समकालीन जनमत
कविता

सुशील कुमार की कविताएँ मौजूदा सत्ता संरचना और व्यवस्था का प्रतिपक्ष रचती हैं

कौशल किशोर


 

मुक्तिबोध कालयात्री की बात करते हैं। मतलब कविता अपने काल के साथ सफर करती है । उसका अटूट रिश्ता काल से है । अपने काल से असंपृक्त होकर कोई रचनाकार समकालीन कैसे हो सकता है? सुशील कुमार ऐसे ही कवि हैं। इनकी कविताओं में वर्तमान की असंगति, विद्रूपता और विडंबना है। हमारे समय का यथार्थ और उसका द्वन्द्व ही विचार का स्रोत है। सुशील कुमार विचार के व्यक्ति हैं और विचारशीलता उनकी कविता के केन्द्र में है। यहां इसका स्थूल रूप नहीं है बल्कि संवेदना के रूप में वह व्यक्त होती है।

मेरी समझ है कि जिस कवि की सृजन प्रक्रिया में इन्द्रियों की सक्रियता होगी, उसकी कविता में उतनी संवेदनशीलता मिलेगी। कहने का आशय यह है की संवेदनशीलता के लिए इंद्रियबोध संपन्नता अति आवश्यक है। यह बात सुशील कुमार की कविताओं में दिखती है। डा रमाकांत शर्मा इनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए इस महत्वपूर्ण विशेषता को रेखांकित करते हैं।

सुशील कुमार प्रतिबद्ध कवि हैं। अपनी कविता में मौजूदा सत्ता संरचना और व्यवस्था का वे प्रतिपक्ष रचते हैं। उसके ताने-बाने को कविता में उदघाटित करते हैं, उसे कविता का विषय-वस्तु बनाते हैं। जिस जमीन से खड़े होकर वे यथार्थ को देखते हैं, वह हमारे समाज के उपेक्षित, वंचित समाज की जमीन है। इसमें समाज की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था ही नहीं है बल्कि उसकी भौगोलिक दुनिया भी है। प्रकृति और समाज का द्वंद उपस्थित है। एक तरफ तंत्र है तो दूसरी ओर श्रमशील लोक। जिस समाज में रहते हैं, उसका परिवेश उनके यहां दिखता है। इनकी कविताओं में एक तरफ करुणा, दुख-दर्द, प्रेम, आमजन से भावनात्मक लगाव है, तो वहीं रोष, असंतोष, हस्तक्षेप और प्रतिरोध का भाव है।

सुशील कुमार ऐसी शब्द संस्कृति के पक्षधर हैं जिसका स्रोत श्रमिक समाज है। ‘तुम्हारे शब्दों से अलग’ दुनिया रचते हैं। यहां सांस्कृतिक व्यवस्था के विरुद्ध एक मोर्चाबंदी है कि किस तरह व्यवस्था मनुष्य के मन मस्तिष्क को विकृत कर रही है । यह कवि का उस समाज से रिश्ता है कि वह शब्दों के लिए श्रमजीवी वर्ग के पास जाता है। वह जानता है कि कविता की दुनिया शब्दों से रची जाती है, इसलिए इसी समाज के पास जाना होगा। उनसे जुड़ना होगा। कहते हैं:

‘मैं …शब्द दराजों में सुबकती
मोटी-मोटी किताबों से नहीं लूंगा

खेतों में स्वेद से लथ-पथ किसानों से
गहरी अंधेरी खदानों में काम कर रहे खनिकों से
भट्ठों पर ईंट पाथ रही यौवन-कंठों से
उमस में नंगे पांव बालू ढ़ोती बालाओं के स्वर से
घर-दफ्तर-दुकानों पर अपने दिन काटते बाल-मजदूरों से और जहां जहां पृथ्वी पर
मेहनतकश लोग श्रम का संगीत रच रहे हैं
उन सबके हृदय से भी

जिंदा कुछ शब्द लूंगा
और कविता में रख दूंगा’

