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प्रेमचंद का उपन्यास ‘प्रेमा’ और सामाजिक सुधार का प्रश्न

निकिता

सामाजिक तथा राजनीतिक उलटफेर को यथार्थ रूप से लिखने में यदि किसी का नाम पहले आता है, तो वह प्रेमचंद हैं । खासकर, बात जहाँ किसानों और स्त्रियों की हो, वहाँ पर प्रेमचंद की कलम ही नहीं, बल्कि, उनकी रचनाओं में हृदय भी स्पंदित नजर आती है। जिसे हम उनके साहित्य में जीवन्त रूप से देखते हैं।

प्रेमचंद ने सूक्ष्म से सूक्ष्म सामाजिक समस्याओं को अपने लेखनी के केंद्र में रखा। विधवा-विवाह, बाल-विवाह, सती-प्रथा, बहु-विवाह तथा वेश्यावृत्ति जैसी पारम्परिक और अवैज्ञानिक विषय पर उन्होंने निर्भीकता पूर्वक कलम चलाया।

प्रेमचंद एक प्रगतिशील लेखक हैं, जिन्होंने सामाजिक समस्या को न केवल देखा, बल्कि लंबे समय तक जिया भी है। जिसे हम उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। प्रेमचंद ने उर्दू में एक उपन्यास ‘हमखुर्मा’ सन् 1906ई. में लिखा। इसका हिन्दी रुपांतरण ‘प्रेमा’ नाम से 1908ई. में हमारे सामने आता है। यह उपन्यास विधवा विवाह को केन्द्र में रखकर लिखा गया है।

बाल-विवाह, विधवा विवाह, पुरूषसत्तात्मकता में तत्कालीन स्त्रियों की सामाजिक स्थिति, पंडितों के पाखण्ड तथा विलासयुक्त क्रियाकलापों को हम प्रेमचंद के इस प्रारम्भिक उपन्यास में ही देख सकते हैं।

तत्कालीन समाज में स्त्रियों की क्या स्थिति थी, समाज उनके एक जीवन को कितने-कितने किरदारों में ढालना चाहता है, उसे हम ‘प्रेमा’ उपन्यास में बख़ूबी देख पाते हैं।

प्रेमचंद के 1906-1936 तक के साहित्य सामाजिक दस्तावेज के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। उन्होंने प्रत्येक समस्याओं पर जीता जागता कलम चलाया है। हमें उनके उपन्यास में केवल समस्या ही नहीं देखने को मिलता, बल्कि, उसके कारण तथा उपचार की ओर भी संकेत स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। ‘प्रेमा’ में भी उन्होंने तत्कालीन हो रहे सामाजिक सुधार, उनके विरोध, स्त्रियों की दशा और पंडितों के बाह्याडम्बर और बाबाओं के नैतिक पतन व स्वार्थता को जीवन्त रूप में चित्रित किया।

प्रेमा और अमृतराय चार वर्ष से प्रेम बन्धन में बँधे थे और वे जल्द ही शादी करने वाले थे, पर भारतीय समाज में प्रेम को तवज्जो कब मिला जो यहाँ भी मिल ही जाता। अमृतराय पाश्चात्य शिक्षा से शिक्षित जागरूक व्यक्ति थे, उनको भारतीय समाज के रूढ़ि व अवैज्ञानिक नियम कानून समझ में आ गया था उन्होंने वकालत के साथ समाज-सुधार का कार्य भी शुरू किया। जिसकी खबर सुनते ही प्रेमा के पिता(बद्रीनाथ)और घर तथा आस-पास वाले उसे ईसाइयत अपनाने के आरोप में अपने-अपने कठघरे में आड़े हाथ लिया और बद्रीनाथ ने तुरन्त तार भेज कर उससे हुए वैवाहिक सम्बन्ध को तोड़ दिया।

