2019 में आक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से मैट विडाल, टोनी स्मिथ, तोमास रोट्टा और पाल प्रेव के संपादन में ‘द आक्सफ़ोर्ड हैंडबुक आफ़ कार्ल मार्क्स’ का प्रकाशन हुआ । संपादकों की प्रस्तावना के बाद किताब के छह भागों में चालीस लेख शामिल किए गए हैं । पहले भाग के उन्नीस लेख मार्क्स की बुनियादी कोटियों पर केंद्रित हैं । दूसरे भाग में पांच लेख हैं जिनमें मजदूर, वर्ग और सामाजिक विभाजनों का विवेचन है । तीसरे भाग के तीन लेख पूंजीवादी राज्य और उसके दिशाकाश पर विचार करते हैं । चौथे भाग में भी पांच लेख हैं जिनमें पूंजीवाद के केंद्रकों में पूंजी संचय, संकट और वर्ग संघर्ष की छानबीन की गई है।
पांचवें भाग में फिर पांच लेख हैं जिनका विषय हाशिये और अर्ध हाशिये के मुल्कों में पूंजी संचय, संकट और वर्ग संघर्ष है। अंतिम छठवें भाग के तीन लेख पूंजीवाद के विकल्पों का खाका पेश करते हैं। संपादकों का प्रस्तावना में दावा है कि इक्कीसवीं सदी में भी मार्क्स के विचारों और सिद्धांतों की प्रासंगिकता सदा की तरह कायम है। उनके देहांत के बाद उनके विचारों का असर राजनीति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, इतिहास, दर्शन, भूगोल, मानवशास्त्र, कानून, पारिस्थितिकी, साहित्य अध्ययन, जन संचार और प्रबंधन पर भी पड़ा। उनको दफ़नाने की कोशिशों से उनकी ताकत का पता चलता है । पूंजीवाद की उनकी गहन आलोचना का आज भी कोई सानी नहीं है ।
इस आलोचना के चलते अर्थतंत्र, संस्कृति और राजनीति के संगठन का भीतरी तर्क और उसकी संरचना अनावृत हो जाती है । इन गहरी संरचनाओं को उजागर करने के बाद मार्क्सवाद चुनौतियों पर जीत पाने का रास्ता सुझाता है । इसके लिए उन्होंने मौजूदा सामाजिक संरचनाओं की आलोचना के साथ साथ विचारधारा और मनुष्य की रचनात्मक भूमिका का विश्लेषण किया। मानव अभिकर्ता के ठोस रूप में मजदूर वर्ग को पूंजीवाद के पार ले जाने में सक्षम समूह स्वीकार किया।
आज के समय मार्क्सवाद की प्रासंगिकता का कारण संपत्ति की विषमता और शोषण, कार्य स्थल पर और समाज में अलगाव, वित्त, वित्तीकरण और वैश्वीकरण जनित अस्थिरता, भंगुर संसदीय लोकतंत्र को खतरे में डालने वाली राजनीतिक उथल पुथल, लैंगिक और नस्ली उत्पीड़न, जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण का विध्वंस, साम्राज्यवाद, मौद्रिक कटौती, प्रवासी संकट, बेरोजगारी तथा रोजगार की असुरक्षा हैं । पूंजीवाद के प्रत्येक बड़े संकट ने मार्क्स के विचारों में रुचि बढ़ाई । ऐसा 1857, 1873, 1929, 1973 और 2008 में हुआ ।
मार्क्सवाद के आलोचकों ने तो 1991 में सोवियत संघ के पतन के साथ ही उसे मृत घोषित कर दिया था और चीन के पूंजीवादी रूपांतरण की भविष्यवाणी कर दी थी । विडम्बना यह कि सोवियत संघ के पतन और चीन के पूंजीवाद की ओर बढ़ने के साथ पूंजीवाद के बारे में मार्क्स की बात सही साबित हुई । वह ऐसा विश्व बाजार बना जिसमें सामाजिक जीवन का प्रत्येक पहलू विक्रेय माल में बदल गया । 1840 दशक में मार्क्स ने जिस वैश्वीकृत वित्तीय विषमतापूर्ण अर्थतंत्र का पूर्वानुमान किया था वह इक्कीसवीं सदी में प्रकट हुई है । इसमें अंतर्विरोधों, टकरावों और संकटों समेत पूंजीवादी विकास के उनके बताए सभी नियम मौजूद हैं।
