17 वें लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले सोमवार 7 जनवरी को केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में सामान्य श्रेणी में आर्थिक रूप से पिछड़ों को नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में दस प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय सरकार की मंशा और नीयत पर कई सवाल खड़े करता है। आगामी लोकसभा चुनाव के पूर्व संसद के शीतकालीन सत्र के अन्तिम दिन 8 जनवरी को लोकसभा में सरकार ने 124 वां संविधान संशोधन विधेयक 2019 लाकर इसे पारित करा लिया।
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की मांग लम्बे समय से उठती रही है। मंडल आयोग की रिपोर्ट के पहले ऐसी मांग नहीं उठी थी। भारतीय संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। नेहरू ने कभी आरक्षण के सिलसिले में आर्थिक पक्ष की कोई बात नहीं की थी। 1980 में मंडल आयोग की रिपोर्ट आयी थी, जिसे दस साल बाद पारित किया गया। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद 1991 से ही गरीब सवर्णों को आरक्षण दिये जाने की मांग सदैव की जाती रही है। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने अपने कार्यकाल में मंडल आयोग की रिपोर्ट के प्रावधानों को लागू करते समय अगड़ी जातियों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था भी की थी, जो सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा खारिज की गयी। राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्रों में समय-समय पर इस आरक्षण की बात की थी।
देश में सवर्ण मत बीस प्रतिशत है और तीन हिन्दी राज्यों – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव हारने के बाद भाजपा को यह महसूस हुआ कि सवर्ण वोट बैंक उससे दूर हो रहा है। मध्यप्रदेश की 29 संसदीय सीटों में से 14 सवर्ण बहुल सीटें हैं, जिसमें 13 सीट पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जीती थी। छत्तीसगढ़ की कुल 11 सीटों में से सवर्ण बहुल सीट 7 है जो सभी भाजपा को मिली थी। इसी प्रकार राजस्थान की कुल 25 सीटों में से 14 सीट सवर्ण बहुल है, जो सभी भाजपा ने जीती थी, पर विधान सभा चुनाव में उसे इन राज्यों में अपनी कई सवर्ण बहुल सीट गंवानी पड़ी थी। यह भाजपा के लिए एक बड़ा झटका था।
भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में 282 सीट प्राप्त हुई थीं, जिनमें से 256 सीट उसे 14 राज्यों से मिली थीं। इन 14 राज्यों ( बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, दिल्ली उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, असम ) में से 10 हिन्दी राज्य हैं और 4 गैर हिन्दी राज्य। इन राज्यों की कुल 341 सीटों में से लगभग आधी सीट पर सवर्ण मतदाताओं की मुख्य भूमिका है। उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाताओं का प्रतिशत लगभग एक चौथाई है और भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में 341 लोकसभा सीटों में से सवर्ण बहुल 179 सीटों में से भाजपा ने 140 सीट प्राप्त की थी। इसलिए सवर्णों का आरक्षण देने के फैसले को मोदी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा गया है।
सरकार द्वारा लिया गया यह निर्णय एस सी-एस टी एक्ट पर नाराज सवर्णों को अपने पक्ष में करने के लिए है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट दस साल बाद संसद से पारित की गयी थी, पर मोदी की कार्यशैली झटपटिया है। वह आनन-फाानन में सब कुछ कर लेना चाहती है। सोचने-विचारने और गंभीरतापूर्वक बहस करने एवं विरोधी दलों की सलाह-आपत्तियों को मानने-समझने की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। 7 जनवरी को मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया। 8 जनवरी को लोकसभा में थोड़ी-बहुत बहस के बाद इसे पारित किया गया और 9 जनवरी को राज्यसभा में 8 घंटे इस पर चर्चा कर इसे पारित करा लिया गया। महज एक दिन में संविधान का संशोधन संविधान के प्रति वर्तमान सरकार के ‘लगाव’ और ‘गहरे सम्मान’ का सूचक भी है।
