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गीतांजलि श्री के ताजा उपन्यास ‘रेत-समाधि’ पर बनारस में समीक्षात्मक चर्चा —– एक रिपोर्ट

बीएचयू आईआईटी के मानविकी विभाग की तरफ से हाल ही में हिन्दी साहित्य की समकालीन चर्चित लेखिका गीतांजलि श्री के स्त्री केन्द्रित उपन्यास रेत-समाधि पर समीक्षात्मक चर्चा की गयी. यह चर्चा महज हिन्दी साहित्य को जानने पढ़ने वाले विद्वानों द्वारा ही नहीं थी बल्कि गैर हिन्दी साहित्यिक समूहों से जुड़े लोगों ने भी उपन्यास पर समीक्षा प्रस्तुत की. स्वयं गीतांजलि श्री की कार्यक्रम में उपस्थिति चर्चा को और भी जीवन्तता प्रदान कर रही थी.

कार्यक्रम के समन्वयक बीएचयू के अंग्रेजी विभाग के प्रो. संजय कुमार ने चर्चा के प्रारम्भ में रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए बताया कि ‘रेत-समाधि’ गीतांजलि श्री का पांचवा उपन्यास है जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है. इससे पहले साम्प्रदायिकता पर केंद्रित उनका उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ काफी चर्चित रहा है. इनकी रचनाओं का अनुवाद कई भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में हो चुका है, साथ ही गीतांजलि श्री लंबे समय से रगमंच के लिए भी लिखती रही हैं और संगीत में भी उनकी गहरी रूचि रही है जिसकी झलक उनके ताजा उपन्यास रेत-समाधि में दिखाई देती है. रेत-समाधि का काल खंड भारत विभाजन से अब तक का समय है और यह उपन्यास स्त्री विमर्श के कई अनछुए पहलुओं को अपनी भाषा की जादूगरी से बेहद अलग ढंग से उजागर करता है.

प्रो. आर के मंडल

उपन्यास पर समीक्षा चर्चा करते हुए बीएचयू के हिन्दी विभाग की प्रो. आभा गुप्ता ने कहा कि गीतांजलि श्री का उपन्यास रेत-समाधि तीन भागों में बंटा हुआ है. यह माँ और बेटी के विस्तृत फलक की कहानी है जहाँ माँ छोटी होती जाती है और बेटी अपने आकार में बड़ी होती जाती है. माँ के लिए उसकी बेटी अपनी अधूरी इच्छापूर्ति का एक साधन भी है जिसके साथ वह सरहद पार कर पाकिस्तान चली जाती है. नई कथा भाषा की खोज के साथ उपन्यास आज के मनुष्य की सम्वेदना को ताजा करता चलता है. रेत- समाधि में प्रकृति अपने अनूठे रूप में आती है. उपन्यास में पेड़, झील, तमाम जीव जन्तु उपन्यास की नायिका अम्मा के साझीदार हैं. साथ ही कई बेजान वस्तुएं जैसे पीठ, दरवाजा, घड़ी, छड़ी भी एक किरदार के तौर पर दिखई देते हैं. सबसे महत्वपूर्ण रोज़ी का चरित्र है जो थर्ड जेंडर के विमर्श को आगे बढ़ाता है. उपन्यास में नैना साहनी, जेसिकालाल हत्याकांड, गौ हत्या का भी जिक्र आता है जिससे लेखिका के अपने समय में होने का अहसास भी होता है. प्रो. आभा ने यह भी कहा कि रेत-समाधि एक गम्भीर उपन्यास है और लेखिका ने उतनी ही तन्मयता से इसे लिखा है और इस कृति में किसी भी सस्ती लोकप्रियता हांसिल करने वाले किसी हथकंडे का प्रयोग नहीं मिलता .

