समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

आज का कुलीनतंत्र

अतानु बिस्वास


(वैसे तो यह लेख ट्रम्प के चुनाव को लेकर है पर थोड़ा गौर से देखा जाय तो इसके  निहितार्थ की परिधि में भारत के चुनाव भी आ जाते हैं: सं.)
आज की कृत्रिम बौद्धिकता (आर्टीफिशियल इंटैलिजेन्स) जैसे नये तकनीकी अविष्कारों से लैस, बढ़ती हुयी असमानता की दुनिया में यह एकदम स्वाभाविक है कि आर्थिक शक्तियाँ कुछ थोड़े से हाथों में केन्द्रित हो जाँय।

अमेरिकी चुनाव के बाद अपने आखिरी सम्बोधन में जो बाइडन ने कहा कि एक कुलीनतंत्र अपना आकार ले रहा है और यह अमेरिकी लोकतंत्र के लिये बड़ा ख़तरा है। यह कमोबेश वैसी ही चेतावनी है जो 1961 में ड्वाइट डी आइज़नहाॅवर ने ‘‘सैन्य-औद्योगिक गँठजोड़’’ को लेकर दी थी, बाइडन ने उसकी जगह ‘‘टेक-औद्योगिक गँठजोड़’’ का उल्लेख किया। उनका कहना था कि इस नये मुलम्मेवाले ‘‘लुटेरे सामन्तों’’ के दौर में बड़ी मुश्किल से प्राप्त आजादी को क्षरण का ख़तरा पैदा हो गया है।
द गार्जियन ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूज़वेल्ट ने ‘‘सरकार में भरोसा बढ़ाकर, नियामक एजेन्सियाँ बनाकर और व्यापारिक-शोषण को सीमित करके धन के आतंक को काबू में रखा था।’’ उसी सम्पादकीय में आगे कहा गया है कि अन्त में आज यह सवाल ही दाँव पर लग गया है कि अमेरिका पर शासन किसका रहेगा- जनता का या नवकुलीनों का।
हर ओर राजनीतिक और आर्थिक शक्तियाँ गलबहियाँ किये हुये हैं। हाँ, कभी-कभी यह रिश्ता बेरंग और ख़तरनाक हो जाता है। डोनाल्ड ट्रम्प के मंत्रिमंडल में 13 खरबपति हैं। उनमें शीर्षस्थ, कुल 400 खरब डाॅलर के मालिक एलाॅन मस्क ने मतदाताओं से ‘अस्थायी कठिनाइयों’ का सामना करने के लिये तैयार रहने का आह्वान किया है क्योंकि उनका डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफ़िशियेंसी सार्वजनिक खर्चों में कटौती करने जा रहा है। मस्क ने ट्रम्प के चुनाव अभियान में 20 करोड़ डाॅलर का निवेश किया है। जीवाश्म ईंधन (फाॅसिल-फ्यूलः जैसे कोयला, तेल, गैस आदि) की वकालत करनेवाले राष्ट्रपति के समर्थन से उनके कुलीन दोस्त फ़ायदा उठा ही रहे हैं। ट्रम्प के शपथग्रहण समारोह में आमेजन के जेफ़ बेयोस, एपिल के टिम कुक और मेटा के मार्क जुकरबर्ग के अलावा भी बहुत सारे खरबपति मौजूद थे। उनमें से कई पहले से ही संघीय सरकार से प्राप्त महत्वपूर्ण व्यापारिक ठेकों से मुनाफ़ा कमा रहे हैं।

कुलीनतंत्र हर दौर में

अभिजात एवं समाज के उच्चवर्ग के ‘‘अनुचित एवं भ्रष्ट’’ उद्देश्यों की पूर्ति के लिये कुछ चुनिंदा लोगों के शासन के बरअक्स यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने ‘कुलीनतंत्र’ का जुमला उछाला था। आमतौर पर कुलीन लोग धन के बलपर ताकत हासिल करते हैंः वे नेताओं को बड़े-बड़े अनुदान देते हैं और बदले में वे नेता उसी प्रकार काम करते हैं जैसा वे चाहते हैं। लेकिन ये कुलीन लोग अपनी सामाजिक स्थिति, कुख्याति, शिक्षा, सैन्य, धार्मिक या राजनीतिक सम्बन्धों के चलते खुद भी शक्तिशाली बन सकते हैं।

राजनीति विज्ञानी जैफ्री ए0 विन्टर्स ने 2011 में प्रकाशित अपनी पुस्तक आलीगैर्की में कुलीनों की ऐतिहासिक समानता का सीमांकन किया है। उनका कहना है कि कुलीन अपने समक्ष आये सभी झंझावात- जैसे सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद- से निपटने के लिये स्वयं के स्तर पर या सामूहिक रूप से, अगर जरूरी हो तो, दमन का सहारा लेने में भी नहीं हिचकिचाते।

इसके अलावा, विभिन्न युगों में कुलीनतंत्र की प्रवृत्ति सदैव परिवर्तनशील रही है। 2009 में न्यूयार्क के मेयर के चुनाव में अमेरिकी मीडिया रोमन कुलीन मार्कस लिसीनियस क्रासस के मुकाबले तीसरी बार लड़ रहे माइकेल ब्लूमबर्ग को अधिक तरज़ीह दे रही थी, जबकि क्रासस जैसे कुलीन का प्रतिनिधि चुना जाना उनके मूलभूत कुलीन-हितों के दृष्टिगत सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्णय होता क्योंकि निजी धन का प्रयोग करके सरकारी दफ्तरों को खरीदना कुलीनता को बचाये रखने से ज्यादा जरूरी था।

