत खुलकर सामने आ गई। चंद्रशेखर की छवि एक दमदार, रौबदार दलित युवा नेता की रही है, लेकिन जिस तरह प्रेस के सामने उन्होंने आँसू बहाये, उसने उनकी अपनी छवि को तो कमजोर बनाया ही, साथ-साथ उनके जनाधार और उनकी अपनी जाति के आत्मविश्वास को भी कमजोर किया।
चंद्रशेखर की एक आंदोलनकारी के रूप में अच्छी साख है लेकिन एक राजनैतिक पार्टी के नेता के रूप में उन्होंने बेहद अपरिपक्वता का परिचय दिया है। चंद्रशेखर बार-बार कांशीराम को अपना आदर्श बताते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कांशीराम से संगठन और राजनीति के मामले में उन्होंने कुछ नहीं सीखा। कांशीराम ने बसपा की स्थापना के लिए जिस तरह मेहनत की, एक बहुस्तरीय और मजबूत संगठन बनाया, उसका एक छोटा सा अंश भी चंद्रशेखर के प्रयासों मे नहीं दिखता।
ऐसा लगता है जैसे आजाद समाज पार्टी का गठन बेमन से जल्दबाजी में किया गया गया है। पार्टी गठन के बाद उसके विस्तार, सांगठनिक ढांचे को मजबूत बनाने और राजनैतिक मुद्दों पर मजबूत स्टैंड लेने के मामले मे चंद्रशेखर का रवैया लापरवाही भरा ही रहा है। बिहार के चुनाव में पप्पू यादव की पार्टी के साथ इनका गठबंधन भी एक अपरिपक्व फैसला ही था। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव में उन्हें शायद गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। बसपा के समानांतर आजाद समाज पार्टी कोई उल्लेखनीय ताकत नहीं बन पायी है, यह एक हकीकत है।
सवाल है कि उत्तर प्रदेश के दलित राजनीति में नेतृत्व का ऐसा संकट और जनाधार में ऊहापोह की स्थिति पैदा क्यों हुई? मेरी समझ में इसका कारण बहुजन अवधारणा के अंदर ही मौजूद है। जाति की अस्मिता के नाम पर जातियों को जोड़ कर बनाई गई एकता कभी भी स्थायी नहीं रह सकती। कांशीराम पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक एकता के आधार पर बहुजन का स्वरूप गढ़ने की बात करते थे, उसमें लोकप्रिय तरीके से 600 जातियों को जोड़ने की बात करते थे। बसपा के गठन में भी उन्होंने लगभग सभी दलित और पिछड़ी जाति के नेताओं को साथ लिया। इस एकता के पीछे ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी ‘ का सीधा सा गणित था। इस गणित में सभी जातियों और उनके नेताओं के हितों को सुनिश्चित करने का वायदा किया गया था लेकिन सत्ता में आने के बाद और संगठन के विस्तार के साथ ही नेताओं का आपसी अंतर्विरोध उभरने लगा, जो नेताओं के आपसी अंतर्विरोध से ज्यादा जातियों का आपसी हिस्सेदारी का अंतर्विरोध था।
डॉ. अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को graded inequality यानि  स्तरीकृत असमानता  कहा है। यानी हर जाति खुद को किसी न किसी दूसरी जाति या जातियों से बड़ा समझती है। वर्ण व्यवस्था के चार पायदान हैं और हर पायदान पर जातियों का आपस में वर्चस्व और श्रेष्ठता का संघर्ष कायम है। इसीलिए बहुजन विचारधारा में भी यह संघर्ष शुरू हो गया। धीरे-धीरे अलग अलग जातियों के नेता अपनी अपनी जाति की पार्टियां बना कर अलग हो गए और और बहुजन के नाम पर सिर्फ एक दलित जाति बची। इसी प्रक्रिया में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल, निषाद पार्टी, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी, महान दल जैसी दर्जनों पार्टियां अस्तित्व में आईं। जिनका सीधा संघर्ष मनुवाद या जातिवाद से नहीं बल्कि सत्ता में हिस्सेदारी पा रही बड़ी संख्या वाली दलित और पिछड़ी जातियों से था।