उन्होंने जिन सामाजिक संरचनाओं और अंतर्विरोधों की बात की थी वे वैश्विक स्तर पर खुल रहे हैं । माल की व्याप्ति और मुनाफ़े की पागल आकांक्षा से कुछ भी और कोई भी अछूता नहीं बचा है । पूंजीपति वर्ग वैश्विक संपदा के अधिकाधिक हिस्से पर कब्जा करता जा रहा है । अनंत वृद्धि और अपार संचय की पूंजीवादी होड़ ने जलवायु परिवर्तन और आसन्न पार्यावरणिक विनाश को जन्म दिया है । जब तक समाज पूंजीवादी रहेगा तब तक उसके सर्वाधिक गहन विश्लेषक और क्रांतिकारी आलोचक के बतौर मार्क्स भी प्रासंगिक बने रहेंगे ।
जैसे जैसे मार्क्स में लोगों की रुचि बढ़ रही है उसी के समानांतर शक्षिक जगत में भी उनके विचारों के बारे में जिज्ञासा का प्रसार हो रहा है । हालिया वित्तीय संकट से पहले ही यह दिखाई देने लगा था । गूगल पर उनके बारे में सूचना खोजने वालों की संख्या 1977 से 1995 के बीच हर साल 1551 से 2208 के बीच रही है । 2005 में यह संख्या 7993 हो गई तो 2015 में 20136 । इसके बाद के दो सालों में इस संख्या में हल्की गिरावट देखी गई है । लगता है कि 1970 और 1980 के दशक में मार्क्सवाद संबंधी रुचि में कमी की वजह कुछ 1968 के विद्रोही आंदोलनों की पराजय और कुछ पूंजी के खुले वर्गीय हमले के समक्ष मजदूर वर्ग आंदोलन का बिखराव था । पूंजी ने यह हमला मुनाफ़े की गिरती दर को थामने और अवरोध से पार पाने के लिए 1970 दशक में किया था । एक और वजह सोवियत और चीनी समाजवाद का भरोसेमंद विकल्प के बतौर उभर न पाना भी थी ।
मार्क्स ने अपनी शब्दावली भी बनाई थी जिसका उपयोग मार्क्सवादी लोग आसानी से कर लेते हैं । उपयोग मूल्य, विनिमय मूल्य या द्वांद्वात्मक भौतिकवाद जैसी शब्दावली को समझना नए लोगों के लिए मुश्किल होगा । ऐसी स्थिति में संपादकों के अनुसार यह सहायिका नए जिज्ञासु के साथ किसी विशेषज्ञ के लिए भी मददगार हो सकती है । मार्क्स के बौद्धिक प्रसार की अंतरअनुशासनिकता को देखते हुए सहायिका में दार्शनिकों और इतिहासकारों के साथ समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और राजनीतिविदों से भी लिखवाया गया है । सहायिका में विवेचित विभिन्न विषयों का परिचय देने से पहले संपादकों ने मार्क्स की संक्षिप्त बौद्धिक जीवनी प्रस्तुत की है ।
