( 28 सितम्बर 1920 को इलाहाबाद के जमींदार मुस्लिम परिवार में पैदा हुए ज़िया –उल-हक़ ने अपने जीवन के सौ साल पूरे कर लिए हैं. नौजवानी में ही समाजवाद से प्रभावित हुए ज़िया साहब अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए और बकायदा पार्टी के दफ़्तर 17 जानसेन गंज, इलाहाबाद में एक समर्पित होलटाइमर की तरह रहने लग गए. 1943 में बंगाल के अकाल के समय जब महाकवि निराला कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित राहत अभियान में अपना सहयोग देने पार्टी दफ़्तर पहुंचे उस समय जि़या भाई ही पार्टी के जिला सचिव थे और निराला जी ने अपनी दस रूपये की सहयोग राशि उन्हें सौंपी.
अपने जीवन का एक हिस्सा ज़िया साहब ने पत्रकार के रूप में भी निभाया और दिल्ली रहे. इस रोल में भी वे बहुत कामयाब रहे. हो ची मिन्ह जैसी दुनिया की नामचीन हस्तियों के साथ इंटरव्यू करने का मौका भी उन्हें मिला. साठ के दशक से वे अपनी पार्टनर और शहर की मशहूर डाक्टर रेहाना बशीर के साथ इलाहाबाद में पूरी तरह बस गए. पिछली आधी शताब्दी से ज़िया साहब इलाहाबाद के वामपंथी और लोकतांत्रिक स्पेस की धुरी बने हुए हैं. अपने दोस्ताना व्यवहार के कारण वे जल्द ही सबके बीच ज़िया भाई के नाम से जाने गए. आज उनके सौवें जन्मदिन के मुबारक़ मौके पर समकालीन जनमत उन्हें बहुत मुबारक़बाद पेश करता है और उनके बेहतर स्वास्थ्य के लिए दुआ करता है.
इस मुबारक़ मौके पर हम ज़िया भाई के चाहने वाले तमाम युवा और बुजुर्ग साथियों के संस्मरण पेश कर रहे हैं जिन्हें उपलब्ध करवाने के लिए उनके बेटे और छायाकार सोहेल अकबर का बहुत आभार.
इस कड़ी में पेश है पद्मश्री शम्सुर्रहमान फ़ारूकी का लेख. सं. )
_________________________________________________________________________________________________________
पचास से भी ज्यादा बरस पहले 1968 में मेरी पत्नी ने मुझे हेंस्टिंगस् रोड पर एक रिहायशी प्लॉट की नीलामी में जाने के लिए राजी कर लिया था। मेरा परिवार छोटा था और गृहस्थी का सामान भी सीमित था। मै यह देख कर परेशान था कि वहाँ बेचे जा रहे सबसे छोटे प्लॉट का आकार भी मेरी अति महत्वाकांक्षी जरूरतों से ज्यादा था।
बहरहाल अपनी पत्नी की उदारता के प्रभाव और सैयद हामिद जो मेरे परिचित थे और उन दिनों नगर पालिका के प्रशासनिक अधिकारी थे, की आत्मीय उपस्थिति से उत्साहित होकर मैंने एक प्लॉट के लिए बोली लगा दी, जिसकी कीमत उन दिनों बहुत ज्यादा थी जो आज के हिसाब से हास्यास्पद रूप से बेहद कम ठहरेगी – महज 34 ₹ प्रति वर्ग गज !
