समकालीन जनमत
कहानी

अनकहा आख्यान: जया जादवानी

डॉ. हर्षबाला शर्मा


कहानी और कविता के भीतर बहते इन्तज़ार की नदी
कहानी पढ़ते हुए अगर कविता भीतर जन्म लेने लगे और आप उसमें बहते चले जाएँ तो उसे क्या कहेंगे!

शायद यही पहली प्रतिक्रिया थी मेरी ‘अनकहा आख्यान’ को पढ़ते हुए! जया जादवानी की कहानियों को पढ़ते हुए आप एक ऐसे अनजान शहर में प्रवेश करते हैं जिसके भीतर प्रवेश करते हुए हमेशा डर लगता है|

यह अनजाना, अनपहचाना सा शहर अपने भीतर ही मौजूद है जिसका सामना हम करना नहीं चाहते|

मनोविज्ञान की गहरी समझ रखती लेखिका ने हमारे भीतर के तनाव और उमंगों को साथ पकड़ा है, सजाया है और साथ गूंथकर एक ऐसी मूरत रची है जिस पर रीझ-रीझ जाने का मन करता है|

छोटे-छोटे नैरेटिव्स में रची जया जादवानी की कहानियाँ अपने भीतर बड़े नैरेटिव्स को छिपाए हुए है| ऐसा लगता है जैसे किसी उपन्यास के भीतर उतरते हुए उसके अंत:सूत्र हाथ लगते हैं और उसी के सहारे हम अपने जीवन के ताने-बाने बुनने लगते हैं|

कहानियों के केंद्र में ‘तलाश और इंतजार’ है कभी खत्म न होने वाला इन्तजार, अपने साथ ही अंत तक ले जाने वाला इन्तजार, किसी को उसके भीतर झाँकने की इज़ाजत न देने वाला इन्तजार पर फिर भी खुद को पूरा करने वाला इन्तज़ार!

13 कहानियों का ये छोटा सा संग्रह अपनी ऊपरी बनावट में स्त्री कथा आख्यान कहा जा सकता है पर जब आप कहानियों में प्रवेश करते हैं तो कई अलग-अलग स्वर आपको पुकारते हैं! कभी ‘हमसफ़र’ का पुरुष आपको अपना साथी लगता है तो कभी आप बीकेके का हाथ थामना चाहते हैं|

मितान को छोड़कर मितानी नहीं चलना चाहती तो कभी ‘घाट’ कहानी की नायिका की तरह आपकी आत्मा भी उस अनजाने पर पहचाने पुरुष को चीन्हने लगती है जिसकी तलाश में नायिका किसी अनजाने लोक से फिर धरती की ओर लौटती है|

यहाँ ऊपरी तौर पर स्वर उस मध्यवर्गीय स्त्री का नहीं है, जो तकलीफ में है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का विरोध कर रही है पर फिर सतह से हटकर देखने पर दिखाई देता है कि यह तलाश भी उस व्यवस्था के विरोध से ही उपजी है| उस बनी-बनाई व्यवस्था में ऐसे साथी मिल ही जाते तो किसी अनजाने लोक के दिवास्वप्न की जरूरत क्योंकर होती!

कुछ कहानियों का स्वर सीधे तौर पर पितृसत्ता के बने बनाए प्रतिमानों का विरोध है और ऐसी ही एक सशक्त कहानी है ‘’सुनो ओ पिता’|

पिता की मृत्यु के बाद पिता से सीधा संवाद! ये संवाद किसी एक पिता से नहीं,हर पिता और उस समाज से है जो लडकियों को ‘मायका बनाए रखने’ के अहसास से जोड़ने के नाम पर उन्हें उनके अधिकार से वंचित रखना चाहते हैं|

अदालतें और क़ानून कितने ही अधिकार दे हमें पर इस पूर्वाधिकार प्रदत्त समाज से लड़ पाना इतना आसान कहाँ होता है! जरूरी तथ्य यह कि इस कहानी की नायिका लड़ने का निर्णय लेती है पूरे समाज से और परिवार से भी ‘इस अपराध की क्षमा प्रार्थना कभी की हो तो वापस लेती हूँ’ यहीं से कहानी स्त्री विमर्श के दायरे के भीतर प्रवेश करते हुए सशक्त स्त्री की गाथा बन जाती है जो लड़ने का निर्णय ले सकती है, रिश्तों के नाम पर मूर्ख बनने के लिए अब तैयार नहीं है|

संग्रह की तीन कहानियों का ज़िक्र विशेष रूप से जरूरी है क्योंकि तीन कहानियाँ संग्रह की टोन को एक दूसरे से अलगाती हैं| ‘समय बेहिसाब रह गया है’, ‘अब उठूँगी राख से’ और ‘अनकहा आख्यान’ तीसरी कहानी विशेष रूप से क्योंकि उसी पर सारी कहानियों का छाता रचा गया है|

‘समय…’ कहानी जिन्दा समय में मुर्दा होते जा रहे लोगों का दर्द बयाँ करती है| जिन्दगी की जिस भाग-दौड़ में हम खुद को सुविधाओं से लाद लेने के लिए बेचैन हैं वो सुविधाएँ अंत में हमारा सुख चैन सब कुछ छीन ले तो?

फ्लैट्नुमा कल्चर में कोई बात करने को उपलब्ध नहीं! ऐसे में बात सुनने वाले भी खरीदे जाएँगे ताकि कुछ समय कोई हमें सुन सके! पर कब तक? जिस धन को कमाने के लिए हमने हर आवाज को पीछे छोड़ दिया, उसी आवाज और कान के लिए हम धन दे रहे हैं? अजीब क्मोडिफिकेशन की स्थिति है जहाँ लोग मर जाते हैं पर हफ्तों किसी को पता नहीं होता क्योंकि न किसी के पास सुध लेने का समय है न सुनने की फुर्सत!
‘अब…’ एक स्त्री की गाथा है जो पति की मृत्यु के बाद जीना शुरू करती है| ऐसा कहाँ होता है हमारे समाज में! हमारे यहाँ तो औरतें पति के साथ मर जाते हैं या मृत मान ली जाती हैं उनके जाते ही! ऐसी औरतें कहाँ हैं जो जीने की सुध लें वो भी पति की मृत्यु के बाद!

मध्यवर्गीय लिजलिजी,सड़ी-गली मान्यताओं के विरुद्ध जाकर ये औरतें पूरी पितृसत्ता का नाश करके ही छोड़ेंगी| काश कुछ ऐसी औरतें आस-पास दिखाई देने लगे, जिनके भीतर यह अहसास हो कि किसी के होने से उनका होना नहीं जुड़ा है—ये दो अलग-अलग भाव हैं –खुद हो पाना और खुद को ही बिसरा देना! स्त्री होने के अहसास की एक सशक्त कहानी!
‘अनकहा आख्यान’ संग्रह की आख़िरी कहानी है|  के मरने के बाद बेटी के हाथ आई डायरी उसका तआरुफ़ माँ के प्रेमी से कराती है|

माँ का प्रेमी! माँ सिर्फ माँ नहीं हो सकी, एक जिन्दा नदी उसके भी भीतर बह रही थी! यकीन नहीं होता! शायद इसीलिए सबकुछ अनकहा ही रह गया! हमारे समाज में जिन्दा औरतें रहती ही नहीं, सिर्फ समाज रहता है और उसके फ़तवे! इसके भीतर रिश्ते कब खुद मुर्दा हो जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता!

माँ के प्रेमी से मुलाक़ात करती है ये लड़की और तब उसे पता चलता है कि औरतों के भीतर हर खारे पानी को मीठा करने वाली एक नदी बहती है, मीठा सोता… जिसका स्वाद अब इस लड़की की जीभ पर भी है…. शायद यह नई लड़की है जो कुछ न कुछ इस बनी बनाई व्यवस्था में हस्तक्षेप करेगी, बनी हुई चौहद्दियों को तोड़ेगी ज़रुर!

ये कहानियाँ परेशान करती हैं क्योंकि इसके भीतर जिन्दा औरतें रहती हैं! पता नहीं क्यों जाग जाती हैं कुछ औरतें, बाकी को भी मुर्दा रहने का हक़ नहीं देती फिर!

