(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर लेखक और निर्देशक सईद मिर्ज़ा की नसीम । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की पाँचवी क़िस्त.-सं)
सईद मिर्ज़ा हिंदी समानांतर सिनेमा के महत्त्वपूर्ण निर्देशकों में से एक हैं। फिल्मों से जुड़ाव उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता अख़्तर मिर्ज़ा हिंदी सिनेमा के सफल पटकथा लेखक थे जिनके खाते में वक़्त और नया दौर जैसी फिल्में दर्ज हैं। इस सबके बावजूद सईद मिर्ज़ा ने फ़िल्म जगत में कदम पूरी तैयारी के बाद रखा। उन्होंने एफटीआईआई से स्नातक किया और आगे वे इस संस्था में अध्यापन करते हुए चैयरमैन के पद तक पहुँचे। बतौर निर्देशक उन्होंने हिंदी सिने जगत को अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है (1980), मोहन जोशी हाज़िर हों (1984), सलीम लँगड़े पे मत रो (1989) और नसीम (1995) जैसी सार्थक फिल्में दीं।
नसीम 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद विध्वंश के मुस्लिम समाज पर पड़ रहे प्रभावों और उनकी सोच तथा व्यवहार में आ रहे बदलावों को सूक्ष्मता के साथ दर्ज करने की कोशिश करती है। फ़िल्म की कथाभूमि जून 1992 से लेकर 6 दिसंबर 1992 के बीच की है। यह भारतीय समाज के लिए अपूर्व उत्तेजना का समय था। किंतु दर्शक फ़िल्म देखते समय इस बात को रेखांकित किये बिना नहीं रह सकता कि सईद मिर्ज़ा ने उल्लेखनीय संयम के साथ खुद को मूल विषय वस्तु पर केंद्रित रखा है।
फ़िल्म की कहानी बम्बई में रहने वाले एक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार की है। परिवार में नसीम (मयूरी कांगो), उसका भाई मुश्ताक, इनके माता-पिता और दादाजी (कैफ़ी आज़मी) हैं। आरंभिक दृश्यों में यह दिखाया गया है कि इस परिवार के आपसी रिश्तों में मधुरता है और बड़ों का लिहाज है। किंतु देश में बढ़ती साम्प्रदायिकता धीरे-धीरे इनमें अविश्वास, भय, तनाव और अंततः साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया को जन्म देती है।
नसीम के पिता को उनके ऑफिस में नोटिस मिलती है। दादाजी के यह पूछने पर कि किस बात की नोटिस है वे कहते हैं –“नोटिस देने के तो पचास बहाने हैं। लेकिन असली बात क्या है वह छुपी थोड़ी है।” देश के दोनों अहम सम्प्रदायों के बीच जिस भयानक अविश्वास को हम आज देख रहे हैं, यह उसकी शुरुआत है।
ज्यों-ज्यों समय आगे बढ़ता है देश में साम्प्रदायिक हलचल तेज होती जाती है। टीवी और सड़क से उठकर आते घृणा भरे नारों से परिवार जूझता दिखता है और धीरे-धीरे इनका भय बढ़ता जाता है। हालात खराब होने की वजह से नसीम के स्कूल में छुट्टी हो जाती है। मौके का लाभ उठाकर वह सहेलियों के साथ फ़िल्म देखने चली जाती है। घर आने पर उसका भाई उसे बुरी तरह डाँटता है। जबकि शुरू के ही दृश्यों ने दिखा दिया था कि अपनी बहन के साथ उसका व्यवहार बहुत प्रेमपूर्ण है। साफ है कि समाज की आग घर के संबंधों को प्रभावित करने लगी है।