मेरा घर बनना तो तुरंत शुरू हो गया और तैयार होने में वक्त लगा। लेकिन मैंने हमेशा अपनी पत्नी की इस बात के लिए प्रार्थना की कि उन्होंने मेरी इच्छाशक्ति को अपने आगे झुका लिया और उस जमीन पर एक घर बनाया जिसे हमने खरीदा था।
जो घर मैंने बनाया उसपर गर्व करने के लिए पड़ोसियों के अलावा अनेक चीजे हैं। जब घर बन कर तैयार होने को था तभी हमे पता लगा कि हमारे शहर की मशहूर स्त्री रोग विशेषज्ञ और मेरी पत्नी की परिचित डॉक्टर रेहाना बशीर भी अपना घर वहीं पास ही बना रही हैं, इतना पास कि अगर मै अपने घर से पत्थर फेंकूँ तो उनके घर तक पहुँच जाए।
उनकी शादी कॉमरेड ज़िया उल हक़ से हुई थी जो बेहद मितभाषी और विनम्र कम्युनिस्ट थे। उन्हे देखकर ऐसा लगता था जैसे वे हमारे बुर्ज़ूआ तौर तरीकों से काफ़ी अलग और अंजान हैं। उनके घर पर मेरा परिचय रेहाना जी के पिता और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के मशहूर प्रोफेसर सैयद बशीरुद्दीन से हुआ। उस घर में बशीर साहब को मैंने सबसे ज्यादा अपने स्वभाव के अनुकूल पाया। उन्होंने अपनी तमाम साहित्यिक अभिरूचियों के बारे मे मुझसे बाते कीं।
1994 के शुरू में सेवानिवृति के बाद जब मै इलाहाबाद में स्थायी रूप से रहने आ गया तब मुझे ज़िया साहब को पहले से अधिक जानने का मौका मिला और वे जल्द ही मेरे लिए ज़िया भाई बन गए।
वे किताबों के साथ साथ पत्रिकाओं और अखबारों के घनघोर पाठक थे। मेरी मित्र मंडली में वे सबसे अधिक सूचना संपन्न व्यक्ति थे। ये जरूर है कि चीजों को देखने का उनका नजरिया ठेठ वामपंथी था लेकिन बावजूद इसके उनसे इत्तेफाक न रखने वाले लोगों पर वे अपने विचार थोपते नही थे, उनके प्रति वे कभी भी पक्षपातपूर्ण नहीं रहे।
ज़िया भाई अकसर मुझे पत्रिकाएं और अखबार पढ़ने को दिया करते थे। खासकर वे पत्रिकाएं जो मेरे नियमित अध्ययन का हिस्सा नही थीं। एक बार उन्होंने मुझे महात्मा गांधी के ‘हरिजन ‘ अखबार की एक कतरन लाकर दी, जिसमे गांधी ने ‘बाल्फोर घोषणा’ की आलोचना की थी जिसमे फ़िलिस्तीन का एक बड़ा हिस्सा यहूदियों को उनकी मातृ भूमि के लिए देने की बात की गई थी। मैं महात्मा गांधी की दूरदर्शिता से चकित था, उन्होंने घोषणा के दुष्परिणामों को पहले ही भांप लिया था। भारत से दूर रह रहे मुसलमानों के लिए उनके सद्भाव और न्यायपूर्ण सोच से भी मैं प्रभावित था जबकि उन मुसलमानों का भारत से कोई संबंध नही था। ज़िया भाई ने जिस प्रकार उस लेख के मूल्य को समझा, उनके ज्ञान से मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका।
ज़िया भाई मुझसे उम्र में 15 साल बड़े हैं। लेकिन उन्होने मुझे कभी अपनी वरिष्ठता का अन्यथा एहसास नहीं कराया। अब वे शारीरिक रूप से काफी कमज़ोर हैं, चल-फिर नहीं सकते। लेकिन वे जब तक स्वस्थ थे, अक्सर मेरे यहां आया करते थे और मुझसे मिलने का समय ले कर आते थे। मैं उनसे नाराजगी जताते हुए हमेशा कहता था के आप मुझे बुला लेते, लेकिन वे मेरी इस बात को टालते हुए कहते कि तुम्हारा समय बहुत कीमती है।
( 2015 में ज़िया भाई के 95 वें जन्मदिन की दावत के मौक़े पर बायें से दायें : डॉ. रेहाना बशीर, ज़िया भाई, प्रो. राजेन्द्र कुमार और शम्सुर्रहमान फ़ारूकी . पीछे की पंक्ति में काली कमीज़ में प्रो. अली अहमद फ़ातमी, फ़ोटो क्रेडिट : सोहेल अकबर )
मुझे ज़िया भाई के राजनैतिक जीवन के बारे में ज्यादा मालूम नहीं है। मुझे इतना पता है कि उन्होंने पार्टी में किसी पद या प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं की। वे जुलूसों और धरना- प्रदर्शनों में ज्यादा सक्रिय रहते थे। वहाँ वे अधिक संयत और मजबूत तरीके से मौजूद रहा करते थे। ऐसे ही एक प्रदर्शन में मैंने उन्हे एक बार बिजली घर के पास देखा था। भीषण गर्मी और धूप होने के बावजूद वे सर पर बिना किसी छाया के वे डटे हुए थे।
बाद के दिनों में उन्होंने नागरिक समाज और सामाजिक मुद्दों से जुड़े विषयों में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। शहर के बौद्धिक अभिजन के बीच उन्हें बहुत सम्मान हासिल हुआ।
मेरे लिए ज़िया भाई हमेशा से एक दृढ़ प्रतिज्ञ बुद्धिजीवी की जीवंत मिसाल की तरह रहे हैं। इंशा अल्ला वे कुछ दिनों मे सौ साल के हो जायेंगे। मेरी कामना है कि उनका आशीर्वाद लंबे समय तक हम पर बना रहे।
(पद्मश्री शम्सुर्रहमान फ़ारूकी उर्दू के लब्धप्रतिष्ठित समालोचक, उपन्यासकार, अनुवादक, अध्येता और शोधकर्ता हैं। उर्दू आलोचना में अहम स्थान रखनेवाली पत्रिका शब- खून का लंबे समय तक संपादन के दौरान फ़ारूकी साहेब ने उर्दू आलोचना पर गहरा प्रभाव डाला। ज़िया भाई के १०० वें जन्मदिवस के अवसर पर प्रस्तुत यह लेख उन्होंने ज़िया भाई के सौवें जन्मदिन के कुछ दिन पहले लिखा था।)
इस लेख का अनुवाद मूल अंग्रेज़ी से हिंदी के युवा आलोचक और प्राध्यापक डॉ. रामायन राम ने किया है.
