भारत के मजदूर वर्ग और उनके सवालों और आंदोलनों के साथ डॉ. अंबेडकर के रिश्ते के तीन प्रमुख चरण हैं। पहला चरण 1928–29 में ‘गिरणी कामगार मजदूर यूनियन’ द्वारा कपड़ा मिलों के मजदूरों के हड़ताल के दौरान शुरू होता है। इस आंदोलन में दो बातें एक साथ हुईं , एक तो यह कि इस आंदोलन के दौरान अम्बेडकर को कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन अंदोलन के साथ आने का मौका मिला दूसरा यह कि इस दौरान अम्बेडकर को भारत के मजदूर आंदोलन और में मौजूद जाति भेद की चेतना से सामना हुआ। दूसरा चरण 1936 में अंबेडकर द्वारा इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के गठन के साथ शुरू हुआ, आईएलपी अंबेडकर डॉ. अंबेडकर के वर्ग और जाति के अंतर्संबंध पर आधारित सोच का परिणाम थी। जिसमे उनका वर्गीय दृष्टिकोण बहुत ही साफ है।
वे आर्थिक सवाल को प्रमुखता देते हुए भी पहले सामाजिक विभेद के सवाल को हल करने की बात करते हैं। तीसरा चरण 1942 से 1946 तक अंतरिम सरकार में वायसराय की काउंसिल में श्रम सदस्य के रूप में उनका कार्यकाल के रूप में पूरा होता है, जिसमे उन्होंने भारत के मजदूर वर्गों के हित में अनेक कानून बनाने में अपनी भूमिका निभाई।
डॉक्टर अंबेडकर में अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के गठन के साथ एक मजदूर नेता के रूप में की थी।जाहिर है राजनीति में आने का उनका यह कदम गवर्नमेंट इंडिया एक्ट के तहत 1937 में प्रांतीय विधानमंडलों के लिए होने वाले चुनाव में भागीदारी के लक्ष्य को लेकर केंद्रित था।
इसके पहले अंबेडकर की पहचान एक दलित वर्गों के नेता के रूप में थी, अबतक उनकी मुख्य पहचान चौदार तालाब से दलितों के पानी पीने के अधिकार , कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए, और गोलमेज सम्मेलन में दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व करने के लिए बनी थी। लेकिन ILP के जरिए वे मुख्य रूप से गरीबों की वर्गीय एकता और मजदूर पहचान निर्मित करने की कोशिश में लगे हुए थे। 15 अगस्त 1936 को टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रतिनिधि को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि
‘ हमारे दल का कार्यक्रम बुनियादी तौर पर मजदूर वर्ग के कल्याण के लिए है। इसलिए मजदूर संगठन है। जिस वर्ग (मजदूर) हित– संबंधों को हमारा दल महत्व देता है, उसी वर्ग की मुक्ति के लिए उचित प्रकार के लक्ष्य और नीति पर हमारे दल की आस्था है। दलित वर्ग ( Depressed Classes) के बजाए ‘मजदूर’ शब्द का इस्तेमाल करने का उद्देश्य यही है कि, ‘मजदूर’ वर्ग में ‘दलित’ (Depressed Class) भी आ जाता है।’
अपनी पार्टी के घोषणा पत्र में अंबेडकर ने मजदूरों के लिए निम्न घोषणा की –
“ हमारा दल यह भी प्रयास करेगा कि औद्योगिक मजदूरों को नौकरी से न निकाला जाय और कारखानों में उन्हें उचित तरक्की दी जाए, इसके लिए कानून बनाने का प्रयास किया जाएगा। उसी प्रकार काम के घंटे कम करने, उचित वेतन, वैतनिक छुट्टी, अधिक से अधिक जीवनोपयोगी सुविधाएं तथा कामगारों का बोनस, पेंशन, बुढ़ापे के कारण या अन्य तरह की असमर्थता की वजह से नौकरी से रिटायर होने के समय उचित जीवन निर्वाह की सुविधाएं देने के संबंध में कानून बनाने के प्रयास किए जाएंगे।उसी प्रकार कामगारों की बीमारी के समय और दुर्घटना की स्थिति में संरक्षण देने के लिए ‘सोशल इंश्योरेंस’ नाम की योजना बनाने का प्रयास किया जायेगा। हमारा दल कामगारों के लिए सस्ते और किफायती मकान बनाने का प्रयास करेगा।“
