मैथिली साहित्य जगत को अपनी समकालीन कविताओं के माध्यम से नई ऊँचाई तक ले जाने वाले कवि हरे कृष्ण झा का 70 वर्ष की आयु में 25 अप्रैल 2019 को पटना में निधन हो गया। नक्सलबाड़ी आंदोलन के आवेग से निकली मैथिली काव्यधारा के वे सशक्त हस्ताक्षर थे। समकालीन जनमत टीम की ओर से उन्हें श्रद्धांजलि !
अच्युतानंद मिश्र
नागार्जुन और राजकमल के पश्चात् मैथिली कविता समकालीनता के नए रास्ते पर चल निकली। 80 के दशक में वहां दो कवियों का उभार हुआ ।
कुलानंद मिश्र और हरेकृष्ण झा। कुलानंद जी के यहां दैन्य और जीवन संघर्ष का यथार्थ मुखर होकर सामने आता है, तो वहीं हरेकृष्ण झा के यहां जीवन दृश्यों का एक दार्शनिक अवलोकन देखा जा सकता है।
दिलचस्प बात है कि एक ही समय और भाषा कविता के दो भिन्न प्रारूपों को किस तरह विकसित करती है- ये दो कवि इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
दोनों का जीवन घोर आर्थिक संकट और उपेक्षा में गुजरा। कल खबर मिली की हरेकृष्ण झा भी नहीं रहें।
2006 में मेरी उनसे पहली मुलाकात थी। मैं तब भौतिकी की दुनिया छोड़कर हिंदी की तरफ आया था। हरेकृष्ण झा स्वयं विज्ञान के विद्यार्थी थे।
वे आइंस्टीन और हेइजनबर्ग पर घण्टों बात कर सकते थे। मैंने उनसे बात करते हुए ही जाना कि एक बौद्धिक कैसे विधाओं की सीमाओं के पार चला जाता है।
70’ का दशक भारतीय मध्यवर्ग के भीतर और बाहर बहुत कुछ परिवर्तन लेकर आया। लोकतंत्र को लेकर न सिर्फ राजनीतिक बल्कि सामाजिक स्तरों पर भी लोगों का मोहभंग हो रहा था।
वे जब साहित्य में आये, देश में एक गहन आत्म-मंथन का दौर चल रहा था। चीज़ें उलट-पुलट रही थीं। वे इंजीनियरिंग के छात्र थें। उन्होंने पढाई को बीच में छोड़ साहित्य-संस्कृति के रास्ते सामाजिक परिवर्तन के रास्ते को अपनाया।
वे मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांति की धारा से जुड़े। यहाँ उन्होंने अपनी कविता और जीवन दोनों के नये मायनों की तलाश की। वे इस धारा से जीवन, मनुष्य और समाज के स्तरों पर घट रहे बड़े परिवर्तनों से उपजे सवालों को लेकर आये थे। वे चीज़ों को दार्शनिक और संवेदनात्मक दोनों ही धरातल पर देखते थे ,लेकिन उनमें अलगाव पैदा करने के वे हिमायती नहीं थे।
यही वजह है कि एक दशक पश्चात् वे उस ओर से धीरे धीरे विमुख होने लगे। परन्तु मार्क्सवाद के दर्शन के प्रति उनमे नकार का बोध कभी नहीं आया।
मनुष्य और समाज के प्रति गहरी तल्लीनता उनकी कविता का स्थायी भाव है. एक जगह उन्होंने लिखा है। “कविता का असली काम- मनुष्य की सत्ता को उसकी समग्रता में ग्रहण करना है। हरेकृष्ण झा की हर कविता में इस संकल्प को देखा जा सकता है।
