पहली पुण्यतिथि 4 अप्रैल पर
कौशल किशोर
कुछ लोग साधारण दिखते हैं पर वे साधारण होते नहीं। इसी बात को ‘ प्रतिरोध का सिनेमा ’ के सूत्रधार संजय जोशी ‘ गोमती के शहर में गंगा ’ के रूपक में कहते हैं। यह गंगा कोई और नहीं श्रमिक नेता और लेनिन पुस्तक केन्द्र के प्रबंधक कामरेड गंगा प्रसाद हैं। बीते साल 4 अप्रैल को उनका निधन हुआ। एक साल बीत गया लेकिन उनके जाने से जो गैप पैदा हुआ है, वह आज तक भरा नहीं जा सका है।
कम्युनिस्ट आदर्शों में तपे वे ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अपना सारा जीवन श्रमिक आंदोलन और वामपपंथी-जनवादी विचारों व संस्कृति के प्रचार-प्रसार को समर्पित कर दिया।
चार साल पहले गंगा प्रसाद के शरीर पर लकवे का गंभीर आघात हुआ था। पैर, हाथ और शरीर के दूसरे अंगों पर उसका ऐसा असर हुआ कि चलना-फिरना तो दूर दैनिक क्रिया का संपादन भी दूभर हो गया। आवाज में लड़खड़ाहट आ गई। बस आंखें, कान व दिमाग दुरुस्त था। अब देश, दुनिया और समाज से जुड़ने का यही माध्यम बचा था। उन्होंने पढ़ना जारी रखा। बीमारी की हालत में भी देश-दुनिया में चल रहे आंदोलनों की खबर रखते थे। बड़ी जिंदादिली से अपनी बीमारी से संघर्ष किया। बिस्तर पर रहते हुए उन्होंने लेनिन पुस्तक केन्द्र को अपनी चिन्ता और चिन्तन के केन्द्र में रखा और वहां की गतिविधियों पर नजर रखी। अब मीटिंग पुस्तक केन्द्र में न होकर उनके घर पर होने लगी। यह उनकी चाहत थी क्योंकि इसी माध्यम से वे अपने को समाज, संस्कृति और राजनीति से जोड़े और अन्दर की क्रान्ति की अदम्य इच्छा को जिलाए रख सकते थे।
गंगा प्रसाद की जीवन यात्रा एक विद्रोही से शुरू हुई। उनके इस चरित्र का दर्शन युवा दिनों में ही हो जाता है जब परम्पराभंजन करते हुए उन्होंने जातिबंधंन को तोड़ा और प्रेम विवाह किया। लखनऊ की यूनियन कारबाइड की कंपनी एवरेडी फलश लाइट में श्रमिक के रूप में शुरुआत की। श्रमिकों के शोषण व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया। उनकी पहचान श्रमिक नेता के रूप में बनी। इस दौरान वे कई बार सस्पेंड व बर्खास्त भी किये गये। पर दमन व उत्पीडन उन्हें तोड़ नहीं सका। बल्कि इसमें तपकर वे और मजबूत होते गए।
गंगा प्रसाद के राजनीतिक जीवन का आरम्भ सोशलिस्ट पार्टी से हुआ। उनकी यूनियन हिन्द मजदूर सभा से सम्बद्ध थी। बाद में सोशलिस्ट पार्टी के अवसरवाद और ढुलमुलपन तथा यूनियन नेताओं के मालिक व प्रबंधन परस्त रवैये की वजह से उनका सोशलिस्टों से माहभंग हो गया। वे कम्युनिस्ट पार्टी में आए और भाकपा माले के सदस्य बने। उन्होंने अपनी यूनियन में अन्तर संघर्ष तेज कर दिया और प्रबन्धनपरस्त व अवसरवादी नेताओं को अलग-थलग करते हुए मजदूरों को क्रन्तिकारी ट्रेड यूनियन केन्द्र के इर्द-गिर्द गोलबन्द किया। इस प्रक्रिया में यूनियन एक्टू से सम्बद्ध हो गई। एवरेडी से रिटायरमेंट के बाद गंगा प्रसाद के कदम अपने घर की ओर न जाकर माले के दफ्तर की ओर मुड़़ गये। वे माले के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। लालकुंआ का आफिस ही उनका घर था।
यह दौर सोवियत संघ के विघटन और समाजवादी व्यवस्था के खात्मे का था। दुनिया में माक्र्सवाद पर हमला तेज था। समाजवाद को अतीत की वस्तु के रूप में प्रचारित किया जा रहा था। विचारधारा व इतिहास के अन्त के रूप में दर्शन के क्षेत्र में वेन डेनियल और फुकुमाया हावी थे। बहुतों की क्रान्तिकारी अस्था कमजोर पड़ रही थी। ऐसे समय में गंगा प्रसाद मजबूती से माक्र्सवाद के पक्ष में खड़े हुए। लखनऊ में लेनिन पुस्तक केन्द्र की स्थापना हुई। गंगा प्रसाद को इसके प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गई। यह अलग तरह का काम था जिसमें वे दीक्षित नहीं थे। वे मजदूर आंदोलन के कार्यकर्ता थे। यह उनके लिए कठिन और चुनौती पूर्ण जिम्मेदारी थी। लेकिन उन्होंने साहस के साथ इसे स्वीकार किया।