जया जी जब लिखती हैं ‘जीने का उजाला ही शब्दों को उजला बनाता है’ तो भीतर सचमुच कुछ उजला हो जाता है| जया जी की कहानियों में मितान का जिक्र हर जगह मिलता है|

‘मितान’ कहानी के भीतर ‘काल वृक्ष की छाया में’ संग्रह का जिक मिला तो इंटरनेट पर ढूँढने बैठ गई| पता लगा कि इसके रचनाकार हैं… ‘अग्निशेखर’ जो कश्मीर की तकलीफ और घर से निर्वासन पर अनगिनत रचनाएँ लिख चुके हैं|

उनकी कविताओं में भी तलाश है, इन्तजार है अपने ‘वतन’ का जिसकी ओर लौटने की इच्छा हर वक्त रचनाकार के भीतर मौजूद है| जया जी की कहानियों में भी इन्तजार है –किसी अपने का, जो इस दुनिया में तो मिलता नहीं, मिल जाए तो जन्नत जाने की जरूरत ही नहीं …
जया जी की कहानी अनकहा आख्यान में एक कविता है…इंतजार की कविता… काश यह खत्म हो कि दुनिया उतनी ही खूबसूरत हो सके…काश कि यह खत्म ही न हो ताकि एक खूबसूरत दुनिया की तलाश बनी रहे| कविता कुछ इस तरह है—
“क्या इस समूचे जीवन का अर्थ सिर्फ इन्तजार ही होगा,
अच्छे दिनों का इन्तजार
अच्छी कविता-कहानी
किसी अच्छी कविता का इंतजार
बिछड़े दोस्त का इंतजार….”

 

