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‘ठाकरे’ नवाजुद्दीन की विस्फोटक प्रतिभा की विफलता का स्मारक क्यों है?

आशुतोष कुमार 
अगर आप बाल ठाकरे और उनकी राजनैतिक शैली के प्रति पहले से ही भक्तिभाव से भरे हुए नहीं हैं, तो फिल्म’ठाकरे’ आपको हास्यास्पद लगेगी.  कोई और समय होता तो इसे एक कॉमिक फिल्म के रूप में भी देखा जा सकता था. लेकिन कोई और समय होता तो यह फ़िल्म सेंसर से ही पास न होती. आखिर जिस फ़िल्म में ‘हटाओ लुंगी, बजाओ पुंगी’ जैसे नारे को महिमामंडित किया गया हो, उसे भारतीय सम्विधान के मुताबिक़ अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं दी जा सकती. यह नारा लुंगीधारी दक्षिण भारतीय लोगों के खिलाफ न केवल नफ़रत भड़काता है, बल्कि हिंसा उकसाने की कोशिश भी करता है. यह फ़िल्म मुसलमानों के खिलाफ जारी साम्प्रदायिक प्रचार को भी आगे बढाती है. बाबरी-मस्जिद  विध्वंस के जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट की निगहबानी में सुनवाई जारी है, भले ही कच्छप गति से, उसे भी यह फ़िल्म पूरी बेशर्मी से गौरवान्वित करती है. इस फ़िल्म का प्रदर्शित होना इस बात का अकाट्य सबूत है कि सेंसर बोर्ड की हैसियत भी आकाओं के इशारे पर नाचने  वाले तोते से अलग नहीं रह गई है.
फ़िल्म में इस फ़िल्म और उसके चरित-नायक को हास्यास्पद ठहराने वाली बातें अनेक हैं.पूरी फिल्म शिवसेना के  इस राजनीतिक सिद्धांत पर आधारित है कि महाराष्ट्र में, ख़ास तौर पर मुंबई में, रोजगार के अवसरों पर ‘बाहर के लोगों’ ने कब्जा कर लिया है. किसी शहर या प्रदेश  के संसाधनों पर स्थानीय निवासियों का पहला अधिकार होना चाहिए. भले ही उस के आर्थिक निर्माण में बाहरी लोगों का खून-पसीना लगा हो. भले ही यह सच है कि बाहरी और भीतरी के बंटवारे को मान लिया जाए तो किसी आधुनिक शहर का विकास हो ही नहीं सकता.
मूलनिवासी के  तर्क से महाराष्ट्र में ‘पहली रोटी मराठी को’ मिलनी चाहिए. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जातीय उन्माद और हिंसा का इस्तेमाल करना जायज है. मूलनिवासी की दादागीरी की यह  राजनीति दुनिया भर में अतिदक्षिणपंथी फासीवादी राजनीति को खादपानी मुहैया करती है. स्थानीय बेरोजगारी की समस्या तो यह हल नहीं करती, लेकिन बेरोजगारों के गुस्से को एक ऐसा निशाना फराहम कर देती है, जिस पर आसानी से हमला किया जा सकता है.  बाहरी लोग अल्पसंख्यक होते ही हैं, अजनबी और अरक्षित भी होते हैं. बाहरी के खिलाफ मूलनिवासी की हिंसा सबसे सुरक्षित और जायज जान पड़ने वाली होती है. फिर हिंसा का अपना एक जादू होता ही है.