इस सबके बीच ही मुश्ताक के दोस्त ज़फ़र (के. के. मेनन) का घर आना-जाना शुरू होता है। यह दरअसल मध्यवर्गीय परिवारों में मजहबी कट्टरता की दस्तक है। ईद के दिन ज़फ़र कहता है कि दंगों में मरता तो मुसलमान ही है। इस पर जीवनानुभव से परिपक्व दादाजी कहते हैं कि ‘नहीं, दंगो में गरीब मरता है।’
ग़ौरतलब बात यह है कि ज़फ़र कोई उथला या सड़कछाप नौजवान नहीं है। मीर की शायरी में उसकी गहरी दखल यह बताती है कि वह संजीदा और सुशिक्षित है। मीर की कविता में हिंदू-मुस्लिम एकता के स्वर हैं। ऐसे में जफर के भीतर उग्र रूप ले रहा साम्प्रदायिक वैमनस्य बिगड़ चुकी परिस्थितियों को तो बतलाता ही है, निकट भविष्य में अंधेरे के और गहराने की चेतावनी भी देता है ।
अंततः दादाजी के समक्ष वह प्रश्न खड़ा ही हो जाता है जिससे आज हर मुसलमान को दो-चार होना पड़ रहा। नसीम का पिता पूछता है कि आप विभाजन के समय पाकिस्तान क्यों नहीं गए। इसके उत्तर में दादाजी जो कहते हैं वह इस देश से मुसलमानों के गहनतम संसक्ति को व्यक्त करता है। वे कहते हैं-“तुम्हें याद है आगरा में अपने घर के सामने एक पेड़ था। वह तुम्हारी माँ को बहुत पसंद था।”
इन सारी स्थितियों के बीच नसीम को लगातार स्कूल जाते, विज्ञान, अंग्रेजी और इतिहास पढ़ते, सहेलियों के साथ हँसते-खेलते और दादाजी से किस्से सुनते दिखाया गया है। दादाजी के पास आज़ादी के साझे संघर्ष की विरासत है। यह स्मृतियाँ ही उनकी देश के एकता की धारणा के मूल में हैं। नसीम को उन्होंने इसी की तालीम दी है। इसीलिये जब नफरत बाँटते टीवी को वे बन्द करने के लिए कहते हैं तो मुश्ताक उनसे बदजबानी करता है-‘आपके किस्सों के दिन लद गए।’ कौन जानता था कि महज दो दशकों के भीतर यही व्यवहार देश के उन सारे लोगों के साथ होगा जो नफरत के बजाय अमन के हामी हैं। ऐसे उन्मादी माहौल में दादाजी और देश की सारी उम्मीदें नसीम पे आ टिकती हैं। शुरुआत के एक दृश्य में नसीम दादाजी से नसीम का अर्थ पूछती है। वे बताते हैं-सुबह की हवा जो तुम्हारे जैसी खूबसूरत होती है। आखिर में वे कहते हैं: नसीम, तुम नसीम हो।
साम्प्रदायिकता का धुआँ समाज के वास्तविक शोषितों की समस्या को; समाज के वास्तविक तनाव को ढक लेता है। फ़िल्म की एकमात्र उपकथा इसी उद्देश्य को व्यंजित करने के लिए लाई गई है। नसीम और पड़ोस के जनरल स्टोर पर बैठने वाली पार्वती भाभी के बीच सहज लगाव है। पार्वती की समस्या यह है कि वह पुत्र को नहीं जन्म दे सकी है। अंततः स्टोव से जलकर उसकी मौत हो जाती है। हिंदू समाज की महिलायें ऐसी अनेक पीड़ाओं से ग्रस्त हैं। लेकिन धर्म के ठेकेदारों की निगाह में ये पीड़ाएँ नहीं आतीं। इन पर उनका खून नहीं खौलता। रोचक है कि साम्प्रदायिक चेतना से ग्रस्त व्यक्ति दूसरे समाज की कुरूपता को चट से देख ले जाता है और इसका उपयोग अपने समाज को श्रेष्ठ बताने के साम्प्रदायिक अभियान में करता है। पार्वती की दुखद त्रासदी पर ज़फ़र की टिप्पणी है-“पता नहीं हिंदू दुल्हनों के स्टोव ही क्यों फटते हैं?” यह स्त्री समस्या का साम्प्रदायीकरण है। जिसे हमने तीन तलाक के मुद्दे पर हाल में बख़ूबी देखा है। ज़फ़र की टिप्पणी पे नसीम की माँ कहती है-“हमारे लिए बुर्का और तलाक ही काफी हैं ज़फ़र साहब।” फ़िल्म का संदेश साफ है। ज़रूरत समाज के सारे वंचित समुदायों के संगठित होकर संघर्ष करने की है लेकिन मज़हबी नफरत उनको बरगला कर एक होने से रोकती है और इस तरह शोषण का चक्र जारी रहता है।
