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कर्ज की फांस, किसान जीवन और बुंदेलखंड

मयंक बांदा

बुंदेलखंड पिछले 30 वर्षों से लगातार सूखा, अतिवृष्टि अनावृष्टि का शिकार होता चला आ रहा है। बुंदेलखंड का 75% भूभाग पठारी है, एक फसला जमीन है, पानी का संकट इतना भारी है कि पीने के लिए भी पानी मिलना मुहाल हो जाता है। गर्मी में तो यह संकट जानलेवा हो जाता है। यह कहावत यहां अनायास ही नहीं बन गई, ‘गगरी न फूटे, चाहे बलम मर जाए’ इसके बहुत गहरे सामाजिक वह आर्थिक निहितार्थ हैं। महिलाएं पीने के पानी के लिए दो- दो कोस भटकती हैं।

फसल का हाल यह है कि एक बीघा में बमुश्किल ₹5000 कीमत निकल पाती है। जिसमें किसान सितंबर से लेकर मार्च तक मेहनत करता है, जोतों के असमान वितरण के कारण 80% जमीन पर 20% लोगों का कब्जा है। ग्रामीण जनता का 70% हिस्सा कृषि मजदूर के रूप में काम कर रहा है। पीढ़ी दर पीढ़ी वह साहूकारों व सामंतों की गुलामी करता चला आ रहा है। यूं ही अधिया- बटिया जोत कर किसी तरह सांस बचाए हुए है। सामंतों का यहां सबसे बड़ा व्यवसाय ब्याज का है, ₹3 से लेकर ₹5 सैकड़ा तक ब्याज आम चलन में है। यहां एक रुपए से आशय 12% से है। यहाँ के गांवों में साहूकार मासिक ब्याज लेते हैं, जिसमें यदि किसी ने दस हज़ार रुपया ऋण गाँव के साहूकार से लिया है तो उसे 3 रूपये सैकड़ा के हिसाब से प्रतिमाह तीन सौ रुपये ब्याज देना पड़ता है; जो सालाना 36% पड़ता है। हर गांव में ऐसे 4 या 6 सामंत- सूदखोर मिल जाएंगे। यह सामंत गांव की 70% आबादी को अपने चंगुल में फँसाये हुए हैं। इसी कारण पिछले 30 सालों में हजारों किसान आत्महत्या करने को विवश हुए है।

इसी कठिन समय में तत्कालीन सरकार द्वारा किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड की शुरुआत की गई और  जोर शोर से प्रचारित प्रसारित किया गया कि अब किसान साहूकारों, सामंतों के चंगुल से मुक्त हो जाएगा। देखते ही देखते हर गांव में दलालों की एक ऐसी फौज तैयार हो गई जो किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने का ठेका लेने लगी।अनपढ़ गरीब किसान, जिसने आज तक बैंक से लोन लेना तो दूर कभी बैंक में अपना खाता भी नहीं खुलवाया था, उसको यह लालच दिया गया कि तुम्हारी जमीन के बदले अब तुम्हें खेती करने के लिए और अपनी घरेलू जरूरतों के लिए पैसा बैंक से मिलेगा, अब तुम्हें बाबू साहब के दरवाजे पर माथा नहीं टेकना होगा। गरीब, भोला किसान उन दलालों के चंगुल में फंस गया। उसने किसान क्रेडिट कार्ड बनवाने के नाम पर 20 से 30% तक कमीशन लेकर बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से किसानों को कर्ज दिलवाने के नाम पर खुद रातों रात मोटा आसामी बन बैठा। अधिकारियों और दलालों की रातों-रात कोठिया चमकने लगी।

