अप्रैल से मई के बीच कई घटनाएं घटीं। महामारी का विकराल रूप पूरे देश ने देखा, महसूस किया और कई लोगों ने अपने प्रियजनों को खोया। शहरों की खराब खबरों के बीच महामारी का विषाणु गाँव का रूख कर लिया और वहाँ भी मातम पसरने लगा। लिहाजा शहरों में मामले कम हुए और गाँवों में बढ़े। बीमार किसान धान की बेहन बोने के लिए खेती – किसानी में लग गए हैं। लेख लिखे जाने तक कई शहरों को खोल दिया गया है और बाजार लोगों से भरे – भरे रहने लगे हैं। सड़कों पर मंजिल की तलाश में गाड़ियों का रेला आबाद हो चुका है। फिर भी लोग थोड़े सहमें से हैं क्योंकि उनकी स्मृतियों में दहशत और मौत की गूँज रह-रहकर अभी दाखिल होने लगती है। गलियाँ, चौबारे और चौराहे अभी भी सहमे हुए हैं। देश अभी भी डरा हुआ है, मगर शहरों में मामलों के कम होने से दूसरी बातें जोर पकड़ने लगीं हैं, मसलन गिरती अर्थव्यवस्था, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की कक्षाओं का पुनर्संचालन, बाजारों, मंदिरों और मालों को खोलने पर पुनर्विचार आदि – लोग फिर से उसी जिंदगी में लौटना चाहते हैं, जो पीछे छूट गई है।
इन सभी जरूरी समस्याओं के बीच गाँवों की बेकाबू होती परिस्थितियों की महीन आवाज़ भी दस्तक दे रही है। अर्थात शहर ठेहुनिया कर उठने की कोशिश में और गाँव मौत के मातम में। गाँव और शहर इतने अलग हैं, जैसे दो द्वीप। गाँव और शहर अलग – अलग सुर में गाते हैं। शहर के लोग मंहगे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य को लेकर बिलबिलाए हुए हैं। और बड़े – बड़े ज्ञानी लोग अनाथ हुए बच्चों की परवरिश और दसवीं-बारहवीं के इम्तहानों पर न केवल सोच – सोच कर हलकान हुए जा रहे हैं, बल्कि कई शिक्षाविदों की व्याकुलता संपादकीय, अग्रलेख और साक्षात्कारों के हवाले से सामने भी आ रही है।
मगर इन सारी कवायदों के बीच कुछ ऐसा है, जो मिसिंग है। कुछ ऐसा है, जिस पर खामोशी की गहरी पर्त जमी हुई है। दलितों और आदिवासियों के स्वास्थ्य और शिक्षा की खबरें नदारद थीं और हैं। अखबार और टीवी को पूरा का पूरा समय समर्पित करने वाले खबर प्रेमी भी नहीं जान पा रहे कि नेतरहाट के असुर बस्तियों की क्या स्थिति है? विषुनपुर की सीता का क्या हाल है, वह कैसे पढ़ रही है या उस तक अध्ययन माध्यमों की आपूर्ति हो पा रही है या नहीं। नीलगिरि की इरुला और टोडा आदिवासियों पर क्या गुजर रही, यह कोई नहीं बता पाता – खबरों की दुनिया दिल्ली से पालम तक। हालांकि पालम का दायरा जरुरत के हिसाब से घटता – बढ़ता रहता है। दरअसल हम सारे गाँवों को एक समान मानकर विचार करते हैं, मगर जैसे सारे शहर एक से नहीं हैं, वैसे ही सारे गाँव (लगभग साढ़े छ: लाख) भी। बस्तर और उड़ीसा से नक्सल की खबरें तो आती हैं, मगर इस महामारी और उन पर इसके प्रभाव को बताने वाला संवादाता कहीं दिखता नहीं। शायद उसका जन्म अभी तक नहीं हुआ है।