सुशील कुमार की कविताओं में जनपद अपनी आभा के साथ उपस्थित है। उनका कविता संग्रह है ‘जनपद झूठ नहीं बोलता’। कविता प्रश्न करती है कि आखिर झूठ कहां से बोला जा रहा है ? झूठ की रचना कहां से हो रही है ? हम जानते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था की बुनियाद ही लूट और झूठ पर टिकी है। वह अपने मुनाफे के लिए श्रम की लूट करती है और लूट पर पर्दा डालने के लिए झूठ गढ़ती है । आज झूठ का साम्राज्य खड़ा किया गया है, खड़ा किया जा रहा है। स्थिति क्या है ? प्रकृति और उसके संसाधनों का दोहन हो रहा है। आदिवासियों को उनकी संपदा से विस्थापित किया जा रहा है। एक तरफ धन है, वहीं उन्हें तरह-तरह के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं। उनका शुभचिंतक होने का स्वांग रचा जा रहा है। सुशील कुमार जनता के जनपद को चित्रित करते हैं। जीवंत चित्रण हैं। उनकी कविता ‘महुआ के फूलने का मौसम’ को देखें कि जब जब महुआ के फूलने का मौसम आता है उस वक्त प्रकृति भी कैसे करवट लेती हैः

‘पहाड़ और जंगल फिर से
नये जीवन में लौट आने की प्रतीक्षा में है
पहाड़िया झाड़-झांखड़ भरे रास्ते
और जमीन साफ कर रहे हैं

पहाड़ी जंगलों में यह महुआ के फूलने का मौसम है
प्रवास से लौटी कोकिलें
बेतरह कूक रही हैं और
फागुन में ऊँघते जंगलों को जगा रही हैं

टपकेंगे फिर सफेद दुधिया
महुआ के फूल दिन – रात
पहाड़ी स्त्रियाँ, पहाड़ी बच्चे बिनते रहेंगे’

विडम्बना तो देखिए कि :

‘जंगल के सौदागर मोल- भाव करने महुआ के/आ धमकेंगे बीहड़ बस्तियों तक और
/औने – पौने दाम में पटाकर/भर -भर बोरियाँ महुआ/बैलगाड़ियों – ट्रैक्टरों में लाद/कूच कर जायेंगे शहरों को….’।

‘गुम्मा पहाड़ पर बसंत’, ‘मैं पहाड़ की बेटी’, ‘पहाड़ का दुख’, ‘सोनचिरई’ आदि के साथ इस जीवन का सुख-दुख और दर्द इन कविताओं में अभिव्यक्त होता है, वह मर्म को स्पर्श करने वाला है ।

‘कब लौटेंगे शुकुल परदेस से’ में परदेस गये पति के इंतजार में पैदा हुई व्याकुलता और स्त्री पीड़ा है तो ‘फुलमनी’ में आदिवासी जीवन का भोलापन और निष्छलता है। पहाड़ी नदी, पेड़ प्रथम नागरिक हैं पृथ्वी पर जैसी अनेक कविताएं प्रकृति, पर्यावरण और आदिवासी जीवन को बचाने की चिंता से सृजित होती हैं। इसमें जनपद की धड़कन है, उसकी वेदना है और वह आग भी है जो इस तरह प्रस्फुटित होती है:

‘मैं कोई कविता नहीं कर रहा भाई/मैं तो लड़ रहा आज भी/सदी के हत्यारे विचार से/जो मेरी मुट्ठी में घुसपैठ कर रहे।’

सुशील कुमार की कविताओं में यह संघर्ष लगातार आकार लेता गया है। इनमें संवेदनात्मक सघनता है, समय के यथार्थ की समझ है, विचारों की गहराई है और उन्हें व्यक्त करने की काव्य भाषा और कौशल है। कविताएं अपने अर्थ में विस्तार लेती हैं हमारे मर्म को स्पर्श करती हैं। इन कविताओं से गुजर कर सहज ही यह एहसास किया जा सकता है।

सुशील कुमार की कविताएँ

 

1. नहीं लोकूंगा एक भी शब्द तुम्हारे

मैं पाप रहित, निष्कलुष, निष्काम
सिर्फ कुछ शब्द चुनूंगा
इस दुनिया में
और अपनी कविता में उसे
रख दूंगा

वह शब्द दराजों में सुबकती
मोटी-मोटी किताबों से नहीं लूंगा

खेतों में स्वेद से लथ-पथ किसानों से
गहरी अंधेरी खदानों में काम कर रहे खनिको से
भट्ठों पर ईंट पाथ रही यौवन-कंठों से
उमस में नंगे पांव बालू ढ़ोती बालाओं के स्वर से
घर-दफ्तर-दुकानों पर अपने दिन काटते बाल-मजदूरों से और जहां जहां पृथ्वी पर
मेहनतकश लोग श्रम का संगीत रच रहे हैं
उन सबके हृदय से भी

