समान नागरिक संहिता के जिन्न का उत्तराखंडी संस्करण थैले से बाहर आ चुका है और उसके साथ ही सामने आ गयी है बन्द कमरों में झाँकने की धामी सरकार की कुत्सित और कुंठित मंशा भी।
इस संहिता की धारा 381 की व्यवस्था के अनुसार आपसी सहमति से एक-दूसरे के साथ रहने (लिव-इन रिलेशनशिप) के इच्छुक वयस्कों को रजिस्ट्रार के कार्यालय में इस आशय का एक ‘‘संयुक्त वक्तव्य’’ दाखिल करना होगा। रजिस्ट्रार को यह अधिकार होगा कि वह इस बात की जाँच कर सके कि इस युग्म के परस्पर वांछित सम्बन्ध ‘‘निषिद्ध’’ की श्रेणी में तो नहीं आते। वह इस हेतु ‘समन’ भी जारी कर सकेगा।
आवेदन के 30 दिनों के अन्दर वह इसका पंजीकरण करेगा और इस आशय का एक प्रमाणपत्र भी जारी करेगा। दोनों में से कोई भी व्यक्ति या दोनों ही व्यक्ति यदि यह सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहेंगे तो यही प्रक्रिया दुबारा करनी होगी। इस संहिता द्वारा ही आश्वस्त किया गया है कि यह समस्त कार्यवाही केवल ‘अभिलेखीय उद्देश्य’ (परपज़ ऑफ रिकाॅर्ड) से की जायेगी। पर एक चौंकाने वाली बात यह भी है कि ये अभिलेख सार्वजनिक होंगे यानी कोई भी व्यक्ति इनकी जानकारी प्राप्त कर सकेगा। मतलब यह कि लिव-इन रिलेशनशिप पर निजता के अधिकार (राइट टु प्राइवेसी) लागू नहीं होंगे।
‘सुप्रियो बनाम भारत सरकार’ मामले (समलैंगिक विवाह मामला) में संविधान-पीठ की अगुवाई करते हुये भारत के मुख्य न्यायाधीश डी0वाई0 चन्द्रचूड़ ने अपने अल्पमत आदेश में सन्दर्भित किया है कि दो व्यक्तियों के बीच आपसी सहमति से स्थापित वैध ‘‘लैंगिक सम्बन्धों’’ (लेजीटिमेट ‘‘इन्टिमेट एसोसियेशन्स’’) में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। उनका कहना था कि लैंगिक सम्बन्धों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(सी) के अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत दूसरी अभिव्यक्तियाँ जैसे लैंगिक पहचान, साथी का चयन और सहमत व्यक्ति के समक्ष यौनेच्छा की अभिव्यक्ति भी आते हैं।
मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि परम्परागत रूप से अदालतों ने कतिपय प्रकार के निजी सम्बन्धों में राज्य के हस्तक्षेप का अनुमोदन करने से परहेज़ किया है। उन्होंने इस बात से भी खबरदार किया है कि कैसे राज्य दो व्यक्तियों के निजी सम्बन्धों में सीधे-सीधे या किसी दूसरे तरीके से हस्तक्षेप कर सकता है। वह कोई कानून बना कर सीधे-सीधे ऐसा कर सकता है या इस स्वतंत्रता का उपभोग किये जाने के रास्ते में रोड़े अटका कर।
लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई कानूनी रोक नहीं है। अलबत्ता सच यह है कि एस0 खुशबू बनाम कन्नाईअम्मल मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि लिव-इन रिलेशनशिप संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन के अधिकार के दायरे में आता है। घरेलू हिंसा से महिला का संरक्षण अधिनियम 2005 के अनुसार लिव-इन रिलेशनशिप घरेलू सम्बन्धों के दायरे में आता है। इसलिये इस संहिता की धारा 381 के प्राविधानों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना जरूरी है।
‘द हिन्दू’ दिनांक 08.02.2024 में श्री कृष्णदास राजगोपाल के लेख पर आधारित।
दिनेश अस्थाना