शहरों के मँहगे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की शिक्षा और तरकीबों पर तकरीर करने वाले शिक्षाविद आदिवासियों और दलितों के बच्चे, जो ‘सर्व शिक्षा अभियान’ को अर्थवान बनाने की जिम्मेदारी निभाते हैं और इसी अभियान के माध्यम से गढ़े जाते हैं, पर खामोश हैं। उनकी खामोशी जता देती है कि वे जिस चश्मे से दुनिया देखते हैं, उस चश्मे में कोई ऐसी विशेषता जरूर इन बिल्ट की गई है कि आदिवासियों और दलितों के बच्चे दिखाई ही नहीं देते। विद्वानों की चुप्पी से कई बार ऐसा लगा कि ये दोनों तबके अस्तित्व में ही नहीं हैं या वे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के लायक बन ही नहीं पाए हैं। मीडिया और व्यवस्था ने भारत की बहुस्तरीयता को कई बार (अमूमन हर बार) उजागर किया। इंडिया और भारत, शहर और गाँव का भेद हर बार पहले से ज्यादा मुखर रूप में सामने आया है।
मेरी दुविधा यह है कि मैं खुद को एकाग्र नहीं कर पा रहा हूँ। दलितों और आदिवासियों के साथ घटनाएं (दुर्घटनाएं) इतनी तेजी से घट रही हैं कि दिमाग सिलसिलेवार सोचने से इंकार कर दे रहा है। कभी – कभी खुद का वजूद टिन के उस डिब्बे, जिसमें अनाज रखा जाता है, और जब अनाज खत्म हो जाता है, तो गृहणी या खाना बनाने वाली (वाला) डिब्बे को हिकारत से देखने लगती (लगता) है, वैसी ही हालत मेरी हो गई है। बस अंतर यह है कि खाली डिब्बा और हिकारत करने वाला, दोनों मैं ही हूँ। मैं हर चीज पर बात करना चाहता हूँ – इतना कि पूरे शरीर को अखबार बना देना चाहता हूँ और रोम – रोम से बोलना चाहता हूँ। अक्सर सोचता हूँ कि सोनभद्र (उत्तर प्रदेश), बिषुनपुर (झारखंड) और बस्तर (छत्तीसगढ़) के उन बच्चों की बात करूँ, उनके भविष्य, पढ़ाई और दवाई तथा शिक्षा के आधुनिक साधनों जैसे एंड़्रायड मोबाइल और ई-पैड की कमी पर कोई शोधपरक बात रखूँ, मगर खुद सहेजने की असमर्थता से ऐसा नहीं हो पा रहा। कई बार सोचता हूँ कि ‘मिड डे मील’ के सहारे पलने वाले वाले पेट स्कूलों के बंद होने से कैसे भरते होंगे? इस पर कई बार सोचा पर आगे नहीं बढ़ पाया। इसी बीच अमेरीका से एक खबर आई जिस पर निगाह ठहर गई। खबर में बताया गया था कि वहाँ बढ़ रहे नस्लवाद को रोकने के लिए नया कानून लाया गया है। मन इसे भी देखना – समझना चाह रहा था।
मगर इसी बीच छत्तीसगढ़ के बीजापुर के सेलेगर इलाके से एक जलती हुई खराब खबर आई कि वहाँ तीन आदिवासियों को जान से मार दिया गया है। इस खबर ने सोचने – विचारने का सिलसिला तोड़ दिया – सारे विचार कठुआ गए। मन जानता था कि महामारी के बाद भी एक महामारी आती है – बेरोजगारी, भुखमरी, और बीमारी की महामारी। ये ऐसी महामारियां है, जो दर्ज़ नहीं होतीं लेकिन छिपी हत्यारिन की तरह सालों तक काम करती हैं – सालों तक लोगों को निचोड़ती हैं।