जिंदा कुछ शब्द लूंगा
और कविता में रख दूंगा

मैं नहीं लोकूंगा एक भी
शब्द तुम्हारे
तुम्हारे शब्द तो शब्द-तस्करों से
घिरे हुए
घबराए हुए
कांखते हुए
डरे हुए और चुप हैं
जिनके वर्णाक्षरों पर बैठ
कोई तोड़ रहा है रोज इसे
और अपने मतलब के व्याकरण में
गढ़ रहा है।

 

2. महुआ के फुलने के मौसम में

यह पेड़ों के नंगेपन की ओर
लौटने का मौसम है
अपने पत्ते गिराकर
पेड़ कंकाल-से खड़े हैं पहाड़ पर
पूरी आत्मीयता से
अपने सीने में
जंगल वासियों के पिछले मौसम की
दुस्सह यादें लिये

जंगलात बस्तियों तक पहुँचती
वक्र पगडंडियाँ
सूखे पत्तों और टहनियों से पूर गयी हैं
जिनमें सांझ से ही आग की लड़ियाँ
दौड़ रही हैं सर्पिली।

दमक रही है पहाड़ की देह
रातभर आग की लपटों से ।
पहाड़ के लोगों ने जंगली रास्तों में
अगलगी की है

पहाड़ और जंगल फिर से
नये जीवन में लौट आने की प्रतीक्षा में है
पहाड़िया झाड़-झांखड़ भरे रास्ते
और जमीन साफ कर रहे हैं

पहाड़ी जंगलों में यह महुआ के फूलने का मौसम है
प्रवास से लौटी कोकिलें
बेतरह कूक रही हैं और
फागुन में ऊँघते जंगलों को जगा रही हैं

टपकेंगे फिर सफेद दुधिया
महुआ के फूल दिन – रात
पहाड़ी स्त्रियाँ, पहाड़ी बच्चे बिनते रहेंगे
पहाड़ के अंगूर
भरी साँझ तक टोकनी में

धूप में सूखता रहेगा महुआ दिनमान
किसमिस की तरह लाल होने तक।
गमक महुआ की फैलती रहेगी
जंगल वासियों के तन-मन से
श्वाँस – प्रश्वाँस तक ,
जंगल से गाँव तक उठती पूरबाईयों के झोंकों में।
गूजते रहेंगे महुआ के मादक गीत
बाँसुरी की लय मान्दर की थाप पर
घरों, टोलों, बहियारों में

वसंत के आखिरी तक यह होता रहेगा कि
नये पत्ते पहाड़ को फिर ढक लेंगे तेजी से।
फल महुआ के कठुआने लगेंगे
जंगल के सौदागर मोल- भाव करने महुआ के
आ धमकेंगे बीहड़ बस्तियों तक और
औने – पौने दाम में पटाकर
भर -भर बोरियाँ महुआ
बैलगाड़ियों – ट्रैक्टरों में लाद
कूच कर जायेंगे शहरों को

थोड़े बहुत महुआ जो बच पायेंगे
व्यापारियों की गिद्ध दृष्टि से
पहाड़िया के घरों में ,
ताड़ – खजूर के गुड़ में फेंटकर
भूखमरी में पहाड़न चुलायेंगी
हंडिया – दारू
और दिन -दुपहरी जेठ की धूप में
तसलाभर मद्द लिये भूखी -प्यासी
बैठी रहेगी हाट -बाट में
गाहकों की प्रतीक्षा में साँझ तक।

नशे में ओघराया उसका मरद
पड़ा रहेगा जंगल में कहीं
अपने जानवरों की बगाली करता हुआ।

 

3. ये हाथ

ये हाथ हुनरमंद और मेहनती हैं
जिसने दुनिया को जीने के लायक और सुंदर बनाया
जहाँ रात
लोग आराम से सो सकते हैं
और जगे दिन
पृथ्वी की लय पर चल सकते हैं

जिन कायर पाजी हाथों ने
सपने तोड़े हत्याएं की
बलात्कार किए शोषण किए
क्या मालूम उन बड़जातों को –
उनकी दुनिया
उनकी सड़कें
उनके फूलदान
उनके कारों और बूटों की चमक
उनकी इमारतें
उनकी बोतलें उनके कंडोम
उनके कोट और कॉलर
उनके बाथरूम की नक्काशियाँ
उनके डिश के स्वाद
उनकी खिदमत के सारे इंतेजामात
इन उँगलियों के बेतरतीब चलने से बनती है
जो कभी उनके बटुए
उनके टेटुए तक भी पहुंच सकती है।

 

4. मजदूरिन

ढलती साँझ!