डॉ. वंदना चौबे

आईआईटी.बीएचयू के प्रो. आर .के. मंडल ने गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत-समाधि’ की जमीन को साहित्य की दृष्टि से बेहद उपजाऊ बतलाया. उन्होंने कहा कि पूरे उपन्यास में शास्त्रीयता है, रूमानियत है. कहानी के पात्र घर के अंदर भी हैं और बाहर भी. कहानी का मुख्य चरित्र काल को और भौगोलिक सीमाओं को लांघता नजर आता है. टूटते संयुक्त परिवारों की कमी को भी दर्शाता है साथ ही युवक-युवतियों की त्रासदियों को भी पाठक के सामने लाता है. प्रो. मंडल ने कहा कि सरहदों के बहाने ‘राष्ट्रीयता’ के समकालीन विमर्श का जिक्र उपन्यास में मिला है. उपन्यास में से – “वाघा बोर्डर पर हर शाम होने वाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवादी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं-‘कत्लेआम के माज़ी से लौटे स्वर’……..”. . जहाँ अम्मा का किरदार हमें महसूस कराता है कि मानवीय सम्वेदनाएँ बहुत ऊपर की चीज हैं और ‘राष्ट्रीयता’ खोखली हैं.
प्रगतिशील लेखक संघ की वाराणसी जिले की महासचिव डॉ. वन्दना चौबे रेत-समाधि को प्रेम कथा मानती हैं. उन्होंने बताया कि यह उपन्यास वृद्ध विमर्श, स्त्री विमर्श और थर्ड जेंडर के विमर्श को नये ढंग से प्रस्तुत करता है. उपन्यास में कई क्षेपक कथाएं बेहद महीन, बारीक भाषा के साथ आगी बढ़ती नजर आती हैं. स्त्री देह का भी वर्णन कई रूपक और प्रतीकों के माध्यम से किया गया है. ..जहाँ अम्मा की चूड़ियाँ रात भर बेटी से बात करती हैं और एक बूढ़ी औरत के दैहिक सूत्रों को खोलती नजर आती हैं. रेत स्त्री के खालीपन की निशानी है. उन्होंने कहा कि विभाजन की त्रासदी का जब उपन्यास में जिक्र आता है तब वह सभी लेखक जिन्होंने मानवीय ढंग से भारत-पाक पार्टीशन पर अपनी लेखनी का जादू चलाया है अनूठे अंदाज में उपन्यास में रंगमंच पर नजर आते हैं.
डीएवी कॉलेज में शिक्षिका डा. स्वाति नंदा का मानना है कि रेत समाधि स्त्री केन्द्रित उपन्यास है जो समाज में स्त्री के बनाये परम्परागत नियमों को तोड़ते हुए आगे बढ़ता है. अस्सी साल की दादी अपने बच्चों की खुशी में अपनी इच्छाओं को तलाशती हैं और अपनी बेटी के पास जाकर अपनी नई जिन्दगी शुरू करने का फैसला करती हैं. कल्पना में अम्मा प्राचीन भारत से लेकर ग्रीस तक की यात्रा करती हैं. वह वाइन का भी स्वाद चखती हैं, वह अपनी बालकनी में एक जंगल भी उगाना चाहती हैं. रेत-समाधि में लेखिका ने माँ-बेटी के अन्तरंग रिश्तों को भी गैर परम्परागत ढंग से दिखाना चाहा है और सम्पूर्ण उपन्यास एक लम्बी कविता जैसा प्रतीत होता है.
बीएचयू के अंग्रेजी विभाग की प्रो.अर्चना कुमार ने कहा कि उपन्यास पाठक को पूरे धैर्य से पढ़ने के लिए विवश भी करता है और प्रेरित भी इसलिए पाठक वर्ग लम्बे समय तक इसे ध्यानपूर्वक केन्द्रित होकर पढ़ सकता है. उपन्यास की केंद्रीय पात्र अम्मा का जिक्र करते हुए अर्चना कुमार कहती हैं कि अम्मा ने अपने परिवार के सदस्यों की तरफ पीठ कर ली है…और कहानी के शुरू में ही यह चर्चा आती भी है कि .. “नहीं नहीं मैं नहीं उठूँगी. अब तो मैं नहीं उठूँगी. ……..अब तो मैं नयी उठूँगी . अब तो मैं नयी ही उठूँगी .” इस लिहाज से यह एक ‘बूढ़ी औरत’ की ‘नयी औरत’ तक पहुंचने की कहानी है.

डॉ. स्वाति नंदा

बीएचयू के हिन्दी विभाग के प्रो. राजकुमार ने कहा कि रेत-समाधि को पढ़ते हुए मुझे ऐसा महसूस होता है कि लेखिका को माँ और बेटी के किरदार को गढ़ने की प्रेरणा ‘गांधी’ से मिली होगी या गांधी के व्यक्तित्व से प्रभावित हुई होंगी. गीतांजलि श्री ने रेत-समाधि को कृष्णा सोबती को समर्पित किया है और उनकी लेखनी में कई जगह “ऐ लड़की” उपन्यास की झलक भी स्पष्ट दिखाई देती है. उन्होंने प्रश्नात्मक लहजे में कहा कि क्या इस उपन्यास को हम कृष्णा सोबती के लेखन की परम्परा की अगली कड़ी के रूप में देख सकते हैं? प्रो. राजकुमार ने कहा कि रेत-समाधि में गद्य और काव्य का अद्भुत संयोजन मिलता है. जैसे-जैसे उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है उसकी काव्यात्मकता भी बढ़ती जाती है.इसलिए उपन्यास को कई बार कविता की तरह पढ़ना पड़ता है और भाषा की रवानगी अद्भुत प्रतीत होती है.
सोशल एक्टिविस्ट कुसुम वर्मा ने कहा कि लेखिका ने मानवीय सम्बन्धों के आधार पर एक बड़े कैनवस पर इस उपन्यास को रचा है जिसकी काव्यात्मक भाषा किसी सूफी गज़ल के माफिक लगती है जो कई रहस्य अपने अंदर छिपाए रहती है और पाठक के विवेक की हर पल परीक्षा लेती है. उपन्यास में यूं तो उच्च मध्य वर्गीय संस्कृति की झलक तो जरूर मिलती है लेकिन उपन्यास की मुख्य किरदार अपनी सांस्कृतिक जमीन अपने जड़ों को अपने अंदर हमेशा महसूस करती रहती है , उदाहरण के तौर पर जब शाही पार्टीं में वाइन, वोदका के साथ तमाम इलीट खान पान का फैलाव है तो वही बाटी और चोखे का स्वाद और सत्तू का शेक का भी जिक्र आ ही जाता है. कुसुम ने कहा कि माँ-बेटी के नये होते सम्बन्ध , भारत-पाक विभाजन का दौर, छोटी होती सरहदें- बड़े मानवीय मूल्य, रोज़ी जैसे थर्ड जेंडर का भी सम्वेदनात्मक चरित्र जैसे तमाम पहलू रेत-समाधि को आज के दौर में प्रगतिशील महिला आन्दोलन के नजदीक की श्रेणी का महत्वपूर्ण उपन्यास बना देता

बीएचयू आई आई टी के इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग विभाग के कांफ्रेंस हाल में सम्पन्न इस कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. कुमार पंकज ने की. समीक्षात्मक चर्चा में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव प्रो.संजय श्रीवास्तव, बांग्ला विभाग से डा. सुमिता चटर्जी एवं अंग्रेजी के शोध छात्र उमेश कुमार ने भी शिरकत की.
पुस्तक ब्यौरा : रेत समाधि: लेखिका – गीतांजलि श्री: आवरण चित्र- अतुल डोडिया: प्रकाशन – राजकमल : मूल्य – रु. 299/

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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