गंगा प्रसाद ने बड़े ही सृजनात्मक तरीके से पुस्तक केन्द्र का संचालन किया। इसमें उनका विजन दिखता है जिसके तहत उन्होंने इसे लोगों को जोड़ने वाले संगठक और पुस्तक बिक्री केन्द्र के साथ इसे जन चेतना के प्रचार का माध्यम बना डाला। यह घुमन्तू पुस्तक केन्द्र था। गंगा प्रसाद ने किताबों को अपनी पीठ पर लादे देश के दर्जनों शहरों, कस्बों और गांवों तक दौरा किया और प़त्र-पत्रिकों के माध्यम से क्रान्तिकारी पुस्तक संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। इनके कोठार में सिर्फ मार्क्सवादी साहित्य नहीं था बल्कि इसमें अम्बेडकर, फुले, पेरियार से लेकर स्वाधीनता आंदोलन के क्रान्किारियों की पुस्तकें शामिल थीं। यहां देश के विभिन्न अंचलों और नेपाल से साथी आते और अपनी जरूरत की किताबें ले जाते।
गंगा प्रसाद के नेतृत्व में लेनिन पुस्तक केन्द्र लखनऊ शहर के बौद्धिक व सांस्कृतिक विमर्श की ऐसी जगह थी जहां नियमित रूप से गोष्ठियां, बैठकें, बहस-मुबाहिसा जैसी गतिविधियां होती। लेखक, सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता और बौद्धिक यहां आते और यहां होने वाले कार्यक्रमों में हिस्सा लेते। हरेक साल 22 अप्रैल को लेनिन पुस्तक केन्द्र अपना स्थापना दिवस मनाता जिसमें व्याख्यान, कविता पाठ, नाटक आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम होते।
इस केन्द्र पर होने वाले कार्यक्रमों में पंकज बिष्ट, आनन्द स्वरूप वर्मा, अखिलेश मिश्र, कामतानाथ, मुद्राराक्षस, मोहन थपलियाल, उर्मिल कुमार थपलियाल, रूपरेखा वर्मा, शोभा सिंह, रमेश दीक्षित, वन्दना मिश्र, शिवमूर्ति, अजय सिंह, अनिल सिन्हा, अजन्ता लोहित, ताहिरा हसन, महेश प्रसाद श्रमिक, तश्ना आलमी, प्रभा दीक्षित, राजेन्द्र कुमार, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, जुगल किशोर, राकेश, वीरेन्द्र यादव, शकील सिद्दीकी, भगवान स्वरूप कटियार, राजेश कुमार, चन्द्रेश्वर जैसे अनगिनत लेखकों, बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का आना हुआ। इस जीवन्तता के केन्द्र में गंगा प्रसाद थे।
सार रूप में कहा जा सकता है कि आज के मतलबपरस्त और अवसरवादी दौर में गंगा प्रसाद जैसे लोग दुर्लभ होते जा रहे हैं। उनकी खूबी थी कि उन्होंने अपने विचारों के साथ कोई समझौता नहीं किया और गलत प्रवृतियों के खिलाफ समझौतहीन संघर्ष चलाया, संगठन के अन्दर और बाहर भी, वहीं व्यवहार में वे बेहद लचीले थे। साथियों के प्रति उनका रुख उदार, आत्मीय व स्नेहिल था। उन्होंने जिस रास्ते का वरण किया वह कठिनाइयों से भरा था। वहां पाना नहीं खोना था। गंगा प्रसाद की जीवन कथा विद्रोही से क्रान्तिकारी तथा श्रमिक से सर्वहारा बुद्धिजीवी में रूपान्तरण की कथा है। लकवा के आघात के बाद उनके पास जो जीवन बचा था तथा शरीर के अन्दर जो भी क्षमता शेष थी, उसका उपयोग वे वामपंथी राजनीति और संस्कृति के लिए करना चाहते थे, उस स्वप्न के लिए करना चाहते थे जिसे युवा दिनों से वे देखते चले आ रहे थे और उन्होंने ऐसा किया भी। उनकी इस जिजीविषा को देखते हुए रूसी उपन्यासकार निकोलाई आस्त्रोवस्की के मशहूर उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ के मुख्य पात्र पाॅवेल की बरबस याद हो आती है जो शारीरिक रूप से अक्षम होने के बावजूद उसके अन्दर की क्रान्तिकारी इच्छा नहीं मरती, वह निराश नहीं होता बल्कि जब चलना-फिरना असंभव हो गया और शरीर के अंगों ने साथ देना बन्द कर दिया तो उसने हाथ में कलम थाम ली। गंगा प्रसाद भी क्रान्ति के मोर्चे के ऐसे ही सिपाही थे। उनके पहले स्मृति दिवस पर अपने इस बेहतरीन साथी को सलाम, लाल सलाम!
(वरिष्ठ कवि कौशल किशोर जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष हैं )