इन चुनावों में अंबेडकर की पार्टी को बंबई विधानमंडल में कुल 15 सीटें मिलीं। ये परिणाम उनके उम्मीद के मुताबिक नहीं था, इसके बावजूद बंबई प्रांतीय विधानमंडल में विपक्ष की भूमिका में रहते हुए डॉ. अंबेडकर ने सत्ताधारी कॉन्ग्रेस पार्टी की मजदूर विरोधी नीतियों का जमकर विरोध किया।
इसमें सबसे प्रमुख विरोध था सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट बिल 1938’ का विरोध। यह कानून मजदूरों के हड़ताल के अधिकार पर अनुचित रोक लगाने के लिए लाया गया था। इसके अनुसार यदि किसी औद्योगिक हड़ताल को सरकार अवैध घोषित कर दे तो ऐसे किसी हड़ताल में भाग लेने पर मजदूरों को छः महीने की जेल हो सकती थी।
अंबेडकर के कहा था कि यह कानून मजदूरों को गुलाम बनने को मजबूर कर देगा उन्होंने इस कानून को ‘workers civil liberties suspension Act’ नाम दिया। यह कानून कई मामलों में 1929 के ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के प्रावधानों से भी ज्यादा दमनकारी था। इस बिल के विरोध में सितंबर 1938 में अंबेडकर की इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी की नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियन एटक की संयुक्त हड़ताल हुई। जिसमे एक लाख से भी ज्यादा मजदूरों ने भागीदारी की थी।
इस आंदोलन के पहले जनवरी 1938 में ग्रामीण खेत – मजदूरों के सवाल पर भी उन्होंने आंदोलन चलाया था। ‘खोती’ और ‘वतनदारी’ प्रथा महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों की एक बेहद सामंती और शोषणकारी प्रथा वर्षों से चली आ रही थी।
खोत दरअसल एक प्रकार के बिचौलिए हुआ करते थे। जो ब्रिटिश सरकार और किसानों के बीच एक कर वसूली करने वाले अधिकारी की तरह काम करते थे। किसानों से कर वसूली करने के लिए वे अक्सर अमानवीय तरीके अपनाते थे।
इसी तरह वतनदारी प्रथा महाराष्ट्र के कई हिस्सों में प्रचलित जिसके तहत सरकार द्वारा दलित मजदूरों को दान स्वरूप कुछ जमीन दी जाती थी, जिसके बदले भूमिहीन गरीब एक प्रकार से जमेंदारों और काश्तकारों के खेतों में बंधुआ मजदूरी करने पर मजबूर किए जाते थे। महाराष्ट्र में ज्यादातर वतनदार यानी बंधुआ मजदूर महार दलित ही हुआ करते थे।
डॉ. अंबेडकर ने जनवरी 1938 में खोती और वतनदारी के खिलाफ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिल कर आंदोलन चलाया, जिसमे महारों के अलावा कुनबी समुदाय के किसान भी बड़ी संख्या में शामिल हुए। बंबई में बीस हजार किसानों ने जुटकर एक मार्च निकाला था।
इस तरह अंबेडकर लगातार आईएलपी के जरिए वर्ग और जाति की एक समावेशी अवधारणा पर काम कर रहे थे। हालांकि उन्हें इस दौर के कम्युनिस्ट पार्टी का खुला समर्थन कभी भी नहीं मिल सका क्योंकि तत्कालीन वामपंथी नेतृत्व की नजर में जाति का प्रश्न उठाकर अंबेडकर मजदूरों की वर्गीय एकता को कमजोर कर रहे थे।
जबकि हकीकत यह थी कि मजदूर वर्गों के बीच जाति के आधार भेद पहले से ही मौजूद था। मजदूरों की वर्गीय एकता दरअसल थी ही नहीं। इसलिए डॉ. अंबेडकर ने 1928–29 से ही कम्युनिस्ट कामगार यूनियनों से मजदूर वर्ग के बीच दलित मजदूरों के साथ होने वाले अस्पृश्यता और भेदभाव को खत्म करने और गैर दलित मजदूरों को प्रशिक्षित करने का आग्रह करने लगे थे।