फ़िल्म की पटकथा और संवाद दोनों बहुत चुस्त हैं। अनावश्यक उबाल पैदा करने के बजाय वे एक परिपक्व फिल्मकार की तरह खामोशी से उन परिवर्तनों को पकड़ने की कोशिश करते हैं जो समाज में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आ रहे थे। संवाद, घटनाओं और वातावरण सबमें संयम से काम लिया गया है।
फ़िल्म कहीं भी सम्प्रदायिकता के नशे में बौराये लोगों पर टिप्पणी नहीं करती । दादाजी के परिष्कृत व्यक्तित्व और नसीम के मासूम उल्लास के आलोक में अमन के दुश्मन के रूप में इनकी पहचान स्वतः दर्शक के सामने आ जाती है। इसके बावजूद उन्मादियों से लदे ट्रक पर लिखे ”गुड्स कैरियर” पर कैमरा फोकस कर एक शांत टिप्पणी जरूर दर्ज करा दी गई है।
वस्तु के स्तर पर यह संयम साझी विरासत और संस्कृति को जानने-समझने और उस पर विश्वास क़ायम रखने के संदेश में दिखता है। उनका यह स्वर उनकी पिछली फिल्मों से अलग है।साम्प्रदायिकता की समस्या उन्होंने गुफ़्तगू में या सीमित स्तर पर अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, में भी उठाई है। लेकिन ढंग अलग है।ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि चरमपंथ के उबाल ने उनका विश्वास उस भारतीयता से दरका दिया जिसके वे मुरीद थे। समाजवादी ढंग का समाज बनाने का सपना टूट गया। उन्होंने खुद कहा कि अब समय फ़िल्म बनाने का नहीं अपने पुराने विश्वास को पुनः प्राप्त (Regain) करने का है। शायद अपनी इसी मनःस्थिति को हूबहू पर्दे पर उतारने के लिए उन्होंने मुख्य किरदार के तौर पर कैफ़ी आज़मी का चयन किया हो। पूरी फिल्म में कैफ़ी आज़मी की आवाज और चेहरे पर वही तकलीफ दिखती है जो “दूसरा बनवास” नज़्म पढ़ते हुए दिखती है। कुल मिलाकर सईद मिर्जा ने अपनी इस आखिरी फ़िल्म से हमें आज की चुनौतियों के प्रति संजीदा बना दिया है।
फ़िल्म का अंत बहुत मार्मिक और उतना ही मानीखेज है। 6 दिसंबर के दिन ही दादाजी का निधन हो जाता है। ऐन उस वक़्त जब उनका जनाज़ा निकलता है, ज़फ़र खबर लाता है कि तीसरा गुम्बद गिर गया। इस तरह दादाजी की विदाई गंगा-जमुनी तहज़ीब की विदाई बन जाती है। दर्शक को प्रतीत होता है कि जो मेल-जोल और मुहब्बत के हामी थे वे बीत गए। इस तरह देखें तो फ़िल्म का अंत निराशावादी प्रतीत होता है। किंतु एकदम आखिरी दृश्य में नसीम अपने दादाजी की स्मृतियों के साथ दिखती है। वह उस विवेक को धारण किये है जिसे उन्मादग्रस्त समाज नष्ट करने पर उतारू है। इस तरह देखें तो सघन निराशा के साथ फ़िल्म आशा का सीमित संकेत छोड़ती है जो कि वस्तुस्थिति के मेल में है।