राजेश कुमार
साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी नाटक ‘सम्राट अशोक’ के लिए वर्ष 2021 का ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ देने की घोषणा के बाद नाटककार दया प्रकाश सिन्हा ने दिल्ली के एक अखबार में इंटरव्यू देते हुए कहा कि ‘अशोक और मुगल बादशाह औरंगजेब के चरित्र में बहुत समानता दिखाई दी । दोनों ने अपने प्रारम्भिक जीवन में बहुत पाप किये थे और अपने पाप को छिपाने के के लिए अतिधार्मिकता का सहारा लिया ताकि जनता का ध्यान धर्म के प्रति प्रेरित हो जाए और उनके पाप पर किसी का ध्यान न जाए । दोनों ने अपने भाई की हत्या की थी और अपने पिता को कारावास में डाल दिया था ।‘
इतिहास में जब भी किसी सम्राट की चर्चा होती है तो अमूमन अशोक और अकबर का ही नाम आता है। लेकिन देश की राजनीति में जहां इन दिनों सत्ता पाने के लिए लोगों का ध्रुवीकरण करने और एक समुदाय के प्रति घृणा भरकर लोगों के अंदर उन्माद पैदा करने हेतु अकबर और औरंगजेब पर लगातार नई–नई कहानियां गढ़ कर व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी और गोदी मीडिया द्वारा हमले हो रहे हैं। ऐसे लोग अब संस्कृति के मोर्चे पर भी एक्टिव हो गए हैं। पहले निशाने पर मुसलमान होते थे, अब इसमें दलित और उनसे जुड़ा बौद्ध धर्म भी शामिल हो गया है।
पिछले कुछ दिनों से एक नीति के तहत संघ परिवार की तरफ से अशोक को खलनायक और बौद्ध मतावलंबियों को राष्ट्रद्रोही बताने का प्रयास किया जा रहा है। लोगों के दिलोदिमाग में यह बिठाने की कोशिश की जा रही है कि देश की अवनति उसी काल में हुई है। जबकि सबको ज्ञात है कि हमारे तिरंगे में जो चक्र है, जिसे गर्व से अशोक चक्र कहते हैं, सम्राट अशोक से ही जुड़ा हुआ है। अशोक स्तंभ जो भारतीय गणतंत्र का प्रतीक है, उसी काल से संबंधित है। सोचने की बात ये है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद अचानक वर्तमान सरकार की आंखों में अशोक क्यों चुभने लगे ?
वर्ष 2013 के आसपास का लिखा और 2015 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नाटक को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ देने की सुधि साहित्य अकादमी को अचानक इतने वर्षों के बाद कैसे आ गयी ? जाहिर है सपने में तो आया नहीं होगा ? पार्टी के एजेंडे को अमलीजामा पहनाने के लिए ही साहित्य अकादमी के जूरी मेम्बरानों ने खोज – खाज कर, इस पर पड़ी धूल – धक्कड़ को झाड़ – पोंछ कर इस अचर्चित, कमतर मंचन वाले नाटक को सामने ले आए। और यह सोच कर लाया कि अंतिम साल है, अगर इस साल यह खोटा सिक्का नारंगी हवा में नहीं चला तो अगले साल नहीं चल पायेगा। पांच साल के लिए ही इसकी वैधता रहती है। मजे की बात ये है कि तीन लोगों की कमिटी में जो दो लोग हैं, जयप्रकाश और चमनलाल गुप्ता कोई नाटक के विशेषज्ञ नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा में ओत – प्रोत रहने वाले एक्सपर्ट हैं। ऐसे में अकेले दिविक रमेश जैसे साहित्यकार के विरोध में नोट्स लगाने वाले से क्या होगा ? दो का बहुमत तो पुरस्कार के लिए पर्याप्त है ।