सूरज को
अपनी टोकरी में
दाएँ हाथ से टिकाए
गाँव की ओर
इस तरह चली
पहाड़न कि
दांतों की दुधिया हँसी
उसके चेहरे की झिलमिल में
निस्सीम फैल रही
जंगल की थकान
सब मिट गई !

बाएँ हाथ से
अपने बच्चे की उंगलियां थामे
संग चल रहे हवाओं को
झूमते पेड़ों को
न्योता देती हुई
प्रकृति की नीरवता का
आलिंगन करती हुई।

 

5. अधिनायक

अधिनायक बाहर से नहीं आता
कसी मुट्ठियों में बंद
तुम्हारे सपनों को मोड़कर पैदा होता है
तुम्हारे पसीने के नमक को चीनी में बदलकर।

अपने भाषणों की अद्भुत कला से
बूटों की खटखटाहट से
अपनी आँखों की चमक,
उंगलियों के जादुई इशारों से
पहले सम्मोहित करता है तुम्हें
फिर तुम्हारी चिन्मय भाषा और बुद्धि खाता है
और तुम्हारे लहराते हाथों को
अपना वोट बनाता है

वह खुद बाजीगर बन जाता है
और जमूरे की तरह तुम्हें नचाता है।

तुम्हारी ही जमीन, इच्छा और बूँद से जन्मा अधिनायक के अदब में
तुमको चलना होता है अपाहिज बनकर
अपने लोगों की लाशों की ढेर झाँकते
उसके मिटने तक
अपने कंधों पर उसके किये का भार ढोते हुए।

 

6. शब्द सक्रिय रहेंगे

धरती जितनी बची है कविता में
उतनी ही कविता भी साबूत है
धरती के प्रांतरों में कहीं-न-कहीं

यानी कोई बीज अँखुआ रहा होगा नम-प्रस्तरों में फूटने को
कोई गीत आकार ले रहा होगा गँवार गड़ेरिया के कंठ में
कोई बच्चा बन रहा होगा माता के गर्भ में
कोई नवजात पत्ता गहरी नींद कोपलों के भीतर सो रहा होगा
कोई रंग कोई दृश्य चित्रकार की कल्पना में अभी जाग रहा होगा
धरती इस तरह सिरज रही होगी कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं चुपचाप

इतनी आशा बची है धरती पर जब
फिर भला कवि-मन हमारा कैसे निराश होगा ?

समय चाहे बर्फ बनकर जितना भी जम जाए दिमाग की शातिर नसों में,
हृदय का कोई कोना तो बचा ही रहेगा धरती-गीत की सराहना के लिये
आँखें दुनिया की कौंध में चाहे जितनी चौंधिया जाय
कोई आँख फिर भी ऊर्ध्व टिकी रहेंगी
अपनी प्रेयसी या प्रेमी के दीदार की प्रतीक्षा में
सभ्यता चाहे कितनी भी क्रूर हो जाय
कोई हाथ तो टटोलने को तरसेंगे उस हाथ को
जिसमें रिश्तों की गर्माहट अभी शेष है!

शब्द भी कहीं न कहीं सक्रिय रहेंगे कवि की आत्मा में
और वह बीज वह गीत वह बच्चा वह पत्ता
वह रंग वह आशा, आँख वह हाथ जैसी चीजें कवि के शब्द बनकर
कहीं-न-कहीं जीवित रहेंगी कविता में।

 

7. इस दीवार में एक खिड़की खुलती है

सब ओऱ दीवारें खड़ी हैं
सभ्य और ऑटोक्रेट सोसाइटी में
हर दीवार के अपने-अपने दायरे हैं

इन दायरों-दरो-दीवारों को फाँदकर
हवा तक को बहने की इजाज़त नहीं
खिड़कियाँ खोलने पर कड़ी बन्दिशें हैं यहाँ