आइए पढ़ते हैं जया जादवानी के कहानी संग्रह से

अनकहा आख्यान

भाई को एअरपोर्ट छोड़ के वह लौटी है. अंदर बर्फ़ की सफ़ेद सख़्त चट्टान अभी भी ज्यों की त्यों है. उसको रुलाने की सारी कोशिशें व्यर्थ साबित हुईं. रोना इतना आसान है क्या? वो भी तब जब अभी आपने चलना शुरू ही किया हो और अचानक पायें आपके पैरों के नीचे से ज़मीन सरक रही है. आप एक साथ न जाने क्या-क्या बचा लेना चाहतें हैं और बदहवास सिर्फ़ खड़े रह जाते हैं. क्या जवाब दे वह अपने छोटे भाई को कि उसकी मौजूदगी में और वह कुछ नहीं बचा सकी?
कितना अजीब है न जब हम टूट के बिखर जाना चाहते हैं, खड़े रहते हैं साबित. जब हम चाहते हैं हमारे अस्तित्व के हज़ारो टुकड़े हो जायें. वह एकदम पूरा दिखाई देता है. कभी-कभी ज़िन्दगी चाहनाओं से कितनी दूर नज़र आती है.
वह देख ही रही थी उन अगरबत्तियों को जो उसकी माँ के सिरहाने जल रहीं थीं. जल-जल कर ख़त्म हो जाता है एक दिन सब, राख में तब्दील हो जाता है. बाहर ज़िंदगी तेज़ी से गुज़रती है, अंदर यादें आहिस्ता-आहिस्ता चलती हैं.
ऐसा इत्तेफ़ाक, क्या इसीलिये माँ ने उन्हें एक साथ बुलाया था? एक साथ तो वे हमेशा ही बुलाती थी उन्हें. ये एक महीने एक साथ जीने के लिये वह आ गयी थी. दो दिन बाद भाई आने वाला था. रात वे दोनो साथ ही सोयी थीं. वह उन्हें अपने ससुराल की न जाने कितनी-कितनी बातें बताती रही थी. कितना हँसती थीं उसकी बातों पर वे.
कहते हैं, लड़कियाँ दोनों कुलों को तारने वाली होती हैं पर यह बोझ तू अपने सिर पर मत लेना. इसकी ज़िम्मेवारी औरतों के सिर क्यों? सारे लोग अपनी गठरियाँ उनके कंधों पर क्यों रख देते हैं? सोने के पहले उन्होंने कहा था. पहले अपनी अधूरी कहानी पूरी करो.
अधूरी कहानी? कौन सी अधूरी कहानी? उन्होंने कब अपनी कहानी पूरी की? कहानियाँ कब पूरी होती हैं माँ?
अब अपने लिए एक बहू ले आओ माँ, कब तक अकेली रहोगी?
और क्या वह मेरे साथ रहेगी? अपने लिए दूसरों की यात्रा बाधित क्यूं करूँ. अब तो अपना भी ‘डेड एण्ड’ दिख रहा है. तुम लोगों को जो अच्छा लगे करना. सबकी सोचते-सोचते हमारी उँगली ही हमारे हाथ से छूट जाती है. वे जैसे कुछ और कहते-कहते अनायास रुक गयीं.
क्या तुम्हे किसी बात का अफ़सोस है माँ? उनका आख़िरी वाक्य उसे शंकित कर गया था.
सिर्फ़ एक बात का. मैंने अपना आईना बनने में बहुत देर कर दी. पर अब वह भी नहीं. अब बहुत कुछ है मेरे जीवन में. तुम दोनों हो. किताबें हैं. मेरी अधूरी ख्वाहिशें हैं. कोई खाली जगह नहीं है अब.
जो शायद कभी पूरी नहीं होगी. उसने अपने मन में सोचा था, कहा नहीं. और अपना आईना?
सुबह वह खुद देर से सोकर उठी थी और पाया वे अब कभी नहीं उठेंगीं.
इतनी आसान मृत्यु? जिसने सुना उसने कहा.
हाँ! मौत तो आसान ही होती है. सिर्फ़ जीना मुश्किल होता है.
शुरू से लेकर अंतिम संस्कार तक के सारे काम उसने खुद किये, अकेले. भाई रास्ते में था. आते ही बिखर गया.
मेरा इंतजार तक नहीं किया, माँ. अभी तो तुम्हें मेरे साथ जीना था. वह रोता रहा था. किसको किसके साथ जीना है, यह कौन तय करता है? वह देर तक भाई की पीठ थपकती रही. वक्त रबर की तरह खींचकर उसे बड़ा बना रहा था.
यह घर, जिसमें उसका और उसके भाई का बचपन बीता सहसा वीरान हो गया. एक मनुष्य चला जाता है तो कितनों की दुनिया प्रभावित होती है. उन्हें अपना बाप कभी याद नहीं आता. वह बस था, दूसरे दुनियावी रिश्तों की तरह, वे रहें न रहें, कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता. उनका जीवन तो बस अपनी माँ के इर्द गिर्द ही घूमता रहा.
यह घर रहेगा. हम पहले की तरह साल में एक बार यहीं मिलेंगें. छोटे भाई ने जाते वक्त रोते हुए कहा था. हाँ, यह घर रहेगा. कुछ चीज़ों को कभी नष्ट नहीं होना चाहिये.
क्या तुम कभी इंडिया लौटना चाहोगे? बहिन ने भाई को चुप कराते हुए पूछा था.
पता नहीं, माँ होती तो लौटता. मैं उनके साथ बहुत वक्त नहीं रह पाया. सोचता था, खूब पैसा कमाकर लौटूंगा, फिर हम सब साथ रहेंगें.
पैसा? हम सब हमेशा यही सोचते है. पैसा आ जाता है, दिन बहते हुए दूर चले जाते है.
जीवन इतना क्रूर है कि सब कुछ को अपनी गति में लपेटे चलता है. भाई के जाने के बाद माँ पूरी तरह अकेली हो गयी थीं. दो कमरों का छोटा सा घर, एक हॉल, एक किचन, छोटा सा बरामदा. एक कमरे में माँ की किताबें और डायरियाँ. न जाने कितनी किस्मों के कलर फाउंटन-पेन्स, बॉल-पेन्स, पिक्चर-पोस्टकार्ड,  कितना अटरम-शटरम, न जाने ये सब वे क्यूं रखती रहीं हैं? पिछली बार जब वह अपनी ससुराल से आयी, उन पर खीजती, इनमें आपके काम का कुछ भी तो नहीं है, फेंक क्यूं नहीं देतीं?
इनसे मेरी यादें जुड़ी हैं. सब नष्ट हो जाता है. सिर्फ़ यादें बची रहती हैं.
एक सीधा-सादा सपाट जीवन ही तो है माँ तुम्हारा, कैसी यादें? वह कहना चाहते हुए भी उनसे नहीं कह पाती थी. दोनों बच्चों के दो दिशाओं में चले जाने के बाद ये किताबें ये डायरियाँ और जिन्हें वह अटरम-शटरम कहती थी, यही उनके पास होता था. साल में एक बार दोनों भाई-बहिन उनके पास आते थे, पन्द्रह दिनों या एक महीने के लिये. उस दौरान वे ये सब बंद रखती थीं. अब वे आ गये हैं तो यह जीने का मौसम है. जीने का मौसम क्षणिक होता है. यादों का क्या है? वे तो घिसटती रहतीं  हैं  तमाम उम्र.
भीतर ही भीतर वे कब कैसे झरती चली गयीं, वे नहीं जान पाये थे. उन्हे वे हमेशा उसी तरह लगती थीं, बस थोड़ी सी बूढ़ी और.
माँ, अब तुम बूढ़ी हो गयी हो. भाई ने कहा था पिछले बरस, उनके हाथों को अपने हाथों में लेते हुए. मैं तुम्हें अपने साथ ले चलूँगा.
अपनी जवानी मायें अपने बच्चों को दे देतीं हैं. संभालकर खर्च करना. और मुझे कहीं नहीं जाना. मुझे इसी मिट्टी में पनाह चाहिए.
तुमने संभालकर खर्च की थी?
नहीं, मैने उसे समय की नदी में बह जाने दिया था. मेरे तमाम बरस बहते-बहते न जाने कितनी दूर चले गये.
क्यूं दुनिया की तमाम माओं के लिये उनके बच्चों का जीवन महत्वपूर्ण है, बच्चों के लिये माओं का नहीं? क्या किसी को फ़ुरसत होती है अपनी माँ या बाप के जीवन की खाली, वीरान और कतरा-कतरा जगहों को देखे? उसे भी नहीं थी. पिछले तीस बरसों का माँ का साथ जैसे कोई तीन घंटे की फिल्म हो, जिसमें पैदा होने, चलना सीखने, पढ़ाई करने और दुनिया की तमाम-तमाम बातें सीखते रहने के बावजूद यह फ़िल्म उतनी आकर्षक नहीं लगती. आज अपनी मुट्ठी में उसने यह रील कसकर पकड़ी हुई है.
घर में घूमते हुए वह चीज़ों को वापस उसी जगह पर रख रही है जैसे माँ रखती आयी है. एक हफ़्ते बाद घर लॉक कर वह भी चली जायेगी. ग़ैर ज़रूरी और जल्द नष्ट होने वाली चीज़ें बाँट देनी होगी और अब ये भी उसे ही तय करना है.
