वह इस समाज को घटिया समाज मानता था और कहता था कि दुनिया का हर शख्स एकदूसरे से इतनी बुरी तरह पेश क्यों आता है। लोग एकदूसरे को जज क्यों करते हैं, क्यों वे दूसरों पर नियंत्रण करना चाहते हैं। वह इस घटिया समाज से निकलने की कहानी लिखना चाहता है। उसका नाम एलेक्जेंडर सुपरस्टांप था। इस नाम की खासियत यह थी कि यह नाम खुद उसने ही रखा था। उसके मां-बाप ने उसका नाम क्रिस्टोफर जॉनसन मैककैंडलेस रखा था। जिसे छोड़ना न सिर्फ मां-बाप के प्रति उसका विद्रोह था, बल्कि उस समाज से पलायन भी था जो हमेशा दूसरों को जज करता रहता है। जो कभी खुद की यात्रा नहीं करता।
वह अलास्का के जंगलों में एकांत तलाशने निकल पड़ा है। उसकी पीठ पर एक बैग है और उसमें कुछ किताबें हैं। वह लियो तोल्सतॉय और जैक लंडन का दीवाना है। अलास्का से लौटने के बाद वह एक किताब लिखना चाहता है। उसके इस दिलचस्प सफर में उसे कुछ बहुत प्यारे लोग मिलते हैं। ऐसे लोग जो आम लोगों को मिलें तो वे हमेशा के लिए वहीं बस जाना चाहें। वह खूबसूरत औरतों से मिलता है, प्यार करने वाली लड़कियों से मिलता है। लेकिन एक यात्री की जिम्मेदारिरयों से भरा हुआ। वह बीसवीं सदी के आखिरी दशक में खड़े होकर घोषणा करता है कि कैरियर 21वीं सदी की ईजाद है। वह कैरियर को जिंदगी के लिए जरूरी नहीं मानता। वह खुशी (हैप्पीनेस) को जिंदगी का हासिल मानता है। एलेक्जेंडर का सफर ही उसकी कहानी है। वह अपने सफर की डायरी लिखता है। दुर्गम नदियों को पार करता है, जगलों की अबूझ वनस्पतियों को नाम देने की कोशिश करता है। उनके वास्तविक नाम। सफर के एक मुकाम पर पहुंचकर वह अपने वास्तविक नाम तक लौटने की कोशिश में है। उसने अपने सफर से जो हासिल किया है, उसकी कहानी है, ‘इंटू द वाइल्ड…’ अपने सफर के दौरान वह कहता है-If we admit that human life can be ruled by reason, the possibility of life is destroyed.
(अगर हम ये मानते हैं कि जिंदगी जीने का कोई मकसद होना चाहिए, तो हम जिंदगी जीने का मतलब खो देते हैं।)
बड़ी अजीब बात है कि ढाई-तीन लाख साल के इंसानी (आधुनिक) सफर में करीब ढाई हजार साल पहले दुनिया के तीन अलग-अलग हिस्सों में तीन लोग पैदा होते हैं- महावीर, लाओत्से और बुद्ध। तीनों ही अपनी-अपनी तरह से यह सवाल पूछते हैं कि आखिर इंसानी जिंदगी का मकसद क्या है। इसके बाद ईसा आते हैं, मुहम्मद आते हैं। और भी कुछ लोग आते हैं और इस सवाल को जैसे हल करने की सूरत लिए आते हैं कि आखिर इंसानी जिंदगी का मकसद क्या है। वे आते हैं इंसानी जिंदगी का मैनिफेस्टो लेकर। तमाम नैतिकताओं-अनैतिकताओं के फलसफे लेकर। फलसफे- स्त्रियों के लिए अलग, पुरुषों के लिए अलग, गुलामों के लिए अलग, गोरों, कालों, राजाओं, बादशाहों के लिए अलग। कुल मिलाकर दुनिया अब भी इस सवाल से दो-चार होती है कि आखिर जिंदगी का मकसद क्या है।
जिस तरह इस सवाल की खोज में ढाई हजार साल पहले की किसी रात सिद्धार्थ गौतम घर छोड़कर चले गए थे (?), उसी तरह 1990 में अमेरिका के वर्जिनिया का एक बहुत संवेदनशील, इंटेलिजेंट ग्रैजुएट क्रिस्टोफर जॉनसन मैककैंडलेस अपने घर से चुपचाप निकल जाता है। वह अपने सारे सर्टिफिकेट, अपने पहचान पत्र जला देता है। अपने पास की सारी संपत्ति 24500 डॉलर भूखे बच्चों के लिए दान कर जाता है। यहां तक कि अपना नाम भी किसी सड़क के माइल स्टोन के सिरहाने दफ्न कर जाता है और अपना नया नाम रखता है- एलेक्जेंडर सुपरस्टांप। दरअसल वह बुद्ध की तरह यह खोजने तो नहीं निकलता कि आखिर जीवन क्या है और इसमें दुख क्यों हैं, लेकिन वह उस जीवन से संतुष्ट नहीं था, जो उसे मिला था। वह बचपन से अपने मां-बाप के झगड़ों को देखकर परेशान था और इससे बाहर निकल भाग जाना चाहता था। यहां हमें मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ भी बेतरह याद आता है। बहरहाल, अलेक्जेंडर अलास्का के खतरनाक जंगलों में अकेले रहने की ख्वाहिश रखता है। वह कुदरत को बहुत करीब से महसूस करना चाहता है और इसी मकसद के लिए घर से निकल पड़ा है।