कांग्रेस के अनुसार यह ‘केवल चुनावी जुमलेबाजी’ है, पर इस जुमलेबाजी में सभी शरीक हैं। इसे ‘ओबीसी के हक पर डकैती’ भी कहा गया। राज्यसभा में आर्थिक आरक्षण बिल पर राजद के सांसद मनोज झा ने लाल झुनझुना दिखाकर यह कहा कि यह हिलता है, पर बजता नहीं। समर्थक राजनीतिक दल एकाध को छोड़कर प्रायः सब रहे क्योंकि सबकी चिन्ता में वोटबैंक था। विरोध का मतलब था सवर्ण वोटों का नुकसान। बिल का विरोध न कर हड़बड़ी में इसे लाये जाने की चर्चा भर की गयी, इसकी कुछ खामियों-असंगतियों की ओर ध्यान भी दिलाया गया, पर लोकसभा में इसके समर्थन में 323 वोट पड़े और विरोध में मात्र 3।
एक ओर सवर्ण आरक्षण बिल को ‘बाबा साहब डा अम्बेडकर का अपमान’ और ‘संविधान की मूल भावना के विरुद्ध’ कहा जा रहा है, तो दूसरी ओर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को ‘इक्कीसवीं सदी का अम्बेडकर’ कह रहे हैं। जो आरक्षण संवैधानिक रूप से गलत है, उसका सत्ता पक्ष भरपूर प्रशंसा कर रहा है। लोकसभा में बहुमत से बिल पारित होने के दूसरे दिन 9 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शोलापुर की रैली में इस बिल के द्वारा विपक्ष को ‘करारा जवाब’ देने की बात कही और यह भी कहा ‘मुंह पर चोट मारी है’। इतना ही नहीं, उनके अनुसार ‘भारत माता में आस्था रखने वालों के लिए यह महत्वपूर्ण है।’ उन्होंने ‘सही नीयत के साथ आवश्यक नीति के निर्माण’ की भी बात कही और यह बताया कि राष्ट्रहित और जनहित में वे बड़े फैसले लेते हैं। ‘सबका साथ, सबका विकास’ हमारा संस्कार और सरोकार है।’
भारत में आरक्षण का पुराना इतिहास है। पहला उदाहरण 1902 का है, जब कोल्हापुर के महाराजा साहू महाराज ने गैर ब्राहमणों और पिछड़ी जातियों के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था की। उन्होंने सबके लिए निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की और कई छात्रावास खोले। उन्होंने वर्गमुक्त भारत और अस्पृश्यता की समाप्ति की बात की। पिछड़े समुदायों को उन्होंने 50 प्रतिशत आरक्षण दिया था। मैसूर के महाराजा ने 1921 में इसे आगे बढ़ाया था। उस समय इन महाराजाओं के उद्देश्य भिन्न थे। उनका उद्देश्य सामाजिक था, न कि राजनीतिक। आज के आरक्षण-प्रिय नेताओं से कल के इन राजाओं-महाराजाओं की तुलना की जानी चाहिए। सरकार की चिन्ता में केवल वोट है, न कि ऊँची-पिछड़ी जाति के गरीब।
दस प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान के 15 वें अनुच्छेद का संशोधन आवश्यक है क्योंकि संविधान में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग का कोई उल्लेख नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को अधिकतम 50 प्रतिशत निर्धारित कर रखा है। फिलहाल अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत, अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत और अति पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। इस प्रकार कुल 49.5 प्रतिशत आरक्षण है। सरकार इस संविधान संशोधन विधेयक से संविधान के साथ छेड़खानी कर रही है क्योंकि संविधान में आरक्षण का कोई आर्थिक आधार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार किसी भी स्थिति में आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए क्योंकि इससे प्रतिभा कुंठित होगी। संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग को आगे बढ़ने के अवसर दिये जाने की बात कही गयी है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के बैरियर को भी तोड़ने की कोशिश की है। राज्यसभा के कुछ सांसदों ने इसी आधार पर ओबीसी को 54 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग की।
समय समय पर संविधान में संशोधन होते रहे हैं और संशोधन विधेयक पारित भी होते रहे हैं, पर मुख्य इसके पीछे की नीयत को देखने और समझने की है। भाजपा की चाल समझी जानी चाहिए। इस संविधान संशोधन विधेयक के कारण से राॅफेल डील से सबका ध्यान हट गया। ऊँची जातियों का भाजपा को समर्थन मिला। संविधान और सुप्रीम कोर्ट की अनदेखी की गयी और यह सब मात्र अगले चुनाव में वोट प्राप्त करने के लिए।
ऊँची जाति के आरक्षण से ‘सामाजिक न्याय’ का विचार प्रभावित होता है, उसकी हार होती है। सामाजिक पिछड़ेपन को यह निर्णय प्रभावित करता है। ऊँची जातियों के गरीबों को शिक्षा प्रदान करने के लिए छात्रवृति, शैक्षिक कर्ज और अन्य सहयोग किये जा सकते हैं। इस विधेयक से ‘सामाजिक न्याय’ की धारणा पर चोट की गयी है। कांचा इल्लैया का मत है कि ऊँची जाति के शूद्रों-मराठा, जाट, गुज्जर और पटेल को आरक्षण मिलना चाहिए, न कि ब्राहमण, क्षत्रिय, बनिया और कायस्थ को। क्या सचमुच मोदी सरकार को सवर्ण गरीबों की चिनता है ?