रवींद्र भवन के ही बहुमंजिला इमारत के किसी तल पर साहित्य अकादमी है तो किसी पर संगीत नाटक अकादमी – ललित कला अकादमी । सब सरकार के किसी एक ही विभाग से संचालित होते हैं जिसके अन्तर्गत ये हर वर्ष साहित्य – संस्कृति और कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए योग्य लोगों को पुरस्कार देते हैं। दया प्रकाश सिन्हा को साहित्य अकादमी का यह पुरस्कार उनके नाटक ‘सम्राट अशोक’ के लिए घोषित किया गया है ।
60 वर्षों में हिंदी नाटक के लिए यह पुरस्कार पाने वाले दया प्रकाश सिन्हा पहले नाटककार हैं। आज तक यह सम्मान उपेन्द्रनाथ अश्क, मोहन राकेश, लक्ष्मी नारायण लाल, धर्मवीर भारती, सुरेंद्र वर्मा, भीष्म साहनी, स्वदेश दीपक, मुद्राराक्षस जैसे नाटककारों को भी प्राप्त नहीं हो सका है। अलबत्ता इन्हें हिंदी में नाट्य लेखन के लिए संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार जरूर मिला है । सन 2001 में दया प्रकाश सिन्हा को भीष्म साहनी के साथ संगीत नाटक अकादमी का यह सम्मान मिल भी चुका है। इसलिए कुछ लोगों के जेहन यह सवाल उठना भी वाजिब है कि जब सन 2001 में नाट्य विधा के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिल चुका है तो साहित्य अकादमी के इस पुरस्कार की घोषणा कहीं एक ही विधा के लिए पुनरावृति तो नहीं है ? लेकिन 31 दिसंबर 21 के हिंदुस्तान में दिए गए साक्षात्कार में जब दया प्रकाश सिन्हा कहते हैं कि, ‘मैं राष्ट्रवादी साहित्यकार हूँ । पहली बार साहित्य अकादमी ने किसी राष्ट्रवादी साहित्यकार को पुरस्कृत किया है । साहित्य अकादमी में यह नवाचार है कि बिना किसी विचारधारा का ध्यान रखते हुए एक साहित्यकार को सम्मानित किया गया है।’, तो कारण स्पष्ट होने लगता है । पुरस्कार मिलने के पीछे जो तर्क है, वो दैनिक जागरण में दिए गए इंटरव्यू से शीशे की तरह और साफ हो जाता है जिसमें वे कहते हैं कि, ‘मैं सनातनी विचारधारा को मानता हूं, संघ का स्वयंसेवक हूँ, लेकिन मेरे लेखन से कोई संबंध नहीं है । विचारधारा और रचनात्मकता दो अलग चीजें हैं।’
दुनिया का कोई भी रचनाकार हो, उसकी रचना पर उसकी विचारधारा का प्रभाव किसी न किसी रूप में पड़ता ही है। रचना में अगर कोई विचार न हो तो वो बिना प्राण के जीव की तरह होता है। कालिदास हो या शूद्रक, कबीर हो या तुलसी, शेक्सपियर या मोलियर, इब्सन, दरिया फो, भारतेंदु, प्रेमचंद, भिखारी ठाकुर, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, असगर वजाहत, गुरुशरण सिंह, सफदर हाशमी … सबकी रचना में विचार का कोई न कोई पक्ष हमेशा उपस्थित रहा है। विचारधारा का मतलब किसी राजनीतिक पार्टी से संबद्धता नहीं समझनी चाहिए। लेकिन दया प्रकाश सिन्हा के केवल दो नाटकों विशेष कर ‘सम्राट अशोक’ और ‘रक्त अभिषेक’ को पढ़ने से ही लग जाता है कि उनका झुकाव किस विचारधारा, किस राजनीतिक पार्टी की तरफ है । भले वे लाख दुहाई देते रहें कि उनकी रचनात्मकता पर किसी राजनीतिक, धार्मिक विचारधारा का प्रभाव नहीं है।