किसान को अचानक पैसा मिल गया, वह चकाचौंध में फँस गया। 4 एकड़ जमीन के मालिक को 50 से 70 हजार रूपया कमीशन काटने के बाद बड़े आराम से हाथ आ गया। किसान को लगा कि यह सरकारी पैसा है, इसको चुकाने के लिए न तो उसके मन में कोई डर था और ना ही योजना। इतनी बड़ी रकम उसके पूरे जीवन में कभी एक साथ हाथ में नहीं आई थी। देखते ही देखते गांव में किसानों के पास सबसे पहले टीवी पहुँचा। देसी शराब की दुकान हर बड़े गांव के आसपास खुल गई। वह ऋण जो कृषि व उत्पादन के विकास के लिए लिया गया था, देखते ही देखते सब स्वाहा हो गया। गांव में नए नए तरह के अपराध देखने में आने लगे। गांव का सामाजिक ढाँचा छिन्न-भिन्न होने लगा। किसान क्रेडिट कार्ड के पैसे को साल में एक बार क्योंकि बैंक में जमा करना होता था,  इसलिए साल का अंत आते आते बैंक के कर्मचारी -अधिकारी गांव में किसानों के घर वसूली के लिए तकादा करने आने लगे। पैसा न जमा करने पर बैंक मैनेजर की धमकी भी किसानों को मिलने लगी। इससे छोटा व गरीब किसान फिर से बैंक के दलालों व अधिकारियों के चंगुल में आने लगा। किसान के पास 50000 के बदले 5000 भी जमा करने के लिए नहीं था। किसानों की इस कमजोरी का फायदा उठाकर दलालों ने उनको डरा कर बहला-फुसलाकर ₹2000 ब्याज के बदले ₹4000 लेकर ₹50000 जमा करके और तुरंत उस की निकासी करके अपना पैसा निकाल कर 1 घंटे का ब्याज ₹2000 वसूल लिया।देखते देखते हर बैंक में दलाल सुबह पूंजी लेकर बैठते थे। ₹100000 के बदले शाम को वह ₹10000 से लेकर ₹20000 रोज कमाने लगे। कमाई में अधिकारी और दलाल का बराबर का हिस्सा होने लगा। लेकिन बड़ा और दबंग किसान दलालों और अधिकारियों के चंगुल में नहीं आया। धीरे धीरे जब गरीब किसान साल में ₹4000 की भी नहीं व्यवस्था कर पाया तो बैंक के लोगों ने उसके ऋण को हर साल 10% और बढ़ा दिया। उसमें 4% ब्याज काट लिया, शेष बचे पैसे में से आधा पैसा किसान को दिया और आधा स्वयं रख लिया। किसान हर साल बैंक जाता हजार – दो हजार रुपये वहां से और लेकर के मगन होकर लौट आता।

7 सालों में यह लोन दुगने से ज्यादा हो गया। अब वह इसे किसी भी तरह से चुकाने में असमर्थ हो गया। धीरे धीरे वह डिफाल्टर हो गया। ब्याज पर ब्याज बढ़ता जा रहा था। सिंपल इंटरेस्ट की जगह चक्रवर्ती ब्याज लगने लगा लेकिन किसान इन सबसे बेखबर अपनी दूसरी ही मस्ती में था। बैंकों में एनपीए का भारी दबाव बढ़ने लगा था। कुल कृषि ऋण की वसूली 30 से 35% तक ही रह गई थी। शेष 65 से 70% लोन डिफॉल्ट हो गया था। सरकार और बैंक दोनों खासे चिंतित हो उठे थे। संयोग से देश की गद्दी पर मनमोहन सिंह जैसा जादूगर बैठा हुआ था जिसके ऊपर लेफ्ट पार्टियों का दबाव किसानों को बचाने का था और बैंकों को डिफॉल्ट से बाहर निकालने की वित्तीय विवशता थी। मनमोहन सिंह साहब ने एक ही तीर से कई निशाने लगा दिए। सन 2009 में सरकार द्वारा 60 हजार करोड़ की कर्ज माफी की घोषणा की गई। यह घोषणा लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीनों पूर्व हुई थी। मेरे पास इसका ठीक ठीक आंकड़ा तो नहीं है लेकिन एक अनुमान के अनुसार कुल कृषि ऋण, जो किसान क्रेडिट कार्ड व अन्य माध्यमों से दिया गया था, वह मूल रूप से 240000 करोड़ रूपया ही था। इस पैसे में ब्याज की राशि ही लगभग 60,000 करोड़ रूपया की थी।जबकि बड़े औद्योगिक घरानों का एनपीए 1 लाख करोड़ से ज्यादा सरकार ने उसी दौरान माफ किया था, जिसका न तो कहीं कोई जिक्र था न कहीं कोई चर्चा थी। 2009 का चुनाव की वैतरणी कांग्रेस सरकार कर्ज माफी की नाव में बैठकर पार कर गई। बैंकों की बैलेंस शीट में एनपीए कम हो गया। लेकिन जब एडमिनिस्ट्रेटिव इंस्ट्रक्शन आया तो तो गरीब और मझोला किसान, जो ईमानदारी से या मजबूरी से अपने कर्ज की भरपाई कर रहा था, वह ठगा सा रह गया क्योंकि कर्ज माफी का लाभ उन्हीं किसानों को मिला जो पिछले 2 सालों से डिफाल्टर थे। इसमें जहां तक वह किसान थे जो दबंग थे, सामंत और साहूकार थे। जिन्हें लेकर उसे हजम कर जाने का एक अच्छा खासा अनुभव था। वह तो मजे में रहे। इस ऋण माफी का 65 से 70% लाभ बड़े किसानों को मिला जबकि गरीब असहाय किसान पहली बार अपने आप को छला हुआ महसूस कर रहा था। देखते ही देखते यह आम धारणा बन गई की सरकार का पैसा जो नहीं अदा करेगा सरकार उसी का लोन माफ करेगी। नतीजतन व्यापक पैमाने पर किसानों ने ऋण अदायगी बंद कर दी। 60000 करोड़ 3 सालों में दिया जाना था। 2011आते-आते बैंकों का एनपीए बढ़ने लगा, सरकार और बैंक दोनों चिंतित होने लगे। मनमोहन सिंह साहब ने 2011 में किसानों के एग्री लोन को टर्म लोन में 7 साल के लिए कन्वर्ट कर दिया। इस टर्म लोन का मतलब यह था कि किसान की 2011 तक कुल देनदारी और उसमें 7% अगले 7 साल का ब्याज जोड़कर उसकी मासिक किश्ते किसानों के लिये अगले सात साल तक के लिये निर्धारित कर दी गई। बैंकों की बुक में तो लोन पोर्टफोलियो बढ़ गया पर वास्तव में किसानों को न तो कोई लाभ हुआ और न ही कुछ उनके  हाथ आया। उनकी ज़मीन पर कर्ज़ दिन पर दिन बढ़ता चला जा रहा था। किसान इन सबसे बहुत दुखी और अपमानित महसूस कर रहा था। नतीजतन 2014 में उसने मनमोहन सरकार को करारा झटका दिया। सारे चुनाव पंडित काँग्रेस की इस विशाल पराजय को मोदी मैजिक मान रहे थे जबकि यह तो किसानों और मजदूरों कि वह नाराजगी थी जिससे आज तक कांग्रेस पार्टी उबर नहीं पाई।