पहले-पहल उसने ड्राइंग रूम का रुख किया. छोटी-छोटी कलात्मक तसवीरों को साफ कर यथा स्थान रखा फिर एक कमरे में आई. उसे हैरानी हुई कि माँ ने उन दोनों के खिलौने भी संभाल कर रखे हैं. पुरानी पैनें, रंगीन पेंसिलें … टूटा हुआ घोड़ा-हाथी, गुड़ियायें और न जाने क्या-क्या? कुछ एलबम, जिसमें अधिकतर तो माँ ने घर के कैमरे से तसवीरें ली हैं. बस वे दोनों ही है. शायद यह माँ के व्यक्तित्व और संस्कारों का ही प्रभाव रहा हो कि वे भाई बहिन आपस में कभी लड़े नहीं, बल्कि दोनों के बीच काफ़ी स्नेह और सौहाद्र का रिश्ता रहा है.
सारे खिलौने निकाल कर उसने आसपास के बच्चों में बाँट दिये. पेंसिलें, पेन और कॉपियाँ भी. सामान आधा हो गया. शाम होने को आयी थी. उसने किचन में जाकर झटपट कुछ बनाया-खाया और अब उनके कमरे में आ गयी. एक तन्हा औरत का जीवन किताबों से शुरू होकर किताबों में खत्म होता है. वो भी उस औरत का जिसे बाहर की दुनिया से सरोकार न हो. वे अपनी दुनिया में मगन रहती थीं. किताबें और म्यूजिक और चुनिंदा फिल्में …
मैंने अपने जीवन में रौशनी इन्हीं किताबों से पायी है, ये मुझे मुझसे ज़्यादा जानती हैं. वे अक्सर कहतीं थी.
आप बोर नहीं होतीं इनसे? कुछ लोगो से भी मेल मिलाप कर लिया करो. कहीं आया-जाया करो.
मैं इन्ही के साथ घूम आती हूँ. इन्हीं के साथ सात समन्दर पार चली जाती हूँ. इतालो काल्विनो के साथ मैंने न जाने कितनी जगहों की सैर की है. वे हँसते हुए कहतीं.
तब वह उन्हें कुछ नहीं कहती. उसे इसी बात का संतोष था कि वे कभी अकेलेपन की शिकायत नहीं करतीं. बाप की मौत के बाद उसे अपनी माँ की तन्हाई की फिक्र होने लगी थी पर उन्होने बड़े सहज ढंग से सब लिया था. अपने चारों तरफ लोगों से घिरे होने के बावजूद कितने कम लोग अपना अस्तित्व बचा पाते है, यह उसे अभी समझे में आया.
ऊपर वाली शेल्फ पर धूल जमी थी. जहाँ न जाने कितनी हिन्दी, इंग्लिश और उर्दू की डिक्षनरियां पड़ी थीं. आखिरी कुछ महीनों में उनकी सेहत बड़ी तेज़ी से गिरी थी और पूरे घर को छोड़ते हुए वे महज़ अपने कमरे तक सिमट आईं थीं. वहीं सिरहाने उनकी दवाइयों के साथ कुछ दर्शन की किताबें, डायरियाँ और एक काँच के गिलास में कुछ पेन्स. ऊपरी शेल्फ से डस्टिंग शुरू करते हुए हैरानी से वह न जाने किन-किन किताबों को देखती रही. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसकी माँ ने इतनी सारी किताबें पढ़ रखी है. तभी तो वे हर विषय पर बड़े अधिकार से बात कर लेती थीं. कॉलेज और कभी-कभी यूनिवर्सिटी में उन्हे गेस्ट लेक्चर देने के लिये बुलाया जाता था. हालांकि बच्चों ने उन्हें कभी इस तरह नहीं सुना था. एक दीवार से टिकी पूरी आलमारी उसने साफ कर दी. दर्शन के साथ मनोविज्ञान और पॉज़िटिव थिंकिंग की ढेर-ढेर किताबें. कुछ किताबें तो पार्सल की शक्ल में बंधी पड़ी है. न जाने कहाँ से आईं हैं और खोली नहीं गयी हैं. या जहाँ भेजना था, भेजी नहीं गयी हैं. उसने एक पार्सल खोल दिया. अंदर तीन नयी नकोर किताबें थीं. एक पर बेहद साफ अक्षरों में लिखा था, सुशांत के लिये!
क्या इस समूचे जीवन का अर्थ सिर्फ इंतज़ार ही होगा?
अच्छे दिनों का इंतज़ार
अच्छी कविता-कहानी,
किसी अच्छी पुस्तक का इंतज़ार
बिछड़े दोस्त का इंतज़ार
इंतज़ार अज्ञात रहस्य के प्रकट होने का
अबूझ के खुलने का
उस परम प्रेम का इंतज़ार
जो चांद-सितारों के पार
किसी जादुई दुनिया में ले जायेगा
लेकिन दबे पाँव आती मौत
कभी भी दबोच लेगी अपने पंजो में
तब भी दुनिया से दूर जाते हुए
रहेगा इंतज़ार कि दुबारा इस दुनिया में
आऊँ कि खत्म हो यह अंतहीन इंतज़ार …
– ईवा
वह चकरा गयी है. कौन है ये सुशान्त? माँ की हैंडराईटिंग तो वह पहचानती है. उसने धड़कते दिल से दूसरी किताब खोली. उस पर लिखा था, आखिर कितना अद्भुत साम्य होता है खूबसूरत स्वप्नों-शब्दों और परम प्रेम में कि तीनों जैसा और जितना हम चाहते हैं, उतना और वैसा हमें कभी हासिल नहीं होते. वो हमेशा मानों हमारे हाथों में आते-आते कहीं दूर फिसल ही जाते हैं और ये जानते हुए भी हम जीवन भर उनका अंतहीन इंतज़ार करते ही रहते है कि वो हमारे पास कभी तो ज़रूर आयेंगे.
सुशांत के लिए
– ईवा
उसका दिमाग जैसे सुन्न हो गया. ये कौन सा रहस्य है रब्बा? उसके हाथों ने बेसाख्ता तीसरी किताब खोली. लिखा था, ज़िन्दगी की सांझ में मिले हो, दुपहर में मिलते तो दुपहर का तेज देख लिया होता. हो सकता है ज़रा सी देर बाद रात हो जाए और बर्फ पड़ने लगे. कभी अनजियी दोपहरें भी बर्फ़ की छाती में कैद ज़िंदा रहती हैं. हथेली से छूकर देखना, बर्फ़ पिघलने लगेगी और कभी हम अपनी जलती दुपहरें दियों सी समय की नदी में सिरा आते हैं.
पता नहीं नियति सूखे मरुस्थल में ये बारिश क्यों करा रही है? एक स्वप्न, एक अंतहीन प्रार्थना …
वह बहुत देर स्तब्ध बैठी रह गयी. क्या माँ के जीवन में कुछ ऐसा भी है जो वे कभी नहीं जान पाये? यह एक अजीब अहसास था जिसे वह किसी से कह भी नही सकती. डगमगाते कदमों से वह माँ के सिरहाने की ओर बढ़ी.
चार-पाँच किताबों, जिसमें एक भग्वद गीता और एक ओल्ड मैन एंड द सी भी थी, इसके अलावा दो डायरियाँ थी. उसने अपने हाथों में थमी डायरियों को देखा. ये किसी के पर्सनल जीवन का जीवित दस्तावेज़ हैं. उसने एक डायरी खोली उसमें दैनिक दिनचर्या के अलावा विचारों की आवाजाही, पढ़ी हुई किताबों के अंश, ज़रूरी विवरण, बच्चों की बाबत भावुकतापूर्वक कथन आदि थे. एक जगह जिस पर लिखा था, वो, जो मैं हूँ.
अनायास उसने पढ़ना शुरू किया. सबसे पहले एक कविता थी.
इसे और कहाँ ले जाऊँ
जगहें बदल कर देख चुकी
न जाने कितनी
अब रूह पर ये जिस्म भी बोझ है.
मेरी देह में जो स्मृतियाँ हैं, उनमें एक स्मृति मेरे होने की है, सबसे नीचे दबी हुई. दूसरी स्मृतियां कभी नींद में, सपनों में परछायी सी गुज़र जाती हैं. यह स्मृति इतनी दबा दी गई है कि इसे उघाड़ने के लिए ऊपर का कचरा साफ करना ज़रूरी है.
वह हैरानी से अधमरी हो गयी. यह संसार अपनी माँ का वे ज़रा भी नहीं जानते. इन किताबों को उन्होंने कभी नहीं पढ़ा. दोनो भाई-बहिन ने बी.ई. करने के बाद एम.एस., एम.बी.ए. किया ओैर अपनी-अपनी जॉब पकड़कर उनसे दूर चले गये. किसी भी तरह की कला को वे फ़ालतू की वक्त काटी समझते रहे हैं. जो इस रेस में कुछ नहीं कर सकता, पीछे छूट जाता है, वही खुद को कलाकार समझने लगता है. कभी-कभी कोई इस फ़ील्ड में आगे निकल भी जाता है तो महज़ एक इत्तफ़ाक है. इत्तफ़ाकों से जीवन नहीं गुज़रता, अलबत्ता जीवन में इत्तफ़ाक होते रहते हैं. पर इन किताबों की मौजूदगी ने उन्हें यह तसल्ली ज़रूर दी थी कि उनकी माँ को किसी दूसरे की ज़रूरत नहीं थी. वे उनकी तरफ़ से निश्चिंत हो सकते थे. पर क्या यह उनकी भूल थी?
