लखनऊ, 25 अगस्त। ‘वह पेड़ पर चढ़ कर/हरा बन गयी…..पेड़ से वह गिर गयी/रोप दी गयी मिट्टी में/वह फिर से उग रही है/उस तरह जिस तरह/लिखी जाती है कविता’। ये काव्य पंक्तियां हैं कवि उमेश पंकज की। 24 अगस्त को शिरोज हैंगआउट, गोमती नगर, लखनऊ में उनके एकल कविता पाठ का आयोजन हुआ। कार्यक्रम जन संस्कृति मंच की ओर से था।
उमेश पंकज ने कविता पाठ से पहले अपनी साहित्य यात्रा के बारे में बताया। वे बलिया के दोआबा क्षेत्र के रहने वाले हैं पर उनका सहित्य-जीवन कोलकाता से शुरू हुआ। काफी साल वे पटना में भी रहे। अब वे लखनऊ के निवासी हैं। शीघ्र ही उनका कविता संग्रह ‘एक धरती मेरे अन्दर’ आने वाला है। इस मौके पर ‘रचना’, ‘आग पेट की’, ‘मल्लाह’, ‘मेहतर’, ‘उन्मादी भीड़’, ‘क्या साहब तानाशाह हैं’, ‘चिड़िया’, ‘घास हूं मैं’, ‘विरासत’, ‘घसियारी औरत’, ‘एक धरती मेरे अन्दर’ सहित अपनी दो दर्जन कविताएं सुनायी और साहित्य सुधी श्रोताओं को अपनी कविता के विविध रंगों से रू ब रू कराया।
उमेश पंकज अपनी कविता में एक तरफ मानव श्रम की लूट को व्यक्त करते हुए कहते हैं ‘कारखाने की भट्ठियों में/झोंकता है अपनी उम्मीदें/बीड़ी फेंकते उसे लगता है/तब्दील हो गया है चिमनी में/और उसमें उड़ रहे हैं/उसके सपने’, तो वहीं जल, जंगल और पहाड़ की उन्हें चिन्ता है। वे कहते हैं ‘पानी नहीं तो मर जाती है नाव/वैसे ही जैसे/मर जाती हैं मछलियां/नदी के जीव-जन्तु/और मल्लाह भी’।
उमेश पंकज उस कचरे पर चोट करते हैं जो व्यवस्था जनित है। अन्दर भी है और बाहर भी। उनकी समझ है कि कचरा साफ करने के लिए मेहतर खुद बनना होगा। यह बात कुछ यूं व्यक्त करते हैं ‘गली मुहल्ला शहर-शहर देश/और फिर आपके भीतर का भी/आप खुद क्यों नहीं/बन जाते एक मेहतर/भाई साहब ! मेहतर से नहीं कोई इंसान बेहतर’। कवि जन को भीड़ में बदलने और उसे उन्मादी बनाने को निशाना बनाता है और प्रश्न करता है ‘अंकुसी नहीं बनी है क्या ?’
कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने की। मुक्तिबोध को संदर्भित करते हुए उन्होंने कहा कि कला के दायरे को तोड़ मुखर होने की जरूरत है। उमेश पंकज के अन्दर पूरब बसा है। इनकी कविता की सरलता, सादगी व स्पष्टता के पीछे यही पूरब का मन है। यहां वक्रोक्ति नहीं है। कचरा यहां व्यवस्था का प्रतीक है। कविता यथास्थित के विरुद्ध है। सत्ता पर प्रहार है।
उमेश पंकज की कविता पर बातचीत का आरम्भ कवि व ‘जनसंदेश टाइम्स’ के प्रधान संपादक सुभाष राय ने की। उनका कहना था कि कविता संकट में है। बहुत शोर है। उसकी आवाज को दबाने की कोशिश हो रही है। ऐसे में कविता को सीधी व सरल तरीके से अपनी बात कहनी होगी। उमेश जी की कविताओं में नष्ट होकर भी उगने की उत्कट आकांक्षा है। यहां विरासत को बचाने की बात है। इसे कमजोर करके लड़ाई आगे नहीं बढ़ाई जा सकती।
युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी ने उमेश पंकज के कविता संग्रह की भूमिका लिखी है। विस्तार में अपनी बात रखते हुए कहा कि ये कविताएं जन प्रतिबद्धता, प्रतिरोध और जन सरोकार की कविताएं है जो बदतर हालत और जनता के टूटे सपने के लिए सत्ता की जनविरोधी नीतियों को मानती हैं। इनमें विषय का फैलाव है। कहन में स्वाभाविकता है। अन्तर लय है। इनकी काव्यभाषा बोलचाल की है। बिम्ब और मुहावरे भी जनजीवन से लिए हैं।
भगवान स्वरूप कटियार ने कहा कि उमेश पंकज की कविताओं में लोकजीवन के तत्व हैं। यह बदलाव की उम्मीद को नहीं छोड़ती।
कथाकार किरन सिंह का कहना था कि कविताओं पर मुक्तिबोध और नागार्जुन का असर है। ये अन्तर से बाह्य की यात्रा करती हैं।
उषा राय का कहना था कि कविताएं समयानुकूल हैं और कविताई को बचाती है। विमल किशोर की टिप्पणी थी कि ये जनचेतना से लैस हैं। यहां प्रकृति के खूबसूरत बिम्ब हैं। इंदु पाण्डेय ने कहा कि जिस तरह का आक्रामक समय है, उसे देखते हुए कविता के तेवर कुछ मद्धिम हैं।
युवा कवि व आलोचक आशीष सिंह का कहना था कि उमेश पंकज की कविता की जमीन पुरानी है पर अभिव्यक्ति नयी है। कविता दबावों के बीच पनपना चाहती है। यह स्मृतियों में जाती है तो वहीं वर्तमान से टकराती भी है। फरजाना महदी का कहना था कि इसके अनेक रंग हैं। गुलदस्ते की तरह। प्रदीप घोष, रामयाण प्रकाश, केवल प्रसाद ‘सत्यम’, नितिन राज, अशोक श्रीवास्तव, आर. के. सिन्हा आदि ने भी अपने विचार प्रकट किये।
कार्यक्रम का संचालन कवि व जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर ने किया। उनका कहना था कि उमेश पंकज की कविताओं में इन्द्रिय सम्पन्नता है। इसकी वजह से कविताएं संवेदित करती है। विषय वस्तु की विविधता है। जीवनानुभवों की ये कविताएं हैं । लेकिन जिस तरह का राजनीतिक समय है, उससे आज का रचनाकार बच नहीं सकता, उसे मुठभेड़ करना होगा। इसके स्वर भी यहां हैं। आगे ये स्वर और मुखर होंगे, हमें उम्मीद करनी चाहिए।
(कौशल किशोर जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष हैं ।)