जैसा कि दया प्रकाश सिन्हा अपने बारे में स्वयं कहते हैं कि एक लंबे समय से सनातन धर्म और संघ से स्वयं सेवक रूप से जुड़े रहे हैं, इसलिए उनके लेखन में उसका प्रभाव आना स्वाभाविक है। जहां उठेंगे – बैठेंगे, वहां की भाषा – सोच आना तो स्वाभाविक है । इतिहास को देखने का संघ का अपना एक अलग नजरिया है । उनका नाटक ‘सम्राट अशोक’ और ‘रक्त अभिषेक’ उसी लाइन पर लिखा गया है । दया प्रकाश सिन्हा से पूर्व भी अशोक पर कई नाटककारों ने नाटक लिखे हैं । अज्ञेय का चर्चित नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ इसी विषय पर है। रामेश्वर प्रेम ने ‘अंतरंग’, रामवृक्ष बेनीपुरी ने ‘नेत्रदान’ के अलावा ‘विजेता’, ‘अम्बपाली’ जैसे नाटक लिखे हैं जो गुप्त वंश के उस काल के इर्द – गिर्द का एक जीवंत दस्तावेज हैं।
अब तक अशोक पर जितने भी नाटक लिखे गए हैं, सब कलिंग विजय के बाद अशोक के युद्ध, हिंसा, रक्तपात के बाद हुए हृदय परिवर्तन और बुद्ध के विचारों को विश्व व्यापक विस्तार दिया है, वही पक्ष सकारात्मक रूप से ज्यादा उभर कर आया है। लेकिन दया प्रकाश सिन्हा का यह नाटक प्रारम्भ से अंत तक उनके नकारात्मक पक्ष पर ही फोकस करता हुआ दिखता है। कहें तो उन्हें खलनायक रूप में प्रस्तुत करता है। सत्ता पाने के लिए भाइयों की निर्मम हत्या करना, राज्य विस्तार में अड़चन आने वाले कलिंग राज्य के लाखों लोगों की मार डालना, अपनी काम वासना को शांत करने के लिए चारित्रिक पतन और धर्म के रास्ते में आने वाले के समक्ष असहिष्णुता की सारी सीमाएं पार करना, इसी को प्रस्तुत करना जैसे नाटककार के लेखन का मुख्य लक्ष्य है। इसलिए इस नाटक में अशोक कभी इंदिरा पार्थसारथी के तमिल नाटक ‘औरंगजेब’ की तरह दिखते हैं, तो कभी गिरीश कर्नाड के ‘तुगलक’ तो कहीं ‘शाहजहां’ के अंतिम दिनों में कारावास में घुट – घुट कर जी रहे नितांत अकेला। लगता है नाटककार पहले से इन चरित्रों का एक खाँचा बना कर अशोक को फिट कर दिया है ।
वैसे भी हिंदी साहित्य, नाटक में दलित – पिछड़े नायकों को चित्रित करने का एक ऐसा ट्रेंड बना हुआ है कि लगता है इन चरित्रों का अपना एकांगी रूप से कोई अस्तित्व ही न हो। चंद्रगुप्त पर विशाखदत्त के ‘मुद्राराक्षस‘ नाटक से लेकर अन्य नाटककारों ने, जितने भी नाटक लिखे हैं, उसमें चाणक्य के सम्मुख चंद्रगुप्त को इतना बौना करके प्रस्तुत करते हैं कि लगता है चाणक्य न होता तो चंद्रगुप्त कुछ कर ही नहीं पाता। वही हाल भक्ति काल आंदोलन के कबीर और रैदास के साथ करते हैं। इनके साथ इतनी उपकथाएं जोड़ देते हैं कि लगता है ये जो महान हुए हैं , रामानंद के शिष्य होने के बदौलत हैं। कबीर और रैदास अपने गुणवत्ता के कारण श्रेष्ठ नहीं हैं, बल्कि कबीर एक विधवा ब्राह्मणी पुत्र और रैदास पूर्व जन्म में ब्राह्मण होने के कारण हुए हैं। यही फार्मूला दया प्रकाश सिन्हा ने इस नाटक के साथ आजमाया है।