उनके भीतर कोई गहरी पीड़ा थी,जो निजी और सार्वजनिक जीवन के अलगाव में नहीं एकत्व में दिखती थी। वे समय-समाज से जितने निराश थे, उतने ही खुद से। उसी समय उनका पहला संग्रह छप कर आया था जिसे उन्होंने खुद ही छापा था। एना त नहीं जे।
उसके बाद वे पटना रहने लगे। अपनी बहन के पास। पिछले दिनों उनसे कई बार बातें हुईं, वे अपने स्वास्थ्य और देश के स्वास्थ्य को लेकर बराबर परेशान रहते।
गत वर्ष उन्होंने वाल्ट हिटमैन की कविताओं का दुर्लभ अनुवाद मैथिली में किया। वैसा अनुवाद किसी भी भाषा को गर्व से भर सकता है। मुझसे वे मेरा संग्रह मांगते रहे। मैंने संकोचवश नहीं भेजा कि इतने बड़े कवि को इतनी खराब कविताएं क्योंकर भेजूं। अब सोचता हूँ अगर भेजा होता तो उस बहाने ही सही एक बार उनसे और बात करने का अवसर मिला होता।
हरेकृष्ण झा की कविताएँ
1. तुसारी–
(अनुवाद अच्युतानंद मिश्र )
तीन तारे बीच आंगन में
लाल उजले पीले
तीन तारे झड़ते हैं नित्य
धुलरहित ड्योढ़ी पर
माघ की भोर में
सपनों के आकाश से
मेरी बेटी
आपकी बहन
उनकी भतीजी
उंगली की नोंक से
बनाती है रंगोली
रजाई की ममता से
बाहर आ जाती हैं
बच्चियां
अलसुबह कड़ाके की सर्दी में
पूजती हैं गौरी को
स्वयं को अर्पित करते हुए
और सोये रहते हैं
वे लोग
अपने अपने सपनों की ताप में
गहन अन्धकार में
तीन बून्द आँसू ही
गिरा जाते हैं तारे आंगन में
और छिप जाते हैं आकाश में
खड़ाऊं से
जूते चप्पल से
रौंदे जाते हैं तीनों तारे
उषा का चेहरा
लाल डबडब
हो जाता है
—
*तुसारी पूजन कुमारी कन्या के द्वारा अच्छे वर की प्राप्ति के लिए किया जाता है। माघ महीने में तीस दिनों तक अहलभोर कौए के बोलने से पहले नहाकर कुमारी लड़की प्रति दिन तुलसी चौरा के आगे चावल की पीठ से तीन दिशा में तीन अल्पना बनाती है। पूर्व दिशा में सफ़ेद, दक्षिण में पीला और उत्तर में लाल। और फिर विधान पूर्वक पूजा करती हैं।
2. किएक मुदा एहिना
माइक कोखि त’ कोनो बेर बदलल नहि हेतनि !
खूनमे ममताक सोह
एके रंग चलल हेतनि –
मोनमे सपनाक लहरि सेहो एके रंग !!
तरेगन सभक संग तालमेल क’ क’
ओगरने हेताह अहाँकें ओहिना
चन्द्रमा ओ सूर्य
जेना अहाँक आन कोनो भाइकें-;
जीव नेहसँ चपचप करैत सत्त भुवनक
रचने होएत सभ गोटएकें
एके तरहक गाढ़ अनुरागसँ;
झहरल होतए अन्तरिक्षमे सोहर
सभक बेरमे एक रागभासमे !!
एके गोसाउनसँ मँगैत छी
सहज सुमतिक वरदान-
एके बीजी पुरूखसँ पबैत छी नाम-गाम-ठाम;
एके माटिपानिमे करैत छी
अपन-अपन जीबाक ओरिआओन !!
जखन ई भुवन होइत रहैत अछि लहालोट
बिलहैत सौंदर्यक शुभंकर सनेस-
कोना लगैत अछि पसाही सभक नस-नसमे
एक दोसराक लेल-
चमकैत अछि भालाक नोक कोना
सभक एकेकटा धड़कनमे-?
-अरे होइत एलैक’छि भैयारीमे एहिना अदौसँ
कहैत छथि पकठोस बुधियार सभ गामे-गाम-
पूछि क’ देखिऔ त’ एको बेर अहाँ
पूछि क’ देखिऔ त’ एको बेर
अपन आलाक निविड़ एकान्तमे-
किएक मुदा एहिना ?
