समकालीन जनमत
जनमत

जब एक कुलपति ने शर्मिन्दा किया

सदानन्द शाही

वाकया 28 दिसम्बर 2018 का है. गाजीपुर के स्व सत्यदेव सिंह कालेज में उच्च शिक्षा की चुनौतियों पर सेमिनार था। उदघाटन सत्र में मंच पर अनेक कुलपति, पूर्व कुलपति, पूर्व मंत्री , कई प्रोफेसर ,प्राचार्य मौजूद थे.

जिस महाविद्यालय में वह कार्यक्रम चल रहा था वह वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर से सम्बद्ध था. वहां के कुलपति प्रो राजाराम यादव सत्र के अध्यक्ष थे. चूंकि वे यहीं के कुलपति थे इसलिए वे लगभग दो घंटे देरी से आये.

देर से आने को लेकर उनमें कोई शर्मिन्दगी नहीं थी. वे इस तरह अकडते हुए आए जैसे कोई फिल्मी जमींदार अपने इलाके में आया हो. वे एक अजाने गर्व से गर्वित थे. वे सभागार में कुछ इस तरह से दाखिल हुए जैसे उनके चलने से धरती कुछ दब रही हो.

इसी अंदाज से वे मंच पर भी आये. उन्हें बहुत जल्दी थी. सम्मान आदि ग्रहण करने के बाद उन्होंने आयोजकों को निर्देशित किया कि वे सबसे पहले बोलेंगे. सभा की रीति है कि अध्यक्ष सबसे बाद में बोलता है, सब की सुनता है, सबको गुनता है फिर अपना मंतव्य देता है लेकिन उन्हें किसी को सुनने की जरूरत नहीं थी. क्योंकि वे अविवाहित थे, क्योंकि वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढे थे, (उस इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जो पूरब का आक्सफोर्ड माना जाता है) और वहीं प्रोफेसर हो गये थे, क्योंकि वे ओएनजीसी की नौकरी छोडकर अध्यापन में आये, क्योंकि वे वहीं के कुलपति थे लिहाजा वे सिर्फ सुना सकते थे , सुनना गवारा नहीं था उन्हें.

वे भारतीय संस्कृति में निष्णात थे बस विद्या ददाति विनयम् वाला पाठ नहीं पढ पाये थे-इसलिए वे सिर्फ उपदेश दे सकते थे। सो रीति छोड़कर सबसे पहले उन्होंने उपदेश दिया। चूंकि वे बहुत जल्दी में थे इसलिए सिर्फ एक घंटा बोले। सबसे पहले उन्हें अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करना था। सो उन्होंने अलग- अलग तर्कों से यह बताया कि यहां बैठे लोगों में वे सबसे श्रेष्ठ , सबसे विशिष्ट हैं। हालाकि ऐसा न भी करते तो भी वे श्रेष्ठ ही बने रहते। उन्होंने खुले मंच से बिना लज्जित हुए अपने को अनेक प्रमाणपत्र दिये। वे पति नहीं बन पाये थे इसका मलाल गुरूर की हद तक पहुंच गया था। कुलपति बन जाने से पति न बन पाने का मलाल कम हुआ और पर गुरूर सातवें आसमान पर। इस गुरूर ने उन्हें वासना से भले दूर न किया हो ,विषय से बहुत दूर कर दिया था।

सबसे पहले उन्होंने जेएनयू पर हमला किया जैसे जेएनयू ही पाकिस्तान हो। जेएनयू पर जबानी तोप के गोले दागने के बाद वे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के मुद्दे पर मेहरबान हुए। स्वायत्तता का माने मतलब उनके वक्तव्य से समझ नहीं आया क्योंकि वे लगे हाथ विश्वविद्यालयों के राजनैतिक दुरुपयोग का महिमामण्डन भी करते जा रहे थे।

अचानक उन्हें याद आया कि छात्रों को कुछ ज्ञान दें।और जो ज्ञान उन्होंने दिया वह सुनकर मंच पर बैठा हर व्यक्ति स्तब्ध रह गया। आप भी सुनें और स्तब्ध हों-‘अगर किसी से झगडा हो जाय तो उसकी पिटाई कर के आओ और हो सके तो उसका मर्डर कर के आओ . ‘अपने इस अंतिम उपदेश के बाद वे मंच से उतरे और सभागार से निकल गये. उनके साथ ही उनके साथ आये तमाम लोग भी उठ कर चल दिए. धरती का बोझ कुछ बढ सा गया था. सो उनके चलने से धरती कुछ ज्यादा ही दब रही थी. यह पढ सुनकर अगर आप स्तब्ध नहीं हुए तब तो मुझे आप से कुछ नहीं कहना लेकिन अगर स्तब्ध हुए हैं तो जरूर कुछ बातें कहूंगा.

पहली बात तो यह कि कुलपति जी के उद्बोधन से उच्च शिक्षा की चुनौतियां हमारे सामने प्रत्यक्ष हो गयी थीं. ऐसे कुलपति ,ऐसे प्रोफेसर और अध्यापक जो बहादुर बनाने के नाम पर छात्रों को मर्डर करने की प्रेरणा दे रहे हैं, ही उच्च शिक्षा की सबसे बडी चुनौती हैं .  इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक और चर्चित प्रोफेसर की याद आ रही है ,जो हाल हाल तक एक महत्वपूर्ण केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति रहे. कुलपति रहते हुए वे अपने को किसी भी गुण्डे से बडा गुण्डा होने का दावा करते थे और गर्व से भर उठते थे.  उन्होंने परिसर में बहुतेरे गुण्डे पाल रखे थे. छात्रों ,अध्यापकों को धमकाना और कभी कभी पिटवा देना उनका शगल था. क्या संयोग है कि दोनो कुलपति एक ही स्कूल के पढे लिखे हैं। विचार करें कि विश्वविद्यालय की वह सारी पढाई लिखाई किस काम की जो आपको ठीक ठिकाने का नागरिक नहीं बना पाती. और आप महात्मा बुद्ध ,कबीर ,रैदास,विवेकानन्द और गांधी के देश में मर्डर को बहादुरी का पर्याय बताने लगते हैं.