वे साफ देख रहे थे कि जाति के सवाल पर कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन के नेता खुद ही इस प्रश्न पर साफ नहीं है इसलिए वे बाकी मजदूरों को भी जातिगत भेदभाव खत्म करने का आह्वान नही कर सकते थे। 1928 में बंबई के कपड़ा मजदूरों की हड़ताल के लिए वाम ट्रेड यूनियन के नेता अंबेडकर से मिले और हड़ताल का समर्थन करने का आह्वान किया, अंबेडकर ने हड़ताल का समर्थन तो किया लेकिन यह मांग रखी की वाम यूनियनें दलित मजदूरों को ‘कपड़ा विभाग’ में काम मिले।
यहां यह जानना जरूरी है कि, कपड़ा मिलों में दलित मजदूरों को सम्मानजनक माने जाने वाले कपड़ा विभाग में काम नहीं दिया जाता था , क्योंकि वहां पर धागे को मुंह से पकड़ना पड़ता था, इसलिए अन्य सवर्ण व मराठा मजदूरों को यह बर्दाश्त नहीं था इसलिए दलित मजदूरों को धागा विभाग, साफ सफाई और दूसरे निचले स्तर का काम दिया जाता था।
अंबेडकर ने इस भेद भाव को खत्म करने की मांग उठाई थी। जबकि उनके पहले से चले आ रहे कम्युनिस्ट यूनियनों और उनके नेताओं को यह बात कभी नही खटकी। 1928 में वाम विचारधारा के गिरणी कामगार संघ और अंबेडकर द्वारा निर्मित यूनियन द्वारा संयुक्त रूप से की गई हड़ताल छः महीने तक चली। जिसके बाद बंबई सरकार ने एक तीन सदस्यीय कमेटी बना कर मजदूरों की समस्याओं को समझने और सुलझाने के लिए कदम उठाया गया।
उस कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद डॉ. अंबेडकर ने बहिष्कृत भारत अखबार में एक लेख लिखा , जिसमे उन्होंने लिखा –
“अछूत समाज का बहुत निजी सवाल यह है कि उस वर्ग के लोगों को कपड़ा विभाग में सांचे पर काम करने की छूट होनी चाहिए।मजदूरों की हड़ताल कमेटी ने जो सत्रह मांगें मालिकों के सामने रखीं थीं उनमें यह एक मांग थी जिसका मालिकों ने कोई विरोध नहीं किया लेकिन अछूत समझे गए वर्ग के लोगों को कपड़ा विभाग में काम करने के लिए यदि किसी को आपत्ति हो तो वह मराठा मजदूरों को ही है। हमारी ओर से इस बारे में कभी कोई आपत्ति नहीं थी ऐसा भी मालिकों ने बताया।सचमुच देखा जाए तो मालिकों का कोई सवाल ही नहीं था। कपड़ा बुनने का काम सवर्ण मजदूर करें या अछूत मजदूर करें, मालिकों को इसमें कोई खुशी या परेशानी नहीं है। उनका एक ही उद्देश्य है कि उनका कपड़ा तैयार हो और उनको उससे फायदा हो। लेकिन जो मजदूर यह कहते हैं कि अछूत वर्ग के मजदूरों के साथ हम कपड़ा विभाग में काम नहीं करेंगे, उन्हें मालिक क्या कह सकते हैं? त्रासन आदि अन्य विभागों में अछूत समाज के मजदूर काम कर सकते हैं लेकिन कपड़ा विभाग में जहां तनख्वाह ज्यादा मिलती है, वहां अछूत मजदूरों के काम करने पर रोक है । कपड़ा विभाग में महार, चमार आदि अछूत समाज के मजदूर काम करने लगे तो मराठा मजदूरों की जाति नष्ट हो जाती है, तर्क दिया जाता है कि कपड़ा विभाग में धागा मुंह से पकड़ना पड़ता है इसलिए छुआ छूत होती है।“
डॉ. अंबेडकर को इस बात से परेशानी थी कि लाल झंडे की पहचान से जाना जाने वाला गिरणी कामगार संघ के नेता मराठा और सवर्ण मजदूरों की इस चेतना को बदलने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रहे थे, न ही अपने अनुयायियों को शिक्षित करने का कोई प्रयास कर रहे थे। इसके बावजूद अंबेडकर ने दलित नौजवान मजदूरों को गिरणी कामगार संघ का सदस्य बन कर अपनी संगठन शक्ति को बढ़ाने का आह्वान किया।
मजदूर वर्ग के बीच मौजूद जातिवादी आग्रहों को डॉ. अंबेडकर वर्गीय एकता के निर्माण की सबसे बड़ी रुकावट मानते थे। 12 फरवरी,1938 में नासिक के मनमाड में रेलवे के दलित मजदूर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था जिसमे उन्होंने कहा कि भारत के मजदूर वर्ग के दो दुश्मन हैं – ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद !
उन्होने कहा कि ब्राह्मणवाद से उनका अर्थ ब्राह्मणों को प्राप्त ताकत, सुविधाओं और विशेषाधिकार से नहीं है। ब्राह्मणवाद से मेरा मतलब है स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की भावना का निषेध, और यह भावना केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं है। इस तरह हम देखते हैं कि डॉ. अंबेडकर भारत में मजदूर आंदोलन की शक्ति और सीमा दोनों की स्पष्ट समझ रखते थे। इसलिए मजदूरों की वर्गीय एकता को अटूट बनाने के लिए वे जातिवाद का उन्मूलन चाहते थे।
महिला मजदूरों के लिए भी डॉ. अंबेडकर ने कई महत्वपूर्ण सुधारों और सुविधाओं के लिए संघर्ष किया। 1929 में बंबई प्रांतीय विधानसभा में मातृत्व अवकाश Maternity Benefits Act अधिनियम पारित किया गया था, इस कानून को एन एम जोशी के साथ मिलकर डॉ. अंबेडकर ने ही ड्राफ्ट किया था। 7 अगस्त 1942 को डॉ. अंबेडकर को वायसराय के कार्यकारिणी परिषद में श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया।
इस जिम्मेदारी को निभाते हुए अंबेडकर सातवीं लेबर कॉन्फ्रेंस के मौके पर इसी साल 27 नवंबर को मजदूरों के लिए काम के घंटे को 14 घंटे से घटा कर 8 घंटे करने की घोषणा की। इसके अलावा उन्होंने समान काम के लिए समान वेतन का प्रावधान करके पुरुष और महिला कामगारों के बीच वेतन की समानता को खत्म करने का रास्ता साफ किया। श्रम सदस्य के रूप में उन्होंने बिहार और महाराष्ट्र के कोयला खदानों का दौरा किया और खदान मजदूरों की जिंदगी को बहुत ही नजदीक से देखा। उन्होंने महिला खदान श्रमिकों को खदान के अंदर जाकर काम करने पर लगी रोक को हटा दिया।
उन्होंने केंद्रीय विधानसभा में ‘खदान मातृत्व लाभ लाभ कानून’ (Maternity Benefit Bill for women)लाकर महिलाओं के लिए आठ हफ्ते के प्रसूति लाभ का कानून बनाया। आगे चल कर स्वतंत्र भारत में Maternity Benefits Act 1961 में उपरोक्त सभी लाभों को व्यापक रूप से एकताबद्ध रूप में लागू किया गया।
1946 में डॉ. अंबेडकर ने श्रम सदस्य के पद से इस्तीफा दे दिया और उन्होंने भारत की संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किए जाने के लिए संविधान का एक मसौदा ‘ राज्य और अल्पसंख्यक’ के नाम से तैयार किया। इस मसौदे में उन्होंने कृषि योग्य सभी जमीनों और और बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की बात की।
उन्होंने इसमें भारत में राजकीय समाजवाद लागू किए जाने की बात की। उन्होंने कहा कि श्रमिकों को प्राइवेट नियोजकों के हाथों शोषित होने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता , क्योंकि प्राइवेट इंप्लॉयर कभी भी ट्रेड यूनियन बनाने और हड़ताल करने का अधिकार नहीं दे सकता, जो की मजदूर का मौलिक अधिकार है।
उन्होंने कहा कि कई संविधानवेत्ता यह मानते हैं कि राज्य को व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक निजी कार्यकलापों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इसलिए जहां राज्य हस्तक्षेप नहीं करता वहां स्वतंत्रता की रक्षा होती है।
अंबेडकर ने इस तर्क को नकारते हुए कहा कि आर्थिक और सामाजिक मामले में राज्य द्वारा दी गई यह स्वतंत्रता सही मायने में जमींदारों को लगान बढ़ाने , पूंजीपतियों को कार्य के घंटे बढ़ाने और मजदूरी घटाने की स्वतंत्रता है। इसलिए कृषि और उद्योगों को राज्य के नियंत्रण से मुक्त करने का मतलब है प्राइवेट नियोजक का एकाधिकार। इसलिए बिना राजकीय समाजवाद के नागरिकों के मौलिक अधिकार की रक्षा नहीं की जा सकती।
डॉ. अम्बेडकर एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी मानते हैं, इसलिए वे औद्योगीकरण के साथ साथ मजदूरों और किसानों के हितों, उनके मौलिक अधिकारों और उनके जनतांत्रिक अधिकारों के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहते।
निजी उद्योग और बाजारवादी अर्थव्यवस्था कभी भी इन दोनों का संतुलन बरकरार नहीं रख सकती इसलिए कृषि और उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण रखने वाला समाजवाद ही मजदूर वर्ग के हितों की रक्षा कर सकता है, इसलिए डॉ. अंबेडकर समाजवादी व्यवस्था के पक्षधर रहे। इस तरह उन्होंने मजदूर वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता अपने विचारों और अपने राजनैतिक कार्यक्रम में आजीवन बनाए रखी।