The original article in English :
Zia Bhai: Friend, Intellectual, Activist
Shamsur Rahman Faruqi
Fifty and more years ago—in 1968 to be precise—my late wife persuaded me to go to an auction of residential plots of land at Hastings Road. I had a small family, and smaller means, and was chagrined to find that the smallest plot offered had an area much greater than my most ambitious needs. Anyway, under the influence of that large-hearted lady, and encouraged by the benign presence of Sayyid Hamid, an old acquaintance, who was then Administrator of the Nagar Palika, I bid for a plot at the then high and now ridiculously low price of Rs.34.00 to the sqaure yard.
My house was quick to start, and long in completion. But I have never ceased to say a prayer for my wife who made me bend my will to hers and build the house on the plot that we purchased.
There are many things to be proud of the house that I built, and not the least are my neighbours. As my house was nearing completion, we learned that Dr. Rehana Bashir who was an acquaintance of my wife’s and was a renowned gynaecologist of our city was building her house nearby, in fact even less than a stone’s throw from our house. She was married to comrade Ziaul Haq, a somewhat taciturn but polite Communist who seemed to be somewhat aloof from us bourgeois types. At their house, I also made the acquaintance of Dr. Rehana’s father, the famous Professor Syed Bashiruddin, of Aligarh. I found Bashir sahib’s company more congenial than anybody else’s at their house: I shared many of his literary interests.
It was in early 1994, when I came back to Allahabd to settle here permanently after my retirement, that I got to know Zia sahib—quickly to become Zia Bhai, better than before. He was a great reader, of books and also magazines and newspapers. I found him one of the most well-informed men among my circle of friends. Also, his point of view in all things, if vaguely left-wing, was never biased against those who did not share his political ideolgy.
Zia Bhai would often give me newspapers and magazines to read, especially those which I would not have come across in my normal reading. Once he gave me a clipping from Mahatma Gandhi’s Harijan in which Mahatma Gandhi severely criticized the Balfour Declaration which awarded, most gratuitously, a large chunk of Palestine to the Jews for their ‘Homeland’. I remember being struck by the Mahatma’s astuteness in recognizing the evil that the Declaration would spawn in due course and also by the Mahatma’s sense of fair play for the Muslims who inhabited a place remote from India and whose interests apparently had nothing to do with Indian Muslims. I was also struck by Zia Bhai’s knowledgeability in noticing the value of that passage.
Zia Bhai is many years older than me, as I now know, he is fifteen years older. Yet he never at all ever made me feel that he could command my respect just because of his age. Now he’s too frail to move about, but as long as he was reasonably mobile, he would call on me, and often by appointment. I would protest and say that he could have asked me over. But he seemed never to respond, except vaguely to refer the ‘value’ of my time.
I didn’t get to know much of Zia Bhai’s political life. I knew that never sought after any office or position in the Party. He was more active in protests, processions and demonstrations in which he always took part in a quiet, laid back way. I once saw him in one such procession near the power house and was much concerned to see that in spite of the very hot weather, he had no protection over his head. Of late, he has been taking interest in matters relating to the civil society and social issues and has earned respect among the city’s intellectual elite.
To me, Zia Bhai has always been a living example of the quiet intellectual. He’ll be one hundred years old in a few days, insha’allah. May his benison be with us for much, much longer.
Shamsur Rahman Faruqi,
September 25, 2020.