2014 में मोदी साहब ने सरकार में आते ही बड़ी-बड़ी लच्छेदार भाषा में जो घोषणाएँ करते हैं उनमें से एक प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना भी थी। फसल बीमा योजना पहले भी कांग्रेस के समय से लागू थी और यह बीमा योजना सरकारी बीमा कंपनी जनरल इंश्योरेंस के हाथ में थी। इसका लाभ उस दौर में उन किसानों ने बड़ी चतुराई के साथ उठाया था जो नियमित रूप से अपने ऋण की अदायगी भी कर रहे थे और फसल बीमा योजना का नैतिक अनैतिक लाभ भी ले रहे थे। नतीजतन इंश्योरेंस कंपनी को हैवी अंडरराइटिंग लॉस हुए। मोदी साहब ने यह योजना निजी बीमा कंपनियों के हाथ में सौंप दी। निजी कंपनियों ने सबसे पहले इसका प्रीमियम दुगना कर दिया। साथ ही यह भी तय कर दिया कि किस एरिया विशेष में कौन सी फसल बोई जायेगी। चूँकि किसान ज्यादातर अशिक्षित है, उसे न ही बैंक ने और न ही बीमा कंपनियों ने इस बात की जानकारी दी कि वह अपने क्षेत्र विशेष में किस फसल को बोने का अधिकारी है और किसे नहीं। 2015-16 के आसपास हमारे बुंदेलखंड में बड़ा भयानक सूखा पड़ा था, किसानों का बीज तक वापस नहीं आया था। ऐसे कठिन समय में निजी बीमा कंपनियों ने जो छल किसानों के साथ किया था वह अकल्पनीय है। खरीफ की फसल का जब मुआवजा इन बीमा कंपनियों से मांगा गया तो इन कंपनियों ने यह कहकर मना कर दिया कि जब बारिश ही नहीं हुई तो फसल कैसे बोई गई और जब फसल ही नहीं बोई गई तो फिर मुआवजा किस बात का। किसानों के साथ इतना बड़ा छल आजादी के बाद किसी भी सरकार की सरपरस्ती में नहीं हुआ था।