तमाम विषयों को छोड़कर हर बार की तरह इस बार भी छत्तीसगढ़ में हुए हत्याकांड को समझने में लग गया। आगे बढ़ने के पहले यहाँ एक बात स्वीकार करना होगा कि दूसरे चिंतकों की तरह दलित और आदिवासी चिंतक ठहराव के साथ नहीं सोच सकते क्योंकि न सिर्फ उनका समाज और संवेदनाओं का स्तर-घनत्व अगल है, बल्कि वे अपने समुदाय की समस्याओं की अनदेखी के कारण अपनी बात को सामने लाने की जल्दीबाजी का शिकार भी हो जाते हैं। इसी कारण ऐसे तमाम कार्य जिसे वे ठहराव के साथ अभिव्यक्त करना चाहते हैं, उन्हें सामने नहीं ला पाते। मानना पड़ता है कि हम अलग हैं, और तथाकथित मुख्यधारा (मीडिया) की सोच के बाहर हैं; और अपनी परिस्थितियों द्वारा जकड़े हुए हैं। हमारी विवशताएं हमें विकल्प तलाशने से रोकती हैं। हम अपनी बात, दु:ख और बेकदरी को कहने के लिए अभिशप्त हैं। दुनिया के सारे गीत पहले हमीं ने गाए, मगर दु:ख कहने की जल्दबाजी में हम अपने गीतों को सँवार नहीं पाए और वे हमसे छीन लिए गए। बहरहाल सेलेगर इलाके की घटना की बात करते हैं।
आदिवासी समूहों की सूचना के मुताबिक 12 मई को बीजापुर के सेलेगर गाँव (पाँचवी अनुसूची के अंतर्गत संरक्षित) में सीआरपीएफ, एसटीएफ और डीआरजी की एक पैरामिलेट्री फोर्स नक्सल उन्मूलन कार्यक्रम के लिए गठित की गई। पाँचवीं अनुसूचि में अधिसूचित होने के कारण इस इलाके में पैरामिलेट्री फोर्स के आने के पहले वहाँ की ग्राम सभा से अनुमति हासिल कर लेना चाहिए था। मगर ऐसा नहीं किया गया (अक्सर नहीं किया जाता है, जबकि लगभग हर बार विरोध होता है)। इसीलिए वहाँ के लोग विरोध करने लगे। आसपास के आदिवासी जत्थे धरने पर बैठ गए। इस यूनिट का सामना शांतिपूर्ण और अहिंसात्कम तरीके से संचालित हो रहे विरोध प्रदर्शनों से हुआ। 12 से 15 मई के बीच विरोध व्यापक हो गया। गरीबी और कोरोना की दोहरे मार से जूझ रहे लोग शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन के लिए एकत्र होने लगे और सोलह मई को यूनिट ने घोषित किया कि उस पर नक्सली हमला हुआ और आत्मरक्षा में यूनिट की ओर से गोली चलाई गई और लाठी चार्ज किया गया। यह घटना सेलेगर गाँव में हुई। यूनिट द्वारा की गई फायरिंग में तीन आदिवासी मारे गए (स्थानीय लोगों का मानना है कि चार लोग मारे गए हैं)। हालांकि इस घटना के कई वीडियो सोशल मीडिया पर डाले गए हैं, जिससे नक्सली हमले की स्टोरी बेदम नज़र आती है। पुलिस और प्रशासन का रवैया हर बार की तरह ही रहा और इस पर कोई हैरानी भी नहीं। मुख्यधारा की मीडिया की चुप्पी पर भी अचरज नहीं होता। अचरज होता है प्रगतिशील और दलित सोशल मीडिया की चुप्पी पर। आदिवासियों को खुद से जोड़ने की हिमायती बहुजन सोशल मीडिया की ऐसी चुप्पी न केवल हैरान करती है, बल्कि खतरनाक भी गलती है (‘द शूद्र’ अपवाद)। नौ दिन बाद इसे एकमात्र खबरिया यू – ट्यूब चैनल ‘द शूद्र’ द्वारा कवर किया गया।