अलेक्जेंडर की कहानी अमेरिकी लेखक और पर्वतारोही जॉन क्राकॉर (Jon Krakauer) 1996 में लिखते हैं। ‘इंटू द वाइल्ड’ शीर्षक से छपी यह कथेतर किताब आते ही दुनियाभर में छा गई थी। दुनियाभर की 30 भाषाओं में इस किताब के 173 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह किताब अमेरिका के स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में शामिल की गई है। इसी किताब पर 2007 में अमेरिकी फिल्मकार सेन पेन (Sean Penn) ने ‘इंटू द वाइल्ड’ नाम से ही फिल्म बनाई है। यह फिल्म दर्शकों को जीवन के और करीब ले जाती है। आपमें चीजों को, लोगों को, रास्तों को हर चीज को महसूस करने की चाह पैदा होती है। इस फिल्म की कहानी एक भरोसा जगाती है। एक भरोसा कि शायद आप नए मिले लोगों पर संदेह करना बंद कर दें। आप उनमें दोस्त ढूंढें या कुछ भी न ढूंढें तब भी आप उनके प्रति प्रेम से भरे हो सकते हैं।
अलेक्जेंडर के इस सफर में फौज से रिटायर्ड एक बूढ़ा रोन भी आपको मिलेगा। रोन का इस दुनिया में कोई नहीं है। वह घूमना चाहता है, लेकिन सबकुछ होते हुए भी वह अपनी दुकान नहीं छोड़ना चाहता। वहीं, एक 22 साल का यात्री अपना सबकुछ छोड़कर दुनिया के मुश्किल सफर पर बहुत मुश्किल हालात में निकल पड़ा है। क्रिस (एलेक्जेंडर) अपने मां-बाप को माफ कर पाता है या नहीं। वह घर लौटता है या नहीं, इसके लिए आपको यह फिल्म देखनी चाहिए।’इंटू द वाइल्ड’ फिल्म देखते हुए आपको हिंदी सिनेमा की दो फिल्में याद आ सकती हैं। पहली 1971 में आई किशोर कुमार द्वारा निर्देशित ‘दूर का राही’ और दूसरी 1972 में रिलीज हुई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘बावर्ची।’ फर्क बस इतना है कि इंटू द वाइल्ड का यात्री आपके ऊपर किसी तरह की नैतिकताएं नहीं लादता। वह कोई तय फलसफा नहीं देता। वह खुद की यात्रा पर है, जबकि इन दोनों फिल्मों के नायक ऐसे यात्री होते हैं, जो बुद्ध या लाओत्से से प्रभावित लगते हैं। वे उद्धारक की भूमिका में हैं। लोगों के दुख-दर्द को दूर करने और उनके जीवन में खुशियां लाने के लिए वे निकल पड़ते हैं। दरअसल, ऐसे किरदारों में बहुत संभव है कि वे उद्धारक के प्राउड से भर हुए हों। प्राउड पूरी दुनिया में ही एक महान भाव की तरह देखा जाता रहा है। भारतीय संदर्भों में यह कुछ अधिक ही ‘महानता’ को हासिल होता है। जब हम इंसानी वजूद में बराबरी के समाज की बात करते हैं, तब कहीं न कहीं यह प्राउडनेस हमें गैरबराबरी की राह में खड़ा कर देती है।
ऋषिकेश मुखर्जी के यात्री का किरदार राजेश खन्ना ने निभाया है, जो बहुत मजाकिया, हंसोड़ और प्यार करने वाला किरदार है, वहीं किशोर कुमार की फिल्म का यात्री अंतहीन यात्रा पर निकला हुआ है। उद्देश्य उसका भी वही है, जो ऋषिकेश मुखर्जी के यात्री का है, लेकिन किशोर कुमार का यात्री दुनिया के दुखों में खुद भी बहुत डिप्रेसिंग है। ये दोनों किरदार कहीं न कहीं उद्धारक के प्राउड से भरे हुए जान पड़ते हैं। थोड़ा पीछे जाएं तो घर से सिद्धार्थ गौतम निकले थे और उनका लौटना बुद्ध के रूप में हुआ। वह दर्शन शायद उद्धारक के प्राउड को तोड़ने का है, लेकिन हासिल जो होता है, वह इसके उलट होता है। 22-23 साल के एलेक्जेंडर की कहानी इस मामले में ज्यादा मानवीय है कि वह एलेक्जेंड से वापसी करके उस नाम तक आना चाहता है, जो उसके मां-बाप ने दिया था। वह कहीं भी उद्धारक की भूमिका में नहीं होता।