नाटक के दूसरे दृश्य में दिखाया गया है कि राजा बिंदुसार जब मरणावस्था में हैं और उनका ज्येष्ठ पुत्र सुसीम गांधार में पख्तून विद्रोह दबाने गया है, तब चाणक्य के पौत्र राधगुप्त उज्जैन से अशोक को बुलाकर राजा बिंदुसार को अपदस्थ कर जबरदस्ती राज सत्ता की जिम्मेदारी सौंप देते हैं। राजदरबार में विरोध में उठने वाली तमाम आवाजों को राधा गुप्त दबा कर अशोक को राजसिंहासन पर बिठा देता है । जैसे किसी कठपुतली को गद्दी पर बिठा दिया गया हो। राधागुप्त के ही इशारे पर ही अशोक के द्वारा विरोध में उठने वाले तमाम लोगों को मरवा दिया जाता है। इतिहास में सत्ता पाने के लिए अशोक का जितना क्रूर चेहरा दिखायी देता है, नाटक में इसके उलट ऐसा दिखता है जैसे राधा गुप्त जैसे ब्राह्मण की कृपा से शूद्र अशोक राजसत्ता प्राप्त करने में कामयाब हो सका है । बिल्कुल चंद्रगुप्त और चाणक्य की तरह । राधगुप्त के सामने राजनीति और वैचारिक स्तर पर अशोक अत्यंत दुर्बल दिखता है जो ऐतिहासिक रूप से सच नहीं है।
इतिहास में अशोक की पहचान है, कलिंग युद्ध की त्रासदी के बाद उनका युद्ध से वितृष्णा, जीव के प्रति करुणा, सहिष्णुता, दया भाव और परस्पर प्रेम का संचार । बौद्ध धर्म के करीब जाने पर जब उन्हें अंदर की व्याकुलता खत्म होती नहीं दिखी, उन्हें लगा युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है, प्रेम से ही किसी को जीत जा सकता है तो उन्होंने न केवल बौद्ध धर्म अपनाया बल्कि इसके प्रचार – प्रसार में अपना सर्वस्व लगा दिया। लेकिन दुखद पहलू ये है कि अशोक का यह कदम नाटककार दया प्रकाश सिन्हा को कहीं प्रभावित नहीं करता है। कहीं भी इस महत्वपूर्ण पक्ष को वे नाटक में उद्घाटित नहीं करते हैं, बल्कि उन्हें अशोक का धर्म परिवर्तन अपने पाप को छिपाने के लिए अतिधार्मिकता का सहारा नजर आता है। जनता का ध्यान उनकी नृशंसता पर न जाए इसलिए अशोक बौद्ध धर्म प्रचार के लिए जो करते हैं, उन्हें ढकोसला दिखता हैं। ऐसा दया प्रकाश सिन्हा ने अपने साक्षात्कार में साधिकार कहा भी है।
दरअसल नाटककार जिस सनातन धर्म और संघ की विचारधारा से अपने को जुड़ा मानते हैं, उस संगठन का एजेंडा नाटक में हूबहू उतार कर रख देते हैं। औरंगजेब की तुलना वर्तमान सरकार और उसके नेपथ्य में साये की तरह चलने वाली संघ के फासीवादी रवैये से करने के बजाय निशाना उन्होंने अशोक की तरफ कर दिया है। जैसे इन दिनों अकबर और औरंगजेब को कट्टर, हिन्दू विरोधी मुस्लिम राजा की तरह साबित करने में संघ लगा है, उसी तरह इस नाटक में अशोक को निर्मम, धार्मिक असिहष्णुता की तरह चित्रित करने पर जोर दिया गया है। भिक्खू समुन्द्र से धार्मिक रूप से असहमत होने पर दंड स्वरूप अशोक द्वारा जिंदा जला देने का जो उदाहरण नाटक में दृश्य के रूप में लाया गया है, इसी दिशा में नाटककार का प्रयास है। इसके लिए नाटककार अपने पक्ष के विभिन्न इतिहास ग्रन्थों का सहारा लेकर इस तथ्य को स्पष्ट करना चाहता है। धर्म परिवर्तन के उपरांत अशोक की जो छवि लोक में व्याप्त है, नाटककार को कतई नहीं पसंद है। उन्हें तो अशोक की छवि में कभी औरंगजेब दिखता है तो कभी अल्बेयर कामू का ‘कालिगुला‘।