उसने दूसरी डायरी देखी जिसके भीतर के पहले पृष्ठ पर लाल स्याही से लिखा था, वो जो मैं नहीं हो पायी.
उसका हृदय बुरी तरह काँप रहा है. वे जीवित होतीं, तो वह डायरी पढ़ने की भूल कभी नहीं करती, पर अब उसे यह सब जानना ही चाहिये जो वह उनके जीते-जी नहीं जान पायी. उसने माथे पर आया पसीना पोंछा और बहुत देर उन लफ्ज़ों को घूरती रही. पता नहीं इनके भीतर से क्या निकलेगा. आखिरकार उसने पढ़ना शुरू किया. फिर एक कविता.
बहुत तंग है जगह
समाती नहीं त्वचा में
डर है
फट कर बिखर न जाऊं.
मेरी ज़िन्दगी में जो आया, मुझसे लेने ही आया. माँ-बाप ने जन्म देकर कहा, तुम लड़की हो, तुम्हें भविष्य में अच्छी बेटी अच्छी पत्नी बनकर दिखाना है, तुम्हारे हाथ में दोनों कुलों की लाज हैं. उन्होंने मुझे अच्छी बनने के फेर में डाल दिया. उन्हें अच्छी बनकर दिखाने के चक्कर में मेरे भीतर की अबोध बच्ची वहीं छूट गयी. मैं उस बच्ची की मूर्खतायें देखने और पूरी करने को ज़रा भी तैयार नहीं थी. मैने उसे वहीं छोड़ा और झटपट बड़ी हो गयी. शादी के बाद दूसरे कुल की लाज बचानी थी. पचीस लोगों का कुनबा. सबको अच्छी बहू चाहिये थी और पति को अच्छी पत्नी. जैसे पेट की भूखों के लिये अच्छा खाना चाहिये वैसे तन की भूख मिटाने के लिये अच्छा साथी. मैं दिन में अच्छा खाना बनाती और रात में खुद को एक अच्छे खाने की थाली में तब्दील कर लेती. कीमत वे दे ही देते थे. आजकल ‘थालियाँ’ ज़रा महंगी हो गयीं है, उस वक्त काफ़ी सस्ती होतीं थीं. दो जून का खाना और दो-चार कपड़े. जब कोई थाली खरीदने जाता है तो देख लेता है पहले क्या-क्या मिलेगा? पुरूष उसी को देता है, जहाँ से उसे वापस मिलने की संभावना हो. मनुष्य की कीमत इसी बात से तय होती है कि वह कितना फायदा दूसरे को पहुँचा सकता है?
फिर?
फिर मैं थाली ही रहती तो ठीक था. मुझे पता ही नहीं चला कब मैं दो हो गयी?
दो?
बचपन में मेरे पेट में काफी दर्द होता था. माँ को किसी ने एक समुद्री चीज़ दी. एक गोल डिब्बे में मांस के गोल लोथड़े के आकार का एक बड़ी ब्राउन मोटी रोटी सरीखा, पानी में तैरता, उसका पुराना पानी माँ मुझे रोज़ पिलाती, रोज़ नया पानी डालती. एक हफ़्ते में वह एक से दो हो जाता. एक को हम नदी में ठंडा कर देते. अगले हफ़्ते फिर दो … कुछ हफ़्तों बाद मेरे पेट का दर्द उस खारे और खट्टे पानी को पीने के भय से खत्म हो गया. माँ ने अंततः दोनों को ठंडा कर दिया. हम अपने भीतर पड़े-पड़े दो हो जाते हैं. तो एक को या तो ठंडा कर देते हैं या फेंक देते हैं. और देखो मेरे हाथ तो अपने ही खून से रंगे हुए हैं.
फिर?
फिर बच्चे हुए. उनके आने से मुझे जीने का मकसद मिला. अब भी मैं चाहे रेगिस्तान में चल रही थी पर कहीं न कहीं पहुँचने की उम्मीद के साथ. मेरी तन्हा और बांझ जिन्दगी में कोई आकर शामिल हुआ. अब मेरी थाली से मेरे बच्चे भी खाते थे. पर थाली बनने की नियति में कोई फ़र्क नहीं आया. कुनबा टूटा. सब अपनी-अपनी थालियाँ लेकर चले गये. जो समर्थ थे, उनकी थांलियाँ पकवानों से भरी रहतीं, जो कमज़ोर थे, उनकी थाली में सूखी रोटियाँ. मैंने अपनी थाली में सूखी रोटियाँ देखीं तो मैं रो पड़ी. मैं अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकती थी. फिर शुरू हुआ ज़िंदगी के पहियों को धकेलने का सिलसिला. बिना इंजन की गाड़ी, चले कैसे? मैने खुद को इंजन बनाया तो तेल नहीं था. फिर तेल भी ले आयी. नून, तेल, लकड़ी भी… और, अपनी गाड़ी को धकेलते-धकेलते वहाँ तक ले आयी जहाँ से मेरे बच्चे अपने-अपने आसमानों की तरफ उड़ान भर सकें. और वे उड़ गये.
तुम यहीं रह गयी.
हाँ, मैंने अपनी लाइफ को एक जगह रोक दिया था ताकि वे आगे बढ़ सके और फिर ‘उड़ने वाला सिर्फ़ खुद उड़ सकता है. अपने साथ किसी दूसरे को नहीं उड़ा सकता. जीवन का यही नियम है.
तुम फिर रह गयी.
हाँ, मैने कहा न, जो आया, कुछ न कुछ लेने ही आया. देने कोई नहीं आया. तन को तो मार कर फेंक दिया मैंने पर मन को न मार सकी. पता नहीं कैसे ज़िंदा बच गया. योजनायें तो कत्ल की बहुत बनायीं, अंधेरे बंद तहखानों में रखा, पत्थरों से सिर कुचल दिया, समन्दरों में फेंक दिया, मरे हुए बच्चे सा गड्ढों में दबा दिया. पर देखो न, साँस अभी तक चल रही है. वह कौन है जो मेरे साथ चल रहा था पर मुझे उसको पता ही नहीं चला .
अब मेरी थाली में से यह भी माँगने लगी है. कहती है मैने बरसों से कुछ खाया नहीं है. मैं बरसों से एक ऐसे मनुष्य की तलाश में हूँ, जिसकी गंध से मुझे अपने होने का पता चले. अपनी भूख का पता चले. अब इसने मुझे नये संकट में डाल दिया है. क्या यह वही है, जो मृत्यु के बाद भी रहता है और तुम्हें लौटा ले आता है, फिर-फिर खुद को पूरा करने के लिए. इसका मतलब हमारा हर अधूरा हिस्सा पूर्णता की लालसा में दुगने वेग से वापस लौटना चाहता है.
पूरा होना क्या है? पहली बार उसने सोचा.
उसे लगा उसका दम घुट जाऐगा वह खड़ी हो गई. भीतर की चट्टान को ज़ोर से धक्का दिया, वह हिली तक नहीं. वह सुन्न वहीं खड़ी रही.
उसने एक साथ कई पन्ने पलटे.
मेरी पीड़ा मुझे आहिस्ता-आहिस्ता खा रही है. पीड़ा इस बात की नहीं है कि मेरे पास कुछ कम है. पीड़ा इस बात की है कि जो भी मेरे पास है, वह लेने कोई नहीं आया. मैं अपने तमाम हरे पत्तों का बोझ संभाले सदियों से तन्हा खड़ी हूँ. पत्ते सूख कर धीरे-धीरे झर रहे हैं. मैं सिर्फ़ देख रही हूँ. तुम्हें ऐसी चीज़ें क्यूं मिलती हैं जिनकी किसी को ज़रूरत नहीं होती और जिनके बोझ से तुम जीवन भर छटपटाते रहते हो.
एक विराट असहनीय खालीपन – चूहे सा आहिस्ता-आहिस्ता कुतरता – क्यों नही जान पायी वह वक्त रहते? क्या मनुष्य का इतिहास उसकी अंतहीन भूलों का इतिहास है?
आगे पढ़ना उसकी विवशता थी. ओ माँ! तुम हमें क्यूं नहीं दिखायी दी. क्या हम कुछ कर सकते थे? इतना असहनीय बोझ था उसकी छाती पर. उसका जी किया वह ज़ोर से चिल्लाये-चिल्लाती जाये, चिल्लाती जाये, जब तक उसकी छाती पर पड़ी यह बर्फ़ की सिल टुकड़े-टुकड़े न हो जाये. उसने आगे पढ़ा, इतना शोर था कि मुझे अपनी आवाज़ सुनायी नहीं पड़ी. इतने रास्ते थे कि अपना रास्ता भूल गयी. इतने लोग हैं कि मेरा सूनापन हर लम्हे बढ़ता जा रहा है. दुनियावी रास्ते इतने लंबे क्यूं होते हैं कि खत्म ही नहीं होते? अपनी एक छोटी सी पगडंडी इतनी भीतर क्यूं होती है कि दिखायी नहीं देती?
तपते रेगिस्तान के नीचे भी पानी के सोते हो सकते है. यह कब पता चलता है? तब, जब किसी की पैरों की थाप से आपके भीतर पानी की हिलोरें उठने लगती हैं.
इसका क्या मतलब है? उसने ठहरकर सोचा.