इस जीवनी में उनकी पद्धति पर विशेष ध्यान दिया गया है क्योंकि उनके शोध की शैली उनके निष्कर्षों से कम महत्व की नहीं है । कह सकते हैं कि इस पद्धति के कारण उनका लेखन दीर्घजीवी और प्रासंगिक बना हुआ है । जब उनका जन्म हुआ था उस समय त्रिएर में पुलिस निगरानी और उत्पीड़न आम बात थी । उनके स्कूल पर पुलिस का छापा पड़ा था और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिए होने वाली सभा के चलते एक विद्यार्थी गिरफ़्तार हुआ था तथा प्रधानाध्यापक को निगरानी में रखा गया था । उच्च शिक्षण में कवि सभा में शामिल हुए जो राजनीतिक बहसों के लिए छद्म नाम से बनाई गई थी । पिता ने बर्लिन विश्वविद्यालय भेजा जहां पारिवारिक पेशे कानून के बदले दर्शन की ओर झुकाव पैदा हुआ। हाल में ही गुजरे हेगेल के आरम्भिक लेखन के विध्वंसक पहलू को सामने लाने के लिए प्रतिबद्ध समूह में शामिल हो गए । ये लोग नास्तिकता, लोकतंत्र और गणतांत्रिकता की वकालत करते थे। बर्लिन में शोध के लिए निर्धारित चार साल पूरे हो चुके थे लिहाजा जेना विश्वविद्यालय में शोध प्रबंध जमा करके उपाधि अर्जित की । शिक्षा जगत में इस समूह के किसी भी सदस्य को जगह नहीं मिली थी इसलिए सभी स्वतंत्र लेखक बने या पत्रकारिता में जमे ।
मार्क्स भी राइनिशे जाइटुंग से जुड़े । उन्होंने इसे युवा हेगेलपंथियों का मुखपत्र बना दिया । प्रेस की आजादी, नास्तिकता, जंगल की लकड़ी पर स्थानीय लोगों के अधिकार, तानाशाही का विरोध और मोजेल घाटी के किसानों की गरीबी और दुर्दशा के लिए प्रशियाई राज्य की जिम्मेदारी जैसे विषयों को उठाया । उनके संपादक बनने के साल भर बाद अखबार को बंद कर दिया गया ।
मार्क्स पेरिस चले आए और फ़्रांसिसी तथा जर्मन क्रांतिकारियों के बीच संवाद विकसित करने के लिए एक पत्रिका निकालने की योजना बनाई । एक अंक निकलकर पत्रिका बंद हो गई क्योंकि प्रशिया ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया और जर्मनी आने वाली प्रतियों को जब्त कर लिया । साथ ही मार्क्स तथा पत्रिका से जुड़े अन्य लोगों के लिए वारंट जारी कर दिया । इस एक अंक में मार्क्स के दो और एंगेल्स के भी दो लेख शामिल थे । इनमें से एक राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना की रूपरेखा था । इसी लेख ने मार्क्स की गवेषणा का क्षेत्र बदल दिया । एंगेल्स के साथ पत्र व्यवहार हुआ और मुलाकात भी हुई । दोनों के बीच जीवन भर की दोस्ती का आरम्भ हुआ ।
वहीं रहते हुए ‘हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना’ में पहली बार जर्मन तानाशाही को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांति की जरूरत बताई । इसमें ही पहली बार वर्ग विश्लेषण दिखाई पड़ा और मनुष्य की सार्वभौमिक मुक्ति के लिए सर्वहारा की मुक्ति को पूर्वशर्त घोषित किया । फिर यहूदी प्रश्न पर लिखते हुए पहली बार मानव मुक्ति के लिए पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने की बात की । ‘पूंजी’ के दूसरे जर्मन संस्करण के पश्चलेख में उन दिनों को याद करते हुए मार्क्स ने बताया कि हेगेल की आलोचना करते हुए भी उनके द्वंद्ववाद का गहरा असर उन पर था जिसके मुताबिक ज्ञान के विकास के लिए सैद्धांतिक मान्यताओं के अंतर्विरोधों की परीक्षा करनी होती है और उन पर विजय पानी होती है ।