नाटक के आठवें दृश्य में शिलालेख पर लिखे जाने वाले शब्दों को लेकर ब्राह्मण कुलीन महामंत्री राधागुप्त बार – बार जिस तरह हस्तक्षेप करता है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि उस वक्त के सनातन धर्म या कहे ब्राह्मणवादी व्यवस्था को अशोक का यह कदम कदापि सहन नहीं हो रहा है। यज्ञ – पूजा पाठ के नाम पर जिस तरह जीव हत्या हो रहे थे, उसके विरुद्ध अशोक बुद्ध के अहिंसा पाठ को शिलाओं – स्तंभों के द्वारा प्रचारित कर रहे थे, उस वक्त के ब्राह्मणवाद को अपने धर्म में सीधा – सीधा हस्तक्षेप लग रहा था । इसलिए राधागुप्त कदम – कदम पर रोड़ा अटकाता हुआ दिखता है। बुद्ध दर्शन ने सनातन धर्म के अंध विश्वास, धार्मिक कट्टरता, पाखण्ड, धार्मिक शास्त्रों की मिथ्या, गैर बराबरी, असमानता और वर्ण व्यवस्था पर जब प्रहार करना शुरू किया था, ब्राह्मणवादी व्यवस्था उसे अपने धर्म में दखल समझ कर विरोध करना शुरू कर दिया था। अशोक द्वारा जब बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया गया तो यह विरोध और मुखर हो गया था ।
राधागुप्त जैसे ब्राह्मणवादी लोगों को बौद्ध धर्म के मजबूत होने पर अपने अस्तित्व का संकट गहराने लगा था । इसलिए जन सामान्य के बीच भारतीय संस्कृति, धर्म और परंपरा पर बाहरी विदेशी आक्रांताओं की विचारधारा का भय दिखा कर , अंध राष्ट्रवाद की अलख जगाने की कोशिश करने लगा था। ये प्रक्रिया आज भी जारी है। बल्कि जब से देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने जोर पकड़ा है, एक राष्ट्र – एक धर्म – अखंड भारत का मुहिम उठा है, अपने से इतर धर्म , वर्ग, वर्ण के प्रति घृणा का प्रचार – प्रसार तीव्र हो गया है। इसलिए इतिहास और नाटक में अशोक जैसे महान चरित्रों को साजिश के तहत औरंगजेब के समक्ष खड़ा कर खंडित, छवि धूल धूसरित करने की कोशिश हो रही है। इसके लिए अशोक के समय के पाली साहित्य का संदर्भ लेने के बजाय संस्कृत भाषा में लिखे गए ग्रंथों को आधार बनाया जा रहा है जो बौद्ध दर्शन के प्रति हमेशा से पूर्वाग्रह की भावना से ग्रस्त रहा है।
नाटककार दया प्रकाश सिन्हा का पूरे नाटक में अशोक हिंसा, शंका, काम भावना से ग्रस्त, कार्य के प्रति लापरवाह, दूसरे धर्म के प्रति असहिष्णु, सत्ता के प्रति मोह, हमेशा कोई न कोई षड्यंत्र रचने में संलग्न होता दिखता है । एक भ्रम और उतपन्न करता दिखता है कि जब से अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, भारत कमजोर होता गया है । नाटक के 19 वें दृश्य में राधागुप्त अशोक पर आरोप लगता है कि इन्होंने धम्म और संघ के प्रचार में राज्य का धन दोनों हाथों से लुटा दिया है, अशोक की नजरों में दूसरे धर्म का कोई महत्व नहीं है, देश – विदेश में स्तूप और विहार बनाने के कारण राजकोष रिक्त हो गया है, धनाभाव में राज्य के कार्य पूर्ण नहीं हो पा रहे हैं, अकाल पड़ने लगा है, भूखे किसानों में विद्रोह की भावना उतपन्न होने लगी है। जबकि यथार्थ कुछ और था।