आज यूनिवर्सिटी में ‘फ्रायड के बाद’ पर सेमिनार था. मैं फ्रायड से कभी सहमत नहीं हो पायी. वह इंसानी वजूद का सिर्फ एक हिस्सा देख पाया था. उससे बहुत कुछ छूट गया था जो आगे चलकर एडलर और जुंग ने पूरा किया. फ्रायड ने मनुष्य के असंस्कृत सेल्फ को भले ही एक्सप्लेन किया हो पर वह मनुष्य में श्रेष्ठत्व नहीं ढूंढ पाया और यह ढूंढा जुंग ने. जुंग की तरह मैं मानती हूँ मनुष्य की जीवन प्रक्रिया की चरम उपलब्धि है. आत्मोपलब्धि. पर कैसे? हमारी प्राब्लम ‘क्या’ नहीं है हमारी प्राब्लम है कैसे?
वह पढती गयी. पढ़ती गयी. पढ़ती गयी.
***
हलो.
यस.
इज़ दैट सुशान्त?
स्पीकिंग.
आय एम सृष्टि. वह एक क्षण रुकी, फिर एक झटके में कह गयी, इवाज़ डॉटर.
ओ. कुछ देर खामोशी छा गयी.
हाउ आर यू? एव्हरी थिंग इज़ फाइन? उधर से आहिस्ता से पूछा गया, कोमल स्वर में.
ममा इज़ नो मोर. उसने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा. पहली बार बात कर रही हूँ और यह कैसी सूचना दे रहीं हूँ.
नो. एक स्वर टूट गया. साँस टूट गयी. और भी न जाने क्या?
वह चुप रही. सब कुछ पत्थर ही तो है भीतर, ठंडी बर्फ़, एक भी सब्ज़ पत्ता नहीं.
कब? उधर से एक टूटती साँस ने पूछा. उसने बता दिया.
मे आय कम टु युअर होम?
दैट्स व्हाय आय एम कॉलिंग यू. आय वांट टु मीट यू.
शी टोल्ड यू समथिंग? एक हिचकिचाहट भरा स्वर.
नो. हर डायरी टेल्स मी समथिंग.
आय विल रीच टुमारो इवनिंग.
ओ.के. उसने फोन रख दिया.
***
जब हम अनायास सामने आ गयी राह पर चलना शुरू करते हैं तो नहीं जानना चाहते आगे कौन सा मोड़ आना है, न ये कि इस राह पर कितनी देर चलेंगें. और फिर लौट आयेंगे. उस दिन एक सेमीनार था, स्टू्डेंट ज्यादा थे, जानकार कम. ईवा ने कोई लेक्चर नहीं दिया था. अपने कुछ एक्सपीरियन्स हम सब से शेयर किये थे और परासायकॉलाजी की बात करते हुए उसने जो प्रश्न उठाये थे, उसका जवाब किसी के पास नहीं था. सब कुछ जैसे एक रहस्य के आवरण में लिपटा हुआ लग रहा था. मुझे अभी भी याद है, उसने कहा था, ‘हम वही बोलते है, जो हमें पढ़ाया गया है, जो हमने पढ़ा है, जो रट लिया गया है. इस सब के पीछे हमारा अपना ‘ओरिजनल’ दब गया है. फ्रायड हो या जुंग, कोई भी सिद्धांत सबके लिये नहीं, बस कुछ लोगों के लिये है. हमें कैसे पता चले कि हम कौन है और हमें क्या चाहिये? जितने ज्यादा विकल्प हैं हमारे पास, उतने ज़्यादा कन्फयूज़्ड हैं हम. हमें खुद अपने कोरे कागज़ पर कौन सी इबारत लिखनी है? क्या हम जानते हैं या ये कागज़ भी हमने औरों के हवाले कर रखा है.
वे आहिस्ता-आहिस्ता कहते जा रहे हैं. वह, उसकी माँ का प्रेमी, वह उसे बेहद ध्यान से देख रही है. एक प्रौढ़ और सौम्य व्यक्ति, खुलता हुआ रंग, खाली और सूनी आँखे, आधी सदी गुजार चुका होगा. वह आज दुपहर आया है. सारी सुबह उसे यह सोचकर बेहद अजीब और किसी हद तक शर्मनाक भी लगता रहा कि वह अपने माँ के प्रेमी से मिल रही है. क्यूं? अगर ऐसा है भी तो क्या बचता है जानने को? वह अपने गले-गले तक जमी बर्फ़ की सिल को नज़र अंदाज़ करते हुए सोचती है. इससे बेहतर यह नहीं कि समूची बात पर परदा पड़ा रहे – जैसे आज तक पड़ा रहा था. पहले उसने यही सोचा, फिर लगा, नहीं. ऐसी कौन सी गुप्त जगहें हैं मनुष्य के भीतर जो किसी को दिखायी नहीं देतीं, जो इतनी वीरान होती हैं कि किसी के कदमों की आहट से भी जी उठती हैं. क्या माँ के बाद माँ को नहीं जानना चाहिये? और कैसे यह शख्स वहाँ तक पहुँच गया जहाँ तक उसके बच्चे भी नहीं पहुंच सके?
कैसा लग रहा है तुम्हें? डायरी पढ़ते हुए उसने स्वंय से पूछा था.
नथिंग स्पेशल, सम टाइम्स इट हैपन्स. उसके भीतर किसी ने कहा.
वो तो अब नहीं रही, इसलिये अगर वो होतीं तब? इस प्रश्न का उत्तर सचमुच उसके पास नहीं था. यह ठीक था कि दोनों भाई-बहिन अपनी माँ और बाप के फ़र्क को जानते थे, फिर भी, फिर भी, क्या कुछ संस्कारगत विवशतायें भी होती हैं?
वह उसे सोच में डूबा देख कुछ देर के लिये चुप हो गया था. उसने सिर उठाकर उसकी आँखो में देखा. इन्ही आँखों से उसने उसकी माँ को प्रेम से देखा होगा, छुआ होगा, न जाने कितनी और कैसी बातें की होगीं? उसे लगा, यह बर्फ की चट्टान और भारी होती जा रही है.
उस शोर भरे माहौल में जबकि सब अपने-अपने तर्को से एक दूसरे को परास्त करने की कोशिश कर रहे थे, वह सबसे बेलाग अपनी जगह पर बैठी थी, जैसे उसका काम मात्र इतना ही हो – प्रश्नों को उनके रूबरू उछाल देना.’ वे एक क्षण रूके, फिर कहा, ‘क्या मैं विस्तार से बता सकता हूँ? आप समझेंगी इसी उम्मीद से …
उनकी आवाज़ बेहद सूनी थी और उदास. उससे बोला न गया, उसने हाँ में सिर हिला दिया.
उसमें एक ज़बरदस्त आकर्षण था जो मुझे उसकी ओर खींच रहा था. सेमिनार के बाद चाय के वक्त मैं अपना कप लिये उसके पास पहुंचा. सामान्य परिचय के बाद हम सामान्य बातें करने लगे. कुछ भी तो सामान्य नहीं था उसमें. वो जैसे हर बात को समझ कर उतनी ही गंभीरता और ईमानदारी से जवाब देती रही.उसने मुझे बताया कि सी.जी. जुंग, लैथब्रिज की इस खोज की ताईद करता है कि हमारी दिख रही दुनिया के ऊपर एक सतह है, जिसमें हर बीती हुई घटना कायम हो जाती है. तो फिर एक सतह ऐसी भी तो होगी जहाँ घटने से पहले घटनाये ठहरी रहती है. इसलिये कहते हैं, ‘इट इज़ रिटन.’
वे कुछ क्षण रूके. वह चकरायी सी उन्हें देख रही है.
फिर मनुष्य कितना स्वतंत्र है? मैंने पूछा था.
इतना ही जितना चाय या कॉफ़ी का चुनाव करने या बैठने और उठकर चल देने का फैसला करने में.
मुझे नहीं लगता आप इतनी सामान्य हैं?
बहुत सामान्य हूँ. मैं सिर्फ़ खुद के प्रयासों से खुद को बचाने की कोशिश कर रही हूँ.
वे फिर चुप हो गये. उनका गला भर आया था. वह खाली, और वीरान सी उनके सामने बैठी है. अपनी माँ को किसी दूसरे से सुनती, वह चालीस के अंक को महत्वपूर्ण मानती थी. कहती थी, चालीस के बाद मेरी नींद खुली. मैं तो खुद अपनी कोख में एक कतरे की शक्ल में थी. फिर मैंने आकार लेना शुरू किया. इल्में-जफर में भी चालीस काटा जाता है. उसने कहा था.एक खोज जहाँ पर छूटती है, उसे वहाँ से आगे ले जाने वाले बेहद कम लोग होते है. वे जो मौलिकता से अलग हटकर कुछ सोचने और करने की सामर्थ्र्य सचमुच रखते है. मुझे लगता है कई बार मुश्किल रास्ते और लक्ष्य भी इंसानी पैरों की प्रतीक्षा करते रहते है. फिर वह बहुत देर तक कॉलिन विल्सन और लैथब्रिज की खोजों की बात करती रहीं, जिसके मुताबिक दस, बीस, तीस, चालीस के अंक इतनी अहमियत रखते है कि दुनिया की हर चीज़ को उनके अपने घेरे में पहचाना जा सकता है. दिशाओं को भी. जैसे दस का अंक पूर्व की पहचान देता है. बीस का अंक दक्षिण की, तीस का अंक पष्चिम की और चालीस का अंक उत्तर दिशा की.