मार्क्स के मुताबिक हेगेल के दर्शन में भौतिक यथार्थ, विचार का साकार रूप था, लेकिन इस मान्यता के विपरीत मार्क्स ने माना कि विचार, मानव मस्तिष्क द्वारा प्रतिबिम्बित और चिंतन में अनूदित भौतिक यथार्थ होता है । उनका यह भी मानना था कि सामाजिक यथार्थ की सही समझ के लिए अध्ययन की विषयवस्तु के आंतरिक संबंधों का गहन विश्लेषण जरूरी होता है, तभी उसकी समग्रता में उसे ग्रहण किया जा सकता है ।
पेरिस में ही उन्होंने पूंजीवाद का अध्ययन शुरू कर दिया था । इसका फल ‘आर्थिक और दार्शनिक पांडुलिपियां’ है । इनमें मौजूद अलगाव की उनकी धारणा सबसे अधिक मशहूर हुई । इसमें उन्होंने अपरिवर्तनीय मानव स्वभाव की जगह पर मानव प्राणी की ऐसी धारणा प्रस्तुत की जो सृजनात्मक मानव श्रम के रूप में खुद को सामाजिक तौर पर व्यक्त करता है । प्रकृति के साथ प्रत्यक्ष अंत:क्रिया के जरिए ही मनुष्य की सचेतन सृजनात्मक जीवनक्रिया प्रकट होती है । पूंजीवादी अर्थतंत्र इसी मानव सार से लोगों अलग कर देता है । पगारजीवी श्रमिक चार किस्म के अलगाव का शिकार होता है- अपने श्रम के फल से, उत्पादन प्रक्रिया से, मानव सार से और एक दूसरे से। इसी अलगाव का नतीजा निजी संपत्ति होती है । इस अलगाव के बिना पूंजीवादी अर्थतंत्र नहीं रह सकता है । अपनी पत्रकारिता के चलते फ़्रांस से देश निकाला हुआ । उन्हें बेल्जियम जाना पड़ा और वहां के अखबारों में समकालीन राजनीति के बारे में कुछ भी न लिखने का वादा करना पड़ा ।
एंगेल्स के साथ जो अगला काम किया उसका नतीजा ‘जर्मन विचारधारा’ थी । उसमें अपने ऐतिहासिक भौतिकवादी नजरिए को ठोस रूप देना शुरू किया । इससे पहले मार्क्स ग्यारह सूत्री ‘फ़ायरबाख थीसिस’ को कलमबद्ध कर चुके थे । शोध और व्यावहारिक राजनीति में संतुलन साधते हुए ‘कम्युनिस्ट पत्राचार समिति’ बनाई । अगले साल ही वे ‘कम्युनिस्ट लीग’ में शामिल हुए और इसके लिए ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ तैयार किया। इसमें उनके आगे के काम की सूचना देने वाली धारणाओं के दर्शन होते हैं । घोषणापत्र की प्रवाहपूर्ण शैली के चलते इन धारणाओं पर नजर नहीं पड़ती । काम के घंटे, श्रम की तीव्रता, मजदूर पर मशीन की प्रभुता और अतिउत्पादन जनित संकट की पूंजीवादी प्रवृत्ति जैसी धारणाओं का विकास उन्होंने आगे किया । इसके प्रकाशन के बाद बेल्जियम भी छोड़ना पड़ा । जर्मनी वापस आकर न्यू राइनिशे जाइटुंग शुरू किया और अखबार 1848 की यूरोपव्यापी क्रांतियों का मुखपत्र बन गया । फिर फ़्रांस भागना पड़ा और वहां से आखिरी शरण के बतौर लंदन ।