अशोक के शासन काल में यह देश जितना सम्पन्न, समृद्ध और विस्तृत था, उतना अकबर के अलावा कभी भी नहीं रहा। लेकिन एक शूद्र और एक मुगल इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में रहे, ये भला ब्राह्मणवादियों को कैसे बर्दाश्त होता ? इसलिए इनका हमेशा से प्रयास रहा कि इस स्वर्णिम पन्नों को कैसे काले रंग से पोत दिया जाय ? इसलिए पिछले कुछ वर्षों से अकबर और औरंगजेब दोनों इनके रडार पर है। और सनातन धर्म के मूल में जो वर्ण व्यवस्था है, उस पर बौद्ध धर्म का जो प्रहार है, इस विचारधारा से आज भी ब्राह्मणवाद आक्रांत है । इसलिए बौद्ध हो या अशोक, रैदास, फुले हो या अम्बेडकर, उन्हें एक शत्रु की तरह नजर आते हैं । जहां उन्हें मौका मिलता है, इन पर हमला करने से चूकते नहीं हैं। अशोक को औरंगजेब के समदृश्य खड़ा कर चरित्र हनन का यह पहला प्रयास नहीं है, इसके पूर्व भी ब्राह्मणवादियों के द्वारा होता रहा है।
लक्ष्मीनारायण मिश्र ने भी बुद्ध और अशोक पर एक अत्यंत घृणास्पद नाटक ‘काल विजय’ सन 1980 के पूर्व लिखा था जिसमें एक हिन्दू सन्यासी पत्र के माध्यम से बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण को उनके नामर्दपन से जोड़ कर बुद्धपुत्र राहुल को बुद्ध की अवैध संतान होने का संकेत दिया है। ऐसे नाटकों को सवर्ण समाज और सरकारी संस्थानों द्वारा दिल खोल कर स्वागत किया जाता है । कई विश्विद्यालयों में कोर्स में भी लगा दिया गया था । ये कोई संयोग की बात नहीं है कि दयाप्रकाश सिन्हा के नाटक ‘सम्राट अशोक’ का लोकार्पण 2015 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक के सह कार्यवाहक डॉ कृष्ण गोपाल के हाथों हुआ और इसी नाटक की अगली कड़ी में लिखा गया नाटक ‘रक्त अभिषेक’ जिसमें बौद्ध राजा वृहदथ की ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा की गई हत्या को जस्टिफाई करता है कि बुद्ध के मार्ग पर चलने से राष्ट्र निर्बल हुआ है इसलिए सनातन धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए ब्राह्मणवादी वर्णवादी व्यवस्था ही इस देश के लिए जरूरी है, इसे 2016 में संस्कार भारती द्वारा प्रोड्यूस किया गया और एक एजेंडे के तहत पूरे देश में इसका मंचन सत्ता के सरंक्षण में किया गया था।
तात्पर्य कि ‘सम्राट अशोक’ जैसे बहुजन विरोधी नाटक को पुरस्कार से सम्मानित कर जहां कुछ लोग ब्राह्मणवादी चिंतन को साहित्य में स्थापित करने में लगे हैं, अशोक की छवि औरंगजेब की तरह बना कर ‘हिंदी रंगमंच’ को ‘हिन्दू रंगमंच’ बनाने की पुरजोर प्रयास में लगे हुए हैं वहीं दूसरी तरफ देश भर में कुछ ऐसे लोगों की भी जमात है जो शोषित – उत्पीड़ित – वंचितों के पक्ष में गरीब – गुरबा – बहुजन समाज के लिए प्रतिरोध का नाटक कर रहे हैं। वे उनके बिछाए गए जाल में फंसने वाले नहीं है। उसे छिन्न – भिन्न करने में निरंतर सक्रिय हैं। चारों तरफ फैले धुंध को दूर करने के लिए एक वैकल्पिक रंगमंच खड़ा कर रहे हैं।
(लेखक चर्चित नाटककार हैं )