मैं उसे देख रहा था. वह दोनों दुनियाओं में दिखायी दे रही थी. एक वह जो उसने नहीं बनायी पर जिसमें थी. एक वह जो उसने बनायी है और जिसमें वह रहना चाहती है.
मैं समझ गया था ऐसे लोगों की आधी उम्र अपने पिंजरे की सलाखें तोड़ने में निकल जाती है. प्रकृति का यह कैसा नियम है, मैं नहीं जानता, जो चलना चाहते हैं, उन्हें रास्ते नहीं मिलते, बैठे हुओं के सामने मीलो लंबे रास्ते बिछे होते है. क्या हर मनुष्य को अपनी सामर्थ्र्य का इंम्तहान देना होता है? उसने कहा भी था, ‘आज़ाद मनुष्य ने अपने किले स्वंय गढ़ लिये और मुक्ति के स्वप्न देखने लगा?’ यह मनुष्य की भूल है या विवशता?
कुछ देर के लिये वे दोनों चुप हो गये हैं. उससे एक शब्द नहीं बोला जा रहा. वहीं बैठे उन्हें सुनते हुए वह बर्फ़ की विशाल चट्टान में तब्दील हो गयी है. न कोई विचार, न कोई शब्द. उनके शब्द उस पर से फिसलते हुए अलबत्ता भीतर न जाने किस अंधेरी खोह में विलीन हुए जा रहे है.
हमारी बातें अभी खत्म नहीं हुई थी, उन्होंने फिर कहना शुरू किया. पर वहाँ मिला समय खत्म हो रहा था. शाम के छः बज गये थे. नौ बजे मेरी फ़्लाइट थी. मुझे निर्णय लेना था, मैंने लिया. हम बात करते हुए इस घर तक आ गये थे. मैंने उसकी नज़रों से यह घर देखा. किताबें देखीं. आप दोनों को देखा. उसने मुझसे आप दोनों की बातें की और कहा, ‘मैंने एक श्लोक की तरह उनके जीवन को लिखा है. उनका जीवन इसके अर्थो का विस्तार होगा.’
दूर-दूर तक बर्फीला रेगिस्तान! कोई नहीं!
फिर कहीं दूर देखते हुए कहा था, ‘कोई ऐसी चीज़ या मनुष्य नहीं होता, जो तुम्हारे अकेलेपन को संपूर्णतया भर दे. बच्चे भी कितनी देर? जब तक उनकी रौशनी तुम्हारे भीतर पड़ती है, धीरे-धीरे वे दूर चले जाते है. तुम्हें अकेलेपन के उसी गाढ़े चाकलेटी अंधेरे में छोड़कर.’
वे चुप हो गये. शायद उनसे बोला नहीं जा रहा है. उन्होंने अपना गला साफ किया. उठ कर खड़े हो गये. एक घूंट पानी पिया.और कहा, क्या आप मुझे एक कप कॉफ़ी और पिला सकती हैं?
शायद उन्हें  वक्त चाहिये. बेजान टांगे लिये वह उठी और किचन की तरफ जाने लगी. पैर इतने वज़नी हो गये है कि उठ नहीं रहे. कोई चीज़ छाती की खोखल से बाहर आना चाहती है. तीस-बत्तीस बरस एक साथ रहने के बावजूद नहीं जान सकी थी उन्हें. उसे तो जब भी ज़रूरत होती वह बेझिझक उनके सामने खुद को खोल देती थी पर उसने कभी नहीं सोचा कि कुछ उनके भीतर भी है जो सुने जाने की मांग करता है. क्या दुनिया के तमाम बच्चे अपने पैरेन्ट्स की भीतरी मुश्किलों से अनजान रहते है? कैसे एक नितांत अजनबी आदमी उसकी माँ की भीतरी तहों तक उतर आया और उनके खुद के बच्चे बाहर रह गये?
वह दो कप कॉफी बनाकर ले आयी है. वे उसी तरह खड़े हैं. दीवार पर टंगी उनकी तसवीर के सामने मंत्रविद्ध. कुछ रुदन बाहर से दिखायी नहीं देते. आँसू चुपचाप भीतर गिरते हैं. ज़लज़ले चुपचाप भीतर आते हैं. कश्तियाँ चुपचाप भीतर डूबती है.
न जाने इस आदमी के भीतर क्या है और ये कितनी दूर तक उसकी माँ के साथ चला होगा?
उसने कॉफी की ट्रे काँच की छोटी सी टेबिल पर रखी तो टक  की हल्की सी ध्वनि पूरी फिज़ा में गूंज गयी. फिर वापस वही सन्नाटा तारी हो गया.
आप फिर उस रात चंडीगढ़ नहीं गये? उसने ही पूछा, कुछ न पूछने की इच्छा के विपरीत.
नहीं, उन्होंने अपना गला साफ किया.
उस रात डिनर मैंने यहीं किया. दिसम्बर के आखिरी दिन थे. बेहद ठंड थी. छोटा सा रूम हीटर गर्म हवा फेंक रहा था. हम उसी के नज़दीक बैठे थे. उस रात मैंने पहली बार महसूस किया जब तक भोजन हमारा पेट भरता है, हम हमेशा भूखे रहते हैं. उस दिन न जाने कितने वक्त बाद मेरी आत्मा ने उसके हाथ की पकी सोंधी नरम-गरम मक्की की रोटी खाई थी. सरसों के साग के साथ. हम रोटी पर पिघलते मक्खन को देख रहे थे और पिघलते एक-दूसरे को भी. उनका गला फिर भर आया.
वह सिर झुकाये बैठी रही.
डिनर के दौरान हमने अपने-अपने परिवारों की कुछ अंतरंग बातें एक-दूसरे के साथ शेयर कीं. मुझे हैरानी हुई कि उसने अपने पति के बारे में मुझसे कोई बात नहीं की. मैंने जानने की कोशिश की तो वह बड़ी सफाई से टाल गयी.‘न वह मुझे छू सका, न पा सका, न देख सका, बात उसकी अब नहीं है. बात यह है कि जो मेरे पास है, वह मैं किसको दूँ? मैं उसका बोझ उठाये-उठाये थक रही हूँ. इतना कहकर वह हँसने लगी थी. मुझे लगा, इससे बेहतर वह रो लेती.
छाती फट जानी चाहिये थी उसकी, नहीं फटी. बर्फ कहाँ आसानी से टूटती है? ओ माँ, ओ माँ.
फिर उसने कहा, सुशांत, कुछ लोग हमारे जीवन से सदैव बाहर रहते है , वे कभी हमारे जीवन में अपनी जगह नहीं बना पाते, हालांकि दावा वे बहुत ज्यादा का करते है. शादी के बाद मुझे लगता था एक गाय की तरह मुझे इस खूंटे से बांध दिया गया है. मुझमें इस चारे और इस घर के लिए विरक्ति भर गयी है पर मैं यह खूंटा तोड़कर भाग भी नहीं सकती. और मैं नहीं भाग पाई सुशांत क्योंकि तब तक गाय को बछड़े हो गये थे. मैंने आपको बताया था न कि चालीस के बाद मैंने जन्म लिया है. हाँ. मैं अपने गर्भ में सदियों से सो रही थी.
इन शब्दों ने एक जोरदार हथौड़ा उस बर्फ पर मारा, एक नामालूम सी दरार कहीं पड़ी तो होगी.
उससे उनकी तरफ देखा तक नहीं गया. वह उसी तरह जड़-निष्पंद बैठी रही. उनकी ही आवाज़ आयी.
उसने बताया कि उसे घूमना बहुत अच्छा लगता है हालांकि अब तक वह उन-उन जगहों पर नहीं जा सकी है जहाँ-जहाँ वह जाना चाहती है. फिर उसने मुझे उन-उन जगहों के फ़ोटोग्राफ्स दिखाये. कहा, मेरा बेटा विदेश में है, मैं वहाँ जाना चाहती हूँ फिर सोचती हूँ उसका अपना जीवन होगा, वह किसी प्रकार का बंधन तो महसूस नहीं करेगा? क्या हम बच्चे इसलिये चाहते हैं सुशांत कि वे बुढ़ापे में हमारी देखभाल करें या हमारा सहारा बने? नहीं, ये बाहरी विवशतायें हो सकती है और इनसे निपटा भी जा सकता है. हम बच्चे इसलिये चाहते है कि वे हमारी आत्मा भरते हैं. अपने आपको निःस्वार्थ किसी को दे देने की आदिम ख्वाहिश को यहाँ आकर करार मिलता है. न जाने क्यूं हम इसमें दूसरी चीजें शामिल कर लेते है और ये पवित्र रिश्ता भी अपेक्षाओं की तुच्छ कसौटियों पर खरा उतरने की कोशिशों में मरने लग जाता है.
सख्त बर्फ पर कुछ और हथौड़े, इसे कुछ होता क्यों नहीं? उसने आगे सुना.
उसने आप दोनों के बचपन के फ़ोटोग्राफ्स दिखाये और कहा, ‘मेरी बेटी में मुझे अपनी तसवीर दिखायी देती है. वह मुझे इतना ज्यादा समझती है कि कई बार मुझे खुद को उससे छिपाना पड़ जाता है. मैं नहीं चाहती सुशांत, कोई मेरे बारे में ज़्यादा सोचे. पहले मैं खुद सोचना चाहती हूँ, अपने बारे में.’
कुछ पल की एक खिंचती सी खामोशी एक सफ़ेद घना सन्नाटा.