3. अमिर्त
कइएक आसिनसँ अबैत अछि आवाज
धानत खेतसँ: अमिर्त, अमिर्त,
भ’ जाउ बिर्त;
मुदा एहि बेर अनघोल भेल अछि,
इजोतक किलोक भेल अछि।
कतहु छाप-छिप
त’ कतहु ठेहुन भरि पानि होएत
बाधमे,
बीटक बीच-बीचमे छाप होएत
जनक तरबाक
ताप मेटबैत साल भरिक,
ओकर अंकमे होएताह चन्द्रमा
ऐनमेन चनरमा जकाँ,
हुनक अंकमे हुलबुल
करैत होएत माछक चिलका सभ
गोल बन्हि क’।
आकाश नेहाल,
बसात नेहाल,
ओसाक सम्पति नेहाल, चन्द्रमा किर्तकिर्त,
धरती जनक संगतिमे
अमृतक लेल बिर्त
कइएक आसिनसँ अबैत अछि आवाज:
अमिर्त, अमिर्त, भेल रहू बिर्त;
मुदा एहि बेर
अनघोल भेल अछि,
इजोतक किलोल भेल अछि:
मिसाइलक अन्तहीन निसाफक बीच,
अताइ सभक स्थाई आजादीक बीच
4. हीरसँ
कहकह आगिक रसोंमे पागल
गुलकंद
गुड़कैत रहल
ओहि डिब्बाक
यात्री सभक खूनमे।
सितलहरीक राति:
कठुआ क’ शरण
लेम’ चाहैत छल अंग-अंग
अपन प्राणक
बचल-खुचल ऊष्मामे:
आर कोनो ठहार नहि।
आ राति भरि गबैत रहल
राम-जानकी विवाहक गीत
रामनामी सभक एकटा गोल
हलफी काटक लेल।
की सँ की युक्ति
बहराइत छैक
मनुक्खक भीतर
जीवनक हीरसँ:
हेमाल होइत
साँस सँ बना लेत ओकरा
अपना भीतर जोगाओल
आदिम आगिक रासेंमे !
5. बान्ह-छान्ह
ऊषा विभोर होइत छथि सेबमे
धरतीक चम्पइ रससँ अभीभूत:
कतेक विभोर होइत छी हमरा लोकनि ?
सेब खएबा काल
कतेक छिटकैत अछि
ओकर कांति
शोणितमें ?
दुखित पड़ैत छी
त कनेक टुटैत छैक
ओकर बान्ह छेक
हमरा सभक लेल,
वा कोनो पाबनि-तिहार
अएला पर।
मुँह चलैत अछि,
आँत धरि पहुँचैत अछि
ओकर रस,
मुदा आत्माकें औंसवासँ पहिनहि
छेक लेल जाइत अछि।
बहुत नमहर छेक छैक
एहि बान्ह छान्हक,
जे बहुतोक लेल
कहिओ नहि टुटैत छैक।
छिटकल रहि जाइत अछि जीवनसँ
धरतीक लेल आकाशक ओ अनुराग
जे रूप धरैत अछि सेबमे
निरसल रहि जाइत छैक ओकर ललक
हमरा लोकनिक अंतरंग होएबाक।
6. भीठ पर
साबिकेसँ बहराइत अछि
ई बानी
सारंगीक तारसँ
ओएह टा बनि सकत
पुंकेसर थलकमलक,
जे जुटियो क’ सभ किछुसँ
हहाइत आबेसक संग,
कनेक फराक भेल रहत;
ओएह टा डगमग करैत रहत अर्थसँ
ताड़क अजोह कोआ जकाँ,
जे सहटल रहत
अर्थक अनर्थसँ;
ओएह टा पबैत रहत मोक्ष,
हाथ जकर
आकाशक डीह भेल रहत।
कतएसँ अबैत अछि ई बानी
सारंगीक तारमे ?
आम किंवा लीचीक मज्जरसँ,
जाहि पर फागुनक महुआएल रौद
खूब चपकारि क’
औंसल रहैत छैक !
जिनगीक पेनी छनैत अछि
ई बानीः
निस्संग लागिक भीठ पर
भकरार होइत अछि जीवन
(दिवंगत मैथिली कवि हरेकृष्ण झा का जन्म कोइलख, मधुबनी(बिहार) में हुआ। इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच मे ही छोड़कर मार्क्सवादी लेनिनवादी राजनीति में तकरीबन एक दशक तक सक्रिय। अनेक कविता और आलोचनात्मक निबंध प्रकाशित। अनुवाद एवं विकास विषयक शोधकार्य में रूचि। स्वतंत्र लेखन। प्रकृति एवं जीवन के तादात्मय बोध के अग्रणी कवि।दो कविता संग्रह प्रकाशित। टिप्पणीकार अच्युतानंद मिश्र भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित समकालीन कविता का चर्चित स्वर हैं।)
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