‘द शूद्र’ चैनल की ओर से दिखाया गया कि मृतकों के परिजनों को धमकाकर उन्हें दस हजार रुपए और कुछ कपड़े दिए गए। हालाँकि परिजन रुपए और कपड़े सँभाल कर रखे हैं, जिसे वे पुलिस प्रशासन को लौटाना चाहते हैं। यह गजब का देश है, जहाँ मौत की कीमत मरने वाले की हैसियत देखकर लगाई जाती है, जिसमें सरकार और प्रभावी सोशल मीडिया के खुदमुख्तारों की मौन सहमति भी शामिल है। छत्तीसगढ़ में ही एक किशोर को डीएम के द्वारा थप्पड़ मारे जाने की खबर को सोशल मीडिया ने इतना ताकतवर बना दिया कि सूबे के हुजूरेआला तुरंत हरकत में आकर डीएम को निलंबित कर दिए और बच्चे को नया मोबाइल दिला दिए। वही हुजूरेआला इस मुद्दे पर न कुछ कहते हैं, ना ही आंदोलनरत आदिवासियों का संज्ञान लेते हैं।
सेलेगर के जिन आदिवासियों को नक्सलवादी कहकर मारा गया, वे साधारण लोग थे – मेहनत, मजदूरी करके दो वक्त की रोटी खाने वाले। उन पर कोई मुकदमा या एफआईआर दर्ज नहीं था। मगर उन्हें मार दिया गया, क्योंकि वे अपने गाँव में पुलिस पोस्ट स्थापित किए जाने का प्रबल विरोध कर रहे थे। उन्हें मारना इसलिए भी आसान था कि वे आदिवासी थे। हम जानते हैं कि आदिवासी मौतें सस्ती हुआ करती हैं (easy and affordable death) – महज कुछ हजार मँहगी – न मुआवजा में लाखों रुपए और नौकरी देने मजबूरी, न किसी संस्था की ओर से कोई सार्थक दबाव ना ही कोई नैतिक प्रायश्चित। यहाँ तक कि उन्हें (आदिवासियों को) राष्ट्रविरोधी अथवा नक्सलवादी ठहराना भी देश के किसी भी गैर- आदिवासी नागरिक की तुलना में ज्यादा आसान होता है। इस तरह की खामोश हत्याएं आदिवासियों के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही हैं।
सेलेगर के मारे गए आदिवासी नया कैंप या पुलिस पोस्ट हटाने की माँग कर रहे थे, जबकि शहरों में अक्सर पुलिस चौकी की माँग की जाती है। छत्तीसगढ़ पुलिस का आदर्श वाक्य है –‘परित्राण साधुनाम’ अर्थात अच्छे लोगों की रक्षा। सवाल है कि अच्छे लोग कौन हैं – जल-जंगल और जमीन के रक्षक या भक्षक? पुलिस को शांति स्थापित करने वाले दूत के रूप देखा जाता है। बंबई के कॉर्टर रोड पर तो राजेश खन्ना को प्रशंसकों से बचाने और सुरक्षा देने के लिए बाकायदा पुलिस थाना स्थापित कर दिया गया। तो आदिवासी पुलिस पोस्ट को स्थापित न किए जाने की माँग क्यों कर रहे (करते) हैं?
इसका उत्तर दो अलग – अलग सभ्यताओं के लोगों के प्रति पुलिस के नजरिए में देखा जा सकता है। आदिवासी इलाकों में जब – जब संसाधनों की जानकारी मिलती है, तब – तब सरकार के द्वारा इस तरह के आपरेशन कराए जाते हैं और हर बार एक ही पटकथा अलग – अलग किरदारों के साथ दोहराई जाती है। और हर बार आदिवासी गाँव खेड़े तबाह होते हैं और वहाँ से कुछ लोग हमेशा-हमेशा के लिए कम हो जाते हैं। लिहाजा जिस तरह जातिवाद दलितों और पिछड़ों के लिए अभिशाप है, उसी तरह नक्सलवाद का बहाना आदिवासियों के लिए।