(कथाकार हेमंत कुमार की कहानी ‘ रज्जब अली ’ पत्रिका ‘ पल-प्रतिपल ’ में प्रकाशित हुई है. इस कहानी की विषयवस्तु, शिल्प और भाषा को लेकर काफी चर्चा हो रही है. कहानी पर चर्चा के उद्देश्य से समकालीन जनमत ने 22 जुलाई को इसे प्रकाशित किया था. कहानी पर पहली टिप्पणी युवा आलोचक डॉ. रामायन राम की आई जिसे हमने प्रकाशित किया है, दूसरी टिप्पणी जगन्नाथ दुबे की आई जो डॉ. रामायन राम द्वारा उठाए गए सवालों से भी टकराती है . इस कहानी पर राजन विरूप की टिप्पणी भी आप पढ़ चुके हैं. इसी सिलसिले में पढ़िए दीपक सिंह की यह टिप्पणी. बहस को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिक्रिया, टिप्पणी, लेख आमंत्रित हैं. सं ।)
दीपक सिंह
पिछले दिनों जनमत के पोर्टल पर हेमंत कुमार की कहानी रज़्जब अली प्रकाशित की गई थी | कहानी में ग्रामीण भारत में फैलते सांप्रदायिकता के जहर को विषय बनाया गया है | जब भी सांप्रदायिकता जैसे विषय पर कहानियाँ लिखी जाती हैं तो उनके अतिशय भावनात्मक हो जाने का खतरा मौजूद रहता है | इसका तात्पर्य यह बिलकुल नहीं है कि भावनात्मकता कोई अवांछित वस्तु है, वह वरेण्य है लेकिन इसकी अति कई बार बड़ी गड़बड़ियों को जन्म देती है |
रचनात्मक साहित्य में इसके चलते बहुत बार यथार्थ की डोर छूट जाती है | रज़्जब अली कहानी पर सवाल उठाते हुए साथी रामायन ने जो मूल सवाल उठाया है कि ‘यह सामंती वैभव के प्रति नास्टेल्जिया की कहानी है’ इस पर राजन विरूप और जगन्नाथ दुबे के विद्वतापूर्ण लेख आए हैं | राजन ने रामायन की आलोचना पद्धति पर सवाल उठाया है और जगन्नाथ दुबे ने रामायन राम की ग्रामीण समाज की समझ को लेकर सवाल उठाए हैं |
इसमें बहुत सी वाजिब बातें हैं जिनसे मेरी सहमति है। जहां तक तकनीकी का सवाल है तो मुझे एक कहावत याद हो आई कि जब चाँद दिखाया जा रहा हो तो अंगुली में नहीं फँसना चाहिए, और वैसे भी रचनात्मक साहित्य को बटखरे से तो परखा नहीं जाएगा । दरअसल यह भी एक तकनीकी ही है कि सकारात्मक पक्ष को सामने रखते हुए कमजोरी पर बात की जाय |
जब रामायन कहानी की प्रामाणिकता की बात कर रहे हैं तो उसमें एक बात तो है ही कि सांप्रदायिकता ग्रामीण समाज में बेतरह घुल रही है और फिर कहानी के और और मुद्दों पर बात की गई है | बहरहाल, मुद्दा यह है कि रज़्जब अली सामंती वैभव के प्रति मोहग्रस्त है अथवा नहीं (रामायन दवारा उठाए गए दलित सवालों को छोड़ते हुए भी ) ? और क्या सांप्रदायिकता के फैलाव और कहानी में सुझाया गया उसका समाधान यथार्थ की जमीन को पकड़ता है या नहीं ? मेरे खयाल से इस मूल विषय को बहस में छोड़ दिया गया है या बहुत कम बात हुई है |
हमारे समाज के बिखरते ताने-बाने को प्रस्तुत करने वाली बहुत मार्मिक कहानी होने के बावजूद रज़्जब अली कहानी के कुछ पहलू असुविधाजनक हैं – पूरी कहानी को एक सामंती परिवेश में घटित होते दिखाया गया है ,जिसमें सामंती शोषण के भी कुछ दृश्य हैं | यहाँ घटित होने वाले सारे संबंध मालिक और प्रजा के संबंध हैं | चूड़िहार ,जुलाहा आदि मुस्लिम जातियाँ भी प्रजा के ही अंतर्गत आती हैं; गांवों में उनका बसेरा इसी रूप में होता रहा है | कुछ बेहतरीन दोस्तियाँ भी होती हैं लेकिन मूल संबंध मालिक और प्रजा का ही रहता है | रज़्जब अली कहानी में जुलाहों की बस्ती जलाए जाने पर ठाकुर अरिमर्दन सिंह आदि में उपजा क्रोध आपसी भाईचारे , स्वतन्त्रता समानता जैसे संवैधानिक मूल्यों की वजह से नहीं उपजा है और न ही उसके मूल में भारतीय संविधान का महान शब्द ‘सेक्युलर’ जिसे कुछ राजनीतिक जमातों ने गाली बना दिया है | तब फिर इस क्रोध का उत्स क्या है ?
क्या यह वही सामंती सोच नहीं है कि ‘अमुक मेरी प्रजा है और मेरे रहते कोई दूसरा उसे हाथ नहीं लगा सकता’ |
कहानी यह भी बताती है कि षड्यंत्र में गाँव का कोई व्यक्ति शामिल नहीं था और गाँव के पुजारी पर अत्याचार के माध्यम से वह दंगाइयों के धार्मिक संबंध पर भी सवाल उठाती है | क्या सब कुछ वास्तव में इतना ही मासूम है ? क्या सांप्रदायिकता का यथार्थ इतना ही उथला और एक रेखीय है जबकि इसी कहानी में लेखक सांप्रदायिकता के फैलाव के कुछ स्तरों की तरफ पहले ही इशारा कर चुका है ? ”अरे रज्जब अली, मैं तुम्हारे टोले से आ रहा हूँ। वहां तुम भी नहीं मिले, पूरा टोला खाली है। लोग कहाँ चले गये?” अरिमर्दन बाबू अपना हाथ रज्जब अली के कन्धे पर रखते हुए बोले। (कहानी से) यहाँ पलायन की पूरी प्रक्रिया दर्ज है बाबू बबुआन के होते हुए | यहाँ कई बातें हैं-पूरा मोहल्ला खाली हो गया, अरिमर्दन सिंह जैसे सांप्रदायिकता से लड़ने वाले को पता ही नहीं … पूरे मोहल्ले को तनिक भी भरोसा नहीं गाँव के बबुआ लोगों पर और देखिए मोहल्ला तो जलता ही है | कहानी यहाँ एक प्रामाणिक पाठ रचती है लेकिन जैसे ही पूरे गाँव को इस हमले के खिलाफ दिखाया जाता है और इसमें गाँव के किसी व्यक्ति के शामिल न होने की बात कही जाती है (हालांकि बाबा जी जरूर कहते हैं कि बिना किसी भेदिए के यह संभव नहीं) कहानी यथार्थ की जमीन को छोड़ देती है |
सांप्रदायिकता का यथार्थ बहुत जटिल है, यह कोई चार दिन में विकसित होने वाली परिघटना नहीं है | पूंजीवाद के साथ इसका नाभि नाल का संबंध है । आज किसी भी गाँव की बुनावट में वह सामंती परिवेश भी नहीं बचा है जिसके जरिए कहानीकार ने सांप्रदायिकता से लड़ने का मंसूबा पाला है | इस कोट को देखिए और विचार कीजिए कि इसके पीछे कौन सी चेतना काम कर रही है “हमसे चूक हो गयी बाबा। हम नहीं समझे कि अब लोग हमारे खून को पतला समझ लेगें।” अरिमर्दन बाबू हाथ मलते हुए बोले, “बाबा, मैं आपके पैर पड़ता हूँ। आज हमारी बदनामी तो बहुत हुई। आपके चले जाने से दुनिया हम पर हँसेगी।” कहानी में आत्मग्लानि पश्चाताप का भी एक बेहतरीन हिस्सा है जो एक संवेदनशील पाठक के रूप मे हमारी आंखे नम कर देता है लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए आज के इस नंगे पूंजीवाद में पापबोध या प्रायश्चित की जगह न के बराबर बची है …हत्याओं पर उल्लास नृत्य हो रहे हैं,गौरी लंकेश से पहलू खान तक सब हमारे सामने है |
‘मलबे का मालिक’ गाँव की कहानी तो नहीं है, शहर के एक मुहल्ले की कहानी है, लेकिन उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है … ‘तमस’ में भी सांप्रदायिकता के विविध स्तरीकरण दिखते हैं, यदि आप लोगों को याद हो तो वहाँ पर एक वर्ग दृष्टि भी दिखती है जब एक अमीर आदमी अपने अमीर दोस्त को दंगाग्रस्त क्षेत्र से निकाल कर ले जाता है लेकिन उसके गरीब नौकर को सीढ़ियों से धक्का देकर वहीं मरने के लिए छोड़ देता है …. 2002 के गुजरात दंगों में तो सांप्रदायिकता एक चरण और आगे बढ़ी हुई दिखती है जब मुसलमानों को बड़े स्तर पर एहसास कराया जाता है कि तुम कुछ भी हो, कितने भी अमीर या राजनीतिक रसूख वाले हो हम तुम्हें मार सकते हैं (याद कीजिए एहसान जाफरी को); मेरठ, कैराना आदि तमाम जगहों पर जहां गांवों में दंगे हुए वहाँ दंगाई कहाँ से आए थे ? किसने उन्हें समर्थन दिया था ? यही कहानी 80 के दशक में लिखी गई होती तो शायद यथार्थ के नजदीक होती लेकिन आज का यथार्थ बदल चुका है । जिन गांवों में मुस्लिम परजा के रूप में हैं वे आज भी अपनी अलग राय बहुसंख्यक जमात के सामने नहीं रख सकते, मसलन चुनाव को ले लीजिए- वे वोट चाहे जिसे दें, कहेंगे वही जो वहाँ का प्रभुत्वशाली वर्ग कहेगा । कल कल के लौंडे बुजुर्गों की दाढ़ी पकड़ कर हिला देते हैं, यह भी उन्हीं गांवों में घटित हो रहा है , आखिर वह कौन सा डर है जो एक अल्पसंख्यक को अपनी बहू बेटी लेकर गाँव से शहर की तरफ या अपने लोगों की तरफ पलायन करने को मजबूर कर रहा है |
इस बात से तो कोई इंकार नहीं कि अभी गांवों में एक हल्का ही सही सहसंबंध बना हुआ है | बड़ी संख्या में लोग दंगे फसाद को पसंद नहीं करते, उसके खिलाफ ही रहते हैं, लेकिन जिस तरह से जहर फैल रहा है और वह एक बहुत लंबे समय- लगभग 150 सालों से विविध रूपों में समाज की जड़ों में फैल रहा है, ऐसे में एक अफवाह पर किसी की हत्या या बस्तियों का जला दिया जाना (उसी गाँव के लोगों द्वारा ) कौन सी बड़ी बात है ? आखिर यही सामंती समाज जरा सी चुनौती मिलने पर अपने ही गाँव मे बसे दलितों व अन्य जातियों के घर जलाता रहा है , उनकी बहू बेटियों का बलात्कार करता ही रहा है तो फिर वह सांप्रदायिक सद्भाव का इतना बड़ा झंडाबरदार कैसे हो जाएगा ? ग्रामीण सामज की जिन्हें बेहतर समझदारी है वे इस सवाल से तो दो-चार हुए ही होंगे ।
दरअसल सत्ता द्वारा प्रायोजित भयानक ध्रुवीकरण के समक्ष इस बात की उम्मीद करना कि गाँव का बचा खुचा सामंती ढांचा सांप्रदायिकता से लड़ लेगा, या उसकी मधुर स्मृति में खोना समस्या से आँख मूँदना ही है न कि उसके यथार्थ से टकराना | सवाल तो यह भी रहेगा कि एक आधुनिक लोकतान्त्रिक समाज में आप सांप्रदायिकता का मुक़ाबला किस औज़ार से करेंगे ? कहानी इसका क्या उत्तर देती है ? मेरे खयाल से उसका उत्तर सीन के बाहर चला गया है, बाकी आप लोग भी कहानी बांचिए –
क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की ||
कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर जाएँ-
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