बद्रीनाथ के साथ बहुत से पात्रों को इस सामाजिक सुधार के समाचार मात्र से ही परम्परा के उलंघन के आरोप में अमृतराय को सनातन विरोधी तथा ईसाईयत के हिमायती रूप में विरोध का सामना करना पड़ा।

अमृतराय को सामाजिक समस्या के साथ ही साथ हमेशा से समाज को इस परम्परा रूपी बेड़ी में बाँधकर हाथ सेंकने वाले कुछ राजनीतिक व्यक्तियों के मंशा का भी इल्म था।

वह जानता है, कि किस प्रकार स्वार्थ के वशीभूत कुछ व्यक्ति इस समाज को अनपढ़, अशिक्षित ही रख अपने सत्ता को इस समाज पर हावी रखना चाहते हैं।

अमृतराय का यह कहना- “आप जिसको सनातन धर्म समझे हुए बैठे हैं वह अविद्या और असभ्यता का प्रत्यक्ष स्वरूप है।” तत्कालीन समाज पर करारा चोट है।

अमृतराय ने बड़ी ही सत्यनिष्ठा से सामाजिक सुधार को प्राथमिकता दी। उसके लिए यद्यपि, उसे अपने प्रेम का परित्याग करना पड़ा।

अमृतराय के द्वारा जहाँ एक ओर अनाथालय तथा पाठशालाएँ स्थापित करने का जिक्र है तो वहीं, दूसरी ओर बद्रीनाथ व अन्य परम्परावादियों ने मठों और मन्दिर निर्माण करने के लिए प्रस्ताव रखा। अंग्रेज अमृतराय के कार्यों से अधिक प्रभावित हुए अतः उन्होंने अमृतराय के कार्य को मंजूरी दे दी, अंग्रेजों द्वारा अमृतराय को हमेशा सहायता मिलती, क्योंकि वह स्वयं भारतीय समाज की कुरीतियों से हतप्रभ थे और उसे समाप्त करने में अपनी पूरी सहायता दी। अमृतराय के इस कार्य से भले ही बहुतों को समस्या हुई पर उसके बाद भी उन्होंने अपने स्वार्थ को छोड़ा नहीं, उसे करना चाहा और उस भूमि के एवज में सरकारी पद को उन्होंने स्वीकार किया।

इस प्रकार, प्रेमचंद ने यह दिखाया है कि परम्परावादी  उस समय की सामाजिक सुधार की तो भरसक निन्दा कर रहे थे, क्योंकि उससे उनके बनाए स्वार्थपूर्ण नियम समाप्त हो जाएँगे, पर साथ ही उनके( परम्परावादी) स्वार्थ की पूर्ति यदि उसी अंग्रेजी सरकार से हो रही तो उनके सारे सिद्धांत व मान्यताएं उनके स्वार्थ के आगे घुटने टेक देती हैं।

प्रेमा, उपन्यास में यदि हम स्त्रियों के स्थिति की बात करें तो प्रेमचंद ने परम्परा से बँधी स्त्रियों से लेकर आधुनिक समय की शिक्षित स्त्रियों के दशा को चित्रित किया है।

जिसमें एक तरफ प्रेमा शिक्षा प्राप्त की है, और वहीं उसकी भाभी अशिक्षित है पर उसके बाद भी उसमें (भाभी) शिक्षा का बोध है और वह कहती है- “मैं बौरी इस गुण को क्या जानूँ उन्हें तो मुर्दों में मिलना है, नौकरी-चाकरी करना है। मुझ बेचारी के भाग्य में तो घर का काम करना ही लिखा है।”

इस प्रकार, आधुनिक चेतना और शिक्षा से स्त्रियों में जो बौद्धिक और तार्किक उन्नति हो रही थी उसे हम ‘प्रेमा’ में देख सकते हैं। पहले जहाँ स्त्रियाँ पति को परमेश्वर और स्वयं को उनकी दासी मानती थी वहीं प्रेमा में प्रेमचंद ने तत्कालीन स्त्री के बदलते मनोदशा को भी दिखाया है-