भाजपा पहले सवर्णों की पार्टी थी और बनियों की। 1990-91 के बाद उसने अपनी नीतियां बदली और प्रत्येक समुदाय और क्षेत्र में अपनी पैठ बनायी। आदिवासी, दलित, पिछड़ा, अति पिछड़ा – सर्वत्र वह पहुंची और उसे चुनावी जीत हासिल हुई। पिछड़े वोट के कारण ही पिछले लोकसभा चुनाव, 2014 में भाजपा का 2009 का 18.6 प्रतिशत वोट बढ़कर 31.3 प्रतिशत हो गया। नरेन्द्र मोदी के पिछड़े वर्ग से आने की बात बार-बार कही गयी। अब सभी दलों के साथ मुश्किल यह है कि वे किसी एक जाति, वर्ग, समुदाय आदि पर निर्भर नहीं रह सकते। सारे समीकरण बदलते रहते हैं। सभी दलों को सबसे वोट प्राप्त करना है। भाजपा चुनावी गणित में अभी तक माहिर रही है। पर मोदी के कार्यकाल में कुछ भी ठोस और सार्थक नहीं हुआ है। प्रताप भानु मेहता ने ऊँची जातियों के गरीबों को दिये गये इस आरक्षण को ‘द रिजर्वेशन जुमला’ (इंडियन एक्सप्रेस, 8 जनवरी 2019) कहा है। इसे उन्होंने ‘सिनिकल राजनीति आौर नीति’ कहा है।
चिन्ता की बात यह है कि क्या यह जुमला सभी दलों का जुमला बन रहा है ? क्या यह संविधान संशोधन सचमुच गरीब ऊँची जाति के लिए है ? गरीबी का मापदण्ड क्या है ? आर्थिक रूप से कमजोर ऊँची जाति के उन लोगों को यह आरक्षण मिलेगा जिनकी वार्षिक आय आठ लाख से अधिक नहीं होगी ( प्रतिमाह लगभग 66 हजार रुपये ), जिनके परिवार के पास 5 एकड़ से अधिक कृषि भूमि नहीं होगी, जिनके पास एक हजार वर्ग फुट से बड़ा फ्लैट नहीं होगा, जिनका 100 गज से बड़ा घर नगरपालिका क्षेत्र में और नगरपालिका से बाहर 209 गज से बड़ा घर नहीं होगा। क्या यह सचमुच गरीबी का मापदण्ड है ? अभी 93.3 प्रतिशत परिवारों की वार्षिक आय 1 से 2.5 लाख के बीच है और 86 प्रतिशत परिवारों के पास 5 एकड़ से कम भूमि है।
मोदी सरकार ने जो मानदण्ड तय किये हैं, वे कितने लोगों के पास है ? गरीबी रेखा के अधीन प्रतिदिन चालीस रुपये वाले लोग आते हैं, जबकि इस मापदण्ड के अनुसार प्रतिदिन की आय दो हजार से अधिक है। ढ़ाई लाख रुपये के बाद आयकर लगता है। क्या अगले बजट में वितमंत्री अरुण जेटली इनकम टैक्स की राशि आठ लाख करेंगे ? बड़ा सवाल नौकरियों का है। सरकारी नौकरियां खत्म की जा रही हैं। सरकारी खाली पद भरे नहीं जा रहे हैं। निजी क्षेत्रों में भी नौकरियां धट रही हैं। अधिसंख्य जगहों पर आउट सोर्सिंग से काम चलाया जा रहा है। सरकार के पास कोई उपलब्ध डाॅटा नहीं है। उसने बिना डाॅटा इक्ट्ठा किये झटपट संविधान संशोधन विधेयक ला दिया। इसे ‘ठहरे हुए पानी में कंकड़ डालने’ की तरह कहा गया है, जिससे यह देखा जाएगा कि तरंगें कितनी दूर तक और कब तक पैदा होती हैं ? बेशक सरकार के अधिकार में संविधान का संशोधन है, पर यह समझना जरूरी है कि यह संशोधन किस के हित में है। एक दल विशेष के हित में अथवा सचमुच वंचितों के हक में ? भाजपा के लिए यह भले ‘ऐतिहासिक बिल’ हो, लेकिन इसे घातक बिल के रूप में देखा जा रहा है।
यह समझा जा रहा है कि यह जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने की एक शुरुआत है। यह भाजपा की चाल है – अनोखी चाल। एक तीर से जहां कई निशाने एक साथ साधे जाते हैं। सवर्णों के विरोध से बचने के लिए मात्र कुछ दलों को छोड़कर सबको इसका समर्थन करना पड़ा।
जाति आधारित जनगणना 1931 के अस्सी वर्ष बाद 2011 में हुई पर सरकार जाति जनगणना के आंकड़े सामने नहीं ला रही है। इसके सामने आने पर सही जाति-स्थिति का पता चलेगा और आंकड़ों के सार्वजनिक होने के बाद यह स्पष्ट हो जाएगा कि गरीबी बढ़ रही है या मिट रही है। कांग्रेस ने 2013 में, 2014 चुनाव से पहले जाट को आरक्षण दिया था। लोकसभा चुनाव में वह हारी और सुप्रीम कोर्ट ने उसे नहीं माना। क्या उसी प्रकार आगामी लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा द्वारा लाये गये इस आरक्षण का वैसा ही परिणाम होगा ? क्या वह भी लोकसभा चुनाव हारेगी और सुप्रीम कोर्ट भी इस आरक्षण के विरुद्ध फैसला देगा ?