अनगिन बोली, भाषा, फैशन और सुविधाओं के रंग में रंगे
संवेदनाओं और सभ्यताओं के कई-कई विरुदावलियाँ हैं
कई-कई भंगिमाओं में
जिनके अपने सैनिक और मसीहे हैं
जो आधुनिक संज्ञा- विशेषण-क्रियाओं
के विद्रुप शैलीकार हैं

पर इस दीवार में एक और खिड़की है
जो खुलती भी है
उनकी भाषा, सभ्यता और रंग के खिलाफ़
जिससे होकर बयार
दुनिया की उन सभ्य दीवारों से टकराती हैं
जिसकी प्रतिश्रुति फिर एक नई कविता के लिए
मुझे तैयार करती है ।

 

8. सतजुग

धरती पर सतजुग आ चुका है
फिर भी जाने क्यों प्रियजन स्वर्गवासी हो रहे हैं सड़कों पर अस्पतालों में घरों में एम्बुलेंस में

परिजन और पुलिस श्मशानघाटों में टोकन लिए इंतजार में खड़े हैं घंटो-घंटों उनकी अंतिम विदाई में

कितने स्वार्थी हो गए प्रियजन,
बिन बताए अकेले ही निर्वाण को प्राप्त कर रहे!

मैं अकेला होता जा रहा हूँ दिन-दिन
रोज उनके महाप्रयाण की सूचना मिल रही है

यहाँ उनके रामराज में जीने को अभिशप्त मैं
अपने ही घर में बंद मास्क लगाए तो कभी हाथ मलते साबुन से
कभी सामाजिक दूरी बनाते हुए
मन मन भारी मन में
कल दिवंगत हुए इष्ट जनों की
दुरनिर्वार दु:स्मृतियां लिए।

 

9. प्रलय में लय

राख हो जाएगी
देह एक न एक दिन
ये सपने रंग
दुकान मकान
बनाए हुए भविष्य भी बिला जाएंगे

जो बचा रहेगा अंत तक
वह यह जीवन है
कैक्टस की तरह इस धरती पर
असंख्य आपदाओं के बीच

क्या तुमको नहीं लगता कि
प्रेम के कारण ही बचेगा
जिसे बचना है यहाँ
– यह आदमी होने की घड़ी है,

जैसे गुरुत्वाकर्षण से बंधी
सम्पूर्ण सृष्टि चल रही है
सारे उपग्रह-ग्रह शून्य में अटके पड़े हैं
महाकाल के बीच अंनत काल से!
मुझे लगता है
प्रेम ही तुम्हें प्रलय से लय में लाएगी

क्या कर पाएगा विज्ञान
एक अर्ध-जीवित वायरस से बचा न पाया हमारी सभ्यता?
मॉल फैशन कलाएँ बैरकें
पार्किंग पार्लियामेंट मिसाइलें
जेट प्लेन और हथियार सब
कितने कामयाब हुए हमारे दुःख में?

बड़े-बड़े शूरमा और बाहुबली ढेर हो गए
एक साँस के क्षीण होने पर!
तार पर बैठी चिड़ियों की तरह कतार में
विमान पत्तन में विमान खड़े हैं
गति थम सी गई है
उसके सारे किए-धरे पर पानी फेरता
एक वायरस ने उसे बता दिया है कि
वह आदिम से आदमी बना है,
इसे याद रखे हरदम !

फिर भी मैं कहता हूँ
कोरोना कुछ नहीं है
आदमी की परछाईं है बस
जो उसका पीछा कर रही है!
उसके साथ चल रही है!

 

10. रोना : कुछ कविताएँ

एक

रोये नहीं हम बहुत दिनों से
कराहते हैं केवल
रो नहीं पाते खुलकर

आंखों से जल नहीं निकलता
न हृदय पसीजता है
अंदर बेचैनी का आलम साया है

कसकते हैं
सिसकते हैं
पर सच , रो नहीं पाते हम!

दो

रोना दुःख से उबरना है
रोना हुक से उबरना है

पिछली बार हम कब रोये
हमें याद नहीं..
हमको माँ की याद आ रही है
उनसे लिपटकर हम बहुत रोते थे बचपन में!

