जयप्रकाश नारायण
भारतीय समाज का यथार्थ खोजता किसान आंदोलन
किसान आंदोलन की राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1947 के पहले किसान आंदोलन के दो प्रमुख मुद्दे थे।
पहला, जमीदारी का विनाश। दूसरा, राजे-रजवाड़ों के क्षेत्र में राजशाही के वर्चस्व और उत्पीड़न का खात्मा।
जमीदारी, हरी-बेगारी और रियाया पर होने वाले जुल्मों और राजस्व वसूली के मध्ययुगीन बर्बरता के तरीकों का, जिसके बारे में स्वामी सहजानंद जी ने गया के किसानों की करुण कहानी, नामक अपनी पुस्तिका में जिक्र किया है।
उस पुस्तिका में 54 प्रकार के टैक्स की चर्चा की गयी है, जो प्रजा और ग्रामीण गरीबों से वसूले जाते थे।
आजादी के पहले और आजादी के बाद ’70 के दशक तक किसान आंदोलन के यही मूल मुद्दे हुआ करते थे।
हरित क्रांति के भारतीय कृषि में प्रवेश होने के बाद कृषक समाज की संरचना में धीमी गति से ही सही, लेकिन परिवर्तन शुरू हुआ।
जमीदारी उन्मूलन के बाद बहुत थोड़ी भूमि का हस्तांतरण प्रजा जातियों में हुआ था, जो अधिकतर पिछड़ी जातियों से आते थे। जिन्हें कृषक जातियां भी कहा जा सकता है।
हरित क्रांति ने जब कृषि में उत्पादकता को आवेग दिया, तो इन्हीं कृषक जातियों को सबसे ज्यादा लाभ मिला। क्योंकि, ये श्रम प्रधान और परिश्रमी किसान जातियां थीं।
’80 के दशक के मध्य आते-आते हरित क्रांति ठहर गयी और अपना आवेग खो बैठी। जिससे कृषि क्षेत्र संकटग्रस्त हो गया।
हरित क्रांति के संकटग्रस्त होते ही, भारत में किसान आंदोलन की एक नयी धारा अस्तित्व में आयी।
इस आंदोलन की धारा का मूल सामाजिक आधार वे जातियां थीं, जो हरित क्रांति और जमीदारी उन्मूलन से लाभान्वित हुई थीं।
योजनाबद्ध विकास, जिसमें सिंचाई के साधन, बिजली और कृषि के नये औजारों में आये गुणात्मक विकास ने सामाजिक उद्वेलन और जागरण पैदा किया। जो, लोकतांत्रिक संस्थाओं के साथ संयुक्त होकर इन जातियों को सामाजिक, आर्थिक रूप से सशक्त भी बना रहा था।
जिस कारण इनकी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दावेदारी और सौदेबाजी की ताकत भी बढ़ चुकी थी।
’70 और ’80 के दशक में समाजवादियों ने पिछड़ी जातियों, जो मूलतः कृषक जातियां थीं, उनके लिए आर्थिक, राजनीतिक हिस्सेदारी के सवाल को राजनीतिक मुद्दे के स्तर तक उन्नत कर दिया था।
जनता पार्टी की सरकार आने के बाद इन जातियों में भी सत्ता में हिस्सेदारी की एक प्रबल आकांक्षा दिखने लगी थी। इसलिए मंडल कमीशन के लिए एक राजनीतिक और सामाजिक वातावरण तैयार था।
उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार ने पिछड़ों को भी आरक्षण देने का राजनीतिक फैसला लेकर सामाजिक उद्वेलन को बहुत तेज कर दिया था।
संविधान निर्माण के समय ग्रामीण मजदूर, जो मूलतः दलित-आदिवासी जातियों से आते थे, उनको सामाजिक सुरक्षा और सम्मान देने तथा मुख्यधारा की राजनीति और समाज में प्रवेश करने का दरवाजा खोलने के लिए आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान किया गया था। जो आज भी उच्च जातियों से लेकर पिछड़ी जातियों तक आपसी टकराव और विभेद का बड़ा कारण बना हुआ है।
दुनिया में सभी राष्ट्र-राज्य, जो लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य कहलाने का दावा करते हैं, वह समाज के सबसे कमजोर वर्गों के लिए, उनको समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए, सामाजिक स्तर पर बराबरी और सम्मान दिलाने के लिए विशेष संवैधानिक संरक्षण देने का तरीका अख्तियार करते हैं।
इसी उद्देश्य से सबसे कमजोर और कृषि से जुड़ी हुई मजदूर और भूमिहीन जातियां, जो जमीदारी उन्मूलन के बाद भी जमीन के हस्तांतरण से किसी भी तरह से लाभान्वित नहीं हुई थी; उनके लिए आरक्षण थोड़ा राहत देने वाला कदम था।