भाभी- “और क्या, जानो संसार अकेले मर्दों ही के थामें तो थमा है। मेरा बस चले तो इनकी आँख उठाकर भी न देखूँ।”

प्रेमचंद ने ‘प्रेमा’ उपन्यास में स्त्री-पुरुष के स्वभाव क्रमशः कोमलता तथा कठोरता और स्वार्थपरकता को भी दिखाया है। जिसमें प्रेमा निस्वार्थ रूप से अमृतराय से विवाह टूट जाने पर भी प्रेम करती है।

अन्ततः उसकी शादी दाननाथ से कर दी जाती है। उसके लिए भी वह तब तैयार होती है, जब अमृतराय पूर्णा से विवाह कर लेता है। दाननाथ से विवाह हो जाने पर भी वह उसे भूल नहीं पायी, जबकि अमृतराय प्रेमा की सखी पूर्णा के विधवा होते ही प्रेमा के प्रेम को भूलकर पूर्णा पर रीझने लगे।

 

पूर्णा को तो पता भी नहीं कि, जो व्यक्ति कभी उसकी सखी से विवाह करना चाहता था, जिसपर आज तक उसकी सखी अपनी जान छिड़कती है, वहीं उसको इतनी जल्दी भूलकर उसकी सहायता करते-करते विवाह का प्रस्ताव रख देगा, पर अमृतराय ने वैसा ही किया।

वह उसके( पूर्णा) लिए गहने-कपड़े लाकर विवाह का प्रस्ताव रख दिया, जबकि अभी उसका प्रेमा के साथ विवाह टूटे साल भी नहीं बीते थे। अगर हम सूक्ष्मता से प्रेमचंद के संकेत को समझें तो, अमृतराय का प्रेमा के प्रति वह समर्पण था ही नहीं जो एक सच्चे प्रेमी में होता है।

उपन्यास के पहले ही घटना( प्रेमा की फोटो का फाड़ा जाना, तथा उसे पैर से रगड़ना) से यह स्पष्ट हो जाता है, फिर विवाह टूट जाने पर प्रेमा विवाह नहीं करती और वह अब भी अमृतराय की चेरी बनना तक स्वीकार कर रही और रात-रात भर उसके लिए रोना, साज-श्रृंगार का परित्याग और हर रविवार शाम को घंटों छत पर बैठकर अमृतराय की प्रतिक्षा करना, अमृतराय के लिए उसके समर्पण को बड़े ही भावात्मक रूप से प्रेमचंद ने चित्रित किया।

वहीं, अमृतराय का उसे तुरंत भूलकर, बिना किसी विशेष परिस्थिति के पूर्णा से प्रेम-प्रसंग को प्रारम्भ करने से प्रेमचंद ने यह इंगित करना चाहा है, कि पुरुष प्रेम तो नहीं कर सकते पर अपने वासना को पूर्ण करने के लिए भटक जरूर सकते हैं। क्योंकि, पूर्णा के मर जाने पर भी यदि उनका हृदय स्थाई रहता तो उनका पुनः विवाह करना (जो आवश्यक नहीं था) उनके अस्थाई मन को ही दिखाता है।

प्रेमचंद ने पुरुषों के हृदय को स्पष्ट दिखाया है, वह चाहे समाज सुधारक ( अमृतराय) हो या फिर धर्म गुरु मन्दिर के पुजारी।

पुरुष विचार को उन्होंने खूब गहराई से समझा था, जिसे उन्होंने प्रेमा की भावज से इस प्रकार कहलवाया है- “मर्द सदा के कठकलेजे होते हैं। उनके दिल में प्रेम होता ही नहीं, उनका जरा सा सर धमके हम खाना पीना त्याग दें, और हम चाहे मर ही क्यों न जाए उनको कोई परवाह नहीं। सच में मर्द का कलेजा काठ का।”