महाराष्ट्र में मराठी मानुस का नारा इसी तर्क से अखिल भारतीय स्तर पर हिंदुत्वा का चोला पहन लेता है. फ़िल्म दिखाती है कि किस आसानी से शिवसेना मराठीवाद से हिन्दूवाद तक का सफर पलक झपकते तय कर लेती है. लेकिन फ़िल्म का चरितनायक जब इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का समर्थन करते हुए  शिवसेना के लिए केन्द्रीय संरक्षण जुटाने की कोशिश करता है, तब उसे कहना पड़ता है कि वह जय हिंद को जय महाराष्ट्र से पहले रखता है. लेकिन अपनी समूची राजनीतिक लाइन को पलटते हुए उसे कोई हिचक नहीं  होती. शेर का बाना छोडकर बकरी बनते हुए उसे कोई परेशानी नहीं होती. कोई कमजोर अभिनेता होता तो इस मौके पर जरूर हास्यास्पद लगने लगता. लेकिन यह नवाजुद्दीन सिद्दीकि की  प्रतिभा है कि वह ठाकरे  को कहीं भी हास्यास्पद नहीं लगने देते. उनके अभिनय में इस चरित्र के लिए एक सच्चा यक़ीन और अपनी भूमिका की सच्च्चाई के प्रति प्रतिबद्धता झलकती है. यह प्रतिबद्धता लिखित स्क्रिप्ट के प्रति एक अभिनेता की प्रतिबद्धता है.
स्क्रिप्ट में ‘ठाकरे’ का चरित्र इस हद तक सांचे में ढला हुआ और इकहरा है कि नवाजुद्दीन जैसा अभिनेता न होता तो फिल्म औंधे मुंह गिर जाती. कठघरे में खड़े होकर भी उसे एक भी मुश्किल सवाल का सामना नहीं करना पड़ता. जिरह करने वाला वक़ील मनमाफिक सवाल करता है और रेडीमेड जवाब पाकर चुप हो जाता है. ठाकरे के समूचे राजनीतिक करियर में ऐसा कोई मोड़ नहीं है, जहां उसे तनिक उलझते झिझकते दिखाया गया हो. उसके आसपास और आमने सामने तमाम चरित्र उसकी तुलना में निहायत बौने और हास्यास्पद बनाए गए हैं. वे कहीं भी सर न उठा सकें, इसलिए उनके बोलने चलने के ढंग को भी अस्वाभाविक बना दिया गया है. इंदिरा गांधी तक यहाँ एक कॉमिक चरित्र नज़र आती हैं. इसके बावज़ूद अगर ठाकरे का चरित्र बनावटी और बेजान नहीं लगता तो यह केवल नवाजुद्दीन की अभिनय प्रतिभा के कारण है, जिसने गोया मुर्दे में जान फूंक दी है .
यह सच है कि यह फिल्म शिवसेना संजय राउत ने बनाई है और इसके निर्देशक मनसे नेता अभिजित पंसे हैं. यह विशुद्ध प्रोपेगैंडा फ़िल्म है, लेकिन नवाजुद्दीन के दहाड़ते हुए अभिनय के कारण ऐसी लगती नहीं है. यही, मेरे ख़याल से, नवाजुद्दीन की विफलता भी है. सफल अभिनेता वह होता है जो कला से प्रोपेगैंडा का काम ले सकता है, न कि वह जो प्रोपेगैंडा को कला  में बदल देता है. प्रोपेगैंडा को कला में बदलने का काम विज्ञापन का है, कला का नहीं. नवाजुद्दीन रचनात्मक और कल्पनाशील अभिनेता माने जाते, अगर वे ठाकरे के चरित्र की विडम्बना या उसकी अंतर्निहित हास्यास्पदता की ओर एक इशारा कर पाते. या यही दिखा पाते कि देखो यह एक प्रचार फिल्म का कार्डबोर्ड से बना हुआ हीरो है. अगर वे ठाकरे के चरित्र को दिखाते हुए यह भी दिखा पाते कि वे उसे ‘दिखा रहे हैं’. लेकिन इस फ़िल्म में वे उसे दिखा नहीं रहे, जी रहे हैं. इस फ़िल्म में वे ठाकरे के ‘प्रस्तोता’ नहीं, परिवहन हैं. ठाकरे में उनकी भूमिका उस कीमती गहने की तरह चमकती है, जो नायिका के चेहरे को आभाहीन बना देती है.
कुछ ही समय पहले नवाजुद्दीन ‘मंटो’ में दिखे थे. उनकी यह भूमिका कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई. नवाजुद्दीन इस फ़िल्म की सबसे कमजोर कड़ी थे. ‘मंटो’ का स्क्रिप्ट बेहतरीन था. निर्देशन सधा हुआ था. सम्पादन बढ़िया हुआ था. लेकिन मंटो की भूमिका में कोई जान नहीं थी. नवाज मंटो को भी प्रस्तुत नहीं कर पाए. मंटो को जी भी नहीं सके . फ़िल्म एकदम बैठ गई. क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नवाजुद्दीन केवल खल भूमिकाओं के लिए बने हैं ? जोड़ने वाले , हो सकता है, इसे उनकी  चर्चित आत्मकथा से जोड़ कर देखें, जिसमें वे एक ऐसे आहत नायक की तरह दिखाई पड़ते हैं, जो अपने जीवन में आई स्त्रियों का ‘इस्तेमाल’ सम्बन्ध में रहते हुए भी कर सकता है और बाद में अपनी ‘आत्मकथा’ को बिकाऊ बनाने के लिए भी.  जैसा कि इन चर्चित स्त्रियों में से कुछ ने आरोप की शक्ल में कहा भी है.  लेकिन ऐसा होता है, तो यह उनके प्रशंसकों के लिए दुखदायी बात होगी. अच्छा होगा अगर वे चरित्रों को जीना छोडकर उन्हें प्रस्तुत करने का यत्न करें.
(प्रो. आशुतोष कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं ।)

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