आज के अखबारों में प्रो राजाराम यादव ने सफाई दी है कि उनकी बातों को तोड़ मोड़कर प्रस्तुत किया गया है. वे तो बस छात्रों को बहादुर बनने की शिक्षा दे रहे थे. दरअसल वे अपने विश्वविद्यालय में विवेकानन्द की जयंती पर युवा दिवस मनाने की बात करते- करते मर्डर तक जा पंहुचे.  यह विवेकानन्द की कैसी समझ है ? विवेकानन्द युवकों के आदर्श हैं . इसलिए कि वे मजबूत व्यक्ति हैं . लेकिन उनकी मजबूती का स्रोत लाठी,  डण्डा या मर्डर नहीं बल्कि अपने विचारों पर दृढ विश्वास है. भीड में हुआं हुआं करने में नहीं बल्कि अकेले पड जाने पर भी साहस के साथ सत्य पर टिके रहने में है, विवेकानन्द की ताकत का स्रोत इसमें है.

दूसरी बात यह कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे महान संस्थान में जीवन भर पढने-पढाने के बाद भी अगर सोच लाठी डण्डे और मर्डर तक ही महदूद है तो यह गम्भीर चिन्ता का विषय है. आखिर ऐसा क्यों होता है ? दरअसल हमारे जीवन में ही एक फांक है. शिक्षा का उद्देश्य शिक्षित मनुष्य बनना नहीं बल्कि रोजगार तक सीमित रह गया है.  शिक्षित मनुष्य होना रोजगार मिलने की गारण्टी नहीं है. दक्ष होना भी रोजगार की गारण्टी नहीं है. खास तौर से शिक्षण संस्थानों में जहां दलबंदी, चाटुकारिता और गुंडागर्दी रोजगार की गारण्टी हो जाय तो ऐसी ही स्थिति की ओर ले जाती है. हमारी पढाई अलग होती है, हमारा विचार अलग होता है और जीवन बिल्कुल अलग.

हम गांधी अध्ययन और अहिंसा के विद्वान होकर भी बडे मजे से मारपीट और उन्माद को बढावा दे सकते हैं.  हम भौतिक विज्ञान और गणित के आचार्य होकर तर्क और विवेक के उलट जा सकते हैं. यह जो ज्ञान और संवेदना में फांक है और इस फांक के लिए स्वीकार्यता है वह शिक्षा मात्र के लिए चुनौती है.  यह स्वीकार्यता कहां-कहां से आती है ? इस पर भी विचार करना चाहिए.

कई बार जाति ,कई बार धर्म , कई बार दलबंदी ऐसी तुच्छताओं के पक्ष में खडे हो जाते हैं.  देखना चाहिए कि क्या हमारी शिक्षा भारतीय समाज में हजारों साल से तपेदिक की तरह घर किये बैठे पाखंड को चुनौती दे पायी है ? शायद नहीं.  इधर मूल्य शिक्षा के अनेक पाठ्यक्रम या केन्द्र बने लेकिन वे स्वयं पाखण्ड के शिकार हो गये. इसलिए हमारी शिक्षा की चुनौती पाखण्ड- खण्डन की है. सत्य के लिए तर्क और विवेक को स्थापित करने की है. यदि ऐसा नहीं हुआ तो हमें ऐसे कुलपति मिलते रहेंगे और जब तब हमें शर्मसार करते रहेंगे.

उस दिन मंच पर मैं भी था और बेहद शर्मिंदा हो रहा था अपने प्रोफेसर होने पर. कि एक प्रोफेसर ऐसा बोल गया. भला हो शिक्षाविद हरिकेश सिंह का जो वहां मुख्य वक्ता के रूप में मौजूद थे. वे दोहरी शर्मिंदगी झेल रहे थे क्योंकि वे प्रोफेसर भी थे और कुलपति भी. प्रो हरिकेश सिंह ने एक कुलपति – प्रोफेसर के इस शर्मनाक और घृणित वक्तव्य के लिए कुलपति समुदाय की ओर से, प्रोफेसर समुदाय की ओर से ,विद्वत समुदाय की ओर से ,जिम्मेदार नागरिक समुदाय की ओर से सार्वजनिक तौर पर माफी मांग ली.  लेकिन सवाल यह है कि ऐसे कुलपति राजारामों के इस शर्मसार करने वाले कृत्यों के लिए हम कब तक शर्मिदा होते रहेंगे और कब तक माफी मांगते रहेंगे.

मैं महामहिम राज्यपाल से ऐसे कुलपति को बर्खास्त करने की मांग नहीं करूंगा. वे स्वयं मामले का संज्ञान लेंगे और समुचित कारवाई करेंगे लेकिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों,अध्यापकों और एलुमिनी एसोशिएशन से जरूर गुजारिश करूंगा कि ऐसे धतकरम करने वालों को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र होने की हैसियत वापस ले लें ताकि कम से कम उस विश्वविद्यालय का गौरवशाली अतीत कलंकित न हो.

( सदानन्द शाही बीएचयू में हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं )

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