लेकिन, वर्चस्वशाली जातियों ने इस सवाल को योग्यता, कानूनी समानता और भेदभावमूलक प्रावधान प्रचारित कर सामाजिक तनाव पैदा करने और समाज की चेतना को प्रदूषित करने का अभियान चलाया।
जिसकी अगुवाई की कमान हिंदू महासभा और आरएसएस जैसी संस्थाओं ने ’50 के दशक से ही संभाली थी।
जिसके परिणाम आज हम दलितों के ऊपर तीखे हमलों और येन-केन-प्रकारेण आरक्षण की अवधारणा को कमजोर करने और धूर्ततापूर्वक निष्प्रभावी कर देने की कोशिशों में देख सकते हैं। खैर, इस पर फिर कभी।
अभी हम यह कहना चाहते हैं, कि हरित क्रांति के बाद ग्रामीण जीवन में आए बदलाव पूंजी के प्रसार और कृषक समाज के बाजार से जुड़ने तथा कृषि में औद्योगिक मालों की खपत ने भारत में किसान आंदोलन के लिए सर्वथा नये मंच तैयार कर दिए थे।
लेकिन, अभी भी ग्रामीण मजदूरों के लिए जमीन, आवास, सम्मान, रोजगार जैसे सवाल बदस्तूर मौजूद थे।
इसलिए, आमतौर पर वाम क्रांतिकारी धाराएं आजादी के दौर से चले आ रहे गरीबों के आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती रहीं।
उन्होंने हर समय ग्रामीण खेत मजदूरों, गरीबों और सीमांत किसानों के हितों का झंडा किसान आंदोलन के मंच पर उठाये रखा।
जब भी भारतीय समाज, आमतौर पर ग्रामीण कृषक समाज विशेषकर संकट में आया तो इस आंदोलन ने आगे बढ़कर ग्रामीण गरीबों के सत्ता और समाज में दावेदारी के सवाल को मजबूत आवाज में बुलंद किया।
भारतीय राज्य बड़े पूंजीपतियों, बड़े जमीदारों और नौकरशाहों के विदेशी पूंजी के साथ गठजोड़ से निर्मित हुआ है।
अब यह गठजोड़ भारतीय कृषि और समाज के सामने खड़े गंभीर संकट को हल कर पाने की आंतरिक ताकत खो बैठा है।
इसलिए व्यापक मेहनतकश, उत्पादक श्रमशील शक्तियों को भारतीय राज्य का निर्माण करने, संचालित करने और उसे कल्याणकारी लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य में बदलने का सवाल एजेंडे पर ले आने का किसान आंदोलन ने हर संभव प्रयास किया है।
इसलिए इस आंदोलन के साथ शासक-वर्गों का व्यवहार शत्रुतापूर्ण और आक्रामक रहा है।
लेकिन आजादी के बाद से लेकर आज तक यह आंदोलन दलितों, आदिवासियों, हाशिए पर पड़े हुए सामाजिक समूहों को उर्जा देता रहा है।
’80 के दशक के मध्य तक आते-आते किसान आंदोलन की दो मजबूत धाराएं भारतीय लोकतंत्र के रंगमंच पर अपनी भूमिका निभाने के लिए ऐतिहासिक रूप से तैयार हो चुकी थी।
धीरे-धीरे संसदीय जनतंत्र के विस्तृत राजनीतिक पटल पर भी ये दोनों किसान आंदोलन अपनी एक ताकतवर दावेदारी पेश करने लगे हैं।
भारत के विस्तृत कृषि क्षेत्र में फैले असंतोष तथा कारपोरेट-हिंदुत्व के गठजोड़ के हमलों के इस दौर में जो विराट और उत्साहवर्धक किसान आंदोलन चल रहा है, उसे हमारे समाज के अंतर्निहित संरचनात्मक ढांचे के अंतर्विरोध को हल करके ही आगे बढ़ना होगा।
उसे सामाजिक न्याय, सत्ता में दावेदारी तथा राष्ट्र-राज्य के बुनियादी चरित्र को बदल देने, पूंजी और श्रम के बीच के बुनियादी अंतर्विरोध को हल करने की दिशा में आगे बढ़ते हुए ही अपना रास्ता तलाशना होगा।
’80 के दशक में अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में विश्व पूंजीवाद विजय की तरफ अग्रसर था, तो उसनेे दुनिया में चल रहे श्रम और पूंजी के बीच के मूल विमर्श को बदल कर उसे धर्म और जाति तथा संस्कृति और सभ्यतागत पहचान के साथ जोड़ देने की नयी राजनीतिक परियोजना संचालित कर दी, जो भारत में मंडल और मंदिर के मुद्दे में ठोस रूप से संघनित हुई थी।
उन पर विस्तृत नजर डालते हुए आगे हम किसान आंदोलन के गतिविज्ञान को तलाशने की कोशिश करेंगे।
(अगली कड़ी में जारी)