उसे एक अच्छे से रेस्तरां में एक कप कॉफी के साथ बैठना सुकून बख्श लगता है, या किसी पार्क की हरी घास पर शाम की ढलती धूप में खामोश बैठे रहना या थियेटर में अकेले कोई इंग्लिश मूवी देखना. वह कहती थी, प्रेम और सृजन सिर्फ खामोशी में ही संभव है. सब कुछ मौन मे घटता है, बाद में हम उसे शब्द देने की कोशिश करते है. हम बार-बार इसीलिये कहते हैं क्योंकि हमें सही शब्द नहीं मिलते. एक सही शब्द, एक सही व्यक्ति, एक सही लम्हा बहुत नसीब से मिलता है सुशांत. बस उसे खोजना बहुत पड़ता है.
कुछ और चोटे उस सफ़ेद चट्टान पर, चट्टान नीली पड़ गयी है.
एक अकेलापन बर्फ़ीली बारिश सा झरता दूर-दूर तक फैलता हर चीज़ को सफ़ेद कर जाता है. एक सफ़ेद घना सन्नाटा. कॉफ़ी ठंडी हो गयी थी. किसी ने हाथ तक नहीं लगाया.
रात ग्यारह बजे उसने अपनी छोटी सी कार निकाली और मुझे छोड़ने यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस तक गयी. रास्ते में हम आबिदा परवीन सुनते गये थे. उनकी पैशनेट आवाज़ की वह दीवानी है. रास्ते में उसने कहा था, ‘सारी कलायें खामोशियों को ज़ुबान देने का जतन हैं. फिर भी हम वह नहीं सुनते जो कहने से रह गया, हम तो वह भी नहीं सुन पाते जो कहा जा रहा है. दो शब्दों के बीच के अंतराल को सुनो. वहीं पर ‘वह’ छिपा है, जिसे तुम वास्तव में सुनना चाहते हो.’
‘पर यह सुनने का हुनर भी तो आना चाहिये.’ मैनें कहा था.
‘हां, सुशांत. किसी से माँगने पर कुछ नहीं मिलता है. हर चीज़ कमानी पड़ती है. भीतर की हो या बाहर की.’मैं जान गया था. इसमें बहुत सी चीजें छिपी हैं जो मैंने इससे पहले किसी में नहीं देखी. मुझे उस वक्त लग रहा था जैसे किन्हीं अदृष्य हाथों ने मेरे कलेजे को जकड़ लिया हो और अब मैं इस आकर्षण से कभी नहीं छूट पाऊंगा. बात देह की नहीं थी. मैंने देह बहुत देखी हैं. जब देह छोड़ने से सब कुछ छूट जाये तो समझो अच्छे छूटे. बात उससे आगे की है. आवाज़ में न जाने कितने समंदरों का खारा पानी था.
उनसे और बैठा नहीं गया. वे उठे, ठंडी कॉफ़ी लेकर किचन में चले गये. पानी गिरने की आवाज़ आती रही. शायद मुंह धो रहे हैं. जितना दुख वे बाहर उलीचते होगें, उससे कहीं ज़्यादा दुख किसी अदृश्य सुराख से उनके भीतर भरता जाता होगा. थोड़ी देर बाद कुछ खटर-पटर की आवाज़ आने लगी. शायद गर्म कर रहे हैं या दूसरी बना रहें हैं.
उसने अपनी जगह बदलनी चाही. इधर-उधर मोड़ा खुद को. नहीं हुआ तो वैसी ही बैठी रही. उसके भीतर घनी चुप्पी थी. घनी, अंधेरी चुप्पी.
वे दो दिन हमने साथ बिताये. उन्होनें गर्म कॉफ़ी का एक कप उसके सामने रख दिया है. पानी भी.
हम सुबह तैयार होकर घर से निकल जाते थे दिन भर उसकी बतायी जगहों पर घूमते, फिर रात को वापस आ जाते.
वे कुछ क्षण रूके रहे, फिर जब कहना शुरू किया, उनकी आवाज़ काँपने लगी, इन दो दिनों को विस्तार से नहीं बता पाऊँगा. मुझे लगता था, यह मेरा नहीं किसी और का जीवन है जो मुझे भूल चूक से मिल गया है और जैसे ही उस दूसरे को यह याद आयेगा, वह मुझसे छीन लेगा. हम पूरी शिद्दत से जी रहे थे. तुमने किसी नवजात को माँ का दूध पीते देखा है वह दोनों हाथों से माँ को पकड़ लेता है अपने समूचे अस्तित्व से. उसके लिये जो है, बस वही है. हमने वे दो दिन उसी तरह पी लिये.
उसके अंदर से फिर एक बहुत जोर का धक्का लगता है. क्या पता इसके नीचे क्या-क्या है?
वह सुन भी रही है. माँ और अपने जीवन को देख भी रही है. उन्हें खिलाती पिलाती, उन्हे संभालती उन्हें पढ़ाती, उनका हौसला बढ़ाती, पीठ थपथपाती, सारी-सारी रात जागकर उनकी हारी बीमारी, दुख-सुख में खड़ी रहती. आह ! अब समझ पा रही है उनकी वेदना? कितनी गहरी नींद में थी वह? दिखते हुए को समूचा सत्य मान लेना.
वह अक्सर उनसे कहती थी, माँ आराम से रहो, चैन से. अब आपके सब काम खत्म.
वे हँस देती कहती कुछ नहीं. एक बार ज़रूर कहा था, और मैं?
क्या तुम?
नहीं, कुछ नहीं.
मायें क्या सिर्फ गुज़रे हुए का अनकहा आख्यान होती हैं?
जब मैं वापस लौट रहा था, उसने कहा था , ‘मुझे इस बात का दुख नहीं है कि हम ज्यादा वक्त साथ नहीं गुज़ार पाये, इस बात की खुशी और मन में कृतज्ञता है कि इस काल चक्र की लंबी अवधि में हम कुछ वक्त के लिये ही साथ-साथ चल सके. बरसों खटखटाने के बाद ज़िन्दगी ने अपने दरवाजे मेरे लिये दो दिन के लिये खोल दिये. थैंक्स. ज़िन्दगी. थैंक्स सुशांत.’
पहली हिचकी ने बहुत जोर से उसे धक्का मारा. धक्का इतना तीव्र था कि चट्टानें भड़भड़ाती गिर पड़ी. जिधर देखो धंसती हुई बर्फ़, दूर-दूर तक सफेद बर्फ़.
मैंने एक बार फिर से मिलना चाहा, उसने इंकार कर दिया. कहा, ‘कुछ भी उसी तरह दुबारा नहीं जिया जा सकता. हमें उतना ही मिलता है, जितना ठीक है.’ तुमने तो माँ गंवायी है सृष्टि. मैंने तो…
अचानक उन बर्फीली चट्टानों को फोड़ता गर्म खारे का सोता फूट पड़ा. वह बिलख-बिलख कर रो रही है. वह जो सबके-समूचे प्रयासों के बाद भी रोयी नहीं थी. बांध टूट गया है. पानी पूरे वेग से बह रहा है. यह पानी जो आगे चलकर एक नदी की शक्ल अख्तियार कर लेगा. औरत की खारे पानी की नदी.
न जाने कितनी औरतें इसी खारे पानी से अपने खेत सींचती हैं. न जाने कितनी फसलें खारे पानी से पकती हैं. यही सूखा खारा पानी तो उनकी छाती से उठता, बादल बनता और फिर समूची सृष्टि पर बरसता है, मीठा बनकर. अभी भी उसने देखा कोई इस खारे पानी में अपना मीठा पानी घोल रहा है. उसने रोते-रोते उसे थैंक्स  कहना चाहा पर यह एक शब्द भी उस नदी में वेग से बह गया जिस पर ऊपर से बर्फ़ की चट्टाने टूट-टूट कर गिर रहीं थीं.

(छत्‍तीसगढ़ हिंदी अकादमी सम्‍मान से सम्मानित कहानीकार जया जादवानी का जन्म 01 मई 1959 को कोतमा, ज़िला शहडोल, मध्य प्रदेश, भारत में हुआ था।

कविता संग्रह : मैं शब्द हूँ, अनन्त सम्भावनाओं के बाद भी,उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य

कहानी संग्रह : मुझे ही होना है बार-बार, अन्दर के पानियों में कोई सपना काँपता है, मैं अपनी मिट्टी में खड़ी हूँ कंधे पर अपना हल लिए

उपन्यास : तत्वमसि; कुछ न कुछ छूट जाता है;
मिट्ठो पाणी, खारो पाणी

टिप्पणीकार डॉ. हर्षबाला शर्मा कवयित्री और कहानीकार हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में हिंदी प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।)

(पुस्तक का नाम: अनकहा आख्यान
लेखक: जया जादवानी
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन, दिल्ली।

प्रकाशन वर्ष 2019

मूल्य:170 रुपये

कहानी की सॉफ्ट कॉपी साभार ‘ई कल्पना’  से ली गयी हैै)

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