अभिषेक मिश्र
आम आदमी, आदिवासी, स्त्री अधिकार आदि के क्षेत्र में ताउम्र कार्यरत रहने वाली साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता रमणिका गुप्ता का नई दिल्ली में निधन हो गया। वे 89 साल की थीं।
वो अपने जीवन के अंतिम समय तक सामाजिक कार्यों और साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय रहीं। वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ी त्रैमासिक पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ का सम्पादन भी करती थीं।
रमणिका फाउंडेशन की अध्यक्षा, अखिल भारतीय साहित्यक मंच की को-आर्डिनेटर, ‘युद्धरत आम आदमी’ (त्रौमासिक हिन्दी पत्रिका) की सन् 1985 से संपादक, चेयरमैन एन.सी.इ.ओ.ए. (सीटू से सम्बद्ध कोयला की यूनियन), भारतीय श्रमिक संघ केंद्र (सीटू) की झारखंड की उपाध्यक्षा, जनवादी लेखक संघ, झारखंड की संरक्षक; अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ की राष्ट्रीय परिषद् की सदस्या, संयोजिका लघु पत्रिका सम्मेलन, झारखंड; सदस्या राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति लघु-पत्रिका सम्मेलन; भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), झारखंड की राज्य कमिटी की सदस्या आदि उपलब्धियां रमणिका गुप्ता के जीवन के लंबे संघर्षों के निचोड़ की एक झलक मात्र हैं।
रमणिका गुप्ता जिन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी तो उसका शीर्षक रखा ‘आपहुदरी’ (एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा)। ‘आपहुदरी’ पंजाबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘स्वेच्छाचारी’। इस शब्द के मुख्य भाव को अपनी सुविधानुसार परिणत कर नकारात्मक अर्थ में लिए जाने की मानसिकता को न सिर्फ इस शीर्षक से बल्कि अपने पूरे जीवन में अपने व्यवहार से वो झकझोरती रहीं।
उनके सुलझे और स्पष्ट विचारों की झलक उनकी आत्मकथा की इन पंक्तियों से भी मिलती है कि-
”मैं अब सब परिधियां बांध सकती थी, सीमाएं तोड़ सकती थी. सीमाओं में रहना मुझे हमेशा कचोटता रहा है, सीमा तोडऩे का आभास ही मुझे अत्यधिक सुखकारी लगता है. मैं वर्जनाएं तोड़ सकती हूं…अपनी देह की मैं खुद मालिक हूं. मैं संचालक हूं. संचालित नहीं.”
इसी में एक अन्य जगह वो लिखती हैं- ”यौन के बारे में भक्ष्य-अभक्ष्य क्या है, समाज इसका फैसला तो करता रहा है, पर उसने समझ के साथ अपने मानदंड नहीं बदले… व्यक्ति बदलता रहा, प्यार की परिभाषाएं, सुख की व्याख्या, यौन का दायरा सब तो देशकाल के अनुरूप बदलता है। रिश्ते भी सापेक्ष होते हैं। दुर्भाग्यवश समाज ने अपना दृष्टिकोण नहीं बदला खासकर भारतीय समाज ने।”
22 अप्रैल, 1930 को सुनाम (पंजाब) में जन्मीं रमणिका गुप्ता कई गैर-सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध रहीं तथा विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक कार्यक्रमों में सहभागिता निभाती रहीं। आदिवासियों, दलित महिलाओं व वंचितों के लिए वो ताउम्र कार्यरत रहीं। और अपने इसी संघर्ष के एक माध्यम के रूप में पूर्व में बिहार अब झारखंड (मांडू) की विधायक और बिहार राज्य विधान-परिषद् की सदस्य भी रहीं।
उनके जीवन के मुख्य घटनाक्रम:
वो रमणिका फाउंडेशन की संस्थापक सदस्य एवं अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय आदिवासी साहित्यक मंच की को-आर्डिनेटर रहीं। बिहार राज्य विधान-परिषद् की पूर्व सदस्या (1970-71, 1974-79) रहीं। 1979 से 1985 तक बिहार राज्य विधान-सभा की सदस्या रहीं।
राष्ट्रीय स्तर पर कोल इंडिया वेलफेयर बोर्ड की सदस्या रहीं। ‘माइन्स, मिनरल एंड पीपल’ नामक गैर-सरकारी संस्था में माइन्स, मिनरल एंड वीमेन समिति की परामर्शदात्रा।