लंदन में आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का लगातार सामना करना पड़ा । एंगेल्स ने निरंतर आर्थिक मदद की लेकिन सेहत ने साथ छोड़ना शुरू कर दिया । पत्नी को चेचक हो गई । वे ठीक तो हुईं लेकिन मार्क्स के काम की गति मंद पड़ गई । तमाम दिक्कतों से जूझते हुए भी मार्क्स ने अपना सैद्धांतिक काम जारी रखा और तब तक के लगभग सभी अर्थशास्त्रियों का लिखा छान मारा । पूंजीवाद की उनकी समझ ने सरकारों को तो उनका दुश्मन बना ही डाला था उनके कुछ साथी भी उनसे अलग हो गए । लंदन में रहते हुए ही 1848 की क्रांतियों की समीक्षा करते हुए ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर’ लिखी । इसमें उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवादी पद्धति को घटनाक्रम के विश्लेषण में लागू किया । लंदन में ही जीवन के सबसे विशाल काम ‘पूंजी’ की तैयारी की और एक मसौदा लिखा । इसे ‘ग्रुंड्रिस’ के नाम से जाना जाता है । इसमें उन्होंने अपनी पद्धति के बारे में स्पष्ट किया । दार्शनिक पृष्ठभूमि, ज्ञान की अतृप्त प्यास और विस्तृत विवरण को मेहनत के साथ सहेजने के चलते उनका विश्लेषण सबसे विशेष साबित हुआ । खुद के लिखे से संतुष्ट न होने की आदत के चलते ‘पूंजी’ के प्रकाशन में पर्याप्त विलम्ब हुआ । इसी बीच हेर फ़ोग्ट ने भी बेवजह ढेर सारा समय लिया । लिखाई के दौरान भी राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे । सबूत इंटरनेशनल में उनका काम है । इसमें ही बाकुनिन से उनका मतभेद हुआ जो क्रांतिकारी कार्यवाही को सैद्धांतिक काम से अलग और अधिक महत्वपूर्ण मानते थे ।
मार्क्स ने तीन साल लगाकर 1472 पृष्ठों की पांडुलिपि तैयार की जिसके आधार पर ‘अर्थशास्त्र की आलोचना में एक योगदान’ से शुरू होकर ‘पूंजी’, ‘भू-संपत्ति’, ‘पगारजीवी श्रमिक’, ‘राज्य’, ‘विदेश व्यापार’ और ‘विश्व बाजार’ शीर्षक किताबें लिखी जानी थीं । बाद में उन्होंने योजना में कुछ बदलाव किया और लगकर ‘पूंजी’ के तीन खंडों की पांडुलिपि तैयार की । छपाई के लिए पहले खंड को आखिरी रूप देते हुए भी शोध जारी रखा । बाद के संस्करणों में उन्होंने संशोधन और परिष्कार जारी रखा । आखिरकार तीसरे संस्करण के लिए संशोधन के पूरा होने और दूसरे तथा तीसरे खंड को आखिरी रूप देने से पहले ही उनका देहांत हो गया । बाद में एंगेल्स ने शेष दो खंड संपादित करके छपवाए ।
अब नई नोटबुकों के मिलने और छपने से उनके लेखन पर नई रोशनी पड़ रही है । जिन किताबों को वे पढ़ते थे उनसे नोट लेने की उनकी आदत के चलते उनके गवेषणा के तरीके को समझने में आसानी हुई है । कृषि विज्ञान में रुचि होने के कारण मृदा विज्ञान की खोजों के आधार पर उन्होंने ‘पूंजी’ के बाद के संस्करण में संशोधन किए थे । पहले खंड की छपाई के बाद के शोधों में उन्होंने स्थानीय जलवायु पर मानव गतिविधि के असर संबंधी मान्यताओं पर ध्यान दिया था । उनकी नोटबुक में जंगल की कटाई से तापमान और बारिश पर पड़ने वाले प्रभाव का उल्लेख है । पशुओं को बांधकर रखने से उनकी सेहत में आने वाले बदलावों का भी जिक्र इनमें है । इन नोटबुकों से उनके शोध संबंधी परिश्रम का पता चलता है । अपनी परियोजना वे पूरी नहीं कर सके । असल में जो काम उन्होंने अपने लिए तय किया था उसे पूरा करना एक आदमी के लिए सम्भव भी नहीं था।
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