सन दो हजार अट्ठारह आते-आते टर्म लोन का समय पूरा हुआ और बैंकों की बैलेंस शीट बुरी तरह से बिगड़ने लगी। बैंकों में एनपीए का दवाब बढ़ने लगा था। यह वह समय था जब एक तरफ सरकार कारपेट का पिछले 10 सालों में 7 लाख करोड़ का ऋण माफ कर चुकी थी, जिसमें 555603 लाख करोड़ 2014 से लेकर 2019 के बीच बड़े उद्योगपतियों का NPA माफ कर दिया गया था। वहीं दूसरी ओर किसानों के ऋण की रिलेंडिंग हो रही थी। सरकार कृषि ऋण के एनपीए को माफ नहीं करना चाहती थी। बैंकों से जिन किसानों ने 1998 में एक लाख लोन लिया था वह 2018 आते-आते आठ लाख हो चुका था। कुछ बैंकों ने एक मुफ्त समझौते के नाम पर किसानों को 30 से 40% ब्याज माफ कर लोन अकाउंट बंद करने का आवाहन किया। लेकिन जो किसान एक लाख नहीं चुका पाया था वह चार से पाँच लाख कैसे चुका पाता। नतीजतन बैंकों ने अपने एनपीए को फिर से रिस्ट्रक्चर कर उसी जमीन पर रिलेंडिंग कर दी। आठ लाख के ऋण को फिर से बढ़ाकर 9 लाख  कर दिया गया। साथ ही एक साल की अग्रिम किस्त उसके खाते में रोककर शेष कुछ पैसा किसान को बुलाकर फिर से हस्त गत कर दिया गया। अब घर बैठे किसान को 2019 चुनाव के पहले 20 से 30 हजार रुपया बैठे-बिठाए मिल गया। प्रचारित किया गया कि सरकार ने किसानों की सुध ली है।

 

2019 के चुनाव में मोदी साहब भी इसी बाजीगरी के चलते चुनावी वैतरणी पार कर गए। अभी भी देश के राजनीतिक पंडितों को यह लग रहा था कि यह मोदी मैजिक है, यह मीडिया मैनेजमेंट है ,यह हिंदू मुसलमान है। यह सब कारण तो थे ही लेकिन एक बड़ा कारण, जो कहीं गंभीरता से दर्ज नही हुआ और जिसकी बड़ी भूमिका थी 2019 चुनावी जीत में, वह था किसान-छल। इस देश के किसानों को फिर से छला गया और भोला भाला किसान यह जान नहीं पाया था कि जो पैसा उसको अचानक दिया गया है वह तो उसी की जमीन का कर्ज है। 2020 आते-आते सरकार पर बैंकों का फिर दबाव बढ़ने लगा की एग्री एनपीए फिर बढ़ रहा है। ऐसे में वैश्विक पूंजी के दबाव में सरकार को किसान बिल लाना पड़ा। किसान बिल की जो बातें जाहिर तौर पर दिख रही हैं वह तो हैं ही, इसके अतिरिक्त सरकार की यह मंशा है कि भारतीय कृषि में पीपुल्स रिप्रेजेंटेशन कम हो। पूरी दुनिया के विकसित देशों में कृषि निर्भरता 1 से 4% लोगों की ही है। दक्षिण एशिया के देशों जैसे बंगलादेश, पाकिस्तान व चीन में क्रमशः 38%, 37% व 25% है। भारत में भी 43% लोग कृषि व कृषि संबंधी कार्यों पर निर्भर हैं। पश्चिम के देशों का मॉडल दक्षिण एशिया के देशों की भौगोलिक, सामाजिक व आर्थिक स्थियों को सूट नहीं करता।