पूर्णा- “तुम बहुत ठीक कहती हो,भाभी।…अगर देर आने पर उनसे पूछती हूँ तो कहते हैं, रोना-गाना औरतों का काम है, हम रोएँ-गाएँ तो संसार का काम कैसे चले।”

बाल-विवाह हो जाने पर स्त्रियों की मानसिक दशा का विकास ही कितना हुआ रहता है, पर उन्हें इस अपरिपक्वता के बावजूद घर-समाज के नियमों को मानना पड़ता है और वे( स्त्रियाँ) अपने दायित्व को निभाते-निभाते कब बूढ़ी हो जाती हैं, उन्हें स्वयं उसका आभास नहीं हो पाता। पर, दुर्भाग्यवश तत्कालीन समय में जो स्त्री विधवा हो जाती थी, उसका जीवन नर्क कहे जाने वाले स्थान से अलग नहीं ही होता होगा‌‌। जिसे प्रेमचंद प्रेमा में रामकली नामक पात्र से कहलवाते हैं-

“सुनती हूँ कल हमारी डायन कई चुड़ैलों के साथ तुमको जलाने गयी थी। जानो मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा।तुमसे क्या कहूँ बहन यह सब ऐसा दुःख देता है कि जी चाहता है कि माहुरी खा लूँ। अगर यही हाल रहा तो एक दिन अवश्य यही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि स्वप्न में भी जीवन का सुख न प्राप्त हुआ। तुमको तो दो वर्ष पति का सुख मिल भी गया, पर मैंने तो मुँह तक न देखा था।औरतों का बनाव-श्रृंगार किये हँसी-खुशी चलते देखती हूँ, तो छाती पर साँप रेंगने लगते हैं।”

 

प्रेमचंद ने रामकली के माध्यम से तत्कालीन विधवा की स्थिति का पारिवारिक चित्रण आगे इस रूप में करते हैं-

रामकली- “विधवा क्या हो गयी घर भर की लौड़ी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वह मैं करूँ, उस पर भी रोज उठते जूते और बैठते रात। काजल मत लगाओ, बाल मत सँवारों…पान मत खाओ। एक दिन गुलाबी साड़ी पहन ली तो चुड़ैल मारने लगी, जी में तो आया सर के बाल नोच लूँ मगर…उसकी बेटी, बहुएँ भी कन्नी काटती फिरती हैं, भोर में कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अब कहाँ तक कोई छाती पर पत्थर रख ले। आखिर हम भी तो आदमी हैं, हमारी भी तो जवानी है… जब भूख लगने पर खाना न मिले तो हारकर चोरी करनी ही पड़ती है।”

प्रेमचंद ने रामकली के माध्यम से पूरे के पूरे पुरूषसत्तात्मक समाज पर चोट किया है। जहाँ पर विधवाओं के मन: स्थिति को समझा ही नहीं गया, वह स्त्री चाहे जिस उम्र में अपने पति को खो दे उसका वहन उसे जीवन भर अपने जीवन की बलि देकर करना ही होता था। जबकि, पुरुष इसके लिए स्वतंत्र था। जिसको प्रेमचंद ने ‘सती’ कहानी में भी दिखाया है, वहाँ मुलिया का देवर राजा उस पर पहले से ही निगाहें गड़ाये हुए था। और, जैसे ही उसकी पत्नी मरती है और इधर मुलिया का पति कल्लू रोगग्रस्त होने से मरता है वैसे ही वह मुलिया के पास प्रस्ताव रख देता है। जहाँ पर मुलिया विरोध कर कहती भी है, कि

“शर्म करो राजा तुम्हरी मेहर को मरे अभी महीना भी नहीं हुआ और तुम ऐसी बातें करने लगे।”

प्रेमचंद ने समझा है, कि भले ही स्त्री विधवा हो जाए पर उसके शौक-श्रृंगार कभी नहीं मरते। अगर वह श्रृंगार नहीं भी करती तो सिर्फ समाज के दबाव से ही।