 यही हाल मंडलवादी विचारधारा का हुआ। उत्तर प्रदेश में यादव वर्चस्व के सवाल पर दूसरी पिछड़ी जातियों ने खुद को मंडल राजनीति से अलग कर लिया और अपनी अपनी पार्टियां बना कर सत्ता में हिस्सेदारी का उपाय करने लगीं। ऐसे में विचारधारा, वर्ण व्यवस्था विरोध, बहुजनवाद इसका कोई मतलब नहीं रह गया, इस राजनीति की सिर्फ एक ही विचारधारा है- अवसरवाद ! इसके लिए भाजपा, उसकी विचारधारा और उसके दूरगामी लक्ष्य से किसी को कोई लेना देना नहीं होता। भाजपा के साथ अपनी जगह पक्की करने के लिए अगर सांप्रदायिक भी होना पड़े तो वह भी स्वीकार है। इस प्रक्रिया में उनके अपने जनाधार को संघ और भाजपा ने मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक जहर पिला कर अपना जनाधार बना लिया, यह उन्हें पता भी नही चला।
पिछले 20-25 सालों में बहुजन राजनीति की यही कार्यनीति रही है लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिदृश्य में परिस्थिति कुछ ऐसी बनी है कि भाजपा के व्यापक हिंदू एकता के खिलाफ पिछड़ी, दलित जातियों और मुस्लिम अल्पसंख्यक एकता ही भाजपा को रोक सकती है, लिहाजा बहुजन की एकता एक बिल्कुल नये संस्करण के साथ नई गोलबंदी की कोशिश जारी है। इस बार इस गोलबंदी के केंद्र में समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव हैं।
समाजवादी पार्टी के साथ दलितों का रिश्ता कभी भी भरोसे वाला नहीं रहा है। सपा के शासन में भी दलितों पर आत्याचार होते रहे हैं, इसमें नई बात यह होती है कि अत्याचार करने वालों में यादव जाति की संख्या बढ़ जाती है। उत्तर प्रदेश में सरकारी विभागों में प्रमोशन में आरक्षण, जिसे मायावती ने लागू किया था, को खत्म कर अखिलेश ने भी सवर्ण जातियों को संदेश देने की कोशिश की थी। इस निर्णय के चलते सैकडों दलित अधिकारियों, कर्मचारियों को रातों रात डिमोट करके अपमानित भी किया गया। लेकिन तब तक सवर्णों की पहली पसंद भाजपा अभूतपूर्व रूप से ताकतवर होकर सामने आ चुकी थी, इसलिए अखिलेश के संदेश को उन्होंने कोई खास तवज्जो नहीं दी।
भाजपा की गैर जाटव, गैर यादव जातीय गोलबंदी और हिंदू एकता के सहारे पैदा हुई राजनैतिक बढ़त ने सपा को बहुजन राजनीति की और लौटने को मजबूर कर दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा – बसपा का गठबंधन इसी दिशा में एक प्रयास था लेकिन यह प्रयोग काफी हद तक असफल रहा और एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करके मायावती और अखिलेश ने अपने रास्ते अलग कर लिए।
 इस चुनाव में खासकर पिछड़ी जातियों के छोटे बड़े दल आपस में मिल कर भाजपा को रोकने की तैयारी में हैं, सबको यह उम्मीद है कि दलितों का भाजपा विरोधी वोट स्वत: ही उनके पास आ जायेगा इसलिए वे बसपा की ओर से विशेष चिंतित नहीं हैं। लेकिन चंद्रशेखर के साथ सपा के तालमेल की बात न बन पाने के कारण निश्चित तौर पर एक अप्रिय स्थिति पैदा हुई है जो गठबंधन के लिए ठीक नहीं है। इस स्थिति से गठबंधन कैसे बाहर निकलता है यह देखना महत्वपूर्ण होगा।

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