तीन

रोना विलाप नहीं
रोना दुःख में होना नहीं

रोने से दिल हल्का होता है
रोने से जुड़ाती है काया
बड़े से बड़े कष्ट का निवारण है रोना

चार

रो नहीं पाएंगे तो
दुःख से हमारा कलेजा फट जाएगा
रो नहीं पाए तो
मन को कल नहीं मिलेगा

कोई मुझे आंसू दे दे
मुझे रोना है
मैं फुट-फुटकर रोना चाहता हूँ

पांच

रोना
जैसे रेगिस्तान में मेघ का बरसना
रोना
जैसे सीपी में एक बूँद का गिरना
रोना
जैसे युगों से तड़पती आत्मा का
शांति में विलीन हो जाना

रोने से बची है
हमारी जिंदगी
पहाड़ से दुखों के बीच से
गुजरते हुए ।

 

11. अथ श्रीकथा

लड़ाई अभी खत्म नहीं हुईं हैं –
डरावनी शांति के शोर में कई लड़ाइयाँ अभी शेष हैं –
रणक्षेत्र फिर सज रहा है
मन की अंधेरी गुफाओं में,
लालच और इच्छाओं का कौरव
बेतरतीब ललकार रहा है हमें,
जुनून के गदाओं से गड़ासों से तीरों से
हमारे विवेक-बुद्धि-कौशल पर
वार कर रहा है

हमारी आत्मा का सारथी’ डगमगा रहा है
उनके ताबड़तोड़ हमले से,
जीवनरथ का पहिया फँस गया है
बीच जीवन के मैदान में दौड़ते हुए

हम हार रहे हैं, हताहत हो रहे हैं
वे जीत रहे हैं, नगाड़े पीट रहे हैं
सारथी पीछे हट रहा है
हमें वापस लौटने को कह रहा है।
जीवनयुद्ध में पार्थ
सिर झुकाए खाली हाथ लौट रहा है
(विरक्त अशोक की तरह नहीं)

हमने हथियार डाल दिए हैं
तृषाग्नि और ग्लानि में जलते हुए..
हमें बंदीगृह में घसीटकर लाया जा रहा है..
हम अपनी ही नजर में गिरकर
जिंदा ढेर हो चुके हैं!

बुद्ध भी हाथ मल रहे हैं
अपने किए तप-साधना पर
उनकी विपासना टूट हो चुकी है
यशोधरा की विरह में।

शोकाकुल हो उनसे और
राहुल से मिलने कपिलवस्तु
वे लौट गए हैं !
भिक्षुक भी मठों को फूँक कर
अपनी गृहस्थी की ओर वापस प्रस्थान कर गए हैं!

लड़ाई अभी खत्म नहीं हुईं हैं-
तांडव मचा हुआ है मनुज के कपाल-कैलाश पर

फिर से सारथी को
बुद्ध और उनके शिष्यों को
स्वयं से लड़ने के लिए तैयार होना होगा –
घोर कठिन समय की लड़ाइयाँ
शेष हैं अभी…।

 

कवि सुशील कुमार, जन्म: 13 सितम्बर, 1964. स्थान: मोगलपुरा, पटना सिटी के एक कस्बाई इलाका और 1985 से दुमका (झारखंड) में निवास.
• कविताएँ, समालोचना, आलेख इत्यादि कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित।
• नवीनतम गद्य कृति : आलोचना का विपक्ष 2019 में

कविता संग्रह: हाशिये की आवाज 2020 (लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से)
पहला काव्य-संग्रह – ‘तुम्हारे शब्दों से अलग’ 2011 में।
दूसरा काव्य-संग्रह – ‘जनपद झूठ नहीं बोलता’ 2012 में
प्रारंभिक कविताओं का एक संकलन ‘कितनी रात उन घावों को सहा है’ (2004)

सम्प्रति – जिला शिक्षा पदाधिकारी
रामगढ़ (झारखंड)-834004
मोबाइल : 70043 53450

 

टिप्पणीकार कौशल किशोर
कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार, जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), 01 जनवरी 1954, स्कूल के प्रमाण पत्र में।
संपर्क: एफ – 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ – 226017, मो – 8400208031

‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन। दैनिक जनसंदेश टाइम्स के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ में संपादन सहयोग (2014 से 2017)।
संप्रति : लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख तथा मंच के पहले राष्ट्रीय संगठन सचिव। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष।

प्रकाशित कृतियाँ: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना काल की कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कुछ कविताएं काव्य पुस्तकों में संकलित। 2015 के बाद की कविताओं का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ तथा समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपियां प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।)

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