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भारत चुनी हुयी तानाशाही के एक रूप की ओर बढ़ रहा है : जस्टिस ए पी शाह

रविवार को दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए0पी0 शाह ने एक चुभते वक्तव्य में कहा, ‘‘कोविड-19 महामारी के चलते संसद भूतों का शहर बन गयी है, न्यायपालिका ने हथियार डाल दिये हैं, दायित्व निर्धारण की प्रक्रिया क्षीण हो गयी है और केन्द्रीय कार्यपालिका सर्वशक्तिमान और अपनी मनमानी करने के लिये आजाद हो गयी है।’’

वह इस सप्ताह सैकड़ों नागरिक समाज समूहों द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित जनता संसद वेबिनार के उद्घाटन सत्र में बोल रहे थे।

न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि 23 मार्च को बजट सत्र को अनिश्चित काल के लिये स्थगित कर दिया गया, जबकि सच यह है कि पिछले कई संकटों के समय संसद अबाध रूप से चलती रही थी, इसमें 1962 और 1971 के युद्ध भी शामिल थे और जब इसकी अपनी इमारत पर 2001 में आतंकी हमला हुआ तो भी उसके अगले दिन संसद की बैठक हुयी थी। दूसरे तमाम देशों की संसदों में इस महामारी के दौर में या तो मिश्रित तरीके से या पूरी तरह आभासी रूप में लगातार काम चलता रहा और रिमोट मतदान के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया कि संसद की कार्यवाही जारी रहे।

इसके बरअक्स भारतीय संसद ‘‘मार्च 2020 से भूतों का शहर बन गयी है’’ न्यायमूर्ति शाह ने कहा। उन्होंने आगे कहा कि ‘‘इस महामारी जैसे संकटकाल में लोगों को नेतृत्व देने में असफल रहने के अलावा इसने कार्यपालिका को मनमानी करने के अधिकार देकर प्रतिनिधित्व और उत्तरदायित्व की समस्या को और गहरा कर दिया है। ऐसी स्थितियों में कार्यकारी उत्तरदायित्व सिर्फ याददाश्त में बची है क्योंकि उसके कार्यों पर सवाल खड़े करने वाला कोई नहीं है।’’

सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राॅय ने सरकार पर आरोप लगाते हुये कहा कि, ‘‘उसने इस अवसर का उपयोग सर्वाधिक अलोकतांत्रिक ढंग से अपनी नीतियों को आगे बढ़ाने में किया है।’’ उन्होंने उदाहरण के तौर पर संसद की सहमति के बिना ही श्रम कानूनों को कमजोर किये जाने, पर्यावरण संरक्षण की अनदेखी किये जाने और नयी शिक्षा नीति को थोप दिये जाने का जिक्र किया।

न्यायमूर्ति शाह ने इस दौर की आपातकाल से तुलना करते हुये और सर्वोच्च न्यायालय पर कुछ महत्वपूर्ण मामलों जैसे कश्मीर को तीन भागों में बाँटना, नागरिकता संशोधन कानून और चुनावी बांडों को टालते जाने या दरकिनार करने का आरोप लगाते हुये कहा ‘‘लगता है कि न्यायपालिका हमें एक बार फिर मायूस कर रही है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘कुछ मामलों, जैसे कि कश्मीर में इंटरनेट की पहुँच, में उच्चतम न्यायालय ने अपनी मध्यस्थ की भूमिका से हाथ खींच लिये हैं और इसके तय करने का पूरा जिम्मा कार्यपालिका की एक समिति के भरोसे छोड़ दिया है।’’

उन्होंने आगाह किया कि महामारी के इस दौर में उत्तरदायित्व की प्रक्रिया को कमजोर किया जाना एक ख़तरनाक़ प्रवृत्ति का जारी रहना है जो अन्ततः भारत को ‘‘एक प्रकार की चुनी हुयी तानाशाही’’ में झोंक देगा।

उनका कहना था कि, ‘‘भारत में आज हम जो कुछ भी होता हुआ देख रहे हैं वह कार्यपालिका को उत्तरदायी ठहराने के निमित्त खड़ी की गयी इन समस्त संस्थाओं का धूर्ततापूर्ण पतन है।’’

( ‘द हिन्दू’ से साभार। अनुवाद -दिनेश अस्थाना )

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