भारत सरकार अमेरिकन साम्राज्यवाद के दवाब में आकर जो मॉडल इस देश में लागू करना चाहती है, सरकार किसान बिल के मार्फत यह निर्भरता कम करना चाहती है। देखने में तो यह लग रहा है कि यह बिल हर तरफ से किसानों की मदद करेगा परंतु इसमें अगर आप गौर से देखें कि कांटेक्ट फार्मिंग के तहत कॉर्पोरेट किसानों से 6 महीने से 5 साल तक का अनुबंध करेंगे।जब कोई कॉर्पोरेट किसानों से फसल का अनुबंध करेगा तो वह किसानों को कैश क्रॉप लगाने के लिए भी बाध्य करेगा। किसानों की आर्थिक स्थिति, जो कि पहले से टूटी हुई है, वह इन फसलों को लगाने का ऋण भी इन्हीं नैगमिक घरानों से ही लेगा। अब आप बताइए कि एक तरफ तो फसल बीमा योजना, एरिया विशेष में कौन सी फसल लगेगी, वह तय करता है दूसरी तरफ कॉर्पोरेट किसानों को कैश क्रॉप लगाने के लिए बाध्य करता है। मान लीजिए बुंदेलखंड में किसान कॉर्पोरेट कांटेक्ट के तहत गन्ने की फसल लगाते हैं और वह गन्ने की फसल किन्हीं कारणों से बिगड़ जाती है। ऐसी स्थिति में किसानों को फसल बीमा का भी लाभ नहीं मिलेगा, कॉर्पोरेट का ऋण अलग चढ़ेगा। बैंक में पहले से ही कृषि लोन है। तब यह अभागा किसान कहाँ जाएगा। इसके पास अपनी जमीन बेचने के अलावा और कौन सा चारा होगा। बैंक और कारपोरेट मिलकर किसानों की जमीन हड़प जाएंगे। इस बारे में कोई भरोसा किसी सरकार की तरफ से नहीं दिया गया है। तब जबकि पिछले 10 सालों में लगभग सात से आठ लाख करोड़ रुपये कारपोरेट ऋण माफ किया गया है और उसका अधिभार आम जनता ने उठाया है। उसी समय अन्नदाता के साथ यह बदसलूकी, यह छल, यह धोखा किसलिए और किसके लिए?
खेती- किसानी हमारे किसानों की जीवन पद्धति है। वह उसका जीवन मूल्य है। वह उसको व्यापार और बाजार की दृष्टि से नहीं देखता है। ग्रामीण समाज में जमीन का दर्जा माँ के जैसा ही पवित्र है। आज बाजारू शक्तियाँ किसानों की जमीन पर नजर गड़ाए बैठी हैं। यह कुछ वैसा ही है मानो कोई बिगड़ैल धनपशु किसी की माँ-बहन की इज्जत पर हाथ डालने की हिमाकत कर रहा हो। हम सबको अपनी माँ-बहन की इज्जत आबरू बचाना अच्छे से आता है। जान दे देंगे पर जमीन नहीं देंगे।

भारत में एग्री क्रेडिट टोटल बजट का 4 परसेंट ही है। अगर आप उसको इस तालिका में देखेंगे तो चीजें साफ हो जाएंगी, दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था चीन में 25% लोग खेती- किसानी में लगे हुए हैं और उनका टोटल जीडीपी में कंट्रीब्यूशन 7 परसेंट है। लेकिन उनकी किसान सब्सिडी दुनिया में सबसे ज्यादा है जो कि 150 बिलियन डॉलर है। यूरोपियन यूनियन में लगभग 1% लोग खेती में लगे हुए हैं और वह जीडीपी में एक से डेढ़ परसेंट कंट्रीब्यूट करते हैं। अमेरिका में एक परसेंट लोग खेती में लगे हुए हैं और वह 0.7% जीडीपी का कंट्रीब्यूट करते हैं। जबकि अमेरिका में फॉर्म सब्सिडी 59 बिलियन डॉलर है। जापान में 3% लोग खेती में लगे हुए हैं और लगभग 1.25% जीडीपी का एग्रीकल्चर सेक्टर से आता है। जापान 37 बिलियन डॉलर फॉर्म सब्सिडी में खर्च करता है। भारत में 43% लोग कृषि कार्य में लगे हुए हैं वह जीडीपी का 16%कंट्रीब्यूट करते हैं। भारत की फॉर्म सब्सिडी 11 बिलियन डालर है। आप कह सकते हैं कि दुनिया में एग्रीकल्चर सेक्टर में सबसे ज्यादा इंवॉल्वमेंट भारत के लोगों का है और सबसे कम प्रति व्यक्ति सब्सिडी भारत के लोगों की है। ऐसी स्थिति में किसानों की जमीन और जीवन दोनों संकट में है। दुनिया भर के बहुराष्ट्रीय निगमों की निगाह आपके जल, जमीन, जंगल पर है और यह कृषि बिल बहुराष्ट्रीय निगमों के सपनों का वारिस है भारत में। यदि इसको समय रहते नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं की जब किसान अपनी ही जमीन में नौकर बनकर रह जायेगा।

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