वह भी चाहती है, कि वह खुश रहे, रंगीन साड़ी पहने, लोगों के यहाँ जाए-आए। लोग उनसे अच्छा व्यवहार करें, पर हमारे समाज में विधवाओं के लिए जो मानक निर्धारित कर दिए गए हैं उससे चाहकर भी वह अपने दायित्व का वहन नहीं कर पाती है और अगर करती भी है तो अपने भीतर के आत्मा को मार कर। वह जीती है, पर उसके भीतर के राग-रंग मर चुके होते हैं, जिसे प्रेमा में प्रेमचंद ने बखूबी चित्रित किया है।

 

इसी तरह, रामकली जो कि एक विधवा है उनसे मन्दिर में पन्डाओं द्वारा किए गए अनैतिक व्यवहार के माध्यम से प्रेमचंद ने धर्म के रक्षकों का प्रत्यक्ष चित्रण किया, जो कि यथार्थ है।

अमृतराय द्वारा अन्ततः, पूर्णा से विवाह कर, जो कि विधवा थी, उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा सखी प्रेमा से विवाह करना तत्कालीन समाज के विकासशील दशा को दर्शाया है। प्रेमचंद के पात्र अमृतराय द्वारा पूर्णा को यह कहलवाना-

” सत्य मानो अब इस देश में ऐसे विवाह कहीं कहीं होने लगें हैं”। और बाद में कहना-” यह विवाह हो तो फिर इस सुबे के दूसरे शहरों के रिफार्मरों के लिए रास्ता खुल जाएगा।” तत्कालीन समाज में हो रहे सामाजिक सुधार का यथार्थ चित्रण प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमा’ में देखने को मिलता है।

 

प्रेमचंद ने इस उपन्यास का आधार काशी को बनाया है, जो धर्म की प्राचीन और सर्वश्रेष्ठ नगरी मानी जाती है। इस उपन्यास के माध्यम से प्रेमचंद ने सामाजिक मान्यताओं, आडम्बरों तथा धर्मक्षेत्र के यथार्थ स्वरूप का चित्रण किया है, जिसमें सामाजिक मान्यताओं को तो बहुत सहेजा जा रहा। खास कर जो मान्यता स्त्रियों के लिए होते हैं, पर वही स्वतंत्र रूप से मन्दिरों में हो रहे, पण्डितों व पण्डाओं के कुकृत्य को पुरूषसत्तात्मक समाज देखकर भी नहीं देख रहा क्योंकि, कहीं न कहीं वह स्वयं उस कुकृत्य का हिस्सा है, आदि छिपे हुए चीजों को हम प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमा’ में स्पष्ट रूप से देख पाते हैं।

‘प्रेमा’ उपन्यास की प्रासंगिकता आज इक्कीसवीं सदी में भी काफी हद तक बनी हुई है। यद्यपि, सरकारी पन्नों पर बने कानूनों से बाल-विवाह सम्भव हो सका है और विधवा विवाह भी। पर सामाजिक रूप से विधवाओं की दशा आज भी उन्हीं सनातनी मान्यताओं में बँधा है।

लोग आज भी सुबह उनका मुँह देखना पाप मानते हैं, कहीं शुभ कार्यों में उनका आगमन अशुभ माना जाता है और साज सिंगार उनके लिए वर्जित है।

इन सबके साथ ही पुरूषों का उन पर कटाक्ष करना, उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से परेशान करना भी आज बरकरार है। जो हमारे समाज की अक्षुण्ण समस्या प्रतीत होती है।

क्या आज भी, जबकि हम आधुनिक हो गये हैं, हमारे दृष्टि में विधवाओं के लिए वो सम्मान है, जो कि एक सधवा स्त्री के लिए सम्भव है?

(निकिता इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए तृतीय वर्ष की छात्रा हैं और महादेवी वर्मा स्मृति महिला पुस्तकालय से जुड़ी हैं)

फीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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