अरस्तू एवं राॅबर्ट मिशेल्स लिखते हैं कि कुलीनतंत्र ‘बुरा’ केवल तभी होता है जब कुलीन लोग विधि-व्यवस्था का उल्लंघन करते हैं, अपनी शक्ति का नियंत्रण एवं सन्तुलन (चेक एंड बैलेंस) खो देते हैं और जनहित के ऊपर अपने हितों को प्राथमिकता देने लगते हैं। इतिहास में यही कुछ हुआ है। अपने औपनिवेशिक अतीत और शक्तिशाली परिवारों के चलते फिलीपीन्स को कुलीनतंत्र कहा जाता है। चीन स्वयं को साम्यवादी ‘पीपुल्स रिपब्लिक’ कहता है, लेकिन कुछ लोग इसे भी कुलीनतंत्र मानते हैं क्योंकि वहाँ दशकों से समस्त शक्तियाँ केवल कुछ चुनिंदा लोगों के हाथों में केन्द्रित हैं। और आगे कहें तो यही संज्ञा धनी, शक्तिशाली और ऊँची पहुँचवाले रूसी व्यापारियों के लिये भी इस्तेमाल की गयी है। परन्तु 2022 में अमेरिकी सीनेटर बर्नी सांडर्स ने कहा कि ‘‘यह सच है कि रूस में सत्ता कुलीनों के हाथ में है, तो क्या हुआ? अमेरिकी सरकार की भी बागडोर तो कुलीनों के ही हाथों में हैं।’’

तो फिर कुलीनतंत्र की प्रकृति क्या है? इतिहासकार राॅन फाॅर्मिसैनो ने 2017 में अपनी पुस्तक ‘अमेरिकन आलीगैर्कीः द परमानेंट पाॅलिटिकल क्लास’ में अमेरिकी इतिहास में एक ऐसे राजनीतिक वर्ग के उभार के बारे में लिखा जो पहले कभी देखा-सुना नहीं गया था। इस वर्ग के भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अपना ही अपना करते रहने का नतीजा है बढ़ती हुयी असमानता। फाॅर्मिसैनो अपनी पुस्तक में राजनेताओं के साथ-साथ गुटबाजों, सलाहकारों, नवनियुक्त नौकरशाहों, चुनाव-सर्वेक्षकों, ख्यातिप्राप्त पत्रकारों और पर्दे के पीछे रहकर काम करनेवाले खरबपतियों की भी बखिया उधेड़ते हैं।

हाँलाकि अर्थशास्त्री साइमन जाॅन्सन मानते हैं कि अमेरिकी आर्थिक-कुलीनतंत्र का उद्भव 2008 के वित्तीय संकट से हुआ था। 2010 में सिटिजन्स यूनाइटेड बनाम फेडरल इलेक्शन कमीशन मामले में अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने चुनावी अभियानों में दान स्वीकार किये जाने पर लगी पाबन्दी को हटा लिया था, लिहाज़ा 2015 में पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने अमेरिका को एक ऐसे कुलीनतंत्र की संज्ञा दे डाली जो असीम राजनीतिक घूसखोरीके दलदल में फँसा हुआ है।

क्या कुलीनतंत्र केवल कुछ देशों तक ही सीमित है? सांडर्स ने कहा है कि ‘‘……….हम देख रहे हैं कि पूरी दुनिया में मुट्ठीभर धनी लोग सारा कारोबार अपने ही पक्ष में चला रहे हैं।’’ तो कुलीनतंत्र को बढ़ावा देने की बदनामी का ठीकरा केवल ट्रम्प पर फोड़ना ठीक नहीं होगा। बाइडेन को सत्ता में वापस लाने के अभियान में भी कई खरबपतियों ने योगदान दिया था।

लोकतंत्र एवं कुलीनतंत्र

क्या लोकतंत्र कुलीनतंत्र के खि़लाफ़ खड़ा हो सकता है? अरस्तू द्वारा अपनी पुस्तक, पाॅलिटिक्स में यह कहने के बावजूद कि ‘‘कुलीनतंत्र के मुकाबले लोकतंत्र अधिक सुरक्षित एवं आन्तरिक कलह से अधिक मुक्त है’’ जर्मन समाज-विज्ञानी राॅबर्ट मिशेल्स की बीसवीं सदी की शुरुआत में  लिखी पुस्तक ‘आयरन लाॅ ऑफ आलीगैर्की’ में कहा गया है कि लोकतंत्र स्वयं में एक विरोधाभास है क्योंकि श्रम विभाजन की अनिवार्यता के चलते यह खुद-ब-खुद कुलीनतंत्र में तब्दील हो जाता है।

200 साल से ज्यादा अर्सा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जाॅन एडम्स ने ‘ ताकतवर कुलीनों ’ को लेकर अपना भय व्यक्त किया था। आज की कृत्रिम बौद्धिकता (आर्टीफिशियल इंटैलिजेन्स) जैसे नये तकनीकी अविष्कारों से लैस, बढ़ती हुयी असमानता की दुनिया में यह एकदम स्वभाविक है कि आर्थिक शक्तियाँ कुछ थोड़े से हाथों में केन्द्रित हो जाए । नतीजा होगा कुलीनतंत्र का और घना जाल।

( लेखक भारतीय सांख्यिकी संस्थान, कोलकाता में प्रोफेसर हैं। यह लेख  ‘द हिन्दू’  में  23 जनवरी 2025 को प्रकाशित हुआ था। लेख का हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है। फीचर्ड इमेज़ गूगल से साभार)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion