नई दिल्ली। सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) ने जिला अस्पतालों को निजी क्षेत्र को सौंपने की नीति आयोग की योजना का विरोध करते की इससे जन-स्वास्थ्य मजबूत नहीं बल्कि और अधिक कमजोर होगा।
पार्टी की ओर से डॉ संदीप पाण्डेय, सुरभि अग्रवाल, बाबी रमाकांत द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि नीति आयोग के अनुसार, उसका यह सार्वजनिक – निजी – साझेदारी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) प्रस्ताव वैश्विक अनुभव पर आधारित है पर हमारा मानना है कि सार्वजनिक – निजी – साझेदारी कुल मिला कर निजीकरण ही है और समाज के हाशिये पर रह रहे लोग इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, और सरकारी सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा मिलता है। इसीलिए सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया), जन-स्वास्थ्य प्रणाली के निजीकरण के हर प्रयास का विरोध करती है।
बयान में कहा गया है कि विश्व (और दक्षिण एशिया) में, भारत का स्वास्थ्य का बजट अत्यंत कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुसार, देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 4-5 प्रतिशत, स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए। परन्तु भारत वर्तमान में अपने जी.डी.पी. का 1.4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यदि स्वास्थ्य से तुलना की जाये तो बजट का 10 प्रतिशत भारत में रक्षा पर खर्च होता है। भारत सरकार की 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का लक्ष्य है कि 2025 तक, स्वास्थ्य पर खर्च जी.डी.पी. का 2.5 प्रतिशत हो जाये, जो अत्यंत कम है। अनेक अफ्रीकी देश, बजट का 15 प्रतिशत स्वास्थ्य पर व्यय कर रहे हैं.
राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में, स्वास्थ्य जैसी मौलिक आवश्यकता पर खर्च अनेक गुणा बढ़ाने के बजाये, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कमियों को दूर करने के लिए, निजीकरण का रास्ता सुझाया जा रहा है। यह भले ही, अमीर वर्ग के लिए सुविधाजनक रहे पर अधिकाँश लोगों, विशेष करके, जो सामाजिक हाशिये पर हैं, उनको जन-स्वास्थ्य सेवा का लाभ उठाने से वंचित करेगा। असंतोषजनक शासन और स्वास्थ्य में अत्यंत कम निवेश का ही नतीजा है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएँ अपर्याप्त हैं, स्वास्थ्य केंद्र में स्वास्थ्य कर्मियों की कमी है, स्वास्थ्य कर्मी पर अधिक काम का बोझ है और उनकी कार्यकुशलता असंतोषजनक है। निजीकरण से सतही सुधार भले ही हो पर दीर्घकालिक और स्वास्थ्य सुरक्षा की दृष्टि से, अत्यंत क्षति हो रही है। निजीकरण के कारण, जीवन रक्षक स्वास्थ्य सेवाएँ सबसे जरूरतमंद लोगों की पहुँच से बाहर हो रही हैं। सभी को महंगी हो रही स्वास्थ्य सेवाएँ, दवाएं, आदि झेलनी पड़ रही हैं, और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और सतत विकास लक्ष्य के वादों पर भी हम खरे नहीं उतर रहे हैं।
दलित, आदिवासी, महिलाएं, अल्पसंख्यक एवं अन्य वर्ग जो समाज में सामाजिक-आर्थिक-जाति-लिंग-धर्म आदि के आधार पर शोषण और बहिष्कार झेलते हैं, वही जन-स्वास्थ्य सेवाओं से भी अक्सर वंचित रहते हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से आते हैं। इसीलिए यह जरूरी है कि सरकार, हर इंसान के लिए सभी मौलिक सुविधाएँ मुहैया करवाने से न पीछे हटे और उनके निजीकरण पर पूर्ण-विराम लगाये। स्वास्थ्य सेवा प्रदान करना व्यवसाय नहीं है और इसीलिए मुनाफे से प्रेरित वर्ग, इसको ‘सबके लिए स्वास्थ्य सुरक्षा’ प्रदान करने का नारा दे ही नहीं सकते।
दुनिया में सारी जनता के लिए सबसे मजबूत स्वास्थ्य सुरक्षा वाले देशों को देखें तो वहां स्वास्थ्य प्रणाली सार्वजनिक है। भारत में भी, केरल और दिल्ली प्रदेश सरकारों ने निरंतर प्रयास करके सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली सुधारी है। वर्त्तमान दिल्ली सरकार ने 200 से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में निवेश को बढ़ा कर, मोहल्ला क्लिनिक के माध्यम से जहाँ पर्याप्त स्वास्थ्यकर्मी और सेवा उपलब्ध कराई हैं, जन-स्वास्थ्य में सुधार किया है। 2019 में दिल्ली प्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य बजट पर 14 प्रतिशत खर्च किया था। आशा है कि नीति आयोग स्वास्थ्य में निजीकरण पर रोक लगाएगा।