मजदूरों, विशेषकर खदान मजदूरों, भूमि-विस्थापितों, आदिवासियों, दलितों एवं महिलाओं के अधिकारों हेतु राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करती रहीं।
उन्होंने 1972 में राजा रामगढ़ की केदला-झारखंड खदानों के राष्ट्रीयकरण हेतु एक लंबी हड़ताल करवा कर, खदानें राष्ट्रीयकृत करवाने में सफलता प्राप्त की।
झारखण्ड के छोटा नागपुर के गांवों में पानी-व्यवस्था हेतु सफल आंदोलन का नेतृत्व किया। कोयला खदानों एवं सी.सी.एल. के कारण विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास एवं रोजगार हेतु 1980 में आंदोलन तथा सर्वोच्च न्यायालय में उनके हितार्थ याचिका दायर कर महत्त्वपूर्ण स्थगनादेश प्राप्त करना, पुनर्वास एवं रोजगार हेतु 2000 लोगों के साथ डेढ़ माह के लिए जेल जाना उनके प्रमुख कार्यों में गिने जाते हैं।
वो मध्य प्रदेश के सिंगरौली क्षेत्रा में सी.सी.एल. (अब एन.सी.एल.) में ठेकेदारी मजदूरों को नियमित एवं स्थाई करने के संघर्ष एवं विस्थापितों के पुनर्वास तथा रोजगार के आंदोलन के क्रम में छह माह तक भूमिगत भी रहीं। राष्ट्रीय स्तर पर होते रहे महत्त्वपूर्ण मजदूर, किसान और महिला आंदोलन में भी भागीदारी करती रहीं।
उनका पूरा जीवन आप आदमी के संघर्षों के लिए समर्पित रहा। पर साथ-साथ वो लेखन के माध्यम से भी इन विषयों को उठती रहीं।
रचना जीवन: आदिवासी, दलित एवं स्त्री संबंधी विषयों पर उन्होंने काफी पुस्तकें लिखीं। आत्मकथा के अलावा निज घरे परदेसी, सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे ( स्त्री -विमर्श), आदिवासी स्वर: नयी शताब्दी (सम्पादन)। इसके अलावा छह काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं तैंतीस विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं के अतिरिक्त ‘आदिवासी: शौर्य एवं विद्रोह’ (झारखंड), ‘आदिवासी: सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएँ’ (झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात और अंडमान-निकोबार) का संकलन-सम्पादन। अनुवाद: शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक ‘दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद। इनके उपन्यास ‘मौसी’ का अनुवाद तेलुगु में ‘पिन्नी’ नाम से और पंजाबी में ‘मासी’ नाम से हो चुका है। ज़हीर गाजीपुरी द्वारा उर्दू में अनूदित इनका कविता-संकलन ‘कैसे करोगे तकसीम तवारीख को’ प्रकाशित। इनकी कविताओं का पंजाबी अनुवाद बलवरी चन्द्र लांगोवाल ने किया जो ‘बागी बोल’ नाम से प्रकाशित हो चुका है।
कविता संग्रह– भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूँ, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदम से आदमी तक, विज्ञापन बनते कवि, कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का, निज घरे परदेसी, प्रकृति युध्दरत है,पूर्वांचल: एक कविता यात्रा, आम आदमी के लिए, खूंटे, अब और तब, गीत – अगीत
उपन्यास– सीता-मौसी
कहानी संग्रह- बहू जुठाई
गद्य पुस्तकें- कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे, दलित चेतना- साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण- वाम के कठघरे और दलित साहित्य, असम नरसंहार- एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज
(अभिषेक कुमार मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं. साहित्य, कला-संस्कृति, विरासत आदि में भी रुचि. विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘ धरोहर ’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘ गांधीजी ’ का संचालन. मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और हमारी विरासत के बारे में लेखन. Email: abhi.dhr@gmail.com , ब्लॉग का पता – ourdharohar.blogspot.com)
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